राष्ट्रकवि दिनकर, राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के खतरे
रामधारी सिंह दिनकर के सम्बन्ध में लगभग एक स्थापना सी बन चुकी है कि वे थोड़े-थोड़े सबको अच्छे लगते हैं। उनमें राष्ट्रवाद के भी तत्व हैं, गाँधीवाद और मार्क्सवाद के भी तत्व हैं। दिनकर के प्रायः आलोचक उन्हें थोड़ा गाँधीवादी भी मानते हैं और थोड़ा मार्क्सवादी भी, थोड़ा राष्ट्रवादी भी और थोड़ा हिन्दूवादी भी। संभवतः उनके मूल्यांकन की इसी प्रवृत्ति के कारण वे टुकड़ों-टुकड़ों में सबको अच्छे लगते हैं। कमाल तो यह कि उन्हें टुकड़ों-टुकड़ों में वे भी पसन्द करते हैं जिन्हें दिनकर ने अपने जीवन में कभी पसन्द नहीं किया। दिनकर को टुकड़ों-टुकड़ों में देखने का ही नतीजा है कि आज हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ दिनकर को ‛अपना’ बताने का लगातार अभियान चला रही हैं। ये अपने राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धि के लिए विरोधी विचारधारा पर निशाना साधते हुए दिनकर को उनके व्यापक सन्दर्भों से काटकर उनका दुरुपयोग कर रही हैं। ऐसे समय में, दिनकर को लेकर पाठकों में एक ठोस समझदारी विकसित करने की आवश्यकता है ताकि राहु के ग्रसने से दिनकर को बचाया जा सके।
महात्मा गाँधी जैसे महान हिन्दू की हत्यारी और पं. जवाहरलाल नेहरू की स्मृतियों को कलंकित करनेवाली हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ आज सत्ता के केंद्र में हैं। ये अब भी गाँधी की हत्या को जायज ठहराती हैं। इसलिए गोड्से की मूर्तियाँ लगाती हैं और उस हत्यारे की पूजा करती हैं। दिलचस्प बात यह कि ये अपनी सुविधा के अनुरूप गाँधी को कभी पूजती भी हैं और कलंकित भी करती हैं। वही हत्यारी हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ आज दिनकर को भी अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के लिए उतावली हो रही हैं। जबकि दिनकर इन हिन्दुत्ववादी शक्तियों के बिल्कुल ख़िलाफ़ थे।
दिनकर को गाँधी और नेहरू दोनों पसन्द थे। अनेक अवसरों पर गाँधी और नेहरू से उनकी असहमतियाँ भी प्रकट हुई हैं। उनकी कविताओं में कभी-कभार दोनों की तीखी आलोचनाएं भी मिलती हैं। इसके बावजूद उन दोनों की विराटता से वे न केवल अवगत थे, बल्कि अभिभूत भी थे। 1947 में दिनकर की चार कविताओं का एक कव्य-संग्रह ‛बापू’ नाम से छपा। उसमें गाँधी की विराटता के प्रति दिनकर की अगाध श्रद्धा देखी जा सकती है। वे कहते हैं ‛बापू मैं तेरा समयुगीन, है बात बड़ी, पर कहने दे / लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे।’ दिनकर के लिए गाँधी गरिमा के महासिंधु थे। क्योंकि वे एक ऐतिहासिक परिघटना के रूप में सत्य और अहिंसा के बल पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को न सिर्फ चुनौती दे रहे थे, बल्कि उसे शिकस्त भी दे रहे थे। दिनकर ने ‛बापू’ में लिखा कि ‛विस्मय है, जिस पर घोर लौह-पुरुषों का कोई बस न चला / उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला।’ किन्तु ‛बापू’ के प्रकाशन के छह महीने के भीतर दिनकर के ‛दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला’ हिन्दुत्ववादियों के हाथों मार दिया गया।
गाँधी की हत्या से दिनकर को बहुत आघात पहुँचा था। उनकी हत्या के तत्काल बाद ‛बापू’ का दूसरा संस्करण छपा। इसमें दिनकर ने इन हिन्दुत्ववादियों को लताड़ लगाते हुए लिखा कि ‛लिखता हूँ कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर / बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर।’ गाँधी की हत्या पर हिन्दुत्ववादियों के विरुद्ध इतनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाला दिनकर को छोड़ शायद ही कोई दूसरा कवि हो। उन्होंने आगे लिखा है कि ‛कहने में जीभ सिहरती है / मूर्च्छित हो जाती कलम / हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा।’ दिनकर की राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताओं के आधार पर दिनकर को ‛अपना’ बताने वाले गोड्से पूजक हिन्दुत्ववादियों को उनकी इन पंक्तियों से निश्चय ही छठी का दूध याद आता होगा।
पं. जवाहरलाल नेहरू की स्मृतियों को कलंकित करने के लिए हिन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा प्रायोजित तरीके से निरन्तर अभियान चलाया जा रहा है। नेहरू को मुसलमान और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है! फासीवादी दौर का जर्मन चिंतक वाल्टर बेंजामिन कहता था कि फासीवादी शक्तियों से जीवितों के मुक़ाबले मृतकों को अधिक खतरा रहता है क्योंकि ये मृतकों को सबसे अधिक कलंकित करते हैं। आज गाँधी और नेहरू को सबसे अधिक कलंकित किया जा रहा है। जबकि ये दोनों दिनकर को सर्वाधिक प्रिय थे। अधिकतर लोग यह जानते हैं कि नेहरू ने दिनकर की प्रसिद्ध गद्य कृति ‛संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका लिखी है।
किन्तु कमतर लोग यह जानते हैं कि दिनकर ने नेहरू को ‛लोकदेव’ की उपाधि देकर ‛लोकदेव नेहरू’ नाम की एक किताब लिखी थी। नेहरू के प्रति दिनकर के विचारों को 1955 ई. में लिखे ‛शांति की समस्या’ नामक उनके एक लेख से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने बल देकर कहा है कि ‛आनेवाला विश्व सिकन्दर और हिटलर का विश्व नहीं, बुद्ध, ईसा, गाँधी और जवाहर का संसार होगा।’ इसी लेख में उन्होंने ‛पंचशील’ पर आधारित नेहरू की विदेश नीति का समर्थन करते हुए लिखा कि ‛प्रत्येक देश की वैश्विक नीति उसके राष्ट्रीय चरित्र की परछाईं होती है। हमारा राष्ट्रीय चरित्र योद्धा का नहीं, शांति सेवक का रहा है।’ किन्तु इसके विपरीत आज हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ देश की सत्ता पर काबिज होकर देश के नागरिकों के बीच भय, अविश्वास, घृणा व अशांति का वातावरण उत्पन्न कर रही हैं, अपने पड़ोसी देशों के साथ शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध कायम करते हुए देश के भीतर युद्ध का एक छद्म वातावरण निर्मित की हुई हैं और अमेरिकी साम्राज्यवाद की चाकरी में देश की संप्रभुता को खत्म कर रही हैं।
