हाल ही में अमृता प्रीतम की कहानी ‘गांजे की कली’ पर आधारित फिल्म ‘गांजे की कली’ देखी। इस फिल्म के निर्देशक डॉ. योगेंद्र चौबे हैं, जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं और वर्तमान में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में प्रोफेसर हैं। फिल्म का शीर्षक ‘गांजे की कली’ अपने-आप में बहुत आकर्षक है। फिल्म में जगह-जगह इसका जिक्र भी है और इसी के इर्द-गिर्द नायिका की त्रासदी भी घूमती है। अमृता प्रीतम ने इस कहानी के द्वारा जिस स्त्री-विमर्श को उठाया था, उस विमर्श को यह फिल्म और अधिक विस्तार देती है। नायिका के रूप में नेहा सराफ का अभिनय प्रशंसनीय है।
नेहा जी का एक नाटक मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भी देख चुकी हूँ । (हालाँकि नाटक का नाम याद नहीं आ रहा!) अन्य प्रमुख पात्र हैं – दुर्वेश आर्य (सरदार जी), कृष्णकांत तिवारी (रंगीलाल), उपासना वैष्णव (अघनिया की माँ), दीपक तिवारी, धीरज सोनी, पृथा चंद्राकर एवं पूनम तिवारी। 90 मिनट की अवधि वाली यह फिल्म दर्शक को पूरे समय बाँधे रखने में सक्षम हैं। शुरुआत में एक बच्ची अघनिया के बनी-बनाई व्यवस्था के खिलाफ विद्रोही तेवर नजर आ जाते हैं। वह अपने नाम को रखने का कारण पूछती है। माँ बताती है कि ‘अगहन मास’ में पैदा होने से उसका वो नाम पड़ा तो कहती भी है- “जेठ में पैदा होती तो जेठिया रख देते और भादों में तो क्या भद्दी ?” वह अपना नाम बदलना चाहती है और बदल भी लेती है। बकायदा पंडित जी के मंत्रोच्चारण के साथ अपना नाम ‘चंदैनी’ रख लेती है।
लड़के को लड़की और लड़की को लड़का अच्छा लगता है.. अपनी सहेली से खुलकर इस पर बात करती है। लड़कों को देखकर घबराती नहीं बल्कि बराबर मानकर मज़ाक करती है। अघनिया का हमउम्र विष्णु उसे अंग्रेजी चॉकलेट लाकर देता है तो बिना शर्माए लेती है, यह चॉकलेट शादी के बाद अपनी ससुराल में भी उससे लेती है और अन्त में गाँव वापिस आने पर भी। वो कहीं से भी अपने को लड़कों से कम नहीं मानती। उनके साथ कबड्डी का खेल भी खेलती है, गिल्ली-डंडा भी खेलती है। इसी घटनाक्रम से स्त्री-विमर्श की नींव पड़ जाती है। स्त्री अस्मिता, स्त्री विमर्श, समाज की चाल को दिखाती अमृता प्रीतम की इस अद्भुत कहानी का फिल्मांतर भी अद्भुत है – साहित्य और सिनेमा – दोनों विधाओं की दृश्यता को बरकरार रखते हुए। फिल्म के रूप में ‘गांजे की कली’ का यह रूपांतरण मन-मस्तिष्क को झिंझोड़कर रख देता है।
फिल्म की शुरुआत से लेकर अन्त तक निर्देशक ने लोक संगीत के माध्यम से छत्तीसगढ़ी आत्मा को जीवित रखा है और यह मनोहर संगीत दिया है श्री चंद्रभूषण वर्मा ने। फिल्म के गीत भी प्रभावित करते हैं। छत्तीसगढ़ की भाषा का प्रयोग भी किया गया है- ‘इमली मोरो बिहा करन को मन नहीं होत’- छत्तीसगढ़ी प्रभावशीलता के साथ सम्प्रेषण में कहीं भी बाधक नहीं बनती। वैसे अंग्रेजी भाषा के सबटाइटल भी मौजूद हैं। सरदार जी अपने पंजाब के अनुसार उर्दू और पंजाबी शब्दों का प्रयोग करते हैं।निर्देशक स्वयं छत्तीसगढ़ में कार्यरत हैं वहां की भाषा से अच्छी तरह परिचित है उसी सूझ-बूझ का प्रयोग फिल्म में भाषा और संगीत के रूप में दृष्टिगोचर होता है।
