अरुणाचल प्रदेश

अनुष्ठानप्रिय मुकलोंम आदिवासी

 

मुकलोंम अरुणाचल प्रदेश के मूल निवासी हैं। ताङसा आदिवासी की उपजनजाति के रूप में मुकलोंम को जाना जाता है। अरुणाचल प्रदेश के चाङलाङ जिले के चाङलाङ, मियाओं, खरसङ और उसके आस-पास और खिमयाङ सर्कल (वृत्त) में रहने वाले ताङसा लोगों का यह एक उप समूह है। वे मूल रूप से पूर्वी भारत के पूर्व दिशा में स्थित मूकलूम नाम के एक पर्वत के आस-पास रहते थे। इस पर्वत से निकटता के कारण ही मूकलोंम जनजाति नाम पड़ा। परम्परागत रूप से मुकलोंम जनजाति ने कभी भी किसी अन्य धर्म का अनुसरण नहीं किया। वे केवल प्रकृति के आधार पर जीवने जीने में विश्वास करते आये हैं और खुद को ‘प्रकृतिजीवी’ (एनिमिस्ट) मानते हैं। जल, जंगल, पशु-पक्षी, मानव-जगत आदि से उनका साहचर्यपूर्ण जीवन एवं संगति है। वह प्रकृति के परम सत्ता यानी निराकार देवता ‘खटकरांग’/’रंग-कथक’ की स्तुति और उनका आह्वान करते हैं। मुकलोमों ने पारम्परिक रुप से किसी भी सम्प्रदाय विशेष द्वारा स्थापित ईश्वर की पूजा नहीं की और न ही किसी ईश्वर के लिए निर्दिष्ट किसी भवन या मंदिर जैसी संरचना का निर्माण किया। उन्होंने यह जरूर किया कि अपने जनजातीय बोध और गरिमा के लिए जंगल, जानवरों, मानव जैसे विभिन्न आत्माओं के साथ साहचर्य और सह-अस्तित्व का सम्बन्ध बनाया और अपने जनजातीय इतिहास को सुरक्षित रखा।

मुकलोंम आदिवासी समय के साथ अपनी तादाद में बढ़ने लगे थे। ऐसे में इस समुदाय ने दूसरी जगह स्थान बदलने के लिए यात्रा शुरू कर दी। आदिवासी समुदाय जो मैदानी इलाकों की ओर बढ़ गये, वे गैर-आदिवासी कहलाये। मैदानी भाग में गये इस समुदाय ने बाँस के पत्ते पर ज्ञान लिख लिया था जो आखिर तक उनके साथ बनी रही। उन लोगों ने वैसे ही ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया जैसा कि उनके माँ-बाप ने उनसे कहा था। यह समुदाय ज्ञानी और शिक्षित होता गया और गैर-आदिवासी कहलाया। दूसरी ओर आदिवासी समुदाय ने पहाड़ों के बीच ही अपने रहवास की जगह बना ली। इस दौरान जिस-जिस के पास माँस के चमड़े में ज्ञान और बौद्धिक विचार लिख कर भेजा गया था, वे लोग अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिए माँस के चमड़े को खा कर आगे बढ़ते गये। इस तरह यह समुदाय ज्ञान एवं शिक्षा के मामले में पीछे रह गया।

          मुकलोंम जनजाति अधिसंख्य कृषि पर निर्भर करता है जो उनका पारम्परिक पेशा है। लेकिन यह भी सच है कि शिक्षा ने मुकलोंम समुदाय के लोगों के जीवन में बदलाव लाना शुरू कर दिया है। आज बीस-तीस प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी कर रहे हैं । मुकलोंम समुदाय के पूर्वजों की आर्थिक परिस्थिति इतनी अच्छी नहीं थी। वे अपने जीवनयापन अथवा आजीविका के लिए वनों पर अधिक निर्भर थे। मुकलोंम जनजाति के ऐतिहासिक कथा के अनुसार आदिवासी लोगों ने लिखित ज्ञान की बहुमूल्य निधि जो माँस के चमड़े के रूप में उन्हें दी गई थी, को अपने भूख मिटाने के लिए खा लिया। शायद इसी कारण मुकलोंम जनजाति में इतना अज्ञान, अंधविश्वास, अशिक्षा और गरीबी बढ़ गई थी जो आज तक भी मुकलोंम जनजाति पुनः प्राप्त नही कर सका है। आज भी उनके पास इतिहास का लिखित साहित्य नहीं है। यह सच है कि इतने बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े अधिकारियों के होते हुए भी मुकलोंम समाज अपने अतीत से परिचित नहीं है। आज भी आर्थिक परिस्थिति में मुकलोंम अन्य जनजाति से काफी नीचे है। कारण कि पढ़े लिखे या बड़े अधिकारियों के होते हुए भी समाज में ज्ञान का कोई आदान-प्रदान पारस्परिक सहयोग-भावना से नहीं हो पा रहा है।

