स्वप्नपाश उपन्यास में स्किजोफ्रेनिक महिला की स्थिति का अध्ययन
शोध सारांश: प्रस्तुत शोध पत्र में मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास ‘स्वप्नपाश’ में स्किजोफ्रेनिक लड़की के संघर्ष और उसके स्थिति का अध्ययन किया गया है। शोधार्थी ने उपन्यास की मुख्य स्त्री पात्र गुलनाज फरीबा को केंद्र में रखकर समाज का स्त्रियों के प्रति नजरिए को रेखांकित किया गया है। शोध पत्र में ‘अंतर्वस्तु विश्लेषण’ पद्धति का प्रयोग किया गया है। एक महिला कैसे अपने तमाम मानसिक विदलन के साथ जीवन जी रही है। और उसे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है? उन सभी स्थितियों पर गहन चिंतन प्रस्तुत किया गया है।
बीज शब्द: स्किजोफ्रेनिया, मनोविज्ञान, मानसिक विदलन, विस्थापन, शहरीकरण, सेक्सुअल भ्रम, अतिरेक, बलात्कार, संज्ञानात्मक।
मूल आलेख: समकालीन कथा साहित्य में मनीषा कुलश्रेष्ठ ने विशिष्ठ और अलग पहचान बनाई है। इनके उपन्यासों में आधुनिक युग की नारी समस्याओं का चित्रण बड़ी मार्मिकता से हुआ है। मनीषा के साहित्य में मात्र स्त्री जगत की समस्याओं को ही उजागर नहीं किया गया है बल्कि पुरुष वर्ग कि मानसिकता और संवेदनाओं को भी अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। इन्होनें राजनीति, समाज, स्त्री, मनोविज्ञान, साहित्य जैसे अनेक मुद्दों में हस्तक्षेप करते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। मनीषा का लेखन विलक्षण रहा है। इन्होनें अपनी हर कृति के साथ एक नया मुद्दा उठाया और समाज की संकीर्ण सोच पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। मनीषा जी कि अब तक छह उपन्यास प्रकाशित हो चुकी है – शिगाफ़, शालभंजिका, पंचकन्या, स्वप्न्पाश, मल्लिका और सोफ़िया।
‘शिगाफ़’(2010) उपन्यास में कश्मीर से विस्थापित लोगों की कहानी दर्ज है। जिन्हें उम्मीद है कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा और घाटी में शांति और सद्भाव कायम हो जाएगा। ‘शालभंजिका’ (2022) उपन्यास में पदमा, ग्रेशल और चेतन की त्रिकोणीय प्रेम कथा वर्णित है। इसमें स्त्री-पुरुष जिस संबंध की मांग से पैदा हुए हैं, उसमें जटिलता है। भविष्य के खुशनुमा तार उलझे हैं, जिन्हें दोनों सुलझाते हैं, झल्लाते हैं और बीच में छोड़कर उठ जाते हैं। यह मन और देह दोनों की जरुरत के संबंधों पर आधारित उपन्यास है। ‘सोफ़िया’(2021) उपन्यास दो अलग मजहब के लोगों के बीच पनपी प्रेम और उसका त्रासदपूर्ण अंत की कथा वर्णित है। जिसमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न लेखिका के द्वारा उठाया गया है कि- मजहब के फ़र्क की सजा प्रेमी को आखिर कब तक मिलती रहेगी…? तमाम ऐसे ज्वलंत मुद्दे जो आए दिन समाज में घटित हो रही है। लेखिका उन सभी जटिल मुद्दों पर सजग रूप से लिख रही हैं। जिसकी वजह से उनके प्रत्येक उपन्यास का विषय अलग रहा है।