अघनिया का विवाह उसके पिता अपने साथ नशा करने वाले 47 साल के व्यक्ति रंगीलाल के साथ तय कर देते हैं। उसकी माँ जब अधेड़ उम्र का हवाला देती है तो पिता बोल उठते हैं – ‘मरद की उमर नहीं देखि जात, अकल देखि जात’। ‘दुहाजू’- माँ कहती है। जब वह कहती भी है कि इस बात के लिए मन नहीं मानता तो वह कहता है ‘मन नहीं मानता तो भाड़ में जा’। दरअसल ये भाड़ में जाना स्त्री की इच्छाओं, भावनाओं को अग्नि में झोंकने का रूप है। उसका अपना कोई मन हो ही नहीं सकता। अगर होने की कोशिश भी करेगा तो उस मन को ‘भाड़ में’ जलने के लिए-भुनने के लिए जाना ही होगा; और इस आग में अघनिया भी जलती है तभी तो उसे विवाह वाले दिन तक भी यह पता नहीं होता कि उसकी शादी किसके साथ हो रही है।
लेकिन अघनिया तो अघनिया ठहरी, नज़र उतारकर चावल पीछे पति के मुँह पर फेंक देने में वही दबी आवाज का विद्रोह है जिसे निर्देशक योगेन्द्र चौबे ने बखूबी प्रस्तुत किया है। तभी तो पति के मना करने पर भी नहीं मानती और तालाब पर ही नहाना पसन्द करती है; अपने गाँव की तरह।वहीं तालाब के पास सरदार जी से पहली मुलाकात होती है। वह बड़े बाज़ार का पता पूछते हैं और अघनिया उनका पता पूछ बैठती है। यह साइकिल पर कपड़े बेचते थे, फिर उनसे दूसरी मुलाकात हाट में, उसके बाद घर के सामने वाले मंदिर में। वो रात को वहीं मंदिर के बाहर सोता और खाता है। अघनिया मन ही मन उसे पसंद करने लगी थी तभी तो सहेली नौकरानी के हाथ, सरदार जी के लिए सब्जी-रोटी भिजवाती है।
ससुराल में उसकी सहेली बनी, उम्र में बड़ी नौकरानी जो उसका दुख-दर्द समझती है।सहेली नौकरानी जानती है कि उसे सरदार जी अच्छे लगते हैं और उन दोनों के बीच उम्र का फासला भी अधिक नहीं है। तभी वो एक रात अघनिया को उन सरदार जी के साथ भगा देती है। रात तो निकल जाती है लेकिन सुबह निकल नहीं पाती,अगले दिन उसका पति ढूँढता फिरता है। एक गांव में वह मिल जाती है, पंचायत बैठती है। अनेक प्रश्न उठते हैं, पिता और पति की भी बात होती है। वो अघनिया भरी पंचायत में निर्भीकता से अपने पति के साथ जाने से इनकार कर देती है और कहती है- ‘मैं 18 वर्ष की, 47 वर्ष के पुरुष से मेरी शादी कर दी गई।
गाँव में पंचायत और उसके भावी फैसले को लेकर चर्चा है, अघनिया के पक्ष-विपक्ष में तर्क आ रहे हैं। अगले दिन जब शाम को पंचायत की कार्यवाही शुरू होती है तो पंच पहली गलती पिता की तो मानते हैं लेकिन अघनिया के पिता द्वारा उसकी मजबूरी ‘लकवा लगा हुआ है’- का बखान करने पर सन्तुष्ट हो जाते हैं। दूसरी गलती उसके पति की जो कम उम्र की लड़की से शादी की, लेकिन वह भी अपराध मुक्त सिद्ध होता है पुरुषों की पंचायत में। तब न्याय-अन्याय की सुईं अघनिया की तरफ घूमती है। फैसला होता है कि हेमसिंह (सरदारजी) दस हज़ार रुपये अघनिया के पति को दें और अघनिया को पूरी ज़िंदगी अपनी पत्नी बनाकर सुखी रखें।