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दिनकर हिन्दी समाज में सबसे अधिक उद्धृत किये जाने वाले आधुनिक कवियों में एक हैं। परन्तु इधर उन्हीं की काव्य-पंक्तियों को उनके वास्तविक सन्दर्भों से काटकर हिन्दुत्ववादियों द्वारा अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि दिनकर अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के बिल्कुल विरोधी थे। वास्तव में, उनमें युद्ध और शांति को लेकर एक अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है। वे कभी युद्ध के पक्ष में तो कभी शांति के पक्ष में खड़े दिखते हैं। 1930 ई. में नमक सत्याग्रह के जरिये गाँधी ने ब्रिटिश हुकूमत पर एक भारी दबाव बनाया था। लेकिन उसके बाद जब 1931 ई. में वे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने चले गये तो अपेक्षाकृत युवा कवि दिनकर गाँधी से नाराज होकर 1933 ई. में ‛हिमालय’ नामक कविता में गाँधी के लिए कह डाला कि ‛रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ / जाने दे उसको स्वर्ग धीर / पर, फिरा हमें गांडीव-गदा / लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।’ तब दिनकर गाँधी के सत्य और अहिंसा की जरूरतों को सिरे से खारिज करते हुए भगत सिंह और चन्द्रशेखर आजाद की क्रांतिकारी धारा के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।
क्या चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह युद्धोन्मादी और अंधराष्ट्रवादी थे? वे क्रांतिकारी थे। उनके पास भावी भारत के स्वप्न और स्वरूप थे। भगत सिंह अपना आदर्श लेनिन को मानते थे। वे कार्ल मार्क्स के वैज्ञानिक चिंतन के रास्ते भारत में समाजवादी क्रांति करना चाहते थे। दिनकर गाँधी की जगह भगत सिंह की समाजवादी क्रांति के पक्ष में खड़े होते हैं। भारत-चीन युद्ध के बाद भी वे ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ करते हैं। परन्तु इसका आशय यह नहीं कि वे अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के पक्ष में खड़े हैं। वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय प्रचार विभाग में उपनिदेशक के पद पर कार्यरत थे। इस दौरान उन्होंने साम्राज्यवाद की कुटिलता और युद्ध की भयावहता को बहुत नजदीक से देखा-समझा था। संभवतः इसलिए उनकी कविताओं का बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध के ख़िलाफ़ है। दिनकर अंधराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद के कवि कदापि नहीं हैं। वे राष्ट्रीय अस्मिता के साथ पौरुष, प्रेम, शांति और सौंदर्य के कवि हैं।
परन्तु हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए दिनकर के विराट लेखकीय व्यक्तित्व को संकुचित ही नहीं कर रही हैं, कलंकित भी कर रही हैं। दिनकर ‛राष्ट्रकवि’ हैं। मगर उन्हें हिन्दुत्ववादियों द्वारा वोट के राजनीतिक फायदे के लिए ‛जाति विशेष के कवि’ के रूप में परोसने की कोशिश की जा रही है। इनके द्वारा दिनकर की जयंती और पुण्यतिथि के बहाने जातीय गोलबन्दी की राजनीति की जा रही है। 2014 ई. में बिहार चुनाव को ध्यान में रखकर दिनकर की जाति को गोलबंद करने की नियत से ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के प्रकाशन के 58वें वर्ष को जबरन 50वें वर्ष घोषित कर एक बड़ा आयोजन किया गया था। इन आयोजनों का मकसद दिनकर का साहित्यिक मूल्यांकन करना अथवा उनके विचारों को वृहत्तर समाज तक ले जाना नहीं होता बल्कि ‛राष्ट्रकवि’ के नाम पर उनकी जाति के वोटों का ध्रुवीकरण करना होता है। इन आयोजनों में वक्ताओं द्वारा दिनकर के नाम से (वक्ताओं द्वारा दिनकर रचित बताया जाता है!) उन्हीं की काव्य-शैली में ऐसी-ऐसी पंक्तियाँ पढ़ी जाती हैं जिनका उनसे दूर-दूर तक का सम्बन्ध नहीं है। नमूना के तौर पर ‛हुंकार हूँ, हुंकार हूँ / सिमरिया का भूमिहार हूँ।’ इन पंक्तियों को सुनकर स्वयं दिनकर भी अपना सिर पिट लेते !
सन 1961 ई. में किन्हीं रामसागर चौधरी को उनके पत्र के जवाब में लिखे दिनकर का पत्र पढ़कर दिनकर के नाम पर जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति करने वालों के पांव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी : ‛प्रिय रामसागर चौधरी जी, सच ही, मैं आपको नहीं जानता ….अगर आप भूमिहार-वंश में जनमे या मैं जनमा तो यह काम हमने अपनी इच्छा से तो नहीं किया, उसी प्रकार जो लोग दूसरी जातियों में जनमते हैं, उनका भी अपने जन्म पर अधिकार नहीं होता। हमारे वश की बात यह है कि भूमिहार होकर भी हम गुण केवल भूमिहारों में ही नहीं देखें।’ दिनकर जातिवाद के विरुद्ध थे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध काव्य-कृति ‛रश्मिरथी’ में जाति-गोत्र की सत्ता को नकारते हुए ज्ञान और योग्यता के महत्व को स्थापित किया है।जाति-भेद के कारण सदियों से समाज में उपेक्षित कर्ण को पहली बार दिनकर की वजह से ‛रश्मिरथी’ में उसकी योग्यता के आधार पर उसे ऊँचे आसन पर आसीन होने का अवसर मिला था। इस काव्य में न जाने कितनी बार ‛जाति’ शब्द का प्रयोग हुआ है और न जाने कितनी पंक्तियाँ जाति-व्यवस्था’ के विरोध में खर्च हुई हैं !
