झारखंड

पत्थलगड़ी का राजनीतिक इस्तेमाल

 

झारखण्ड की राजनीति में पत्थलगड़ी एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जिसका इस्तेमाल यहाँ की राजनीतिक पार्टियों द्वारा समय-समय पर किया जाता रहेगा। राजनीतिक जरूरतों और सूझबूझ के हिसाब से यह मुद्दा उठाया जाएगा और इसके नाम पर वोट बटोरे जाएँगे तथा इस बीच पत्थलगड़ी के मूल स्वरूप, हाल में आए बदलाव और उसके कारणों पर कोई चर्चा नहीं होगी। या बस इतनी होगी कि इस पर असमंजस की धुंध जमी रहे, लोग दो पाले में बंटे रहे और पार्टियाँ अपने पाले के लोगों का ‘इमोशनल’ प्रयोग कर सके।
यूं तो पत्थलगड़ी की परम्परा झारखण्ड में कई सौ सालों से चलती आ रही है, लेकिन पहली बार राजनीतिक मुद्दे के तौर पर इसका इस्तेमाल रघुवर दास के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने किया,  जब 10 हजार से अधिक पत्थलगड़ी समर्थकों पर देशद्रोह का केस दर्ज किया गया। इसकी पृष्ठभूमि में पत्थलगड़ी समर्थकों का वाम चरमपंथी ग्रुप पीएलएफआई (पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इण्डिया) के लोगों के साथ सम्पर्क जैसी बातें भी सामने आई, जिसकी गवाही झारखण्ड के अखबार देते हैं। लेकिन इसके लिए सरकार नें किसी प्रकार की जाँच को जरूरी नहीं समझा था। 10 हजार लोगों में से करीब 200 लोगों ऐसे थे, जिनपर अन्य लोगों को भड़काने को आरोप था।झारखंड: इस बार आदिवासियों ने 'नोटा ...
हेमन्त सोरेन के नेतृत्व में झामुमो और कांग्रेस की सरकार बनी तो सबसे पहली कैबिनेट की बैठक में 10 हजार पत्थलगड़ी समर्थकों के ऊपर से देशद्रोह का मुकदमा वापस लिया गया। गौर करने वाली बात यह है कि यहाँ भी किसी प्रकार की जाँच की जरूरत हेमन्त सरकार को महसूस नहीं हुई। निश्चित तौर पर बिना जाँच के दोनों सरकार द्वारा लिए गए विपरीत दिशा के निर्णय राजनीतिक फायदे से बढ़कर और कुछ नहीं हैं। इस फायदे के केन्द्र में अपने पाले के वोटर हैं, जिनका समर्थन भी दोनों सरकरों को मिला। हालांकि हेमन्त का फैसला पूर्व निर्धारित था, लेकिन रघुवर द्वारा लिया गया निर्णय कई घटनाओं की देन थी।