लेकिन हेमसिंह पैसे देने में असमर्थता जाहिर करता है तब अघनिया अपने हाथों में पड़े सोने के कंगनों का जोड़ा उतारकर रकम चुकाने की बात करती है। पंचायत उन कंगनों का मूल्य पता करवाती है, वो पंद्रह हज़ार के हैं तो, दस हज़ार जुर्माने का भरकर बचे पैसे दे दिए जाते हैं अघनिया को। लेकिन सरदार कंगन देने से एक बार भी नहीं रोकता; यह बात खटकती है।
कहानी को परत-दर-परत प्रस्तुत करना निर्देशकीय कौशल का परिचायक है इसीलिए कैमरा हर उस जगह घूमा है जो जगह दिखानी ज़रूरी थी, दृश्यता की माँग करती थी। इसीलिए उन दोनों के द्वारा अपना घर बसा कर रहने के दृश्य को लम्बा नहीं खींचा है। कहानी के महत्वपूर्ण हिस्से पर ध्यान केंद्रित किया है, वो है जब एक दिन उनके घर एक चिट्ठी आती है। चिट्ठी सरदार जी के लिए थी, अघनिया सम्भालकर रख देती है। उसी दिन उसको यह भी आभास होता है कि वो माँ बनने वाली है। बड़ी बेसब्री से सरदार जी का इंतज़ार करती है यह खुशखबरी बताने के लिए।
अघनिया के कारण पूछने पर बताते हैं कि उसकी पहले भी शादी हो चुकी है पंजाब में और एक दस साल का बेटा भी है। बेटे का एक्सीडेंट हो गया और वो सरदार को याद कर रहा है। वो जाने को कहती है, उसका सामान भी बाँध देती है। कहीं-न-कहीं उसे अहसास है कि अब सरदार जी वापिस नहीं आएँगे। सरदार पैसा न होने की बात करता है तो अघनिया पंचायत से मिले, बचे हुए पाँच हज़ार रुपये दे देती है। सरदार जी चले जाते हैं और अघनिया टूट जाती है लेकिन सबसे ज्यादा वो उस बात से टूटती है जो सरदार जी बोलकर गए ‘अगर मुझे कहीं आने में देर हो गई तो तू क्या करेगी? एक काम कर, तू रंगीलाल के पास जा ! वो भी तो तुझसे प्यार करता है न ….. और उससे बोल, तेरे पेट में उसका बच्चा है।
उसको बोल कि जब तू मेरे पास आई थी तो गर्भवती थी, तू तो मेरे साथ सोई ही नहीं।’ अघनिया यह सुनकर मुस्कुरा उठती है। यह मुस्कान दर्द और कठोर निर्णय की है। तभी तो वह कहती भी है कि वो चिंता न करे, उसके बच्चे को बाप की ज़रूरत नहीं। सरदार जी लौट जाते हैं पंजाब और अघनिया रोती, टूटती-बिखरती अपने को समेटती वापिस पिता के घर चली जाती है। पिता लोक-लाज की बात करके रंगीलाल के साथ पुनः उसे भेजने का प्रयास करते हैं। एवज में रंगीलाल पैसे-जेवर की फरमाइश करता है जिसे लाचार पिता मान भी जाता है लेकिन अघनिया यह सब सुन सहन नहीं कर पाती।