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दिनकर को अपनाने को लेकर हिन्दुत्ववादी शक्तियों के दावे बढ़े हैं। ऐसे में, हमें दिनकर के उन संदर्भों की पड़ताल करनी चाहिए जो हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को लेकर लिखे गये हैं। उन संदर्भों की पड़ताल के लिए उनकी सबसे उपयुक्त पुस्तक ‛संस्कृति के चार अध्याय’ है। इस पुस्तक का महत्व इसलिए भी है कि इसमें हिन्दू और इस्लाम के बीच के जटिल संबंधों की पड़ताल की गयी है। सबसे पहले कि इस्लाम धर्म के प्रति दिनकर की समझ क्या थी और वे हिंदुओं में इस्लाम की कैसी समझ विकसित करना चाहते थे? दिनकर के विचार हैं कि ‛हिन्दुओं को भी इस बात का ज्ञान प्राप्त करना है कि इस्लाम का भी अर्थ शांति-धर्म ही है।इस धर्म का मौलिक रूप अत्यंत तेजस्वी था तथा जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किये, वे शुद्ध इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे। दिनकर धर्म और राजनीति को अलग-अलग चीज समझते थे। वे मुस्लिम आक्रांताओं को इस्लाम का प्रतिनिधि नहीं मानते जबकि हिन्दुत्ववादियों का सारा जोर उन आक्रांताओं के बहाने भारतीय मुसलमानों के प्रति हिंदुओं के मन में घृणा पैदा करने पर है।
दिनकर इतिहास की वस्तुनिष्ठता को अक्षुण्ण बनाये रखने के पक्षधर थे। जबकि हिन्दुत्ववादियों का पूरा जोर ऐतिहासिक तथ्यों को गड्डमड्ड कर हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में घृणा पैदा करने पर है। दिनकर हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए भी ऐतिहासिक तथ्यों में छेड़छाड़ के पक्षधर नहीं थे। वे ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि ‛हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए इतिहास की घटनाओं पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। न यही योग्य है कि हम इस्लाम पर पड़ने वाले हिन्दू प्रभाव अथवा हिन्दुत्व पर पड़नेवाले मुस्लिम प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें। जो बातें जैसी हैं, इतिहास में उनका वर्णन वैसा ही रहेगा।’ वे भारत में इस्लाम के आगमन को भारत के लिए एक सांस्कृतिक अध्याय के रूप में देखते हैं। इसमें इस्लाम ने हिन्दू जीवन को प्रभावित किया और हिन्दू जीवन ने इस्लाम को। हिन्दुत्ववादियों द्वारा बारबार भारतीय मुसलमानों को आक्रांता और हिन्दू धर्म का विरोधी बताया जाता है।
जबकि दिनकर ने यहाँ ‛बाबर का वसीयतनामा’ के जरिये यह दिखाने की कोशिश की है कि बाबर ने हुमायूँ को इस देश में सारे धर्मों के साथ बराबरी का व्यवहार करने की शिक्षा दी थी। आज हिन्दुत्ववादियों द्वारा उसी ‛बाबर’ के बहाने भारतीय मुसलमानों को ‛हिन्दू-विरोधी’ घोषित कर इनकी देशभक्ति पर सवाल खड़ा किया जा रहा है। उनसे राष्ट्रीयता का सबूत मांगा जा रहा है। दिनकर के जमाने में भी हिन्दुत्ववादी कमोबेश यही कर रहे थे। संभवतः इसीलिए दिनकर ने अक़बर इलाहाबादी, चकबस्त, जोश मलीहाबादी, जमील मज़हरी, सागर निज़ामी और सीमाब अकबराबादी के लेखन को सामने लाकर दिखाया कि किस तरह इनकी रचनाओं में राष्ट्रीयता के स्वर मुखरित हुए हैं। दिनकर ने भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रीयता पर संदेह करने के विचारों को खारिज किया था किन्तु हिन्दुत्ववादियों के कारनामों से भारतीय मुसलमानों को आज अपनी राष्ट्रीयता बचाने के लिए सड़कों पर प्रदर्शन करना पड़ रहा है।
दिनकर के सम्बन्ध में कुछ ऐसे भी मत हैं जिन पर बात करना जरूरी है। एक मत तो यह है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में दिनकर को वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसके वे हक़दार थे। इसका कारण भी बताया जाता है कि वे कभी किसी साहित्यान्दोलन का हिस्सा नहीं रहे और अपनी राह पर एकला चलते रहे। इसी मत के साथ यह भी बात कही जाती है कि दिनकर को हिन्दी के साहित्येतिहास में भले उपयुक्त स्थान नहीं मिला हो, परन्तु जनता के हृदय में उन्हें उच्च आसन प्राप्त है। यह बात पहले भी कही जा चुकी है कि निःसन्देह दिनकर जनता द्वारा सबसे अधिक उद्धृत किये जाने वाले हिन्दी के आधुनिक कवियों में एक हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर हिन्दी साहित्य के लगभग सभी इतिहास ग्रन्थों में उन्हें स्थान दिया गया है। शायद ही हिन्दी के किसी साहित्येतिहास में उन्हें छोड़ दिया गया हो। जहाँ तक ‛उचित स्थान’ की बात है तो यह हमेशा से एक विवादास्पद विषय रहा है कि अमुक कवि या लेखक को अमुक इतिहास में कम जगह मिली है। यह विवाद न सिर्फ दिनकर के साथ जुड़ा हुआ है बल्कि कबीर और तुलसी आदि कवियों के साथ भी जुड़ा हुआ है। कभी-कभी प्रायोजित तरीके से भी इस प्रकार के तथ्यहीन आरोप इतिहासकारों पर लगाये जाते हैं। ऐसे में, पाठकों से रचनाकारों के पाठ को सामने रखकर साहित्येतिहास का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने की अपेक्षा बढ़ जाती हैं।
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हिन्दुत्ववादियों द्वारा जब से दिनकर को ‛लपकने’ का अभियान चलाया गया है तब से इनके कुछ लेखक गिरोह भी सक्रिय हुए हैं। इनका काम दिनकर की रचनात्मकता की पहचान करना नहीं है। इनका नियत काम दिनकर के बहाने विरोधी विचारधाराओं पर प्रहार करना है। ऐसे में, ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब भी ये अपनी विरोधी विचारधाराओं पर दिनकर के बहाने प्रहार करते हैं तब इनकी बातों में दिनकर के संदर्भ गायब रहते हैं या फिर ‛इस कोठी का माल उस कोठी में’ किया हुआ रहता है।जैसे झूठ के पांव नहीं होते, वैसे ही झूठ बोलने वालों के पास सन्दर्भ नहीं होते। इधर हिन्दुत्ववादी लेखकों द्वारा यह प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है कि हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचक दिनकर के प्रति उदासीन रहे हैं। ऐसा आरोप लगाते हुए इन्हें बिहार के ही प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक खगेन्द्र ठाकुर की याद नहीं रही, जिन्होंने दिनकर पर वृहद कार्य के रूप में ‛रामधारी सिंह दिनकर : व्यक्तित्व और कृतित्व’ नाम की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। संभव है कि दिनकर पर हिन्दी के कुछ चर्चित मार्क्सवादी आलोचकों ने किताबें न लिखी हों, परन्तु दिनकर पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख व समीक्षाएं भरी पड़ी हैं। ऐसे दुष्प्रचारों का अन्तिम लक्ष्य अपने राजनीतिक हितसाधन के लिए दिनकर के पाठक-वर्ग को गुमराह करना है।