          मुकलोंम जनजाति की मातृभाषा ‘मोकलोम’ भाषा ही है। इस की शुरुआत ऐतिहासिक रूप से प्रचलित मौखिक कथा के अनुसार प्रकृति प्रदत आध्यात्मिक शक्ति से हुई है। जिस प्रकार मुकलोंम जनजाति का प्रारंभ दो भाई-बहन से हुआ था, उसके अन्तर्गत मुकलोंम जनजाति के लोगों ने जंगल-वनों में अपना निवास स्थापित करना शुरु कर दिया था। वे अपने निवास स्थान के आस-पास खेती कर गाँव का निर्माण कर रहे थे। इसलिए लोगों ने प्रकृति को अपना मुख्य देवता मान कर उसकी पूजा करना शुरु कर दिया। कथा के अनुसार मुकलोंम जनजाति के लोगों के पास कोई मौखिक भाषा नहीं थी। लोग इशारों से आपस में वार्तालाप करते थे। धीरे-धीरे लोगों ने चीजों को नाम देना शुरू कर दिया और साथ ही पूर्वजों का यह भी कहना है कि जनजाति समाज के लोग प्रकृति की पूजा पूरे श्रद्धा से करते थे। इसलिए आध्यात्मिक रूप से लोगों को मुकलोंम बोली की प्राप्ति हुई। मुकलोंम जनजाति की बोली एक है जिससे मुकलोंम आपस में अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। मुकलोंम में एक ही मातृभाषा एवं बोली होने के कारण लोग इसे आसानी से समझ लेते हैं और इसे बोला भी जा सकता है। कहा जाए तो मुकलोंम बोली सहज और सरल है। इसमें कोई विषेष परिवर्तन करके अभ्यास नहीं करना पड़ता है। यह सीधे-सीधे बोलियों में बोला जाता है। इस सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय सचाई यह है कि आज तक मुकलोंम जनजाति की कोई भी बात लिखित रूप में प्रकाश में नहीं आया है और न ही इनके साहित्य सार्वजनिक रूप से प्रकाश में आ सके हैं।

मुकलोंम जनजाति रंगकथक को आज ‘रांगफ्रा’ धर्म के नाम से जानता है। मुकलोंम समाज में इसे रांगफ्रा नामक मूर्तिपूजक देवता के आकार अथवा रूप-रंग में हिन्दू धर्म के समान जाना जाता है। आज ये ‘स्वदेशी धर्म’ के अन्तर्गत आते हैं। कुछ मुकलोंमों ने अब दिव्य आत्माओं को खुश करने की अपनी पारम्परिक प्रथा को बन्द कर इसाई धर्म अपना लिया है। अब यह समुदाय पारम्परिक अनुष्ठान के प्रति आग्रही नहीं रह गया है। आज कुछ मुकलोंम लोगों के सोच-विचार ऐसे बन गये हैं जिसको केवल धर्म ही दिखता है। अब भाईचारा घट रही है या उनमें आपसी  विश्वास कम होने लगी है। अब पहले की तरह सामूहिक एकता अथवा एकजुटता नहीं दिखाई पड़ती है जो बेहद चिन्ता की बात है। मुकलोंम जनजाति की बोली एक है जिसे ताङसा समुदाय आसानी से समझने लग गये हैं। आज के युग में मुकलोंम बोली को गैर आदिवासी जनजातियाँ भी आसानी से समझने लग गये हैं।

