रायल्टी विवाद

रॉयल्टी विवाद में रॉयल्टी और लेखकों का पक्ष

 

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर विनोद कुमार शुक्ल की किताबों पर उन्हें उचित रॉयल्टी न मिलने और उनकी अनुमति के बिना उनकी ऑडियो किताबें निकालने का मामला उठा तो हिन्दी जगत में काफी विवाद खड़ा हो गया और धीरे धीरे हिन्दी के कई लेखकों ने प्रकाशकों द्वारा शोषण की कहानी लिखनी शुरू कर दी। इस तरह कई प्रकाशकों के चेहरे से नकाब उठने लगे और उनकी पोल खुलने लगी लेकिन जल्दी ही वह मामला थम भी गया। जब यह मुद्दा उठा था तो कुछ लोगों ने यह आशंका व्यक्त की थी कि यह मामला दूर तक नहीं जाएगा और इसके कुछ खास नतीजे नहीं निकलेंगे और कुछ दिनों के बाद यह थम जाएगा। अन्ततः उनकी आशंका सही साबित हुई और यही हुआ भी।

लेकिन इस पूरे मामले में हिन्दी के वरिष्ठ और स्थापित लेखकों और बल्कि लेखक संगठनों ने जिस तरह चुप्पी साध ली उससे लोगों को बहुत निराशा हुई। लेकिन ये लोग बुरी तरह एक्सपोज हो गये। उम्मीद की जा रही थी कि लेखक संगठन लेखकों की लड़ाई लड़ेंगे लेकिन लेखक संगठन खुलकर सामने आने के बजाय लीपापोती में ही जुट गये। केवल जनवादी लेखक संगठन का बयान आया पर उसमें लेखकों से अधिक हमदर्दी प्रकाशकों के पक्ष में दिखाई दे रही थी। उस बयान में प्रकाशकों के शोषण के खिलाफ तल्खी नज़र नहीं आ रही थी,कोई आक्रोश नहीं था जो होना चाहिए था। अन्य संगठनों ने तो एक बयान तक जारी नहीं किया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि लेखक संगठन लेखकों के साथ खड़े नहीं होना चाहते हैं। फिर वे किस बात के लेखक हैं।

एक संगठन के पदाधिकारी का तो कहना था कि यह कानूनी मामला है और इसके लिए लेखकों को कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। इसमें लेखक संगठन क्या करें। यह तो दरअसल लेखक और प्रकाशक के बीच का मामला है। यानी लेखक संगठन प्रकाशकों के खिलाफ मुहिम छेड़ने से बच रहे हैं। वे उनपर कोई दबाव नहीं बनाना चाहते। लेकिन उन्हें कोई यह कैसे बताए कि जब प्रकाशक लेखको के साथ अनुबंध ही नहीं करते हैं तो बेचारा लेखक अपनी कानूनी लड़ाई कैसे लड़े और अपने पक्ष में इस बात का सबूत कैसे दे कि फलां प्रकाशक ने उनकी रॉयल्टी मार ली है,उसका शोषण किया है। मूल सवाल यह है कि क्या प्रकाशक और लेखक एक समान धरातल पर हैं।

शायद नहीं है लेखक को अपनी किताबें प्रकाशकों के शर्त पर छपवानी पड़ती हैं और यही कारण है कि हिन्दी के कई बड़े लेखकों ने अपने पत्रों डायरियो में अपने साथ प्रकाशकों के शोषण का जिक्र किया है (शिवपूजन बाबू ने तो लिखा है उनके एक लेखक मित्र प्रकाशक ने 20 हज़ार की रॉयल्टी मार ली) लेकिन यह भी सच है कि कुछ लेखकों को प्रकाशको ने बकायदा रॉयल्टी दी है और उनकी किताबें उस जमाने में इतनी बिकी कि उनमें से कई लोगों का जीवन भी उसी रॉयल्टी से गुजरा।

प्रेमचन्द को भी शुरू में अपनी पाँच किताबें अपने पैसे से छपवानी पड़ी थी लेकिन धीरे-धीरे जब वे लोकप्रिय हो गये तो उन्हें अच्छी रॉयल्टी मिलने लगी। रंगभूमि पर तो उस जमाने में 18 सौ रुपए की रॉयल्टी मिली थी लेकिन शिवरानी देवी ने यह भी लिखा है कि प्रेमचन्द को अगर प्रकाशको ने समुचित रॉयल्टी दी होती तो उन्हें जीवन में संघर्ष कम करना पड़ता। यानी प्रेमचन्द भी प्रकाशकों के शोषण के शिकार हुए थे। प्रदीप जैन ने तो लिखा है कि प्रेमचन्द के नाम से प्रकाशकों ने फर्जी किताबे भी छापी यानी साहित्य में गोरख धन्धा तबसे चलता आ रहा है।

