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सामयिक

कोरोना और राजनीति

 

  • सर्वदमन मिश्र    

 

कोविड-19 को मानव इतिहास में परिवर्तन की दृष्टि से एक वलय, कहना चाहिए कि तीव्र वलय साबित होगी, यह तो सन्देह  से परे है। 17 मार्च को कोविड-19 की युग विधायनी क्षमता पर न्यू यॉर्क टाईम्स में टिप्पणी करते हुए थॉमस फ्रीडमैन ने लिखा कि यह हमारे समय का नया ऐतिहासिक विभाजन है—बी.सी. (बिफोर करोना) तथा ए.सी.(आफ्टर करोना)। यूँ इतिहास लेखन के मूल बी.सी.को देखें  तो वह एक सुविधाजनक सन्दर्भ बिन्दु भर है। क्राईस्ट के जन्म से तत्काल पहले और तत्काल बाद की कुछ सदियों में  ऐसे परिवर्तन नहीं हुए थे जिन्होंने इतिहास को बहुत प्रभावित किया हो। इस सन्दर्भ में कोविड-19 की प्रभान्विति सन्देहातीत है।

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कुछ परिवर्तन तो इतने स्पष्ट है कि यू.एस. का एस. एण्ड पी.-500  इंडेक्स भी उनको लेकर आश्वस्त है। शेयर बाजारों में ऐतिहासिक गिरावटों के बावजूद बड़ी डिजिटल कम्पनियों और डिजिटल प्लेटफॉम्र्स के शेयर चढ़े हुए हैं। जिन वस्तुओं और सेवाओं के डिजिटलीकरण में अभी समय लगना था अब वे तत्काल सम्भव हो रही हैं। स्कूल से विश्ïवविद्यालयों तक ऑन लाईन अध्यापन बड़ी प्राथमिकता बन गया है। ‘टेक अवे’और ‘होम डिलीवरी’मुख्य और रेस्टोरेन्ट में भोजन गौण होने जा रहा है। अजनबियों से साझा करना तो दूर अब बातचीत भी मुश्किल होगी।

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वस्तुत: यह व्यक्तिवाद से आगे एकाकी जीवन का प्रस्थान बिन्दु है। ऐसे समाजों की राजनीति क्या रूप लेगी यह देखना दिलचस्प होगा। राजनीति विज्ञानी कहते हैं कि मनुष्य समाज के संकटों ने ही राज्य की नींव रखी है और संकटों ने ही राज्य की शक्ति का विस्तार किया है। ‘न्यूडील’ के बाद के अमेरिकी राज्य की प्रकृति पर लिखते हुए एमिली रोजनबर्ग ने उसे उचित ही ‘रेग्युलेटिंग स्टेट’कहा था। जब 2008 का वित्तीय संकट आया तो राज्य की शक्ति और बढ़ गयी तथा वित्तीय क्षेत्र में नियामक संस्थाओं में एकाएक बढ़ोतरी हो गयी। 9/11 की घटना से पहले क्या कोई यू.एस. में ‘यू.एस.ए. पैट्रियॉटिक एक्ट’की कल्पना कर सकता था?

Worlds Most Expensive Prison Guantanamo Bay Detention Camp Cuba ... ‘ग्वाटेनमाला बे’ जैसी जेल जहाँ कैदियों की प्राकृतिक न्याय की मूलभूत मानवीय जरूरत भी नजरअन्दाज कर दी जाएँगी, इसकी कल्पना भी यू.एस. समाज में असम्भव थी। 9/11 के बाद ही यू.एस. में एक नया विभाग ‘होमलैण्ड सिक्युरिटी’बना। कहने का आशय यह है कि 9/11 ने यू.एस. को भी एक ‘सर्वेलेन्स स्टेट’में बदल दिया और इसको बेजा ठहराना भी कठिन है।

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सच में यह अधिनायकवादी राष्ट्राध्यक्षों के लिए स्वर्णिम समय है। जिस ‘डिजिटल डिक्टेटरशिप’का उल्लेख युवाल हरारी ने अपनी पुस्तक ”ट्वेन्टीवन लेसन्स फॉर द ट्वेन्टीवन सेन्चुरी” में किया है वह पुस्तक प्रकाशन के दो वर्ष से भी कम समय में हुबहु साकार रूप लेने लगेगी इसकी कल्पना तो निश्चय ही हरारी ने भी नहीं की होगी। कोविड-19 ने डिजिटल निगरानी की उपयोगिता एवं औचित्य सिद्धि कुछ इस प्रकार पुष्ट कर दी है कि इसका विरोध भी बेतुका लगता है। पिछले दिनों चीन ने राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐप (हैल्थ कोड) जारी किया है जिसे अनिवार्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति को फोन में इन्स्टॉल करना है।क्यों कोरोना वायरस से निपटने के लिए ...