स्वप्न्पाश मनीषा जी का बेहद संवेदनशील और समस्यापरक उपन्यास है। इसका प्रकाशन सामयिक पेपरबैक्स से 2022 में हुआ है। जो के.के बिरला फाउंडेशन के बिहारी सम्मान से सम्मानित कृति है। प्रस्तुत उपन्यास एक गंभीर मनोरोग स्किजोफ्रेनिया पर आधारित है। यह रचना ऐसे समय आई है जब वैश्वीकरण की अदम्यता और अपरिहार्यता के नगाड़े बज रहे हैं। स्थापित तथ्य है कि वैश्वीकरण अपने अनिवार्य घटकों- शहरीकरण और विस्थापन के द्वारा पारिवारिक ढांचें को ध्वस्त करता है। मनोचिकित्सकीय शोधों के अनुसार शहरीकरण स्किजोफ्रेनिया के होने की दर को बढ़ाता है और पारिवारिक ढांचे में टूट के कारण रोग से मुक्ति में बाधा पहुंचती है। इस गम्भीर बीमारी को परिभाषा के स्तर पर समझे तो ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी के अनुसार –“एक मानसिक बीमारी जिसमें व्यक्ति विचार, भावना और व्यवहार को जोड़ने में असमर्थ हो जाता है, जिससे वह वास्तविकता और व्यक्तिगत संबंधों से दूर हो जाता है।”1
NIH (national institute of mental health) के अनुसार – “स्किजोफ्रेनिया एक मानसिक विकार है जो विचार प्रक्रियाओं, धारणाओं, भावनात्मक प्रतिक्रिया और सामाजिक संबंधों में व्यवधान की विशेषता है। हालाँकि इसका कोर्स व्यक्तियों में अलग-अलग होता है, स्किजोफ्रेनिया आमतौर पर लगातार बना रहता है जो गंभीर और अक्षम करने वाला दोनों हो सकता है।”2 स्किजोफ्रेनिया के लक्षणों में मतिभ्रम, भ्रम और विचार विकार (सोचने के असामान्य तरीके) जैसे मनोवैज्ञानिक लक्षण शामिल हैं साथ ही भावनाओं की अभिव्यक्ति में कमी, लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रेरणा में कमी, सामाजिक संबंधों में कठिनाई, मोटर हानि और संज्ञानात्मक हानि शामिल हैं। हालाँकि लक्षण आमतौर पर देर से किशोरावस्था या प्रारंभिक वयस्कता में शुरू होते हैं, स्किजोफ्रेनिया को अक्सर विकासात्मक दृष्टिकोण से देखा जाता है। संज्ञानात्मक हानि और असामान्य व्यवहार कभी-कभी बचपन में दिखाई देते हैं और कई लक्षणों की लगातार उपस्थिति विकार के बाद के चरणों का प्रतिनिधित्व करती है। यह पैटर्न मस्तिष्क के विकास में व्यवधान के साथ-साथ प्रसवपूर्व या प्रारंभिक जीवन में तनाव जैसे पर्यावरणीय कारकों को भी प्रतिबिंबित कर सकता है। यह परिप्रेक्ष्य इस आशा को बढ़ावा देता है कि शुरुआती हस्तक्षेप से स्किजोफ्रेनिया के पाठ्यक्रम में सुधार होगा। जो अक्सर अनुपचारित छोड़ दिए जाने पर गंभीर रूप से असक्षम कर देता है।
स्किजोफ्रेनिया को लेकर हिन्दी साहित्य जगत हमेशा से उदासीन रहा है। आज तक इतनी गंभीर समस्या पर किसी साहित्यकार ने रचना नहीं की। जबकि पश्चिम के देशों में इस पर कई गूढ़ शोधपरक काम किए जा चुके हैं जो किताब की शक्ल में उपलब्ध है – ‘A HIDDEN VALLEY ROAD’, ‘A BEAUTIFUL MIND’, ‘WORDS ON BATHROOM WALLS’, ‘IS THERE NO PLACE ON EARTH FOR ME’। इससे जुड़ी कई HOLLYWOOD फ़िल्में भी बन चुकी है -‘A BEAUTIFUL MIND’, S’AVAGE GRACE’, ‘BENNY AND JOON’, ‘THE SOLOIST’ आदि। अगर बॉलीवुड की बात करें तो कुछ गिनी चुनी फ़िल्में ही बनीं है– ‘15 पार्क अवेन्यु’, ‘वो लम्हें’, ‘कार्तिक कालिंग कार्तिक’।