पत्थलगड़ी के जिस स्वरूप को लेकर आज विवाद हो रहा है, उसके तार सीएनटी-एसपीटी और पेसा कानून से जुड़े हैं। रघुवर दास द्वारा आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण करने के लिए सीएनटी में बदलाव किए गए थे। हालांकि झामुमो कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों के जबरदस्त विरोध के बाद यह कानून वापस लिया गया। लेकिन तब तक पत्थलगड़ी के वर्तमान स्वरूप के पीछे का असन्तोष आदिवासी समुदाय में घर कर चुका था। सीएनटी में बदलाव के बाद अपनी जमीन बचाने के लिए आदिवासियों ने पेसा कानून के तहत ग्राम सभाओं को मजबूत और सक्रिय करने पर बल दिया। आदिवासियों ने पुरानी परम्परा पत्थलगड़ी के तहत अपनी जमीनों पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए पत्थरों पर संविधान के कुछ अंश और ग्राम सभाओं के अधिकार को लिखकर गाड़ना शुरू किया। हालांकि ऐसा पहले से होता आया है, लेकिन उन दिनों यह तेजी से हुआ। पत्थरों पर यह भी लिखा गया कि गाँव के बाहर के लोग, जिनसे गाँव की शांति भंग होती हो, उनका आना वर्जित है। सरकार की मंशा से वाकिफ आदिवासियों ने पुलिस और प्रशासन को भी पत्थलगड़ी सीमा क्षेत्र में आना प्रतिबंधित किया, जिसके बाद प्रशासन और ग्रामसभाएँ आमने-सामने हो गयीं।पत्थलगड़ी के आड़ में नरसंहार ! - Sarita ...
पत्थलगड़ी मामले में देशद्रोह मुकदमे के अभियुक्त, लेखक व पत्रकार विनोद कुमार कहते हैं कि खूंटी आन्दोलन का क्षेत्र रहा है। यह वह जिला है जहाँ शुरू से ही ग्राम सभाएँ सशक्त और क्रियान्वित रही हैं। लगातार बैठकें होती हैं। खूंटी के मुंडा ट्राइब अपने कल्चर को लेकर प्रोटेक्टिव हैं। लोकतंत्र के इस दौर में पेसा कानून ग्राम सभाओं को अधिकार देता है। प्रशासन और विधायिका नहीं चाहते कि ग्राम सभाओं को अधिकार मिले। वे फर्जी ग्राम सभाएँ भी बना लेते हैं।
जून 2018 की वह घटना जिसके बाद विवाद बढ़ा था, का जिक्र करते हुए विनोद बताते हैं कि खूंटी में पत्थलगड़ी का आयोजन हो रहा था, जब पुलिस ने वहाँ पहुँच कर लोगों को रोकने का प्रयास किया। इस दौरान स्थानीय लोगों से झड़प हुई, पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया और चार पुलिसवाले अफरातफरी में वहीं छूट गए, जिसके बाद ग्रामीणों ने उन्हें घेर लिया। हालांकि इसके पीछे ग्रामीणों का उद्देश्य यही था कि सरकार आए, उनसे बात करे और गिरफ्तार किये ग्रामीणों को छोड़कर पुलिस वालों को ले जाए। लेकिन कोई न बात करने आया ना पुलिस वालों को लेने ही।

अखबारों में इस घटना की खबर ने ग्राम सभाओं को सरकार के समानान्तर खड़ा कर दिया। सरकार को सीएनटी संसोधित कानून वापस लेना पड़ा, लेकिन 200 नामजद और लगभग 10 हजार अज्ञात लोगों पर देशद्रोह की धारा के तहत केस दर्ज किया गया। विनोद कहते हैं कि हेमन्त सरकार द्वारा देशद्रोह का मुकदमा वापस ले लिया जाना काफी नहीं है। इस पूरे मामले की निष्पक्ष जाँच होनी जरूरी है। देखने वाली बात यह है कि पत्थलगड़ी के तमाम पहलुओं और आरोपों की जाँच की पहल किसी भी सरकार द्वारा नहीं की गयी।
दरअसल पत्थलगड़ी से जुड़ी तमाम समस्याओं की जड़ पेसा कानून,1996 का पूरी तरह से लागू नहीं हो पाना है। पेसा कानून (प्रोविज्न्स ऑफ द पंचायत्स एक्ट), भारत सरकार द्वारा 1996 मे बनाया गया कानून है, जिसके द्वारा भारत के ‘शैडयूल्ड’ क्षेत्रों में पारंपरिक ग्राम सभाओं को स्वशासन का अधिकार प्राप्त है। यदि पेसा कानून प्रभावी होता तो इस तरह के गतिरोध आज देखने को नहीं मिल रहे होते। 1996 का यह पेसा कानून ग्राम सभाओं को अधिकार देता है कि वे अपनी संस्कृति व परम्पराओं और उनकी सांस्कृतिक पहचान के साथ-साथ सामुदायिक संसाधन आदि का संरक्षण करेंगे।झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन की पूरी ... साथ ही ग्राम सभाओं के अन्तर्गत सामाजिक फैसले लेने और लोगों को सजा देने का भी अधिकार है। कई प्रशासनिक कार्यों में प्रोजेक्ट, प्रोग्राम व प्लानिंग आदि की मंजूरी का भी अधिकार है। ऐसे और कई अधिकार हैं जिनसे ग्राम सभाएँ मजबूत होती हैं और ग्रामीण विकास की अवधारणा तय होती है। आदिवासियों को उनके जमीन, जंगल आदि पर पूर्ण अधिकार मिलता है। इनमें से एक प्रावधान भूमि अधिग्रहण पर निर्णय का भी है, जो शायद सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। यह एक वजह है कि सरकारें खुद नहीं चाहतीं कि पेसा कानून प्रभावी रूप से लागू हो।
विभिन्न सरकारों के स्तर पर हुई चूक या जानबूझकर की गयी गलतियों ने पत्थलगड़ी जैसी पुरानी परम्परा को सरकार के सामने एक चुनौती के तौर पर खड़ा कर दिया है। लेकिन इन बातों से इंकार नहीं किया जा सकता कि पत्थलगड़ी जैसी पुरानी परम्परा की आड़ में अफीम की खेती और माओवाद को शरण जैसी बातें झूठी नहीं हैं। हालांकि यह साफ है कि माओवादियों द्वारा ग्रामीणों से जबरन ये काम करवाए जाते हैं, ताकि उनकी फंडिंग हो सके।

