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सृजनलोक

कौन था वह, कौन है वह…?   

 

भाव-कथा काव्य  

 

वह कौन था

जिसके पेट पर सोये बिना

नींद नहीं आती थी तुम्हें

और सुबह जिसके उठाने पर

कुनमुनाते हुए तुम 1-2-3-4 मिनट और…

कहकर चादर तान लेते थे  

तब उठाकर ब्रश कराता था गोद में लेकर अपने हाथ से..

 

कौन था वह

जो फोटो खींचता था कमोड पे बिठाकर

नहलाता था तुम्हें  

तुम्हारे जागते और कभी सोने में भी  

बाथरूम के टब में मल-मल कर

गोंद में चिपकाके समुद्र और झरनों में

गाँव के पम्पिंग सेट पर बाहों में घेरे हुए

ताकि न लगें तुम्हें पानी के तेज धक्कों के थपेड़े

क्या तुम्हे भी आती है कभी वह गन्ध   

जो पानी से धुल-धुलकर भी बसी रह गयी है

तुम्हारी देह से उसके मन तक…

 

वो कौन था    

जो खाने के लिए ना कहने पर

तुम्हारा पेट बनकर भूख की गुहार करता था

और जब तुम खा लेते थे

तो पूछता था – यह सब किसके पेट में गया

और तुम अपनी समूची बाल-सुलभ चापल्यता के साथ

जिसके पेट में उंगली गड़ाकर कहते थे – तुम्हारे…!

 

जो कूदना सिखाता था तुम्हें

कुर्सी से लेकर कबाड तक से

क्योंकि कूदने से तुम बहुत डरते थे

कबाड से पलंग पर कूदने का तुम्हारा आह्लाद देखकर

रोज़ कितनी ही बार कबाड पर चढाता हुआ  

जो कभी थका नहीं,

वो कौन था…     

 

कौन था वो

जिसने क्रिकेट या चेस कभी खेला न था

पर तुम्हारे लिए खेलता था तुम्हारे साथ

सीखकर खेलना सिखाता था तुमको

याद है तुम्हें

क्रिकेट में तुम अकेले पूरी टीम होते थे

और वह कौन था, जो दस बार आउट करता था तुम्हें

पर नॉट आउट रहता था तुममें बैठा गावस्कर

ओपेनिंग से एंड तक    

क्या तुम्हे बिल्कुल याद नहीं आता  

कि तोड़ लिया था किसने बॉलिंग में अपने पहले दो दाँत

पर मुँह से गिरते खून के साथ ठठाकर हँस रहा था

तुम्हारे गावस्करी शॉट पर…    

 

तुम जन्म से ही बहुत संवेदनशील हो

जब भयंकर डायरिया से ग्रस्त तुम्हें

लगते थे दो इंजेक्शन रोज़ सुबह शाम 

पट्ठे में बायीं तरफ, फिर दायीं तरफ 

तब तीन महीने के तुम

चिल्लाने लगते थे पहुँचते ही डिस्पेंसरी के द्वार पर

जिससे घबराकर ‘ना, मैं नहीं देख सकती अपने बच्चे की असह्य पीडा का रोना’

कहकर इंजेक्शन की पहली ही शाम

भाग खड़ी हुई थी जो, और उसी के ‘कठकरेजी’ तमगे से लैस

जिसने छह दिन लगवाये 12 इंजेक्शन कलेजे पर पत्थर रखकर…

कौन था वह

 

और कौन था वह…

जो दो दिन दिखाकर रास्ता बस से

भेज देता था नाटक सीखने के लिए

अपने आठ साल के जिगर के टुकड़े को अकेले

दे देता था दो अठन्नियां पब्लिक बूथ से फोन करने के वास्ते

एक बस से उतरने के बाद और दूसरी बस पकड़ने के पहले

पर तुम्हारे न आने तक साँसें अटकी रहती थीं

फोन की घण्टी से लेकर दौड़ते हुए आते क़दमों तक…

और पछताता रहता था बस से भेजेने की अपनी बेबसी पर…

वह कौन था

जो नहीं अकुलाया सालों-साल के दिन-रात

एक-एक अक्षर बनाना सिखाते हुए…

अंग्रेजी का ‘स्माल आर’ लिख-लिख कर बताने में

लगे कितने दिन, गयीं कितनी रातें…

जिनकी असीम सार्थकता बन गयी उस दिन सवाल  

जब डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक में कुशल हो जाने के बाद

कम्प्युटर की अड़चनें सुलझाने के लिए 

पाँच भी मिनट नहीं दे पाये तुम

अपने शब्दों में उस ‘अनाडी’ को…    

 

कवि के शब्दों में –

‘अगनित उन्मादों के छन हैं, अगनित अवसादों के छन हैं…’ 

और ऐसे सब के सब छन और यादें

हैं थातियां जिसकी…  

बहुत छोटा व शायद खोटा होगा वो शख़्स  

और तुम तो बहुत बड़े हो गये हो अब

उसी नाटक से मीडिया में जाकर…

 

तुम्हारे बड़े होने पर छाती गज भर चौड़ी हो गयी है जिसकी

इस तुम्हारे बडप्पन पर फ़ख़्र है जिसे

काश तुम जान पाते 

कौन था वह – कौन है वह…!!!

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