संगीतांजलि

मेरे राजन भैया… जाऊं तोरे चरण कमल पे वारि….

 

…और.. राजन भैया भी चले गये.. अकस्मात्.. अचानक..। राजन भैया यानि केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी और पद्मभूषण जैसे कई मान-सम्मानों से सम्मानित भारतीय शास्त्रीय संगीत की धवल पताका लगभग पूरी दुनिया में फहराने वाले बनारस घराने के प्रतिनिधि गायक पंडित राजन मिश्र। 25 अप्रैल की शाम कोरोना से लड़ते हुए.. दो-दो हृदयाघातों को झेलते हुए.. एक अदद वेंटिलेटर के लिए लोगों से गुहार लगाते हुए राजन भैया ने दम तोड़ दिया। हमें मालूम है कि जो आया है, वह जायेगा भी.. लेकिन, यह दुःख तो हमें जीवन भर चैन से नही जीने देगा कि पूरे भारत की संगीत बिरादरी, संगीत नाटक अकादमी, स्पीकमैके, भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, पंडित विश्वमोहन भट्ट, असीम चौधरी, पंडित भजन सोपोरी, डॉ. रीता स्वामी चौधरी और.. न जाने कितने ही लोग मिलकर भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के एक महान संगीतकार के लिए, देश की राजधानी दिल्ली में अगर एक.. सिर्फ एक वेंटिलेटर की व्यवस्था नही कर पाये तो यह सोचना कठिन नहीं है कि आम लोगों की क्या दशा और दुर्दशा है।

1951 में बनारस में मूर्धन्य संगीतकारों के परिवार में जन्मे राजन मिश्र ने सुरों की पगडंडियों पर चलने की यात्रा अपने दादा गुरु संगीताचार्य पंडित बड़े रामदास जी की अंगुली पकड़कर शुरू की थी। 1960 में पंडित बड़े राम दास जी की मृत्यु के बाद अपने पिता पंडित हनुमान प्रसाद मिश्र और चाचा पंडित गोपाल प्रसाद मिश्र से प्राप्त की थी उन्होंने। ये दोनों ही प्रसिद्ध सारंगी वादक थे। प्रसंगवश यहाँ यह बता देना भी शायद उचित होगा कि राजन जी की परम्परा मूलतः सारंगी वादकों की ही थी। उनके पूर्वज पंडित रामबक्स मिश्र, प्रपितामह पंडित गणेश मिश्र, पितामह पंडित सूर सहाय मिश्र और पिता पंडित हनुमान प्रसाद मिश्र तथा चाचा पंडित गोपाल मिश्र सभी अपने अपने समय के प्रसिद्ध प सारंगी वादक थे। राजन जी ने अपने दादा गुरु पंडित बड़े रामदास जी से सिर्फ 9 वर्ष की उम्र तक गाना सीखा था। इसलिए यह कहना बिल्कुल उचित होगा कि राजन भैया ने अपने गायन की स्वयं एक शैली बनाई और विकसित की। उन्होंने अपना खुद का गाना बनाया और गाया। किसी की नकल नहीं की। 5 साल छोटे भाई साजन मिश्र भी उनके पद चिन्हों पर चलते रहे लक्ष्मण की तरह।

इन दोनों भाइयों ने अपने जीवन का पहला बड़ा सार्वजनिक कार्यक्रम 1967 में बनारस के प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर में आयोजित प्रसिद्ध संगीत समारोह में दिया और लोगों को पूत के पांव पालने में ही दिखने लगे थे। लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि बनारस में खयाल गायकी के दो नये सितारे जन्म ले चुके हैं। घरवालों का विचार साजन मिश्र को सारंगी वादक बनाने का था। लेकिन इसी समारोह में 11 वर्षीय साजन का गाना सुनकर घर वालों ने भी अपना विचार बदल लिया और दोनों भाइयों को युगल गायन के रास्ते पर आगे बढ़ने दिया।