यह उस व्यक्ति के यात्रा ब्यौरों तथा स्वास्थ्य के मापदण्डों के आधार पर हरा, पीला व लाल क्यू आर कोड प्रदर्शित करता है, जहाँ हरा निर्बाध संचरण हेतु अनुमत करता है वहीं पीला कतिपय निषेधताओं तथा लाल नागरिक को घर से ना निकलने के लिए पाबन्द  करता है। इसी प्रकार दक्षिणी कोरिया ने सी.सी.टी.वी. फुटेज, फोन लोकेशन तथा के्रडिट कार्ड पेमेन्ट के जरिए प्रत्येक कोविड-19 सन्दिग्धों का ब्यौरा जुटा लिया है। एम.आई.टी. एक ज्यादा सटीक ऐप बनाने में जुटा है। भारत में कुछ राज्य फोन के अतिरिक्त ड्रोन से भी निगरानी में लगे हुए हैं।

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राज्य का यह असाधारण कदम, जो जरूरी भी है क्या भविष्य का सामान्य व्यवहार नहीं बन जाएगा? हरारी लिखते हैं कि इजराइल ने 1948 के अरब-इजराइल युद्ध के समय जो आपात कदम उठाए थे वे  बाद में वापिस नहीं लिए गये। जिन देशों की कोविड-19 को कारगर रूप से काबू में रखने के लिए प्रशंसा हो रही है वो देश वे हैं जिन्होंने इस संकट में डिजिटल निगरानी का व्यापक प्रयोग किया है। लगता है निगरानी तंत्र को चुपके से शासन प्रणाली का हिस्सा बनते भी देर नहीं लगेगी और तब राज्य की शक्ति एक नए शिखर पर होगी।

13 मार्च को मिशेल गैलफेन्ड का एक आलेख द बोस्टन ग्लोब में छपा जिसमें वे यू.एस.ए. की सरकार का आह्वान करती हैं कि सरकार को नागरिकों पर कठोर नियन्त्रण लागू करना चाहिए। मिशेल अपनी चर्चित पुस्तक ‘रूल मेकर्स, रूल ब्रेकर्समें उन सांस्कृतिक समूहों को बेहतर बताती हैं जहाँ कठोर सामाजिक नियम तथा मापदण्ड है। इस लेख में भी वे अपनी परिकल्पना की पुष्टि में हाँगकाँग तथा सिंगापुर का दृष्टान्त देकर कहती हैं कि कठोर नियन्त्रणकारी राज्य होने के कारण ही वे कोविड-19 का बेहतर सामना कर पाए।

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”राजनीतिक लिबरल्स” राज्य के इस प्रसार से सहमत ना भी हो तो भी वे इस परिघटना के बाद अपने 19वीं सदी के पूर्वजों की राय के विपरीत राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र में प्रसार तथा व्यय का तो समर्थन करेंगे ही।Capital in the Twenty-First Century by Thomas Piketty 2016 में जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल में स्तम्भकार मिहिर शर्मा से बात करते हुए ”कैपिटल : इन द ट्वेन्टी फर्स्ट  सेन्चुरी” के लेखक थॉमस पिकेटी ने आग्रहपूर्वक कहा था कि घोर से घोर पूँजीवादी देश को भी कम से कम स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय बढ़ाना चाहिए। कोविड-19 से यू.एस.ए. के पस्त होने के बाद यह बात और  भी गहरे से रेखांकित हो गयी है। निश्चय रूप से एक जो सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है, वह यह है कि राष्ट्र स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने का काम करेगें, जो सुखद भी है;

परन्तु इस परिदृश्य को भी हम आगे दिखने  वाली प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में देखें तो यह भी राज्य की शक्ति को अन्तत: बढ़ाएगा ही। लोकप्रिय नेता अकसर स्थापित ढाँचाओं व संस्थाओं को धता बता देते हैं परन्तु ऐसे संकट आमतौर पर ढाँचे की ओर लौटने को विवश करते हैं। आजकल राष्ट्रपति ट्रम्प की इस बात को लेकर कड़ी आलोचना हो रही है कि उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के महामारी सन्नद्ध दस्ते को भंग कर दिया था। इधर 30 मार्च को द प्रिन्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट बता रही है कि कोविड-19 के संकटकाल में भारत में प्रशासनिक सेवा संवर्ग का किंचित उभार हुआ है।

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इन दिनों की क्कढ्ढक्च की प्रेस ब्रिफिंग में भी संयुक्त सचिव स्तर के आई.ए.एस. अफसरों का ही बोलबाला है। राज्य का औपचारिक ढाँचा मजबूत होता है तो यह मानकर चलना चाहिए कि वह संवदेनशील चाहे हो जाए परन्तु लचीला तो हरगिज नहीं होगा। कुल मिलाकर एक अधिक शक्तिशाली और कठोर राज्य सत्ता के निकट भविष्य में उभार की पूरी सम्भावना है।

वैश्वीकरण क्या है? ख़ास बातें जानें ...