उसकी सहेली से मुलाकात जब दोबारा गाँव में होती है तो सहेली बताती है कि उसका पति मारता-पीटता है, ससुर बुरी नज़र रखता है। लड़-झगड़कर आई है तो अघनिया उसका समर्थन करती है, उसे हौसला देती है। यहाँ बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न अघनिया की सहेली अघनिया से पूछती है कि यह बच्चा जो पेट में है किसका है ? मतलब जानना चाहती है- कौन से मर्द का, मर्द कौन है तुम्हारा रंगीलाल या हेम सिंह लेकिन अघनिया के ज़वाब के कारण, सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल का ज़वाब है। अघनिया कहती है- न तो रंगीलाल, न हेम सिंह। दोनों मेरे सच्चे मर्द नहीं हैं। जो बच्चा मेरे पेट से जन्म लेगा, वही मेरा सच्चा मर्द होगा – ‘मोर बच्चा, मोर मरद’। इसके बाद आया ‘कर्मा’ गीत परिस्थिति के अनुसार बहुत मार्मिक बन पड़ा है।
ऐसा ही उत्तर मूल कहानी की अघनिया उर्फ गुलबत्ती देती है – ‘मैं ही एकर दाई हों,मैं ही एकर दादा’
‘मोर मर्द अबी पैदा नहीं होए ए। जौन बच्चा मोर घर में जनमे,ओई हर मोर मर्द होई। ना तो रंगीलाल मोर सच्चा मर्द ए, अऊ ना हेमसिंह। अब मोर सच्चा मर्द मोर पेट ले जन्मे. ..मोर बच्चा.. मोर मर्द।’
फिल्म का अन्त भी उसी शुरुवाती गीत ‘रामा- रामा…’ से होता है। दस साल का अन्तराल और एक छोटी बच्ची कबड्डी खेलते हुए, कप जीतकर खुशी से भागती हुई अपनी माँ के पास जाती है जो खेतों में काम करवा रही है। बच्ची कहती है – ‘माँ- माँ देख ! मैं ट्रॉफी जीतकर लाई हूँ।’ माँ खुशी से उसे गले लगा लेती है और हाथ पकड़कर चल देती है। यह अघनिया की बच्ची है, उसका ‘मरद’ है जो उसे खुशी दे रही है. गांजे की कली की तरह मसल नहीं रही। छोटी बच्ची का यह दृश्य मूल कहानी से हटकर है क्योंकि उसमें तो अन्त अघनिया के उसी निश्चय के साथ हो जाता है जब वो अपने बच्चे को जन्म देकर खुद ही पालन-पोषण का निर्णय कर लेती है।
निर्देशक ने कहानी का मूल भाव नष्ट किये बिना प्रस्तुति आलेख में थोड़ी स्वतंत्रता ली है। फिल्म में आया वो लड़का ‘विष्णु’ जो अक्सर अघनिया को अंग्रेजी चॉकलेट देता है वह काल्पनिक पात्र है ,इस पात्र के बारे में निर्देशक योगेंद्र चौबे ने स्वीकारा है कि ‘ विष्णु’ की सृष्टि के पीछे उनके ध्यान में ‘इमरोज़’ थे।इसी तरह मूल कहानी में गोदना गुदवाने का प्रसंग नहीं है लेकिन यह भी निर्देशक की कल्पना का साकार रूप फिल्म में आया है और उस प्रसंग को स्वयं निर्देशक ने ही पात्र के रूप में प्रस्तुत होकर निभाया है। नाम बदलने के बाद अघनिया कहानी में ‘गुलबत्ती’ है तो फिल्म में ‘चंदैनी’ बन जाती है।
मूल कहानी में उसके तीन छोटे भाई हैं इसका ज़िक्र लेखिका अमृता प्रीतम ने किया है लेकिन फिल्म में दो छोटे बच्चे सिर्फ एक बार अघनिया के साथ दिखाए तो हैं लेकिन वे उसके भाई हैं ये स्पष्ट नहीं।कहानी में दो गीत हैं और फिल्म में दो से ज्यादा ,इसी तरह कहानी में पँचायत द्वारा सरदार जी के ऊपर लगा जुर्माना 200 रुपये वो ही भरता तो है लेकिन बाद में अघनिया मां से 200 रुपये लाकर उसे दे देती है।क्योंकि जुर्माना भरने से उसका हाथ तंग हो जाता है और हर महीनें अपने माता-पिता को 150 रुपये भेजने में इस बार दिक्कत होती है। फिल्म में बदलते वक्त के कारण 200 रुपये का स्थान 10,000 ने ले लिया है लेकिन मूल कहानी में पैसों के मामले में उसकी झिझक यहाँ स्पष्ट दृष्टिगत हुई है।