झारखण्ड में पत्थलगड़ी आन्दोलन की शुरुआत में पांच महिलाओं के बलात्कार की खबरें आई थीं, जिसके बाद ग्राम सभाओं में पुलिस का हस्तक्षेप हुआ और तमाम गतिरोधों के बीच पत्थलगड़ी ने राष्ट्रीय स्तर की सुर्खियों में अपनी दस्तक दी। पत्थलगड़ी मामले को जानने और समझने वाले लोग रहस्यमय तरीके से उन 5 महिलाओं के बाद में चुप और गायब हो जाने पर तथा मामले को चुपचाप समेट दिये जाने पर सवाल खड़े करते हैं। उनकी ओर से यह भी दलील दी जाती है कि यह सरकार की ओर से एक षड्यंत्र था, जिससे पुलिस का हस्तक्षेप ग्राम सभाओं में हो सके और तमाम चीजों का ताना-बाना बुन कर इस मामले को विवादित किया जाये, जिसके बाद ग्राम सभाओं से अधिकार छीन कर आदिवासी जमीन को सरकार ले सके।

Patthalgadi Andolan increased day by day in Tribal areas - Raipur ...
ऐसे ही कई सवाल हैं जिन पर सरकारों को जवाब तलाशने की जरूरत है। पत्थलगड़ी की पुरानी परम्परा और हाल में उनमें आए बदलाव के मुख्य कारणों को ढूंढ कर उस पर सही दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। क्या समाज और देश के विकास की अवधारणा आदिवासियों की जमीनों पर ही टिकी है, और यदि ऐसा नहीं है तो सरकार को आदिवासी जमीनों से मोह खत्म कर लेना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि झारखण्ड के जिन जिलों में सीएनटी एक्ट नहीं है, वहाँ ही सरकार द्वारा विकास के ऐसे कौन से काम किए गए हैं। झारखण्ड के अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगाल आदि राज्यों में भी पत्थलगड़ी की परम्परा है, लेकिन वहाँ इस तरह के गतिरोध देखने को क्यों नहीं मिले हैं?

झारखण्ड में नई सरकार बनने के बाद चाईबासा के बुरुगुलीकेरा गाँव में सात आदिवासियों के नरसंहार का मामला सामने आया, जिसे पत्थलगड़ी से जोड़ कर देखा जा रहा है। विपक्षी पार्टी इस घटना को हेमन्त सरकार द्वारा मुकदमा वापसी के फैसले को कारण बताती है, जिससे पत्थलगड़ी समर्थकों का हौसला इस हद तक बढ़ गया। इस मसले पर जाँच समिति का गठन हुआ है, लेकिन आने वाले दिनों में सरकार इस पर क्या रवैया अपनाती है, यह पत्थलगड़ी पर सरकार की स्थिति और मंशा को जाहिर करेगा।
यदि हेमन्त सरकार आदिवासी अधिकारों के हितों की चिन्ता करती है और खुद को आदिवासी हितों की पार्टी बताती है, तो पेसा कानून को प्रभावी करने के ऊपर भी उन्हें सोचना चाहिए। वरना उनके द्वारा आदिवासियों के ऊपर से हटाया गया देशद्रोह का मुकदमा महज एक राजनीतिक स्टंट के रूप में ही देखा जाएगा

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विवेक आर्यन

लेखक पेशे से पत्रकार हैं और पत्रकारिता विभाग में अतिथि अध्यापक रहे हैं। वे वर्तमान में आदिवासी विषयों पर शोध और स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919162455346, aryan.vivek97@gmail.com
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