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साहित्य

कहानी : खामोशी के मायने और आम का बगीचा

 

  • अभिषेक मिश्रा

 

सरसों के फूलों से पटे खेतों के बीच बनी पगडंडी से गुजरते कहार डोली लेकर दूसरे गांव जा रहे थे। कल उसकी शादी हुई और आज विदाई। डोली के परदे को पीछे हटाकर तिरछी नजरों से पीछे छूटते बाबुल का आंगन और खेतों की दूर तक फैले छोर को देखकर वो भावुक भी थी। साथ के लोग कुछ आगे जा रहे थे, अब नई बहुरिया के साथ जाना अच्छा भी नहीं। लेकिन निगरानी भी जरुरी तो कदम दर कदम पीछे भी बराबर नजर। खेतों में मवेशियों के लिए चारा काट रहीं महिलाएं डोली देखकर चौकस हो जाती हैं और दुल्हनिया को देखने की जुगत लगाती हैं। वो लजाई और झट से पर्दा बंदा कर देती है। महिलाएं हारकर काम में जुट जाती हैं और गीत गाने लगती हैं :

“सखी री प्रेम नगर छूटा जाए री,

मोरा जियरा बड़ा धड़काए री

चलले चार गो कहार,

डोली साजन के द्वार

सखी री मुंहवा में जियरा आए री”….

गीत का बोल दूरी के साथ धीमे हो रहे हैं। इसी बीच वो पुरानी यादों को फिर से जीने लगती है। वहीं पिया के बारे में सोचकर वो खुश होती है,

धत्… अभी तो वहां गई भी नहीं और…

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मारे शर्म के उसने अपना चेहरा लाल जोड़े में छिपा लिया। फिर पीछे छूटते बाबुल को भरी नजर से देखने की कोशिश। बाबुल जिसकी गलियों में वो चहकती थी, मां, बाबूजी, भाई, पड़ोसी सब कितना लाड-प्यार करते थे। अब जाने पिया के घर में कैसे लोग मिलें, इनको भी तो नहीं जानती वो। नाम-वाम भी उनका क्या है, हे भगवान उनका नाम कैसे लूं, छि… छि… छि…

हे बूढ़े बरगद बाबा! | Shagun News India

श्राप लगेगा बूढ़े बरगद बाबा का मुझे। उसे याद आता है कि आम के बगीचे में टिकोले तोडऩे जाते तो चाचा का सख्त पहरा भी रहता। वो नहीं चाहते थे कि लाडो को चोट लगे। जब मैट्रिक पास की तो वो भी तो उसी बगीचे में पहली बार मिला। पेड़ के पीछे से चोरी-चोरी मुझे निहारने में लगा रहता। शुरू में तो हम लड़कियां डांट कर उसे भगाती, बाद में उसकी हरकत अच्छी लगने लगी। आम तोडऩा बहाना बन गया था, बस उसे देखना चाहते थे। शायद सहेलियां समझने लगी थी कि मेरे दिल में क्या है, पर वो भी खुश होती कि चलो कोई तो सीमा से पार जा रहा है।

मैट्रिक के बाद वो शहर गया, इधर उसका स्कूल छूट गया। घर, द्वार, चूल्हा, चौका में जिंदगी सिमट गई। वो पर्व में शहर से गांव आता तो कुछ न कुछ जरूर लाता और वो भी गांव के सीमा पर लगे बगीचे में जाती और घंटों बात करती। दोनों ने आने वाले कल के सपने भी बना लिए। मिट्टी के घरौंदे और न जाने क्या-क्या।

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हे भगवान… ये सब मैं क्यों सोच रही, डोली में बैठी वो खुद को कोसने लगी, लेकिन फिर सीमा पर बने बगीचे के नजदीक आते ही यादों में खोने लगी। उधर इंटर की परीक्षा टॉप करके वो भी विदाई के दिन गांव आया और सीधे मिलने की जगह पहुंच गया। इस बार कोई नहीं था, थोड़ी कोशिश की तो सहेलियां मिली जो डोली को देखकर सुबक रही थीं। पूछने पर पता चला कि वो डोली में दूसरे गांव जा रही है। डोली बगीचे के करीब आती हैं और सहेलियां दौड़ती हैं।

वो कुछ पल के लिए बुत बनकर खड़ा रहता है। दूसरी तरफ वो परदा हटाकर एक बार सबको देखती है, उसे कुछ पल ज्यादा देखकर परदा लगाती है। आंसू के सैलाब में खुद में सिमटती जा रही वो अब बाबुल की तरफ देखना नहीं चाहती। जो बात उसने उनसे छिपा कर रखी आज आंखें उसकी गवाही दे रही थी। डोली आगे बढ़ जाती है, सहेलियां घर लौटने लगती हैं…

और वो साइकिल लेकर पैदल ही निकल पड़ता है बिना मंजिल के… आज उसका घर लौटने का मन नहीं। कुर्ते की जेब में रखे बूंदों को छूता है जो कबके पत्थर बन गए थे। गीत की आवाज भी कम होने लगती है। महिलाएं घास की गठरी बनाकर घर जाने की तैयारी में हैं। अचानक चारों तरफ अजीब खामोशी छा जाती है और वो पहली बार समझता है कि खामोशी के असली मायने क्या होते हैं।

abhishek mishra

लेखक पत्रकार हैं।

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