हद तो इन हिन्दुत्ववादी प्रचारकों की तब दिखाई पड़ती है जब ये यह तक लिखने पर उतर जाते हैं कि दिनकर से मार्क्सवादियों की खीझ पुरानी है। क्या दिनकर से मार्क्सवादियों की इस पुरानी खीझ का कोई संदर्भ है? दिनकर के सन्दर्भों के बगैर दिनकर पर हवाहवाई बात करने का क्या मतलब! मतलब है उनकी छवि को धूमिल करना और उनके पाठकों को गुमराह करना। जबकि दिनकर के साथ मार्क्सवादियों के अच्छे संबंधों के अनेक संदर्भ हैं। विदित है कि प्रगतिशील लेखक संघ का लक्ष्य मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य की रचना करना है। यह मार्क्सवादी लेखकों का सबसे पुराना संगठन है। 1944 ई. में पटना में आयोजित इसके प्रथम बिहार राज्य सम्मेलन में दिनकर न केवल शामिल थे बल्कि बतौर स्वागताध्यक्ष शामिल थे। इस सम्मेलन में उनके द्वारा दिया गया स्वागत भाषण उपलब्ध है। उस समय तक प्रयोगवाद नाम से एक नया काव्यान्दोलन सामने आ चुका था जिसके अगुआ अज्ञेय थे।
प्रयोगवादी आंदोलन का समूचा जोर अनुभूतियों की कलात्मक अभिव्यक्ति पर था। दिनकर ने अपने स्वागत भाषण में प्रयोगवादी आंदोलन को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि ‛साहित्य की स्वाभाविक प्रक्रिया अनुभूतियों का ग्रहण और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है। लेकिन ऐसा दिखता है कि सारा विवाद इस अनुभूति को लेकर ही उपस्थित होता है। कुछ आलोचकों की राय में अनुभूति का अर्थ चिकने घने केशों, प्रेमी की आँखें, नदियों के प्रवाह और पर्वतों की शोभा, विरह, प्रेम तथा ईश्वर-परक भावों की होती है। क्योंकि ये भाव सार्वभौम तथा सार्वकालिक होते हैं। पेट की पीड़ा अथवा ठंढ से ठिठुरने वाली वेदना की अनुभूति, अनुभूति नहीं प्रचार है। प्रगतिवाद की राजनीतिप्रियता के कारण उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।’ उसमें प्रगतिवाद के राजनीतिक दर्शन मार्क्सवाद का विरोध करने वाले प्रयोगवादियों की दिनकर ने जमकर आलोचना की थी।
इसी भाषण में वे साहित्य की मार्क्सवादी दृष्टि के महत्व को स्थापित करते हुए लेखकों को सावधान करते हैं कि ‛साहित्य सोच ले कि उसे क्या करना है? क्या वह मानव-मन स्तरों पर अनुसंधान करने में अपनी शक्तियों का अपव्यय करेगा, क्लासिक और एकादमिक होकर रह जाएगा या उन लोगों के साथ चलेगा जो भविष्य के कोटर पर कब्जा करने जा रहे हैं।’ इन संदर्भों से सवाल बनते हैं कि यदि दिनकर से मार्क्सवादियों को खीझ होती तो क्या उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम बिहार राज्य सम्मेलन का स्वागताध्यक्ष बनाया जाता? हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ तथ्यों के बगैर इधर मार्क्सवादियों को दिनकर का विरोधी घोषित करने में लगी हुई हैं और उधर दिनकर अपने विचारों से मार्क्सवादी साहित्य दृष्टि की महत्ता स्थापित करने में लगे हुए थे।
दिनकर के दृष्टिकोण को परस्पर दो ही विचारधाराओं के परिप्रेक्ष्य में रखकर समझा जा सकता है और ये दोनों विचारधाराएँ हिन्दुत्ववाद के विरोधी हैं। उनके दृष्टिकोण का पहला ध्रुव है मार्क्सवाद और दूसरा ध्रुव गाँधीवाद है। वे विचारधाराओं के इन्हीं दो ध्रुवों के बीच आजीवन आवाजाही करते रहे हैं। उनके सामने एक तरफ गाँधी के सत्याग्रह आंदोलन और ब्रिटिश राज से होने वाले समझौते थे तो दूसरी तरफ भगत सिंह के क्रांतिकारी मार्क्सवादी विचार और उनके आमूलचूल परिवर्तन के पक्ष में होने वाले हस्तक्षेप थे। दिनकर के भीतर इनमें किसी एक के चुनाव को लेकर सदैव असमंजस बना रहा है। उनके असमंजस को उन्हीं के जरिये समझा जा सकता है ‛अच्छे लगते मार्क्स, किन्तु है अधिक प्रेम गाँधी से / प्रिय है शीतल पवन, प्रेरणा लेता हूँ आंधी से।’ दिनकर ने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्हें गाँधी से प्रेम है और कार्ल मार्क्स उनकी प्रेरणा के स्रोत हैं।
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इसलिए उनमें गाँधीवाद और मार्क्सवाद दोनों के तत्व हैं। उनमें गाँधी के सत्य, अहिंसा और शांति से प्रेम भी है और कार्ल मार्क्स के साम्राज्यवाद विरोधी तथा सर्वहारा क्रांति के विचार भी हैं। इन्हीं दो विचारधाराओं के आधार पर वे भविष्य के स्वप्न देख रहे थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते समय अपने वक्तव्य में उन्होंने अपनी प्रेरणाओं के श्रोत के सम्बन्ध में कहा था कि ‛जिस तरह मैं जवानी भर इक़बाल और रवींद्र के बीच झटके खाता रहा हूँ, उसी प्रकार मैं जीवन भर गाँधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूँ। इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है। मेरा विश्वास है कि अंततोगत्वा यही रंग भारत के भविष्य का रंग होगा।’
इसलिए दिनकर के पाठकों तथा आलोचकों को उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता की समझ को लेकर ऐसे समय में किसी प्रकार की दुविधा की गुंजाइश नहीं रखनी चाहिये। दिनकर पर हिन्दुत्ववादी शक्तियों के दावे अंततः दिनकर पर उनके हमले हैं। इसलिए दिनकर के पाठकों और आलोचकों की तटस्थता के कारण उनकी एक ‛विराट कवि’ की छवि को नुकसान पहुँच रहा है। स्वयं दिनकर ‛तटस्थता’ के विरोधी थे।अतः उनकी वास्तविक पहचान को सुरक्षित बनाये रखने की दृष्टि से मजबूत हस्तक्षेप की जरूरत है।
मौजूदा परिस्थितियों में दिनकर की ‛राष्ट्रवाद’ सम्बन्धी समझ को दृढ़ता के साथ रेखांकित करने की जरूरत है क्योंकि हिन्दुत्ववादी शक्तियाँ उनकी राष्ट्रीय भावों की ओजपूर्ण कविताओं के सहारे अपने अंधराष्ट्रवाद के अभियान को साधना चाहती हैं। यह अकारण नहीं है कि हिमालय के शिखरों पर चढ़कर उनकी कविताओं के ‛आलाप’ किये जा रहे हैं। ऐसा संभवतः इसलिए किया जा रहा है कि हिन्दी समाज में दिनकर की वास्तविक पहचान को लेकर घोर अभाव दिखाई पड़ता है। उनकी विविध भावों की काव्य-पंक्तियों के साथ ओजपूर्ण राष्ट्रीय भावों से ओतप्रोत ऐसी अनेक काव्य-पंक्तियाँ हैं जो विशेषतः हिन्दी समाज के आम जनों के कंठों में जगह बना चुकी हैं।
परन्तु दिनकर को लेकर उनमें ठीक उसी प्रकार की समझ दिखाई पड़ती है, जिस प्रकार की समझ भगत सिंह को लेकर भारतीय समाज में दिखाई पड़ती है। आम जनों में भगत सिंह की छवि बम-पिस्तौल चलाने वाले एक युवक की गढ़ दी गयी है। जबकि इसके विपरीत, उनकी वास्तविक पहचान एक महान क्रांतिकारी चिंतक की है, जिसके पास भारत के निर्माण का एक बहुत बड़ा प्रारूप था। अब तक उन प्रारूपों के आधार पर भारतीय समाज में उनकी वास्तविक पहचान नहीं बन सकी है। यहाँ तक कि एक समाज का बहुत बड़ा अनुभाग उन्हें आर्यसमाज के साथ जोड़ कर देखता है। इधर, दिनकर की भी मूल पहचान को विकृत कर उनकी ‛राष्ट्रवाद’ सम्बन्धी समझ को हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के पूरक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में, देखना यह होगा कि आख़िर राष्ट्रवाद को लेकर दिनकर की अपनी समझ क्या थी?