राजन भैया के चाचा जी पंडित गोपाल मिश्र आकाशवाणी में विभागीय कलाकार थे। 1970 के दशक में उनका स्थानांतरण दिल्ली आकाशवाणी में हो गया और तब यह निश्चय लिया गया कि राजन-साजन मिश्र को दिल्ली में आकर भाग्य आजमाना चाहिए.. संघर्ष करना चाहिए। और, चाचा के साथ में यह दोनों भाई भी दिल्ली आ गये। कम लोगों को मालूम है कि दिल्ली आकर राजन जी को शुरू-शुरू में दिल्ली क्लॉथ मिल में अकाउंटेंट की नौकरी भी करनी पड़ी थी घर का खर्च चलाने के लिए। लेकिन दृष्टि लक्ष्य पर टिकी रही.. अथक रियाज का अनवरत सिलसिला चलता रहा.. छोटे-छोटे कार्यक्रम भी मिलते रहे.. आकाशवाणी से भी जुड़ गये.. आकाशवाणी का राष्ट्रीय कार्यक्रम भी मिल गया.. तब करोल बाग के एक छोटे से किराए के घर में दोनों भाई रहते थे। परिवार तब तक बनारस में ही था। पंडित गोपाल प्रसाद मिश्र सेवानिवृत्ति के बाद अपने गृहनगर बनारस चले गये थे और संगीत कार्यक्रमों की बढ़ती सक्रियता के कारण राजन जी भी अपनी अकाउंटेंट वाली नौकरी छोड़ चुके थे।

पंडित भीमसेन जोशी जी के साथ

1978 में पंडित राजन-साजन मिश्र को श्रीलंका जाने का अवसर मिला था। वह इनकी पहली विदेश यात्रा थी, लेकिन उस छोटी यात्रा में इन भाइयों को बड़ी सफलता मिली और फिर तो ब्रिटेन, अमेरिका, बांग्लादेश, जर्मनी, फ़्रांस, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि जैसे अनेक देशों की यात्रा का सिलसिला शुरू हो गया। उस समय इनकी व्यस्तता इतनी अधिक थी कि एयरपोर्ट पर अटैची लेकर घर वाले उपस्थित रहते थे। यह दोनों भाई एक विमान से आते थे, पहली अटैची घरवालों को थमा कर दूसरे विमान से दूसरी यात्रा पर निकल जाते थे दूसरी अटैची लेकर।

पंडित राजन-साजन मिश्र ने गायन की अपनी जुगलबंदी को युगल गायन का रूप देकर, उसमें से होड़ और प्रतिद्वंदिता की भावना को हटाकर प्रेम, सामंजस्य और आपसी तालमेल तथा सद्भाव को बढ़ावा दिया। राजन भैया कहते थे हम दोनों भाई एक साथ मिलकर एक ही कैनवास पर अपने संगीत का चित्र बनाते हैं। रंग और तूलिका भले ही अलग-अलग हो लेकिन दोनों ही उस चित्र को पूर्णता की ओर ले जाते हैं.. उनके सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। और यही कारण है कि उनके कार्यक्रमों को गगनचुंबी ऊंचाई और विश्वव्यापी लोकप्रियता मिली। दोनों भाइयों ने कभी भी अपनी कला के बल पर दूसरे को दबाने की, एक दूसरे के ऊपर हावी होने की कोशिश नहीं की। दोनों एक दूसरे के गायन को सजाते-संवारते हुए चलते थे। एक जिस स्वर पर छोड़ता था दूसरा उससे आगे की यात्रा आरंभ करता था।

सोने में सुगंध यह कि दोनों भाइयों ने अपने व्यक्तिगत जीवन में भी इसी सोच, तालमेल, सामंजस्य और प्रेम को आजीवन बनाए रखा। टूटे रिश्तों और बिखरते परिवारों के इस युग में जहाँ विवाह उपरांत बेटा मां-बाप से अलग हो जाता है, एक घर में रहकर भी पिता पुत्र की रसोई अलग हो जाती है। न केवल इन दोनों भाइयों की रसोई एक रही बल्कि राजन जी के दोनों पुत्रों रितेश-रजनीश और साजन जी के पुत्र स्वरांश भी अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चे के साथ उसी रसोई का हिस्सा बने रहे।

