मध्यप्रदेश को भाजपा के सबसे मजबूत किलों में से एक माना जाता है, यहाँ जनसंघ के जमाने से ही उसका अच्छा-खासा प्रभाव है। यहाँ उसके शिवराजसिंह चौहान जैसे मजबूत क्षत्रप पिछले 18 सालों से प्रदेश की सत्ता में शीर्ष पर बने हुए हैं। दूसरी तरफ काँग्रेस है जो लगातार हार की हैट्रिक बनाने के बाद 2018 में सत्ता वापसी में सफल रही थी लेकिन 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के काँग्रेस छोड़ने के कारण राज्य में फिर से बीजेपी की सरकार बन गयी थी। इस प्रकार पंद्रह साल बाद सत्ता में लौटी काँग्रेस पंद्रह महीने ही चल पायी वहीँ भाजपा की जोड़-तोड़ के सहारे फिर से वापसी हो गयी थी।
2023 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर दोनों पार्टियाँ आमने-सामने हैं, लेकिन मुकाबला इतना करीबी लग रहा है कि बड़े से बड़ा चुनावी विश्लेषक ठोस भविष्यवाणी करने की स्थिति में नहीं है।
करीब 18 साल मुख्यमन्त्री रहने के बावजूद शिवराज सिंह चौहान को उनकी पार्टी ने मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित नहीं किया है बल्कि वह प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है, इसे सामूहिक नेतृत्व का नाम दिया जा रहा है। पार्टी कह रही है कि मुख्यमन्त्री कौन होगा यह चुनाव के बाद तय होगा। पार्टी में करीब आधा दर्जन मुख्यमन्त्री के दावेदार नजर आ रहे हैं उनमें शिवराज भी एक हैं।
बहरहाल “एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी” भाजपा का केन्द्रीय चुनावी नारा है। इस नारे को अमली जामा पहनाने के लिए पार्टी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने 7 सांसदों को मैदान में उतारा है जिसमें दिमनी से नरेन्द्र सिंह तोमर, नरसिंहपुर से प्रहलाद पटेल, निवास से फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे केन्द्रीय मन्त्री और बाकी सांसदों में रीति पाठक, राकेश सिंह, राव उदयप्रताप और गणेश सिंह शामिल हैं। इस भारी भरकम सूची में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का नाम भी है जिन्हें इंदौर की एक विधानसभा सीट से उतारा गया है। जाहिर है भाजपा यह चुनाव शिवराज नहीं बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व की छाया में लड़ रही है जिसमें अगर भाजपा जीतती है तो श्रेय के साथ मुख्यमन्त्री भी मोदी के पसंद का होगा और अगर भाजपा हारती है तो इसका ठीकरा शिवराज के सर ही फूटेगा।
भाजपा के अन्दरूनी जानकार कहते हैं कि इस चुनाव के बाद शिवराज को साइड लाइन करने की पूरी तैयारी कर ली गयी है। लेकिन शिवराज अपनी पोजिशन छोड़ने को तैयार नहीं है वे इस प्रकार से खूंटा गाड़ कर बैठ गये हैं कि उन्हें हिलाना मुश्किल है। चूंकि इस बार भाजपा उनके चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ रही है इसलिए उन्हें भी इस बात का अंदाज है कि अगर जीत होती है तो भी इस बार उनका मुख्यमन्त्री बनना मुश्किल होगा लेकिन इसके बावजूद भी वे अपनी तरफ से खुद को मुख्यमन्त्री के दावेदार के तौर पर ही पेश कर रहे हैं और जनता के बीच जाकर खुद को सीएम बनाने के लिए वोट मांग रहे हैं। इस पूरे चुनाव में एक तरफ भाजपा का चुनावी अभियान, जो प्रधानमन्त्री के चेहरे और सामूहिक नेतृत्व के सहारे चलाया जा रहा है वहीँ दूसरी तरफ शिवराज सिंह चौहान का अपना चुनावी अभियान है जिसमें वे खुद को चेहरा और भावी मुख्यमन्त्री बताते हुए कह रहे हैं कि “पहले लाड़ली लक्ष्मी योजना बनायी, फिर लाड़ली बहना योजना बनायी अब मेरा यह संकल्प है कि हर बहन को “लखपति बहना” बनाऊंगा”।
2018 में पराजय के बाद भी तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें मध्यप्रदेश से हटाया नहीं जा सका था। भाजपा आलाकमान द्वारा उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकार दिल्ली बुलाने की कोशिश की गयी थी लेकिन शिवराज “मैं केंद्र की राजनीति में नहीं जाऊंगा। मैं मध्यप्रदेश में ही रहूंगा और यहीं मरूंगा” कहकर खुद को प्रदेश की राजनीति में ही सक्रिय बनाये रखने की जिद बनाये हुए थे और इसमें ना केवल वे कामयाब रहे बल्कि जोड़-तोड़ के सहारे वे मुख्यमन्त्री के कुर्सी पर वापसी में भी सफल रहे थे।