दिनकर की ‛राष्ट्रवाद’ सम्बन्धी समझ को उनकी प्रमुख कृति ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के संदर्भों से काफी हद तक समझा जा सकता है। इसमें वे लिखते हैं कि ‛सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विभिन्नताओं के बावजूद भारत एक देश है। इसकी विभिन्नता ही इसकी खूबसूरती है।’ वे भारत को विभिन्नताओं के बावजूद एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में देख रहे थे। उनकी दृष्टि में विविधताएं कहीं से भी भारतीय राष्ट्र की एकता में बाधक नहीं हैं। बल्कि वे इन बहुसांस्कृतिकता, बहुधार्मिकता, बहुभाषिकता, बहुक्षेत्रीयता जैसे विविध तत्वों को भारतीय राष्ट्र की खूबसूरती के रूप में देख रहे थे। भारतीय राष्ट्र में पायी जाने वाली विविधताओं के पारस्परिक संबंधों के विषय में दिनकर कहते हैं कि ‛सारा भारत, आरंभ से ही, संसार के सभी धर्मों की सम्मिलित भूमि रहा है…भारत ने विभिन्न विचारों, मतों, धर्मों और संस्कृतियों के बीच पूरा सामंजस्य बिठा दिया और इन्हीं विभिन्नताओं का समन्वित रूप हमारा सबसे बड़ा उत्तराधिकार है।’ दिनकर की दृष्टि में भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी भूमि पर सभी धर्मों के लोगों का समान अधिकार है। वे यहाँ के सभी धर्मों, विचारों, मतों तथा संस्कृतियों के बीच आपसी सामंजस्य देख रहे थे। उनके लिए भारतीय राष्ट्र न सिर्फ विविधताओं का समन्वितरूप था बल्कि उत्तराधिकार में मिले इस समन्वित रूप का संरक्षण करना एक उत्तरदायित्व भी था।
दिनकर का ‛राष्ट्रवाद’ बहुवचनीय है। उन्होंने इसकी खोज भारतीय चिंतनधाराओं में की थीं। उन्हें उत्तरदायित्वस्वरूप जो बहुलतावादी संस्कृति मिली थी, उसकी जड़ें उन्हें जैन धर्म के अनेकांतवादी दर्शन में दिखाई पड़ी थीं । वे कहते हैं कि ‛अनेकांतवादी वह है जो दूसरों के मतों को आदर से देखना और समझना चाहता है। अशोक और हर्ष अनेकांतवादी थे, जिन्होंने एक धर्म में दीक्षित होते हुए भी सभी धर्मों की सेवा की। अकबर अनेकांतवादी था, क्योंकि सत्य के सारे रूप उसे किसी एक धर्म में दिखाई नहीं दिए और संपूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहा। परमहंस रामकृष्ण अनेकांतवादी थे, क्योंकि हिन्दू होते हुए भी उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की साधना की थी। और गाँधी जी का सारा जीवन ही अनेकांतवाद का मुक्त अध्याय था।’ इस प्रकार से दिनकर की विविधता के साथ एकता वाले ‛राष्ट्रवाद’ सम्बन्धी समझ पर महावीर के अनेकांतवाद का भी असर देखा जा सकता है।
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दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ में सभी धर्मों, संप्रदायों, मतों, विचारों एवं संस्कृतियों को बराबर की प्रतिष्ठा हासिल है। उनकी दृष्टि में यह बहुवचनीयता भारतीय राष्ट्र को सशक्त भी करती है और सुंदर भी बनाती है। परन्तु इधर कुछ वर्षों से दिनकर के बहुवचनीय ‛राष्ट्रवाद’ को ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ की भीषण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। हिन्दुत्ववादी उनके विचारों पर सुनियोजित तरीके से निरन्तर आघात कर रहे हैं। ताज़्जुब यह कि इसके बावजूद ये दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ को ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ के समानार्थी रुप में प्रस्तुत करने का षड़यंत्र भी कर रहे हैं ! जबकि दोनों के ‛राष्ट्रवाद’ सम्बन्धी चिंतन में न केवल जमीन-आसमान का फ़र्क है बल्कि दोनों एक-दूसरे के विरोध में भी खड़े हैं। एक का ‛राष्ट्रवाद’ बहुवचनीय है तो दूसरे का ‛राष्ट्रवाद’ एकवचनीय है। दिनकर के राष्ट्रवाद में ‛सर्व धर्म समभाव’ है तो हिन्दुत्व राष्ट्रवाद में ‛एकोहं द्वितीयोनास्ति’ पर जोर है।’ हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के मुताबिक भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, जिसमें गैर-हिंदुओं के लिए कोई स्थान नहीं है या फिर है भी तो दोयम दर्ज़े का। सावरकर ने स्वयं कहा है कि ‛हिन्दुत्व के लक्षण हैं – एक राष्ट्र, एक जाति, एक संस्कृति।’ सावरकर ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ के विरुद्ध धर्माधारित ‛एकरूपतावादी राष्ट्रवाद’ के हिमायती थे।
राष्ट्रवाद को लेकर दिनकर और हिन्दुत्ववाद की समझ के बीच के विरोधी संबंधों को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने से बखूबी समझा जा सकता है। यही वह दौर है जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत में ‛राष्ट्रवाद’ के विचार विकसित हुए हैं। दुनिया में ‛राष्ट्रवाद’ की अनेक अवधारणाएँ हैं और उन अवधारणाओं की आलोचनाएँ भी हैं। कमोबेश यही स्थिति भारत में भी देखी जा सकती है। इस दौर में यहाँ भी ‛राष्ट्रवाद’ की दो प्रमुख अवधारणाओं को आपस में टकराते हुए देख सकते हैं। एक अवधारणा ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ की थी तो दूसरी ‛एकरूपतावादी राष्ट्रवाद’ की। इस दूसरी अवधारणा के तहत धर्माधारित राष्ट्र के निर्माण का विचार है जिसका प्रतिनिधित्व एक तरफ़ ‛इस्लामी राष्ट्रवाद’ के रूप में पाकिस्तान के निर्माण के लिए मुस्लिम लीग कर रही थी तो दूसरी तरफ़ ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ के रूप में हिन्दुस्थान के निर्माण के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ।
परन्तु आपस में एक-दूसरे के विरोधी दिखने वाले व ऊपर-ऊपर ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्ति की आकांक्षा का भ्रम पैदा करने वाले ‛राष्ट्रवाद’ के ये दोनों ही विचार मूलतः ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा निर्मित व पोषित थे और ये दोनों ही उसे मजबूत कर रहे थे। इन दोनों अवधारणाओं के इतिहास-भूगोल पर अलग से बात करने की जरूरत है और इन पर बात करने के लिए संभव है कि विदेशी श्रोतों का सहारा लेना पड़े। फ़िलहाल इतना ही कि इन्हीं धर्माधारित ‛राष्ट्रवाद’ के विचारों का नतीजा था – भारतीय राष्ट्र का विभाजन और भीषण रक्तपात। दूसरी अवधारणा ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ की थी जो स्वतंत्रता आंदोलन के रूप में भारतीय समाज में राजनीतिक, सामाजिक, धर्मिक व सांस्कृतिक आदि जागृति का विचार विकसित कर रही थी। इसका प्रतिनिधित्व गाँधी, नेहरू, टैगोर, मौलाना आज़ाद के साथ भगत सिंह व चन्द्रशेखर आज़ाद आदि कर रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के विचारों के साथ विकसित होने वाले इसी ‛बहुलतावादी राष्ट्रवाद’ के बरक्स दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ सम्बन्धी विचारों को समझा जाना चाहिए।