कलयुग के राम लक्ष्मण कहलाते थे पंडित राजन और साजन मिश्र। राजन जी के मन में अगर अनुज साजन के लिए ममता और प्रेम का आविर्भाव था तो साजन जी के मन में भी अपने बड़े भाई के लिए भक्ति, निष्ठा, त्याग और समर्पण का अगाध भाव है। दोनों दो जिस्म एक जान थे और हैं। 1985 में एक संगीत नृत्य प्रधान फिल्म सुरसंगम आई थी। गिरीश कर्नाड और जयाप्रदा अभिनीत इस फिल्म में शास्त्रीय गायक, नायक गिरीश कर्नाड के गीतों को पंडित राजन मिश्र ने अपना कंठ स्वर प्रदान किया। संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जी थे। एकल नायक के लिए गाना था इसलिए पंडित राजन जी ने ही गाया था। आयो प्रभात सब मिल गायो (एस जानकी के साथ) सुर का है सोपान सुरीला (कविता कृष्णमूर्ति के साथ) आये सुर के पंछी आये, धन्य भाग सेवा का अवसर पाया और जाऊं तोरे चरण कमल पर वारी.. जैसे गीतों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से गाकर राजन जी ने लोगों को उसी तरह अपनी ओर आकर्षित किया था, जिस तरह नौशाद साहब ने बैजू बावरा का संगीत निर्देशन करके लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था।

लेकिन उल्लेखनीय यह है कि ध्वनि मुद्रिकाओं पर पंडित राजन-साजन मिश्र यानी दोनों भाइयों का नाम एक साथ प्रकाशित हुआ था। पंडित राजन मिश्र की वरिष्ठ शिष्या अंतरराष्ट्रीय ख्याति की गायिका डॉक्टर नवनीता चौधरी कहती हैं- ‘इस फिल्म के गीत के कारण 1985 में इस फिल्म को मैंने 24 बार देखा था और तभी.. उस छोटी उम्र में ही मैंने तय कर लिया था कि एक ना एक दिन मैं इनसे जरूर सीखूंगी और मैंने दिल्ली आने के बाद उनसे सीखा।

मान सम्मान और अलंकारों की सस्ती राजनीति का शिकार होकर मैंने कई महंगी जोड़ियों को टूटते देखा है। राजन भैया साजन जी से बड़े थे और 5 साल बड़े थे। इसलिए स्वाभाविक तौर पर हर सम्मान के लिए पहले राजन भैया का नाम प्रस्तावित होता था। लेकिन राजन भैया ने कभी भी किसी भी सम्मान को अकेले नहीं स्वीकारा। जो भी सम्मान लिया छोटे भाई साजन के साथ ही लिया और यह सिलसिला संस्कृति सम्मान, गंधर्व राष्ट्रीय सम्मान, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सम्मान, तानसेन सम्मान, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता और केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी सम्मान सहित अनवरत चलता रहा। लेकिन इसकी परिकाष्ठा तब हुई जब राष्ट्रपति भवन में पद्म भूषण का अलंकरण भी दोनों भाइयों ने एक साथ ही लिया। मेरी जानकारी में पद्म सम्मानों के इतिहास में ऐसा संभव पहली बार हुआ है, जब किसी जोड़ी के दोनों कलाकारों को पद्म सम्मान मिला हो और एक साथ मिला हो।

विदुषी गिरिजा देवी के साथ

ख्याल, तराना, ठुमरी, दादरा, भजन और होली आदि के कंठ सिद्ध गायक राजन जी सामाजिक सरोकारों में भी बढ़-चढ़कर रुचि लेते थे। ग्रीतमा और रसिपा जैसी अपनी दो संस्थाओं के माध्यम से उन्होंने सांगीतिक कार्यक्रमों को गति दी तो देश-विदेश में फैले अपने सैकड़ों शिक्षकों के लिए देहरादून में एक विशाल गुरुकुल भी स्थापित कर दिया था। जिसमें देश-विदेश के शिष्य लोग आकर शिक्षा प्राप्त करते थे।