प्रेमचंद 

उस जमाने में उग्र को भी अच्छी खासी रॉयल्टी मिली थी। आजादी के बाद भगवती चरण वर्मा को चित्रलेखा पर अच्छी खासी रॉयल्टी मिली और उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ कर केवल इस रॉयल्टी के आधार पर अपना जीवन बसर किया। धर्मवीर भारती को गुनाहों के देवता पर भी नियमित रूप से अच्छी खासी रॉयल्टी मिलती थी लेकिन वह इतनी नहीं होती थी कि उसके सहारे वह अपना जीवन बसर कर सके। निर्मल वर्मा की पुस्तकों को लेकर राजकमल प्रकाशन से रॉयल्टी विवाद के बाद पता चला कि निर्मल जी को साल भर में एक सवा लाख रुपए की रॉयल्टी मिलती थी यानी प्रति माह 10 से 12 हज़ार। इतने कम पैसे में में कोई लेखक दिल्ली शहर में अपना जीवन जा सकता है?

लेकिन लोकप्रियता के मामले में हिन्दी का कोई लेखक गुलशन नंदा, रानू, सुरेंद्र मोहन पाठक को पीछे नहीं छोड़ सके। यहाँ तक कि शिवानी, अमृता प्रीतम, गुलज़ार को भी पीछे नही छोड़ सके। रॉयल्टी विवाद के पीछे हिन्दी साहित्य में उस गठजोड़ का भी पर्दाफाश होता है जो पुस्तकों की खरीद बिक्री और भ्रष्टाचार तथा साहित्य के बाजार से जुड़ा है। अगर यह ऐसा नहीं होता तो कई प्रकाशक रातो रात करोड़पति नहीं हो गये होते। वे रोज प्रकाशन नहीं खरीद रहे होते। वे अपार्टमेंट में महंगे महंगे फ्लैट में नहीं रहते और विमान से अक्सर यात्राएं नहीं करते। जाहिर है उनकी कमाई यह सब लेखको की किताब की बदौलत हुई लेकिन उन्होंने उस कमाई का उचित हिस्सा लेखकों को नहीं दिया। उन्होंने किताबों की खरीद के लिए रिश्वत देना मुनासिब समझा लेकिन लेखकों की रॉयल्टी नहीं दी उसका हिसाब किताब नहीं दिया।

अब स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि लेखको को अब 10 किताबें भी नहीं मिलती बल्कि 5 प्रतियाँ दी जाती है और रॉयल्टी भी 7% तक नीचे पहुँच गयी है और उसका भी समय पर भुगतान नही हो पाता है और उसका हिसाब किताब भी नहीं दिया जाता है। लेखक प्रकाशक की लड़ाई एक तरह से सत्ता के विरुद्ध लड़ाई जैसा है। प्रकाशक एक सत्त्ता है। वह लेखक से अधिक ताकतवर है। वह समझता है कि वह लेखक पैदा करता है उसे लांच करता है। वह बूकर प्राइज की लिस्ट में आने पर पार्टियाँ देता है। वह अकादमी पुरस्कार मिलने पर पार्टियाँ देता है। वह लेखकों की ब्रांडिंग करता है। हिन्दी का बेचारा लेखक उपकृत महसूस करता है। उसमें स्वाभिमान नहीं और वह प्रकाशक से मिलने के लिए घण्टों बैठा इन्तजार करता है। प्रकाशक उसके पत्रों का जवाब नहीं देता।

विनोद कुमार शुक्ल ने भी यही आरोप लगाया है कि उनके पत्रों का जवाब तक नहीं दिया गया। हिन्दी का लेखक बेचारा है। उसका बाज़ार चेतन भगत जैसा नहीं। अमीश त्रिपाठी जैसा नही। चेतन भगत को अब तक अपनी किताबों से जितनी रॉयल्टी मिली उतनी टैगोर को भी नहीं। अँग्रेजीदां मध्यवर्ग को पीतल पसन्द है सोना नहीं। वह निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, उदयप्रकाश, पंकज बिष्ट आदि को नहीं जानता वह तो चेतन भगत का मुरीद है। रॉयल्टी विवाद की जड़ें देश की फूहड़ होती बाज़ार और पुस्तक संस्कृति में भी छिपी है

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विमल कुमार

लेखक वरिष्ठ कवि और पत्रकार हैं। सम्पर्क +919968400416, vimalchorpuran@gmail.com
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