दिनकर स्वतंत्रता अंदोलन के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक व समाजवादी मूल्यों के रचनाकार लेखक थे। ये ही मूल्य ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में उनकी लेखकीय दृष्टि के रूप में प्रतिफलित हुए हैं। वे इस पुस्तक का सार रूप प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि ‛ मेरी पुस्तक का विषय भारत की सामासिक संस्कृति का जन्म और विकास है। मेरी धारणा यह है कि भारत में जब आर्य और आर्येतर जातियों का मिलन हुआ, तब वही मिश्रित जनता भारत की बुनियादी जनता हुई और उसका मिश्रित संस्कार ही भारत का बुनियादी संस्कार हुआ। इस बुनियादी संस्कृति में पहली क्रांति महावीर और बुद्ध ने की। फिर, जब मुसलमान आये तब उस संस्कृति में नई सामासिकता उत्पन्न हुई और जब यूरोप भारत पहुँचा तब हमारी संस्कृति फिर से नवीन हो गयी।’ इस कथन से भारतीय संस्कृति के प्रति उनके न केवल उदार दृष्टिकोण का पता चलता है बल्कि इससे इस बात का भी अंदाज़ा लग सकता है कि वे कितने विशाल राष्ट्र की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे।
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क्या हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के आकांक्षी इस पुस्तक की स्थापनाओं को कभी पचा पाएंगे? यदि ये इसे पचा ही पाए होते तो सन 1962 ई. में ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के तीसरे संस्करण की भूमिका में दिनकर भला यह क्योंकर लिखते कि ‛ मेरी स्थापनाओं से सनातनी भी दुःखी हैं और आर्यसमाजी तथा ब्रह्मसमाजी भी। उग्र हिन्दुत्व के समर्थक तो इस ग्रंथ से काफी नाराज हैं।’ यह भूमिका ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ के रचना-काल के क़रीब की है। जिस ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ के हवाले हिन्दुत्ववादी सदैव अपने राजनीतिक विरोधियों पर रंग जमाते रहते हैं, उसी के रचना-काल में हिन्दुत्ववादियों द्वारा ‛संस्कृति के चार अध्याय’ के किये गये विरोधों को उजागर कर दिनकर ने इनकी दुखती रगों पर अपना हाथ रख दिया था। यह तीसरे संस्करण की भूमिका उसी ‛संस्कृति के चार अध्याय’ की है, जिसे कुछ सालों से हिन्दुत्ववादी अपने सिर पर इस तरह से उठाये फिर रहे हैं मानों यह ग्रन्थ इन्हीं के ‛हिन्दुत्ववादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को जायज ठहराने के लिए लिखा गया हो !
दिनकर ने ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में भारत के सांस्कृतिक जीवन में युगान्तकारी परिवर्तन लाने वाले चार महत्वपूर्ण अध्यायों को सामने रखा है। उनमें क्रमशः आर्यों का भारत में आना, बुद्ध का आविर्भाव, भारत में इस्लाम का आगमन एवं भारत में अंग्रेज़ों का प्रवेश है। दिनकर ने जिस इतिहास दृष्टि से भारतीय सांस्कृतिक जीवन को इन चार अध्यायों में रख कर समझा था, उसे हिंदुत्वादी शक्तियाँ झूठा कहकर खारिज कर रही हैं। वे ‛संस्कृति के चार अध्याय’ में भारत की बहुलतावादी संस्कृति के निर्माण में भारत के बाहर से आये हुए आर्यों तथा भारत की मूल आर्येतर जातियों की भूमिका को इस रूप में रेखांकित करते हैं कि ‛भारतीय संस्कृति सामासिक है – इसका निर्माण भारत की मूल जाति नीग्रो, आग्नेय, द्रविड़ आदि के साथ आर्यों (विदेशियों) के मिलन से हुआ।’ वे भारत की मूल जाति नीग्रो, आग्नेय, द्रविड़ आदि को मानते हैं और आर्यों को बाहरी अथवा विदेशी। परन्तु हिन्दुत्ववादी तो आर्यों को बाहरी मानने से साफ इनकार करते हैं। ये आर्यों के बाहरी होने के प्रश्न को अपनी अस्मिता से जोड़ कर देखते हैं। इनकी दृष्टि में सिर्फ इस्लाम बाहरी हैं।
इस्लाम के विषय में इनकी समझ है कि ये न सिर्फ बाहरी हैं बल्कि बाहरी आक्रमणकारी भी हैं। जबकि दिनकर ने इस्लाम और आक्रमणकारियों में फ़र्क करते हुए कहा है कि ‛ जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किए, वे शुद्ध रूप से इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे। इन अत्याचारों को इसलिए हमें भूलना है कि उसका कारण ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं…और इसलिए भी कि उन्हें भूले बिना हम देश में एकता स्थापित नहीं कर सकते।’ वे इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ‛जिस मुसलमान के कारण इस्लाम भारत में उतना बदनाम हुआ, वह ईरानी कम, तुर्क या हूण अधिक था और अरबी तथा ईरानी संस्कृति की उदारता उसमें नहीं थी।’ दिनकर इतिहास के कंटीले रास्तों पर वर्तमान को नहीं ले जाना चाहते थे। वे भारतीय राष्ट्र को इतिहास के उन अनुभवों के साथ जोड़ कर आगे बढ़ाना चाहते थे जो राष्ट्रीय एकता व अखंडता को मजबूत कर सके। जबकि हिन्दुत्ववादी बार-बार इतिहास के उन्हीं अध्यायों को उद्घाटित करते रहते हैं जिससे कच्चे हिन्दू मनों में भारतीय मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा हो सके।
दिनकर राष्ट्रकवि हैं, उन्होंने गद्य-पद्य में काफी कुछ लिखा है। परन्तु उनका एक भी ऐसा उद्धरण देखने के लिए नहीं मिलता जिसमें उन्होंने अपने आप को हिन्दुत्ववादी कहा हो या फिर इस्लाम के प्रति किसी भी रूप में दुराग्रह के कोई संकेत दिये हों। बल्कि ठीक इसके विपरीत, अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें उन्होंने हिन्दुत्ववाद की कड़ी आलोचना की है। दिनकर भारतीय संस्कृति के निर्माता के रूप में बुद्ध और महावीर को देखते हैं। ये दोनों ही भारतीय दार्शनिक परंपरा के अंतर्गत नास्तिक दर्शन के प्रतिपादक थे। बुद्ध ने स्थापित वर्णाश्रम व्यवस्था के साथ वैदिक मान्यताओं को खारिज किया था। उन्हें सत्य, अहिंसा, करुणा और प्रेम को सर्वोत्तम मानवीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय जाता है। दिनकर बुद्ध के विचारों के इतने कायल थे कि वे चाहते थे कि भारत बुद्ध के रास्ते आगे बढ़े। जबकि सावरकर का मनना था कि बुद्ध के कारण ही देश गुलाम हुआ, उनका बुद्ध के सम्बन्ध में कथन है कि ‛उनका गौरव हमारा है तो पतन भी तो हमारा है।’ हिन्दुत्ववाद का पूरा जोर भारतीय समाज पर बुद्ध के विचारों के विपरीत वैदिक मान्यताओं व वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थापित करना तथा ‛मनुस्मृति’ के रूप में एक आचार संहिता को थोपने पर है। वर्ना इस उत्तर-आधुनिक दुनिया में गणेश के धड़ में हाथी के सिर जोड़ने के मिथक को ‛प्लास्टिक सर्जरी’ की तकनीक का वैदिक-भारत में होने की हास्यास्पद बात भला दूसरा कौन समझदार और जिम्मेदार व्यक्ति कर सकता था !