मुकलोंम जनजाति का समाज पारम्परिक रूप से समृद्ध है। समुदाय के लोग पूर्वजों के समय से ही विभिन्न अनुष्ठानों का नियमबद्ध ढंग से पालन करते हैं। यह उनकी संस्कृति का हिस्सा है। नवजात बच्चे के जन्म से लेकर मृत्युकाल तक मुकलोंम समुदाय अलग-अलग पद्धतियों में अगाध  विश्वास करता आया है। मूकलोंम समाज में यह अनुष्ठान परम्परागत पूर्वजों के समय से चली आ रही है जब भी किसी के घर नवजात बच्चे का जन्म होता है तो इस शिशु का स्वागत धूमधाम से किया जाता है और पूरे रीति-रिवाज के साथ विधिवत अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है। इस अवसर पर देवताओं को धन्यवाद दिया जाता है।

         पूर्वजों के समय में लड़का-लड़की एक-दूसरे को पसन्द करके शादी नहीं करते थे। उस समय आपसी सहमति से शादी तय कर दी जाती थी यानी कि लड़के के माँ-बाप लड़की के माँ-बाप आपस में ही तीसरे आदमी के साथ मिलकर यह सम्बन्ध जोड़ देते थे। इसे मुकलोंम समुदाय में ‘कामवा’ कहा जाता है। यह परम्परा पूर्वजों से चली आ रही है। परन्तु इस युग में लड़का-लड़की की पसन्द, ना-पसन्द और राय को प्राथमिकता दी जाने लगी है। मुकलोंम रीति-रिवाज के अनुसार लड़के वाले लड़की वालों को दो गाय अथवा एक मिथुन एवं एक सुअर के साथ लड़की के रिश्तेदारों को कुछ रुपये भी नियम के अनुसार सौंपते हैं। शादी के समय सब रिश्तेदारों को अपने सम्बन्ध के अनुसार विभिन्न रस्मों और अपनी भूमिका को निभाना पड़ता है। जैसे बड़े भइया, बड़ी दीदी, बुआ, चाचा-चाची, मामा-मामी को यह रस्म निभाना अनिवार्य माना जाता है। ऐसा होने के बाद ही शादी सम्पन्न होती है। शादी के बाद भी शादी के घर में जितने भी काम में हाथ बँटाने आते हैं, उन्हें रिवाज के अनुसार बाँस के डिब्बे में दारु भर कर के और माँस के टुकड़े को हरी पत्तियों में बाँध कर उन सभी के घरों में भेजा जाता है। तभी ही शादी के अनुष्ठान को पूर्ण रुप से सम्पन्न माना जाता है।