प्रस्तुत उपन्यास कि कथा गुलनाज फरीबा के इर्द-गिर्द घुमती है। गुलनाज के माता पिता पेशे से कलाकार हैं और वो चाहते हैं कि उनकी बच्ची भी नृत्य कला में निपुण हो। लेकिन गुलनाज को ये सब बिलकुल पसंद नहीं था। अपनी माँ के कहने पर उसने हामी भर दी। गुलनाज अपने बचपन को याद करते हुए कहती है – “हमेशा से मेरे पास दो दुनिया थी। एक दुनिया सुखी वाली, मम्मी-पापा, अच्छे लोग, अच्छे कपड़े, अच्छे गिफ्ट्स। ऊपर से सब खुशनुमा था। दुःख, खिझें, हताशाएं तो मेरी दूसरी दुनिया से बाहर निकलते रहते। मेरे लिए वो दुनिया केवल डर उपहार में लाती। क्योंकि उस दुनिया में वे उत्पाती आवाजें थीं, जो बिन चाहे मेरी बाहरी दुनिया के सुकून को नेस्तनाबूद कर जाते, जिसमें मैं रहती थी, अपने छोटे से सभ्य परिवार के साथ। मुझे प्यार दुलार के साथ रोज समझाइश की डोज मिलती रहती। मैं इकलौती बेटी थी। उनको डर था या तो मैं बिगड़ जाउंगी या मैं इकलखोर हो जाउंगी, लेकिन मैं अकेली कभी नहीं थी, मेरे साथ मेरी उत्पाती दुनिया थी।”3 इस तरह बचपन गुजरा है गुलनाज का। बड़ी नाजों से पली है। जो जीवन के सच्चाई से कोसों दूर है। उसे दुनियादारी का कोई ज्ञान नहीं है। वह इंसानों को समझना चाहती है। इसी बीच उसके जीवन में बड़ी घटना घटती है। वह पहली बार यौन शोषण का शिकार होती है। वह भी उस समय जब मम्मी के गुरु भाई उसे कथक सिखाने आते है –“वो पैंतीस साल का होगा तब, और मैं दस … उसने एक रोज धोती खोलकर एक नजारा दिखाया, इससे मुझे रात भर उल्टियाँ होती रही।”4 ऐसी घटनाएं महिलाओं और लड़कियों के साथ दुनिया के हर कोने में हर दिन, कई बार घटित हो रही है। इसका महिलाओं और लड़कियों पर अकाल्पनिक और दीर्घकालिक गंभीर शारीरिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिणाम परिलक्षित होता है, जिससे समाज में उनकी पूर्णता और समान भागीदारी खंडित होती है।
वह अपने मानसिक उत्पीड़न (जो बचपन में उसके साथ घटित हुई थी) से उबरने के लिए डॉक्टर से सहायता लेती है – “मेरे साथ अनयूजुअल (असामान्य) हो रहा है। आवाजें… मेरा लोगों को मार डालने का मन करता है। मेरा दिमाग शोर करता है – मार डाल, मार डाल… डॉक्टर विल यू हेल्प मी? विल यू अंडरस्टैंड मी?”5 अमूमन इस प्रकार के असंतुलन के लिए कई चीजें जिम्मेदार है जिनमें- “स्मोकर मदर, जन्म के समय सफोकेशन… प्रेग्नेन्सी के वक्त डिस्ट्रेस, ड्रग्स…लेकिन एब्नार्मलिटिज के साथ लोग मैंने हाइपर मगर नार्मल देखे हैं। यह जन्मजात पैरानौइक स्किजोफ्रेनिया का केस है।”6 जो आमतौर पर देखने को कम मिलता है। स्थिति बिलकुल भिन्न थी। इन व्याधियों के बाद गुलनाज समझने लगी थी उसका जीवन सामान्य बच्चों से अलग है – “यह ज्ञान मुझे बचपन में ही हो गया था कि मेरी जिंदगी थोड़ी मुश्किल थी, जबकि बाकी बच्चों की सरल वे खुद थे। लेकिन मेरे भीतर हम कई थे एक साथ। मैं, मुनक्यो, आवाजें, गुबरैले।”