‘स्वर ईश्वर और गायक के बीच की एक मजबूत कड़ी है’ कहने वाले राजन भैया लय, ताल के प्रकांड विद्वान तो थे ही, उन्हें तबले का भी अच्छा ज्ञान था। अनेक दुर्लभ बंदिशें उन्हें कंठस्थ थी तबले की भी। उन्होंने अपने गुरुओं से जो कुछ सीखा था, वह तो था ही उनके पास। लेकिन अपने अध्ययन, मनन द्वारा उन्होंने उस दुर्लभ खजाने को लगातार और समृद्ध किया था। राजन भैया अत्यंत हंसमुख, जिंदादिल और मिलनसार व्यक्ति थे। उनका गायन जितना गूढ़, गंभीर था, व्यक्तित्व उतना ही सरल था। उनको जितनी बंदिशें याद थी उतने ही चुटकुले भी। खाली समय में यार दोस्तों के साथ बैठकर अच्छा खाना-पीना और चुटकुले सुनाना भी उन्हें खूब पसंद था। मुझे अच्छी तरह से याद है कोरोना का कहर शुरू होने के पहले मैं तीन नवोदित कलाकारों अस्मिता मिश्रा, उज्जवल मिश्रा और मनमोहन डोगरा के साथ उनसे एक अनौपचारिक मुलाकात के लिए उनके घर रमेश नगर गया था।

उस दिन हम लोगों के लिए विशेष तौर पर बनारस का विशेष व्यंजन चूड़ा मटर उन्होंने बनवाया था। मेरे साथी युवा संगीतकार जब ज्यादा खाने में संकोच कर रहे थे, तब राजन भैया ने प्यार से आदेश देते हुए कहा था- ‘खाओ-खाओ यह सब तुम्ही लोगों के लिए है। यह दिल्ली में नहीं मिलेगा, खास बनारसी व्यंजन है यह।’ मैंने भी कहा था संकोच मत करो और खाना समझकर नहीं, प्रसाद समझकर खाओ। फिर राजन-साजन जी ने सबको अपने बगल में बैठा कर फोटो लिया। तभी तो उनके निधन की सूचना पाकर अस्मिता बिलखते हुए कहती हैं- ‘मेरे रोज के सुबह के रियाज की शुरूआत ही उनके भव्य और दिव्य गायन से होती है।’ उज्जवल कहते हैं- ‘मेरा तो वह सपना ही मर गया कि थोड़ा और सक्षम हो जाऊं तो उनके पास जाऊंगा गाना सीखने के लिए।’ उस दिन हमलोग लगभग 5 घंटे उनके यहाँ रहे, ढेरों बातें हुई थीं। घर लौटकर जब मैंने उन बातों को याद करना शुरू किया तो मुझे लगा कि इनका प्रकाशन होना चाहिए। मैंने राजन भैया को फोन मिलाया और उनकी सहमति मिलने पर उस बातचीत को लिपिबद्ध किया। फिर तो एक अत्यंत विचारोत्तेजक और विस्फोटक भेंटवार्ता प्रकाशित हुई ‘इमानदारी से नहीं लिखा गया संगीत का इतिहास”

अपनी प्रतिभा के बल पर आकाश की ऊंचाइयों को छूने वाले पंडित राजन मिश्र के संस्कार की जड़ें हमेशा धरती से जुड़ी रहीं। मेरे द्वारा आयोजित ‘सम’ के आयोजनों में पधार कर कई बार वह उसकी गरिमा बढ़ा चुके थे। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘मनके : भाव सुर लय के’ की भूमिका तो उन्होंने लिखी ही थी, ज्वर ग्रस्त होने के बावजूद प्रगति मैदान में पुस्तक मेला में उसके लोकार्पण के लिए भी उपस्थित हुए। छोटे भाई साजन के साथ इतनी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता के बाद भी बनारस के कबीर चौरा में ‘का हो राजन, कहाँ जात हउअ? उनसे कहने वालों की संख्या कम नहीं हुई थी, और, राजन भैया का जवाब भी प्रायः उसी लहजे में होता था ‘पालागी, बस नोक्कड़ तक, पान खा के आवत हई। आयो आव। अत्यंत व्यवहार कुशल राजन भैया व्यक्तिगत और व्यवसायिक मित्रों को अलग-अलग रखने में भी कुशल थे।