आदिवासी समुदाय कृषि कार्य की शुरुआत प्रायः मार्च महीने में करते हैं। मुकलोंम जनजाति में पूर्वजों से ही परम्परागत कृषि-कार्य करने की विधि चली आ रही है। खेती से सम्बन्धित अनुष्ठान विषेष ढंग से प्रयोजन अनुसार सम्पन्न किया जाता है। सबसे पहले खेत तैयार करने की बारी आती है जिससे पूर्व उस स्थान पर बड़े-बुजुर्ग हाथ में चावल और दारु लेकर जाते हैं और चावल व दारु को आपस में मिश्रण कर के एक बाँस में हरी पत्ती से बाँध कर फसल काटने वाले स्थान पर चुनवा  देते हैं। हर वर्ष धान लगाने का समय मई के महीने से आरम्भ होता है। यह महीना मुकलोंम जनजाति के लिए एक त्योहार के बराबर होता है। धान लगाने के लिए हर किसी के घर से एक-दो व्यक्ति का जाना अनिवार्य होता है। उसी तरह जब नवम्बर महीना आता है तो सारे धान लाल होकर पक जाते है तब एक और महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान कार्य होता है जिसको मुकलोंम में ’चमतुक’ कहते हैं। चमतुक दो शब्दों से मिलकर बना है-‘चम’ यानी धान और ‘तुक’ मतलब तोड़ना या काटना। यह चमतुक मुकलोंम समाज में दो दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। इन्हीं दो दिनों में गाँव के किसी एक सदस्य को धान के पत्ते तोड़ने के लिए सुबह में जाना होता है। सामान्यतः स्त्रियाँ जाती हैं, लेकिन कोई औरत न होने की स्थिति में घर के पुरुष सदस्य को जाना पड़ता है। सुबह में ही लाल रंग के जले हुए पत्थर के साथ चावल भुनने या जलाने का रस्म यानी ‘लोङतोक’ पूरा किया जाता है तथा इनको घर लाए धान के इन पत्तों को ‘वंचाप’ (सूप) में रखते हैं। तदुपरांत मातृभूमि के प्रति आस्था जताते हुए अच्छे फसल की कामना की जाती है। चमतुक के रीति-रिवाज के अनुसार मुकलोंम समाज के लोग एक जगह पर मिट्टी इकट्ठा कर उससे पहाड़-सी आकृति बनाते हैं जिसे स्थानीय भाषा में ‘हाफोफो’ कहते हैं। हफोफो के पास ही पेड़ के कलम रोपते हैं जिसे मुकलोंम आदिवासी ‘मंरूङबङ’ कहा जाता है। इस अनुष्ठान-विधि को सम्पन्न करने का दायित्व गाँव के एक ही परिवार के जिम्मे होता है। उनको मुकलोंम लोग ‘ञुङवा’ कहते हैं। चमतुक में सूअर या गाय अथवा मिथुन की बलि दी जाती है। यह अनुष्ठान ‘ञुङवा’ परिवार के सदस्य अपने हाथों सम्पन्न करते हैं। इस दौरान बलि दिए गये पशु के ऊपर चावल के अक्षत फेंककर फसल के अच्छे और अधिक होने की कामना और प्रार्थना (रोमंतम) की जाती है। अनुष्ठान के अन्तर्गत बलि दिए गये पशु के कलेजे को जलाकर तथा अपोङ (स्थानीय दारू) के साथ मिलाकर ‘हाफोफो’ में रखा जाता है। बाद में इन्हें प्रसाद के रूप में गाँव के सभी घरों में पहुँचाया जाता है। चमतुक के स्थान ‘हफोफो’ पर गाँव के लोग चावल एवं माँस पकाकर खाते हैं तथा गाँव के जो बड़े-बुजुर्ग हैं वे स्थानीय दारू के बूँदों को भूमि पर अर्पित करते हुए ‘रोमंतम’ यानी प्रार्थना करते हैं। चमतुक के दूसरे दिन मुकलोंम गाँव के लोग पारम्परिक मान्यता के अनुसार बाहर या कि जंगल नहीं जाते हैं। साथ ही लाल मिट्टी को खोदना मना होता है। इस तरह के निषेध की अवहेलना करने की स्थिति में उन पर दण्ड लगाया जाता है जिसका मुकलोंमवासी सख्ती से अनुपालन करते हैं। चमतुक की यह दो-दिनी प्रक्रिया पूरे विधि-विधान से निपटाए जाते हैं और लोग एक-दूसरे के यहाँ जाकर माँस का आहार लेते और दारू पीते हैं। 

मुकलोंम त्योहार पूर्वजों से ही पारम्परिक अनुष्ठान मनाते चले आ रहे हैं। त्योहार को मुकलोंम समुदाय में ’मोह-मोल’ कहते हैं। यह त्योहर अप्रैल महीने में जोर-शोर से मनाया जाता है और 25 अप्रैल को चाङलाङ जिले में सारे आदिवासी जनजातियों के लिए त्योहार कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। जिसमें मुकलोंम जनजाति सांस्कृतिक वस्त्र-वेशभूषा, आभूषण, रंग-बिरंगे साज-सज्जा अत्यन्त मनोहारी दृष्य प्रदर्शित करते हैं। पुरुषों का पहनावा अलग है। जैसे-सिर की टोपी को बाँस के सूत से बनाया जाता है और उसमें चिड़ियों के पंखों को भी सजाया जाता है। गले के आभूषण के लिए बाँस के सूत से बना गोले आकार का माला तैयार किया जाता है। दोनों हाथों-पैरों के लिए बाँस के सूत से बनी चीज को पहनाया जाता है। बाँस के टोपी को मुकलोंम में  ‘खोपोक’ कहते हैं। पुरुष के वस्त्र साधारण होते हैं। ऊपरी हिस्से के शरीर में सफेद बनियान और नीचे के लिए नीला बनियान और साथ में पतली-सी चार डोरियों को बनियान के ऊपर बाँधते हैं।