7 मेरे डर बढ़ते जा रहे थे। अकेले में बातें करना, काल्पनिक पात्र गढ़ना उनके साथ जीना। मेरे लिए आम बात हो चुकी थी। मेरी परेशानी दिन रात बढ़ती चली जा रही थी। मुनक्यो को लेकर हमेशा मुझे डांट पड़ती – “चुप रहो गुल, ये कल्पनाओं की दुनिया है। सच मत समझो। तुम कार्टून फ़िल्में देखना बंद करो, देखो तुम डोनल्ड डक जैसे बोलने लगी हो।”8 अब सामान्य जीवन में इसके संकेत दिखने लगे थे। जो बेहद चिंताजनक स्थिति पैदा करने वाली थी। प्रस्तुत उपन्यास में गुल जब कोलाबा मुंबई में फूटपाथ पर टहल रही थी, हल्की बूंदाबांदी हो रही थी, उसी समय अचानक विस्मृति का दौड़ा पड़ा – “मैं अहसास और समय स्थान से तालमेल गड़बड़ा बैठी। ऐसा लगा कि दिमाग का कोई चक्का चलते चलते रुक गया या उसे घुमाने वाली कोई बेल्ट टूट गयी हो।” 9 मेरी दिमागी हालत ठीक नहीं थी। एक दिन मैं चाकू से किन्हीं छायाओं पर वार करते हुए खुद को और घर की नौकरानी को घायल कर बैठी। नाना जी घबरा गये। मुझे जबरदस्ती मेडिकल कॉलेज के साईकियाट्री वार्ड में भेज दिया गया। मेरी इच्छा के खिलाफ। मैं औरों के लिए ख़तरनाक होती जा रही थी। घर लौटने के बाद मेरी प्राइवेसी छीन गयी– “नहाने के समय भी मम्मी कमरे में रहती थीं, बाथरूम की कुण्डी खुलवाकर।”10 यह दौर मेरे कॉलेज का आखिरी साल था। उस ध्वस्त समय से निकलकर मैं जो बची थी, उसे जीना चाहती थी। मैंने अब तक सुना था जैसे तेंदुए कभी अपने धब्बे नहीं बदलते, वैसे लोग कभी व्यवहार नहीं बदलते। मेरे आसपास के संसार में जो जैसा पैदा हुआ वह वैसा का वैसा ही रहा, लेकिन मैंने ही अपने धब्बों को अचानक बदलते देखा। मेरे जीवन में रोज कुछ न कुछ घटित हो रह था। अब सेक्ससुअल भ्रम के अतिरेकों ने मुझे हिला दिया था। मेरे पास कुछ बहाने थे। मैंने पान पराग, मस्ती में ली जाने वाली कोकीन छोड़ दी थी। सिगरेट नहीं पीती। मैंने मेडीटेशन भी बंद कर दिया। मेरी पोट्रेटस वीभत्स तौर पर न्यूड होने लगी … जिनमें कुछ अजीब प्राणी देह कुतुर रहे होते। बिना निपल्स वाली रक्त सनी छातियाँ … और रक्त बहाती योनी। और उस कुंड पर जीभ चलाते छोटे पंख वाले, सुंड -नलिकाओं वाले क्रूर विशाल कीड़ें।
पूरे उपन्यास में लेखिका ने स्किजोफ्रेनिक से पीड़ित लड़की की दास्ताँ को दर्ज करते हुए यह दिखलाने का प्रयास किया है कि आखिर समाज में जब भी लोगों को मौका मिलता है वो स्त्री को देह के स्तर पर ही देख पाते हैं। देह से बाहर मानवीय स्तर पर स्त्री को कम ही लोग देख पाते हैं जिनमें गुलनाज के डॉक्टर को देखा जा सकता है।