भाजपा के अन्दर शिवराज सिंह की गिनती उन चुनिन्दा नेताओं में भी होती है जो अपनी छवि एक उदार नेता के तौर पर गढ़ने में कामयाब रहे हैं। उनकी शैली टकराव की नहीं बल्कि लोप्रोफाईल, समन्वयकारी और मिलनसार नेता की है। इतने लम्बे समय तक मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री रहने के बाद भी शिवराज सहज, सरल और सुलभ बने रहे, यही उनकी अबतक के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी पूँजी और ताकत है। उनके पक्ष में कई और बातें भी हैं जैसे उनका ओबीसी समुदाय से होना और हिन्दी ह्रदय प्रदेश का मास लीडर होना। अपने विरोधियों से मेल-जोल बनाए रखने व जनता के साथ घुल-मिल कर उनसे सीधा रिश्ता जोड़ लेने की उनकी काबिलियत भी उन्हें खास बनाती है। अपनी इसी ताकत के बल पर वे 2005 से 2018 तक लगातार 13 सालों तक प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे। दिसम्बर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था और उनकी जगह काँग्रेस के कमलनाथ मुख्यमन्त्री बने थे लेकिन पन्द्रह महीने बाद ही शिवराज एक बार फिर वापसी करने में कामयाब रहे थे।
इसलिये इस बार के विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा हारती भी है तो शिवराज बने रहेंगें। मध्यप्रदेश में भाजपा को धीरे-धीरे शिवराज सिंह चौहान के आभामंडल से बाहर किया जा रहा है लेकिन फिलहाल पार्टी के पास मध्यप्रदेश में शिवराज के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इसलिए हार हो या जीत उनकी सारी जद्दोजहद हिन्दी ह्रदय प्रदेश की जमीन पर अपनी पकड़ और प्रासंगिकता बनाए रखने की होगी।
अपने एक चुनावी भाषण में खुद की तुलना “फीनिक्स पक्षी” करते हुए जब वे कहते हैं कि “अगर मैं मर भी गया तो राख के ढेर में से फीनिक्स पक्षी की तरह दोबारा उठ खड़ा हो जाऊंगा”, तो भले ही उनके निशाने पर काँग्रेस रही हो लेकिन उनका इरादा साफ़ नजर आता है।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के काँग्रेस छोड़ने के बाद ऐसा लगता है कि कमलनाथ के सामने सारे क्षत्रप नेपथ्य में चले गये हैं। कहने को तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी को जय और वीरू की जोड़ी बताई जा रही है लेकिन दिग्विजय सिंह की भूमिका भी परदे के पीछे ही है। काँग्रेस की तरफ से अकेले कमलनाथ ही मैदान में दिख रहे हैं। इस बार चेहरा, रणनीति सब कुछ उन्हीं का है। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश में उन्हें “खुला हाथ” मिला हुआ है और खुद आलाकमान भी उनके हिसाब से काम करने की कोशिश कर रहा है।
काँग्रेस की तरफ से मुख्यमन्त्री पद के वे अकेले दावेदार है जिनके मुकाबले ना तो काँग्रेस और ना ही भाजपा में कोई चेहरा है और इस बार के चुनाव में यही सबसे बड़ी ताकत भी है। पिछली बार के चुनाव की तरह इस बार भी उन्होंने वचन पत्र जारी किया है जिसमें लोक लुभावन वादों की भरमार है।
मई 2018 में मध्यप्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कमलनाथ के आने के बाद से काँग्रेस लगातार नरम हिन्दुतत्व के रास्ते पर आगे बढ़ी है और इस दौरान विचारधारा के स्तर पर वह भाजपा की “बी टीम” नजर आती है। पिछले दिनों कमलनाथ ने अपने एक इंटरव्यू में राममन्दिर का श्रेय काँग्रेस को देते हुए कहा है कि राजीव गाँधी ने मन्दिर का ताला खुलवाया था, अपनी चुनावी तैयारियों के तहत वे बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के कई कार्यक्रम भी करा चुके हैं।
चुनाव से कुछ ही महीनों पहले शिवराज सिंह चौहान की सरकार द्वारा “लाड़ली बहना योजना” की घोषणा की गयी है और पूरे चुनावी अभियान के दौरान भाजपा का सारा जोर अपने 18 साल के शासन की उपलब्धियों को बताने के बजाय इस नये नवेले योजना के प्रचार और उसका श्रेय लेने में रहा है। शायद भाजपा मध्यप्रदेश में अपने 18 साल के शासन की किसी एक उपलब्धि और चेहरे को पेश कर पाने की स्थिति में हैं इसलिए उसका जोर “मोदी के चेहरे, राम मन्दिर और लाड़ली बहना योजना” पर है।
हालांकि गृह मन्त्री अमित शाह मध्यप्रदेश को बीमारू राज्य से बेमिसाल राज्य बनाने का दावा करते हैं लेकिन इसपर ज्यादा जोर नहीं दिया गया है। मध्यप्रदेश में असल मुद्दों की कमी नहीं है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है, जैसे कि प्रदेश में अर्थव्यवस्था की हालत बहुत पतली है लेकिन प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा “राजस्थान में काँग्रेस को चुना तो सर तन से जुदा के नारे लगे, अब मध्यप्रदेश को बचाना है” जैसी बातें कहकर ध्यान कहीं और ले जाने की कोशिश की गयी है।
बहरहाल मुकाबला बहुत दिलचस्प और करीबी है, आगामी तीन दिसम्बर के नतीजे ना केवल मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री का नाम तय करेंगें बल्कि इससे दोनों प्रमुख पार्टियों के अन्दरूनी समीकरण भी नये सिरे से तय होने वाले हैं।