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हिन्दुत्ववाद के जीवन-काल को यदि कायदे से देखें तो इस विचारधारा का विज्ञान में न कोई योगदान रहा है, न कोई विश्वास। इसकी पूरी दिमागी कसरत ‛संस्कृति’ पर है और ‛संस्कृति’ भी क्या? हिन्दू संस्कृति ! वास्तव में ‛हिन्दू संस्कृति’ जैसी कोई एक चीज इस देश में है भी नहीं। इस भारतीय उपमहाद्वीप में क्या हिंदुओं की कोई एक संस्कृति है? क्या हिमाचल के हिंदुओं की संस्कृति और केरल के हिंदुओं की संस्कृति एक है? क्या गुजरात के हिंदुओं की वही संस्कृति है जो बंगाल के हिंदुओं की है? जब एक क्षेत्र के हिंदुओं की संस्कृति दूसरे क्षेत्र के हिंदुओं की संस्कृति से भिन्न है, तब भारत को एक ‛हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्र’ कैसे बनाया जा सकता है? हाँ, ‛हिन्दू राष्ट्रवाद’ के नाम पर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण तो हो सकता है परन्तु ‛हिन्दू संस्कृति’ के नाम पर आपस में ‛संस्कृतियों का संविलयन’ नहीं हो सकता। इसी तरह हिन्दुत्ववाद अर्थशास्त्र के मामलों में भी ‛खाली हाथ’ है।
यह बहुत दिनों तक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आर्थिक विचारों को अपने कंधों पर उठाये तो फिरा था किन्तु भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद उनके भी आर्थिक विचारों को अपने कंधे से उतार फेंका। देख सकते हैं कि ‛राष्ट्रवाद’ की आड़ में राष्ट्रीय संपत्तियों को किस तेजी के साथ पूंजीपतियों के हाथों औने-पौने दामों में बेचा जा रहा है। शेष सार्वजनिक संस्थाओं को सुनियोजित तरीके से कमजोर किया जा रहा है। राष्ट्रीयकृत बैंकों को कमजोर करने की नियत से संविलयन किया गया है। इस बीच एक भी कायदे का सार्वजनिक संस्थान या उद्योग खड़ा करने का उदाहरण नहीं मिल सकता है। यह कैसा ‛राष्ट्रवाद’ है जो हर दिन राष्ट्रीय संपत्तियों को निजी हाथों में बेचता रहता है? क्या राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को बेहाल करना भी कोई ‛राष्ट्रवाद’ है? क्या ऐसा ‛राष्ट्रवाद’ कभी राष्ट्रकवि दिनकर का ‛राष्ट्रवाद’ हो सकता है !
दिनकर की चिंता में सर्वप्रथम देश है, राष्ट्रवाद बाद में। यानि उनमें देश-प्रेम की वज़ह से ‛राष्ट्रवाद’ है, ‛राष्ट्रवाद’ की वज़ह से देश-प्रेम नहीं है। जबकि हिन्दुत्ववाद का आदि भी ‛राष्ट्रवाद’ है और अंत भी। इसके आदि और अंत के बीच कोई ‛मध्य’ नहीं आता। इसका ‛राष्ट्रवाद’ एक खास किस्म का कार्यक्रम है। यह भारत की सांस्कृतिक बहुलता को खत्म कर हिन्दुत्व की सांस्कृतिक अवधारणाओं को भारतीय राष्ट्र में जोर-जबरदस्ती के साथ लागू करने का लक्ष्य लेकर चलता है। इस प्रकार की प्रवृति से ‛राष्ट्रवाद’ की जगह ‛अंधराष्ट्रवाद’ पैदा होता है। यह ‛अंधराष्ट्रवाद’ अंतर्राष्ट्रीय समुदायों के बीच दो किस्म के सम्बन्ध कायम करता है, एक मित्र-राष्ट्र के रूप में और दूसरा शत्रु-राष्ट्र के रूप में। राष्ट्रीय समुदायों के बीच भी जोर-जबरदस्ती के साथ यही काम करता है।
अपने नागरिकों को दो खेमों में बांटता है, एक खेमा देशभक्त के रूप में और दूसरा देशद्रोही के रुप में। ऐसा नहीं है कि यह कभी देश-प्रेम की बात नहीं करता हो। यह अपना समूचा कार्यक्रम देश-प्रेम की खाल ओढ़कर ही तो करता है ! दिनकर इनके देश-प्रेम पर चोट करते हुए अपने ‛जननी जन्मभूमि’ नामक निबंध में लिखते हैं कि ‛अपने देश से प्रेम करना बहुत अच्छा है… किन्तु अपने देश को सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य देशों से घृणा करना बिल्कुल बेजा बात है।’ दिनकर मिथ्याभिमान और घृणा पर टिके हुए ‛राष्ट्रवाद’ के विरुद्ध थे। देश में धार्मिकता की आड़ में जिस प्रकार से हिन्दुत्व की विचारधारा को स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं, उसके सम्बन्ध में दिनकर के विचार हैं कि ‛धार्मिकता की अति ने देश का विनाश किया, इस अनुमान से भागा नहीं जा सकता है और यह धार्मिकता भी ग़लत किस्म की धार्मिकता थी।’ ज़ाहिर है कि दिनकर इस कट्टरता, कुटिलता और संकीर्णता से भरी धार्मिकता पर आधारित ‛राष्ट्रवाद’ के पक्ष में नहीं थे।
दिनकर वास्तव में, देश-प्रेम के कवि और आलोचनात्मक ‛राष्ट्रवाद’ के लेखक थे। उनकी रचनाओं में ‛राष्ट्रवाद’ के दो रूप दिखाई पड़ते हैं। एक ‛सामान्यीकृत राष्ट्रवाद’ का रूप है और दूसरा ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ का रूप है। ध्यान देने की बात है कि हिन्दुत्ववादी अक्सर उनके ‛सामान्यीकृत राष्ट्रवाद’ के ही कुछ अंशों का उपयोग करते हैं। ये कभी भूल से भी उनके ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ के क्षेत्र में घुसपैठ करने की हिम्मत नहीं कर पाते। जब वे राष्ट्रीय आपदा की घड़ी में सीधे-सीधे राष्ट्र को संबोधित कर रहे होते हैं तब उनकी रचनाओं में ‛सामान्यीकृत राष्ट्रीयता’ का रूप उभर कर सामने आता है। चाहे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उत्पन्न होने वाली भीषण परिस्थितियों के विरुद्ध लिखी गयी रचनाएं हों या भारत-चीन युद्ध के बाद लिखी गयी ‛परशुराम की प्रतीक्षा’ आदि जैसी रचनाएं हों। इसमें उनकी एक-एक पंक्ति में हताशा, निराशा, कुंठा, पराजय, कायरता आदि के विरुद्ध तलवारें चमकती हैं, ललकारें भरी रहती हैं, शौर्य का प्रदर्शन होता है, राष्ट्रीय भावों के बोध होते हैं, सत्ता से संघर्ष होता है और क्रांति का जयघोष सुनाई पड़ता है। आम स्थितियों में की गयी रचनाओं में वे गर्जन-तर्जन सुनाई नहीं पड़ते।