वहीँ दूसरी तरफ विहान सेठ हैं जो गुल के कॉलेज का विजिटिंग प्रोफेसर है। जो पढ़ाते तो एस्थेटिक्स लेकिन उनकी निगाह सिर्फ स्त्री की देह बसती है। जो अपने बौद्धिक स्तर से लोगों में गहरी पैठ बनाए हुए हैं। जब भी मौका मिलता स्त्रियों को अपनी बातों से आकर्षित करने का प्रयास करता है। इसी कड़ी में गुल भी आकर्षित होती है – “दरअसल यह सच है कि मेरी जिंदगी में मुझे शरीरों ने नहीं दिमागों ने आकर्षित किया है। ”11 विहान के बुने जाल में गुल फंस जाती है। विहान सेठ गुरु शिष्य परंपरा को तार-तार करने से बाज नहीं आते हैं। गुल को एक फेमस आर्ट गैलरी बुलाता है जहाँ विहान के दोस्त भी आमंत्रित है। जिनमें एक प्रसिद्द फोटोग्राफर तो दूसरा आर्ट क्यूरेटर होता है। गुल के जूस में नशीली पदार्थ का मिश्रण उसे मदहोश कर देता है। फिर तीनों मिलकर उसके साथ बलात्कार करता है – “मेरी आँखों पर धुंध थी। मुझे बहुत ज्यादा कुछ याद नहीं लेकिन मैं कारपेट पर लिटा दी गयी थी। आवाजें मेरे कान सुन रहे थे। मेरा जिस्म जैसे बंदरों के हाथ टेडी बियर की तरह खिंचा जा रहा था।”12 कल्पना कीजिये उस लड़की पर क्या गुजरा होगा? जब उसका सामूहिक बलात्कार हुआ होगा। पहला शारीरिक दर्द जो भुलाया नहीं जा सकता है। एक भीषण घुटन कि कोई तुम्हें नीचे पटके हुए है। तुम्हें रौंद रहा हो और बाकी लोग ठहाके लगा रहे हों, उसे जोश दिला रहें हो – फाड़ देने के लिए। और दूसरा मानसिक पीड़ा जो बार-बार उस भयानक दृश्य को याद करके सहम उठता हो।अब पुरुषों की उपस्थिति से गुलनाज को घबराहट पैदा होती है। ऐसे हजारों तरह के डर के ख्याल मुझे घुटा देते हैं। अँधेरे का डर, अकेले होने का डर, असुरक्षा का डर कि इस धरती पर कोई कोना सुरक्षित नहीं है। न बाहर, न भीतर। कोई रिश्ता ऐसा नहीं जिसमें डंसा न जा सके। कोई उम्मीद नहीं, कोई रास्ता नहीं इन डरों से निकलने का।
उपन्यास में लेखिका ने स्त्री जीवन की विडम्बना को उजागर किया है। साथ ही स्त्री के हक में उठी आवाज़ कैसे धीमी होने लगी। उस तरफ भी हमारा ध्यान खिंचती हैं – “स्त्री स्वातंत्र का शोर मचाते नारे गूंगे हो गये हैं। औरत के लिए उठे झंडे फट गये हैं। यह गर्भाशय की सडन से त्रस्त एक वैश्यालय में मर चुकी है। सारे मोहल्ले की औरतों के फेफड़ों की ताकत कम है, उसकी आत्मा की बुझती आंच सुलगाने को !”13 इस प्रकार महिला अधिकारों के संरक्षण संगठनों के प्रति मनीषा जी ने अपनी नाराजगी दर्ज की है। ऐसे संस्थानों के प्रति जो महिला को उसका समुचित अधिकार नहीं दिलवा पा रही है। यह उपन्यास अन्य उपन्यासों से इस मायने में भी भिन्न है क्योंकि इसका प्रस्तावना उपन्यास के अन्त में लिखा गया है। जिसमें लेखिका स्किजोफ्रेनिक लोगों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए लिखती हैं – “यह प्रस्तावना इस समाज के उन एक प्रतिशत लोगों के जीवन को केंद्र में रखकर लिखी जा रही है जो स्किजोफ्रेनिया के साथ अकेले जी रहे हैं।”14 इस मानसिक विदलन का डिप्रेशन और हादसों से कोई लेना-देना नहीं, स्किजोफ्रेनिया आप अपने मस्तिष्क की बनावट में लेकर पैदा होते हो, कई बार यह जन्मजात होता है, कई बार युवा होने पर उभरता है। इसके स्तरों की और अन्य मानसिक व्याधियां के मिश्रण से उपजी संकर अवस्थाएं अंतहीन हैं। लेखिका पूरे उपन्यास में पाठकों और समाज से यही कहने का प्रयास कर रहीं हैं- “स्किजोफ्रेनिक पागल नहीं होते। उन्हें सहानुभूति की जरुरत होती है, स्किजोफ्रेनिक हिंसक होते नहीं हैं, लेकिन उनके साथ की गई उपेक्षा, डांट या मार, शराब और गलत दवाएं उन्हें हिंसक बनाती हैं। सच तो यह है कि इस उपेक्षा और सामाजिक अलगाव के चलते स्किजोफ्रेनिक आत्मघाती होते चले जाते हैं। हमें उन्हें अपने साथ लेना होगा, उनके मति भ्रमों के साथ, उनकी हताशाओं के बावजूद।”