पिछले कुछ दिनों से राजन भैया कोरोना से पीड़ित थे। उन्हें मधुमेह की बीमारी थी। शुरू में घर में ही चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया। परंतु हालत बिगड़ने पर अस्पताल ले जाने का निर्णय लिया गया। लेकिन चारों तरफ से हाहाकार को देखकर वे स्वयं भी हिम्मत हार चुके थे। घर से निकलते समय अपने छोटे भाई साजन से धीमी आवाज में बोले थे- ‘पता नाहीं कि अब हमलोग संगे गा पाईब की नाही।’ अंदर से साजन भी डरे हुए थे भाई की बिगड़ती हालत को देखकर। लेकिन ऊपर से हौसला बढ़ाते हुए बोले थे- ‘काहे नहीं गाईब? जब भी तोहार आदेश होई हमलोग संगे गाईब।’ फिर राजन जी के कहने पर सबने मिलकर उन्हें उनका एक प्रिय भजन ‘हे गोविंद राखो शरण अब तो जीवन हारे..’ सुनाना शुरू किया। कंठ से रसामृत प्रवाहित हो रही थी और आंखों से अक्षुधारा.. फिर शुरू हुआ अस्पतालों की दौड़-धूप।

राजन जी को दो बार हृदयाघात हुआ लेकिन पूरे देश का कला समाज मिलकर भी उनके लिए एक वेंटिलेटर तक की व्यवस्था न कर सका। यह उन नेताओं की सुव्यवस्था पर एक करारा तमाचा है, जो रोज टेलीविजन के पर्दे पर आकर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। 25 अप्रैल की शाम राजन भैया ने अपने पार्थिव शरीर को त्याग दिया.. 26 की दोपहर को दिल्ली में ही निगम बोध घाट पर उनका दाह संस्कार हो गया। पांच तत्वों से बना वह नश्वर शरीर सात अमर स्वरों में विलीन हो गया। लेकिन, सिर्फ आंखों से विलीन हुआ है, समाप्त नहीं। ठीक उसी तरह जिस तरह सूरज रात्रि समय हमारी आंखों से विलीन होकर अपने पूरे अस्तित्व के साथ कहीं और उजाला फैला रहा होता है।

आज राजन भैया अपने पार्थिव रूप में भले ही हमारे बीच मौजूद नहीं है। किंतु उनकी दिव्य वाणी, उनका अलौकिक संगीत दसों दिशाओं में गूंज रहा है और हमें अंधकार से प्रकाश की ओर तथा नश्वरता से अमरत्व की ओर ले जा रहा है। उनके अनेक यशस्वी शिष्य- पंडित भोलानाथ मिश्र, डॉ गुंजन भटनागर, पंडित दिवाकर और प्रभाकर कश्यप, प्रोफेसर डॉक्टर जसवंत सिंह, विदुषी निराज अमर, डॉ नूपुर सिंह तथा श्री शैलेश सिंह सहित अन्य भी समवेत स्वरों में गा रहे हैं- जाऊं तोरे चरण कमल पर वारी..।
पंडित राजन मिश्र के छोटे भाई पद्म भूषण पंडित साजन मिश्रा, राजन मिश्र के दोनों पुत्र रितेश और रजनीश तथा साजन मिश्र के पुत्र स्वरांश- संगीत जगत के सशक्त हस्ताक्षर हैं, और उनकी परम्परा के विकास में समर्थ भी..

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विजय शंकर मिश्र

लेखक संगीत नायक अकादमी दरगाही मिश्रा संगीत अकादमी के संस्थापक अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919810517945, anhad.sam@gmail.com
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