उस चादर में नीले रंग के साथ लाल और सफेद रंग का मिश्रण भी दिखता है जिसे चादर के आखिरी हिस्से में मिलाया जाता है। पुरुषों की वेश-भूषा में सबसे अधिक सजावट होता है। इस त्योहर के मौके पर सबसे महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय चीज ढोल होते हैं जिसे मुकलोंम में ’नोङ’ कहते हैं। इसे माँस के चमड़े से ही तैयार किया जाता है। कोने-कोने में बाँस के सूत से इसे बाँधा जाता है। इसे बजाने के लिए लकड़ी के डंडे का उपयोग किया जाता है। मुकलोंम समुदाय में स्त्रियों का त्योहारी वस्त्र-आभूषण अत्यन्त सुन्दर और रंग-बिरंगा होता है। इनके ऊपरी हिस्से के वस्त्र सफेद रंग के होते हैं जिसे नीली ओढ़नी के साथ पहना जाता है। सफेद रंग के साथ लाल रंग के मेखला जिसको मुकलोंम में ‘खतसा’ कहते हैं। साथ में गले में बाँस के सूत से बना गोले आकार के और साथ ही सिक्के से बने हुए व लाल रंग के अनेक प्रकार की मालाएँ पहनाई जाती हैं। हाथों-पैरों में भी बाँस के बने कंगन और सूत को बाँधते हैं और सिर पर बाँस के सूत से बनी पट्टियों के साथ तीन लाठी जो लकड़ी का बना हुआ होता है, उस पर चिड़ियों के पंखें और प्लास्टिक के बने रंग-बिरंगी पट्टियाँ सजे होते हैं।

हमारे पूर्वजों का मानना था कि मनुष्य मरने के बाद अपनी-अपनी जनजाति के पूर्वजों के पास चला जाता है। यह मान्यता आज भी है। मुकलोंम समुदाय में मृत्यु के बाद तुरन्त ही मृत शरीर को पानी से नहलाया जाता है और मृत शरीर को घर के ठीक बीचो-बीच एक जगह पर रखते हैं। उस मृत शरीर को तीन दिन तक उसी स्थान पर रखा जाता है। उस मृत शरीर को खाना-पानी देते हैं और धान की टोकरी उसके सिरहाने पर रख देते हैं। तीन दिन होते ही सारे गाँव वाले मृत शरीर को जलाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करते हैं। मुकलोंम समाज में मृत शरीर को जलाया जाता है जबकि अन्य ताङसा के उपजनजातियों में मृत शरीर को दफनाया जाता है। मृत शरीर को जलाने के लिए ले जाते समय घर के सारे लोग घर को खाली छोड़ देते हैं और कोई भी आदमी पीछे मुड़ कर नहीं देखता है। पीछे मुड़ कर देखने से अशुभ माना जाता है।

         आज के युग में इस दिशा में गहन तरीके से विचार-विमर्श की आवश्यकता है तथा मुकलोंम समुदाय के साहित्य के दस्तावेजीकरण की दिशा में ठोस कदम, निर्णय और आपसी सहयोग अपेक्षित है। आधुनिक समय-समाज और बदली हुई परिस्थितियों के साथ मुकलोंम समाज विकास की ओर बढ़ने का पूरा प्रयास कर रहा है और उनमें अपनी आर्थिक परिस्थितियों को भी मजबूत व सुदृढ़ करने का संकल्प दिखाई दे रहा है। यह उम्मीद की जानी चाहिए कि सांस्कृतिक विविधता एवं भाषाई बहुलता वाले देश के एक प्रमुख राज्य के रूप में अरुणाचल प्रदेश की गरिमा और ऐतिहासिक गौरव को आगे बढ़ाने एवं ऊपर उठाने में ताङसा जनजाति की उप-जनजाति के बतौर मुकलोंम समुदाय का योगायोग सर्वाधिक होगा और इस समुदाय की अपनी पहचान और अस्मिता सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता भी बरकरार रह पाएगी

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चावाङ ताङहा

लेखक  हिन्दी विभाग, राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, दोईमुख (अरुणाचल प्रदेश) में शोधार्थी हैं।  +918119982652, chawangtangha6272@gmail.com
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