15 प्रस्तुत उपन्यास में गुलनाज के साथ भी यही होता है। परिणामतः उसे अब किसी पर भरोसा नहीं होता। दिन प्रतिदिन हिंसक होती चली जाती है। यही नहीं दो बार आत्महत्या का भी प्रयास करती है।
सम्पूर्ण उपन्यास में जो बात खुलकर सामने आती है वह – मानसिक विदलन से ग्रसित लोगों के प्रति समाज का रवैया। साथ ही लेखिका कि दृष्टि में मनुष्यों की प्रजाति सामूहिकता में स्किजोफ्रेनिया से ग्रस्त है। एक सदी बीत गई, दूसरी चल रही है, इस बीमारी के बारे में अध्ययन व शोध करते-करते, लेकिन इस मानसिक व्याधि का कारण आज तक स्पष्ट नहीं है। कयास लगते हैं – बचपन में यौन शोषण, ब्रेन की बनावट या रसायनों का लोचा, जीनियस होने की हद को पार होना इसकी वजहें हो सकती हैं।
निष्कर्ष : स्वप्नपाश बेहद संवेदनशील उपन्यास है। जिसमें लेखिका ने महिलाओं की स्थिति पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया है। गुलनाज और समाज में उसके जैसे एक प्रतिशत स्किजोफ्रेनिया से ग्रसित लोगों के प्रति हमारा समाज कैसे असंवेदनशील है? यह चिंता का विषय है। स्किजोफ्रेनिक लोग भी प्रेम, प्रतीक्षा, शंका और घृणा करते हैं। मगर अतिरेक के साथ। वे भी स्वस्थ लोगों की तरह सौजन्यता के मुखौटे ओढ़ना चाहते हैं और संयम की डोर पकड़ना चाहते हैं। लेकिन उनसे यह संभव नहीं हो पता है, क्योंकि उनके मस्तिष्क में एक भीषण असमंजस ही नहीं, कई सारी अवास्तविकताएं रहती हैं, जिनके चलते वे श्रव्य एवं दृश्य मतिभ्रम के शिकार होते चले जाते हैं। इसलिए हमें उन्हें अपने साथ लेना होगा, उनके मति भ्रमों के साथ, उनकी हताशाओं के बावजूद ताकि समाज में दुबारा कोई गुलनाज फरीबा जैसी लड़की भटके नहीं। यह कलंक नहीं है बल्कि हमारी विफलता है कि इतनी जटिल मानसिक विदलन पर चिंतन नहीं कर पा रहें हैं। हम उनके साथ घुलमिल नहीं पा रहें हैं। साथ ही यह भी उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में इस विषय पर और साहित्य लिखा जाएगा।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची
- https://www.oxfordlearnersdictionaries.com/definition/english/schizophrenia
- https://www.nimh.nih.gov/health/statistics/schizophrenia#:~:text=Schizophrenia-,Definition,be%20both%20severe%20and%20disabling
- मनीषा कुलश्रेष्ठ, स्वप्नपाश, सामयिक पेपर बैक्स, नई दिल्ली, संस्करण 2022, पृ 20
- वही, पृ 21
- वही, पृ 18
- वही, पृ 40
- वही, पृ 64-65
- वही, पृ 75
- वही, पृ 91
- वही, पृ 91
- वही, पृ 117
- वही, पृ 125-26
- वही, पृ 130
- वही, पृ 141
- वही, पृ 143