लालू प्रसाद सजा काट रहे हैं। लेकिन वे एक बार फिर से बिहार की राजनीति में चर्चा में हैं। नीतीश कुमार पार्टी के कार्यकर्ताओं से कह रहे हैं कि लोगों को लालू प्रसाद के 15 साल की याद दिलाएँ। यानी लालू का डर दिखाकर एक बार फिर से चुनाव जीतने की तैयारी है। दूसरी तरफ लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव, लालू राज की गड़बड़ियों पर माफी माँग चुके हैं जनता के सामने। अब तो नया सवाल है कि 84 दिन तक मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार जनता के बीच क्यों नहीं आये, जबकि बाकी राज्यों के मुख्यमन्त्री सामने आये? सवाल है तो जवाब भी है- लॉक डाउन था तो बाहर कैसे निकलता, खुद गायब रहता है और पार्टी कार्यकर्ताओं को भी मालूम नहीं रहता है उसके बारे में, कैसी-कैसी बात करता है।
नीतीश की राजनीतिक जरूरत हैं लालू
बिहार की राजनीति पिछले 15 साल से जिस तरह से चल रही है उसमें मतदाताओं के सामने विकल्पहीनता की स्थिति बनाई जाती है। फिर यह सवाल सामने कर दिया जाता है कि मुझको नहीं तो किसको चुनेंगे। लालू परिवार को चुनेंगे? नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि लालू हैं इसलिए उनकी राजनीति है। यह भी कहा जाता रहा कि लालू जेल जाएँगे तभी नीतीश की राजनीति का शटर भी गिरेगा। लिहाजा नीतीश कुमार के लिए जरूरी है कि वे लालू या लालू राज की याद दिलाते रहें, लालू के बेटों की राजनीति को भी लालू राज की भयावहता से जोड़ कर व्याख्यायित करते रहें।
ऐसे लालू वैसे लालू कैसे-कैसे लालू
जन्म दिन पर कैसे लालू आपको याद आते हैं। सामाजिक न्याय के सबसे बड़े नेता, पूर्व मुख्यमन्त्री लालू प्रसाद, चारा घोटाले वाले लालू, करोड़ों के घराना वाले लालू, बेटों को राजनीति में स्थापित करने वाले लालू या वैसे राजा जिसको वरदान मिल गया था कि वह जिस चीज को छूएगा वह सोना बन जाएगा और राजा ने अपनी सन्तान को छू लिया था?
अब का जो लालू है वह सबसे अलग है। वह लालू है नीतीश कुमार वाला लालू। नीतीश कुमार, लालू का विरोध करके मुख्यमन्त्री बनते हैं, फिर लालू का साथ लेकर मुख्यमन्त्री बनते हैं, फिर लालू का विरोध करके बनते हैं। यानी नीतीश कुमार की पूरी राजनीति लालू के इर्द-गिर्द ही घूमती है। लालू के बिना नीतीश की कल्पना नहीं।
भैंस चराने वाले लालू और पुड़िया बांधने वाले नीतीश
लालू और नीतीश में फर्क है। लालू चरवाहा के पुत्र हैं और पार्टी को भी एक समय उन्होंने चरवाहा की तरह हाँका। नीतीश वैद्य पुत्र हैं, वे ऐसी पुड़िया बांधते हैं कि मजाल नहीं कि वह बिना खोले ऐसे ही खुल जाए। इस तरह अपने कई शुरुआती सहयोगियों को उन्होंने राजनीति में ठिकाने लगा दिया। सबकुछ के बावजूद लालू प्रसाद की पार्टी राजद को बड़ी पार्टी बनने से न तो जेडीयू और न भाजपा रोक पा रही है। यह इस चुनाव में भी लालू के विरोधियों के लिए बड़ी चुनौती है। मुसलमानों का 16 फीसदी वोट बैंक न तो भाजपा को जाएगा और न जेडीयू को। वह तो राजद-काँग्रेस को ही जाएगा। भाजपा के साथ गठबन्धन कर नीतीश कुमार ने जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम रखा था उसका क्या हश्र हुआ वह लोगों ने देखा।
लालू नीतीश साथ हुए तो भारी पड़ने लगे थे लालू
2005 में बाढ़ राहत के लिए राशि आती है और साथ में विज्ञापन आता है। नीतीश कुमार, भाजपा को दिया भोज न्योता वापस ले लेते हैं। वे नरेन्द्र मोदी के सवाल पर एनडीए का साथ छोड़ देते हैं। अलग-अलग चुनाव लड़ते हैं और लोक सभा चुनाव में महज दो सीटें मिलती हैं। नीतीश कुमार नैतिकता दिखाते हैं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव के सामने और जीतन राम माँझी को मुख्यमन्त्री बनवा देते हैं। जब माँझी अपनी मर्जी से शासन करना चाहने लगते हैं तो यह नीतीश कुमार को गंवारा नहीं होता।