ऐसे शक्तिशाली राष्ट्र राज्यों की वैश्वीकरण  के प्रति क्या नीति होगी? कहना ना होगा कि वैश्वीकरण को तो पिछले एक दशक से ही ठोस चुनौती मिल रही है। 2016 में चुनाव के सद्य पश्ïचात ट्रम्प ने टिप्पणी की थी कि देशभक्त और वैश्विक  नागरिक दो विपरीत ध्रुव  हैं। उसी वर्ष यू.के. ने यूरोपियन यूनियन से अलग होने का निर्णय लिया। कोविड-19 की परिघटना ने इस सत्य को पूरी तरह से अनावृत कर दिया है कि अधिकांश शक्तिशाली राष्ट्र व उनके नेता वैश्वीकरण की भावना के विपरीत ही काम कर रहे हैं।

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चीन ने जिस प्रकार विश्ïव स्वास्थ्य संगठन के दल को जनवरी के अन्त तक अपनी सीमा में नहीं घुसने दिया, या कि अमेरिका ने बिना अपने यूरोपियन सहयोगियों से पूछे यूरोपियन संघ से हवाई यातायात बंद किया, यूरोपियन यूनियन के साथियों ने जिस प्रकार इटली की उपेक्षा की; ये सब वैश्वीकरण की भावना के तिरोहित हो जाने का दुष्परिणाम हैं। जनवरी के अन्त तक यू.एस.ए. के नीति निर्माता इसे चीनी संकट मानकर बैठे थे। कॉमर्स सेके्रटरी विल्बर रोस कोविड-19 की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि यह विनिर्माण क्षेत्र की रोजगार को चीन से यू.एस.ए. लाने में मददगार सिद्ध होगा।

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यह सच भी है कि उत्पादन की वैश्विक  आपूर्ति श्रृंखला आशंका के घेरे में है। चीन में लंबे लॉकडाऊन के चलते जो आपूर्ति में बाधा आयी है वह उद्योग जगत को स्थानीय स्रोतों को पुनर्जीवित करने के लिए बाध्य करेगा। 

वैश्वीकरण की दौड़ में ये डर क्यों ...

तो निकट भविष्य में वैश्वीकरण पर संकट अवश्यसंभावी है। पर क्या इतिहास में एक तार्किक बिन्दु पर पहुँचने  के बाद पीछे लौटना चाह कर भी सम्भव होता है? 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में यूरोप में पुराने साम्राज्यों ने राष्ट्र-राज्यों के उभार को रोकने के भरपूर प्रयास किये। 1819 की वियना कांफ्रेस या 1830 व 1848 की असफल क्रान्तियाँ इन प्रयासों की सफलता जैसी दिखती हैं परन्तु राष्ट्र के रूप में संगठित होने की विभिन्न यूरोपियन समुदायों की आकांक्षा इतनी बलवती थी कि 80 वर्षों में यूरोप का नक्शा पूरी तरह बदल गया। 21वीं सदी के इस बिन्दु पर वैश्वीकरण इतिहास की एक नैसर्गिक परिणति है। राष्ट्र-राज्य चाहे अप्रासंगिक ना हुए हों परन्तु इतने प्रभावी भी नहीं कि वैश्वीकरण को रोक सकें।

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कोविड-19 महामारी का संकट वैश्वीकरण के कारण नहीं वरन् वैश्वीकरण की भावना के विपरीत काम करने के कारण उपजा है। यदि चीन दिसम्बर 2019 में ही एक नयी बीमारी के फैलने की सूचना विश्व  समुदाय से साझा कर लेता, या कि यू.एस.ए. अपने सहयोगी राष्ट्रों के साथ एक साझा रणनीति बना लेता तो सम्भव कोविड-19 की रोकथाम आसान होती। हमें याद रखना चाहिए कि ईबोला महामारी के समय यू.एस.ए. ने ज्यादा गम्भीरता  दिखाई थी और एक ज्यादा संघातक महामारी को अफ्रीका से बाहर निकलने से रोका जा सका था। इससे बेहतर प्रदर्शन तो विश्व समुदाय ने शीत युद्ध के समय ही कर दिया था जब संयुक्त अभियान चला कर पोलियो तथा चेचक का उन्मूलन किया था।

Fukuyama: Doszliście do niebezpiecznego momentu, który wcześniej ...

फ्रांसिस फुकुयामा

दरअसल विश्व एक समाज तो बन गया है परन्तु फ्रांसिस फुकुयामा के बनाये एक साँस्कृतिक मॉडल को विश्व समुदाय पर लागू करें तो कह सकते हैं कि अभी यह एक ‘लो ट्रस्ट सोसायटी’  है जहाँ सदस्य राष्ट्र एक दूसरे से आश्वस्त नहीं वरन् आशंकित हैं, इसलिए निर्णय तात्कालीन निजी लाभ या सुरक्षा को देखकर लिए जा रहे हैं। जब तक विश्व समुदाय एक ‘हाई ट्रस्ट सोसायटी’के रूप में विकसित नहीं होगा तब तक ऐसे संकट गम्भीर चुनौती बने रहेंगे।

लेखक राजकीय कन्या महाविद्यालय, अजमेर में इतिहास के प्राध्यापक हैं।

सम्पर्क- +919413312284, mishrasd@gmail.com