इसकी भाषा छत्तीसगढ़ की तो लेकिन कहीं भी अर्थबोध में बाधक नहीं बनती है। अभिनेता-अभिनेत्रियों का उचित चयन इसके उद्देश्य को सिद्ध करने में सहायक ही बनेगा। क्षेत्रीय गीत -संगीत का प्रयोग रचना को जानदार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका मंच पर प्रस्तुतिकरण निश्चित रूप से रुचिकर होगा। कुल-मिलाकर कहें तो इसमें नाटक/रंगमच के तत्त्व आसानी से साकार हो सकते हैं। प्रेमचंद, मोहन राकेश, जयशंकर प्रसाद, कृष्णा सोबती आदि लेखकों की कहानियों और उपन्यासों में छिपे नाटकीय तत्वों को मंच पर साकार होते अक्सर देखा है। फिल्म के निर्देशक डॉ.योगेंद्र चौबे से मेरा विनम्र निवेदन है कि ‘गांजे की कली’ को रंगमंच पर उतारने का बीड़ा उठाएँ।
कहानी में दृश्य तत्व मौजूद हैं तभी सार्थक सिनेमा का सफर तय कर सकी… और मंच पर जब यह ‘कहानी का रंगमंच’ बनकर प्रस्तुत होगी, प्रेक्षक का इससे प्रत्यक्ष मिलन होगा तो नई रंगानुभूति की सृष्टि होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
कुल मिलाकर ‘गांजे की कली’ फिल्म में जगह-जगह उस गांजे की कली का जिक्र है जिसे स्त्री से जोड़ लिया जाता है और फिर वो त्रासदी भी रेखांकित है जब वह प्रेम और उसकी पीड़ा से स्व-अस्तित्व की तलाश करती है। अघनिया की अस्मिता, अपने ज़िंदगी के निर्णय स्वयं करने से जुड़ी है। जिस तरह इस शीर्षक के इर्द-गिर्द फिल्म की नायिका की ज़िंदगी घूमती है, दरअसल वह बहुत-सी स्त्रियों की दुर्गति भी है। देखने के बाद ये विचार करने का स्पेस फिल्म देती है।
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अपना नाम बदलने से लेकर अन्त में अपनी बच्ची को अपना ‘मरद’ मानने तक के बीच नायिका अघनिया कई पड़ावों से गुजरती है। टूटती-बिखरती -फिर अपने को समेटती उसकी कथा सिर्फ उसकी नहीं रह जाती… कहानी और फिल्म का परिवेश छत्तीसगढ़ी है लेकिन विमर्श देश-काल सीमाओं से निरपेक्ष, विशुद्ध प्रासंगिक है। गीत, संगीत और भाषा में लोक शैली की सुंदर छाप है, प्रभावी ग्रामीण दृश्यों के साथ अपनी सामान्यता में भी प्रभाव उत्पन्न करते कलाकार, पोखर, हाट, खेत, पगडंडी, कच्ची-पक्की सड़क, पंचायत आदि के सम्मिलित तालमेल से यह फिल्म ‘गाँजे की कली’ मन-मस्तिष्क पर सम्यक प्रभाव स्थापित करने में सक्षम है।
निर्माता, निर्देशक, कैमरामैन, संगीतकार, कलाकार एवं समस्त टीम निश्चित रूप से बधाई की पात्र हैं। अमृता प्रीतम यह ‘गांजे की कली’, कहानी के साथ -साथ बनी यह फिल्म हमेशा प्रासंगिक रहेगी; ऐसा मेरा विश्वास है। साथ में इंतजार भी है रंगमंच पर कहानी के साकार होने का। समय बहुत है इन दिनों, आप सुधीजनों से अनुरोध है- एक बार जरूर देख लीजिए इस ‘गाँजे की कली’ को
लेखिका स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।
सम्पर्क- kumkum229@gmail.com
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