भाजपा भी माँझी को सपोर्ट करने लगती है। लेकिन भाजपा फ्रंट पर आकर साथ नहीं देती है और माँझी इस्तीफा दे देते हैं। याद रखिएगा शरद यादव का नीतीश ने बाद में क्या हाल किया था। 2015 में लालू-नीतीश गले मिलते हैं। घर में आग लगे तो कोई भी पानी आग बुझाने के काम आ सकता है। नीतीश और लालू साथ रहेंगे तो किसका पलड़ा भारी पड़ेगा? आप ही सोचिए। लालू भारी पड़ने लगे।
आरोपों की झड़ी लगा दी थी सुशील मोदी ने
अब लगने लगा कि लालू साथ रहकर नीतीश को मजा चखाएँगे। यह ठीक वैसा ही है कि भाजपा या नरेन्द्र मोदी कभी भी नीतीश से भोज वापस लेने, मन्त्रियों को बर्खास्त करने आदि का बदला ले सकती है। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद का साथ छोड़ते हैं और नरेन्द्र मोदी से हाथ मिला लेते हैं। इससे तुरन्त पहले भाजपा नेता और वर्षों से सीएम मेंटेरियल होने के बावजूद डिप्टी सीएम रहनेवाले सुशील कुमार मोदी विपक्ष में रहते हुए तेजस्वी-तेजप्रताप पर प्रेस कांफ्रेस की झड़ी लगा देते हैं। पटना चिड़ियाघर की मिट्टी से लेकर मॉल की मिट्टी तक की गन्ध हवा में तैरने लगती है। प्रेम गुप्ता का नाम चमकने लगता है। नीतीश कुमार, नरेन्द्र मोदी पर लगाए सारे आरोप भूल कर उनसे हाथ मिला लेते हैं। न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मतलब खत्म होने लगता है।
लालू की परछाई के बिना तेजस्वी का कोई मोल नहीं
कुछ दिन पहले भाजपा के बड़े नेता अमित शाह ने वर्चुअल रैली की और एक बार फिर कहा कि बिहार में नीतीश-मोदी की सरकार अच्छा काम कर रही है। जेडीयू में खुशी का ठिकाना नहीं है कि एक बार फिर से नीतीश ही सीएम का फेस होंगे। राजद की ओर से तेजस्वी यादव ही सीएम का फेस है। बिना लालू प्रसाद की परछाई के तेजस्वी का कोई महत्त्व नहीं है।
राजद मतलब अभी भी लालू प्रसाद यादव ही है। तेजस्वी को अखिलेश बनने में अभी समय है। इसलिए लड़ाई नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के बीच ही है। लालू सामने नहीं रहकर भी इतने दमदार तरीके से सामने हैं कि पूछिए मत। नीतीश कुमार की हस्ती नहीं है कि वे अपनी पार्टी में लालू जैसा दूसरा यादव नेता सामने ला सकें। भाजपा भी यह असफल कोशिश बिहार में कर चुकी है। तमाम खामियों के बावजूद लालू जन-जन के नेता हैं। बिहार के गरीब-गुरबा उन्हीं से कनेक्ट करते हैं। बात रही घोटाले की तो यह बिहार की किस सरकार में नहीं हो रहे हैं? नीतीश कुमार जब तक रोकते हैं तब तक घोटाला हो जाता है।
सबसे बड़ी चुनौती भाजपा के सामने है
राजद ने पिछड़ों, मुसलमानों के साथ सवर्णों को अपने पक्ष में करने के लिए जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। वे राजपूत हैं और अनुशासन प्रिय हैं। उनके आने से पार्टी ऑफिस में अनुशासन दिखने लगा है। सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण पर राजद के राज्यसभा सदस्य मनोज का बयान कुछ रहा और तेजस्वी यादव का कुछ और। इस चुनाव में यह देखना सबसे ज्यादा दिलचस्प होगा कि इतने दिनों में भाजपा ने खुद को बिहार में कितना मजबूत किया है या वह अभी भी नीतीश कुमार की पिछलग्गू ही है।
एक-एक चोट का एक-एक वोट से मोल चुकाएँगे।
लालू के जन्म दिन को राजद गरीब सम्मान दिवस के रुप में मना रही है। पार्टी ने गीत जारी किया है- जन-जन में लालू हैं… कण-कण में लालू हैं, हर मन में लालू हैं…..बांधोगे तुम खुशबू को … हवा को कितना रोकोगे। एक-एक चोट का एक- एक वोट से मोल चुकाएँगे।
लेखक राजनीति, समाज, इतिहास, कला और पर्यावरण विषयों पर लिखते हैं।
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