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हिन्दुत्ववादी उनके गर्जन-तर्जन मात्र से भरी रचनाओं का ही इस्तेमाल किया करते हैं। क्योंकि ये दैहिक शौर्य के आग्रही होते हैं। इसलिए इन रचनाओं के जरिये इनका ध्येय मात्र राजनीति का हिन्दुकरण और हिंदुओं का सैन्यीकरण करना होता है। उनकी आम स्थितियों की रचनाओं में जीवन और प्रकृति के सौंदर्य के साथ भारतीय समाज की विसंगतियाँ भरी रहती हैं। भारतीय समाज में कोढ़ की तरह व्याप्त धार्मिक और सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ़ क्षोभ रहता है। किसानों की दुर्दशा के चित्रण होते हैं। भारत की अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, बेकारी आदि की पीड़ा होती है। उनके ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ में सामान्यतः ‛राष्ट्रवाद’ की कम, विशेषतः किसान, मजदूर, वंचितों की आवाज अधिक सुनायी पड़ती है। अतएव, दिनकर के इस ‛विशेषीकृत राष्ट्रवाद’ को समझे बगैर उनके ‛राष्ट्रवाद’ के वास्तविक स्वरूप को कायदे से नहीं समझा जा सकता है।
दिनकर के ‛राष्ट्रवाद’ में बच्चों के लिए भी पर्याप्त स्थान और अवसर है। उन्होंने इसमें बच्चों के स्वप्न, कल्पना, जिज्ञासा, अभिव्यक्ति, प्रश्नाकुलता, भाव-बोध, खेल, खुली प्रकृति आदि की काफी चिंता की है। बच्चे राष्ट्र की बुनियाद होते हैं। इसलिए उन्होंने बच्चों को केंद्र में रखकर प्रचुर मात्रा में ‛बाल कविताएं’ लिखीं। उनमें ‛चाँद का कुर्ता’, ‛सूरज का ब्याह” ‛चूहे की दिल्ली यात्रा’ आदि ऐसी अनेक कविताएं हैं जो बच्चों के होठों पर चस्पां हो जाती हैं। उन्होंने बालिकाओं के जीवन को भी अपनी कविताओं के केंद्र में रखना जरूरी समझा था, तभी तो वे ‛बालिका से वधू’ जैसी सुंदर कविता की रचना करते हैं। दिनकर बच्चों को राष्ट्र के जीवन के साथ जोड़कर देख रहे थे। परन्तु ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ में उन बच्चों की कितनी चिंता है? क्या इस ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ में भूखे-नंगे, कुपोषण और महामारी के शिकार, बीमार, अशिक्षित बच्चों की कोई चिंता दिखाई पड़ती है? क्या इसमें बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सौहार्दपूर्ण सामाजिक वातावरण मुहैया कराये जाने के कोई प्रमाण मिलते हैं? क्या इसमें बच्चों के भीतर जनतांत्रिक मूल्यों और आलोचनात्मक विवेक विकसित करने की कोई व्यवस्था दिखाई पड़ती है? आखिर सवाल यह कि क्या इसमें दिनकर की बालिकाओं को ‛बालिका से वधू’ तक की निर्बाध यात्रा करने के अवसर दिये गये हैं?
दिनकर जिन बच्चों में भारत का जीवन देख रहे थे, इस ‛हिन्दुत्व राष्ट्रवाद’ में उन बच्चों का जीवन खतरे में है। यदि इन बच्चों का जीवन खतरे में नहीं होता तो भला आलोचनात्मक, वैज्ञानिक और स्वतंत्र चिंतन की अभिव्यक्ति के कारण इन्हें देशद्रोह के मुकदमें और जेल की यातना से लेकर सामाजिक विरोध का सामना क्यों करना पड़ता? यह कैसा ‛राष्ट्रवाद’ है जो अपने ही बच्चों के खिलाफ विश्वविद्यालयों में तोपों की तैनाती करने का विचार रखता है ! यह ऐसा ‛राष्ट्रवाद’ है जिसमें वैज्ञानिक चिंतन और स्वतंत्र विचार के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इस ‛राष्ट्रवाद’ में सत्ता से सवाल करना देशद्रोह है। जबकि दिनकर अपने समय की सत्ता को अधिक – से – अधिक जनतांत्रिक बनाने के उद्देश्य से सदैव कटु प्रश्न पूछा करते रहे थे। इस ‛हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद’ में सत्ता से प्रश्न पूछने वाले लेखकों को या तो देशद्रोह और अर्बन नक्सल का मुक़दमा ठोक कर जेलों में बंद कर दिया जाता है या फिर उनकी हत्या कर दी जाती है। जो दिनकर अपने समय का सूर्य थे, जो सदैव सत्ता से प्रश्न पूछते थे, उन्हें भी इस ‛हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद’ में प्रश्न पूछने की मनाही है। जो ‛राष्ट्रवाद’ दिनकरों को प्रश्न पूछने पर मार डालता हो, वह भला दिनकर का ‛राष्ट्रवाद’ कैसे हो सकता है !
राष्ट्रकवि दिनकर जनता के कवि हैं। उन्हें जनता पसन्द करती है। इसलिए कला, साहित्य, इतिहास, राजनीति, धर्म, संस्कृति, जीवन-जगत, देश, राष्ट्र, राष्ट्रवाद, अंतर्राष्ट्रीयतावाद, राष्ट्र के निर्माताओं आदि के संबंधों में उनके व्यापक दृष्टिकोणों को जनता के बीच ले जाने की जरूरत है। क्योंकि यह ऐसा दौर है जिसमें ‛अंधराष्ट्रवाद’ के स्वप्नों को साकार करने के लिए कवियों, लेखकों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, छात्र-छात्राओं को देशद्रोह के झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल की यातना देने से लेकर उनकी हत्याएं तक की जा रही हैं। हद तो यह है कि मृत लेखकों तक को नहीं छोड़ा जा रहा है। उनके विचारों को या तो कलंकित किया जा रहा है या फिर अपने राजनीतिक हितों के लिए उनके विचारों को विकृत करके प्रस्तुत किया जा रहा है। रामधारी सिंह दिनकर के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। देश में घृणा और उन्माद पैदा करने के लिए जैसे टीवी पर रक्षा विशेषज्ञ के तौर पर ‛टीवी सैनिक’ बहाल किये गए हैं, वैसे ही अखबारों व पत्रिकाओं के लिए साहित्य विशेषज्ञ के तौर पर बाजाब्ता कुछ ‛रंगरूट’ भर्ती किये गये हैं। ऐसे में, रचनाकारों के साहित्यिक अवदानों तथा रचनात्मक मूल्यों के साथ उनकी वास्तविक पहचान को उद्घाटित करने का उत्तरदायित्व विशेषतः लेखकों और आलोचकों पर है। संभव है कि इस दौर में यह काम जोखिम भरा हो, परन्तु यह जीवन से अधिक मूल्यवान है।
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