प्रेमचन्द की रचना में किसानों का दर्द
प्रेमचन्द की रचनाओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि वे पात्र के बहाने जिस समस्या को उठाते हैं, उस समस्या को सामने से अवगत करा रहे होते हैं। वे इस तरह के कथाकार हैं, जिनकी रचनाओं को पढ़ कर समाज की हर समस्या को गहराई से समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, उस समस्या को दूर करने के लिए अपने ढंग से समाधान भी देने की कोशिश करते हैं। भले ही उन पर आलोचकों द्वारा आरोप लगता आया हो कि वे अन्त में आदर्शवादी हल बतलाते हैं। किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आदर्शवादी ही सही, परन्तु समाज की समस्याओं को दिखाने के साथ उसे हल करने का वे प्रयास भी करते हैं। शुरू में उन पर आदर्शवाद का प्रभाव जरूर रहा है। परन्तु जब वे कोई मुद्दा उठाते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे समाज की सच्चाई और असलियल दिखा रहे हैं। जिसमें किसी तरह की कोई बनावट नही है।
प्रेमचन्द के समय में भी किसानों की स्थिति आज ही के तरह बदत्तर थी। उनकी दशा में कोई सुधार होते नहीं दिख रहा था। हर एक दिन किसानों के हालात उसे मौत के करीब ला रही थी। प्रेमचन्द ने किसान की व्यथा को लगभग हर उपन्यास में उठाने की कोशिश की हैं। जिसमें सबसे अहम उपन्यास गोदान है। जिसे पढ़ कर किसानों की समस्याओं से अवगत हुआ जा सकता है। आज भी किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। बैंको से कर्ज लेने की कोई खास सुविधा उपलब्ध नहीं है। जिसके कारण जमींदार और महाजन से ही उधार लेना पड़ता हैं। जो अधिक ब्याज पर देते हैं। न चुका पाने या देर से देने पर उन्हें जमींदारों व महाजनों का टॉर्चर भी झेलना पड़ता है। इस सब के बावजूद किसान जैसे-तैसे बुआई-रोपाई तो करता हैं लेकिन फिर भी अच्छी पैदावार की कोई गारंटी नहीं होती। कभी सुखाड़ की मार पड़ती है तो कभी बाढ़ की।
प्रेमचन्द के समय अँग्रेजी सरकार को किसानों के दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं होता था; जैसाकि उन्होंने अपनी रचना में दर्शाया हैं। हम आज भी उसी स्थिति को आसानी से देख सकते हैं कि कैसे आज की सरकारें भी किसानों की व्यथा से खुद को दूर रख रही हैं। सरकार द्वारा फसल उपार्जन तथा किसानों की आजीविका के लिए किसी तरह की कोई खास सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। किसान भूमिहीन होकर भी खेतों में काम तो करते हैं लेकिन उन्हें पर्याप्त भोजन तक नसीब नहीं होता। कभी-कभी स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि किसानों को आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ता हैं।
प्रेमचन्द ने गोदान में होरी के बहाने ऐसे ही स्थिति को बहुत बारीकी से दिखाने की कोशिश की हैं। होरी एक किसान पात्र में हैं। जिसके पास आज के किसानों की भांति खोने को कुछ नहीं बचता। और आखिर में वे मानसिक और शारीरिक रूप से टूट जाते हैं। पैसा न होने के कारण अपनी छोटी बेटी रूपा की शादी अपने हमउम्र के व्यक्ति से करना पड़ता है। जिसका दुख उन्हें सदैव रहता है। इस हालत में भी उन्हें कड़ी धूप में महाजन का खेत जोतना पड़ता है। जिसका परिणाम यह होता है कि वे मर जाते हैं। उनके चले जाने के बाद भी बड़े लोग पैसा लेने में होरी की पत्नी धनिया का जान नहीं छोड़ते हैं। तब उनकी पत्नी अन्त में दातादीन से इतना कहकर बेहोश हो जाती है कि – “महाराज, घर में न गाय है, न बछिया और न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है।” और पछाड़ खाकर गिर पड़ती हैं।
महाजन और जमींदार किसान को परम्परा में बाँधे रखते हैं ताकि उसी बहाने उनका शोषण किया जा सकें। किसानों के शोषण में धर्म का भी अहम योगदान है। भारत के किसान होरी के तरह ही परम्परावादी होते हैं, किन्तु धीरे-धीरे किसान जागरूक भी हो रहे हैं। जैसाकि प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में भी दर्शाया हैं। होरी का बेटा शोषण परम्परा पर उँगली उठाता है। वह इस परम्परा से मुक्त होकर शहर चला जाता है और वहाँ मजदूरी करने लगता है।
प्रेमचन्द अपनी रचना में उस समय के पंच की सच्चाई से भी अवगत कराते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि आज भी पंच में कोई बदलाब नहीं आया है। आज भी एकदम हूबहू स्थिति विद्यमान है, इसलिए आज भी प्रेमचन्द जैसे महान कथाकार प्रासंगिक हो जाते है। झूठी परम्परा के नाम पर पंच भी लूटने में पीछे नहीं रहा है। वह भी किसान के शोषण में भागीदार रहा है।
आज भी परम्परा और धर्म के नाम पर तमाम तरह की शोषण की जा रही है। किसान धर्म और प्रतिष्ठा से डर कर शोषण का शिकार हो जाते हैं। होरी को भी समाज और डर के कारण ही हर्जाना के रूप में दण्ड देना पड़ता है ताकि गाँव और लोगों के बीच प्रतिष्ठा के साथ रह सके।
प्रेमचन्द किसान की गरीबी से भी हूबहू परिचय कराते हैं। जिस तरह उस समय के किसान दिक्कत झेल रहे थे, आज के किसान भी उसी गरीबी को झेल रहे हैं। उनके आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। प्रेमचन्द अपने हर उपन्यास में आर्थिक स्थिति पर अधिक जोर देते नज़र आते हैं।
गोदान में वर्णित पात्र के माध्यम से उस समय के किसानों के आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। जब होरी की बेटियों को जोर का भूख लगता है तो वे अपनी काकी (चाची) के घर की ओर दौड़ पड़ती ताकि वहाँ कुछ खाने को मिल जाएं।
धनिया की वस्त्रधारण से भी गरीबी का पता लगाया जा सकता है। क्योंकि वे कई दिनों से एक फटी हुई साड़ी में हिबदिन काट रही होती है। होरी को भी अपना खास ध्यान नहीं रहता हैं। वे अपने बाप-दादा के ओढ़ना से ही ठण्ड बिताते आ रहा होता हैं। पूरी तरह फट जाने के बाद भी होरी मरते दम तक एक नया ओढ़ना नहीं खरीद पाता। कितनी अजीब बात है न! बड़े लोग पैसों के बदौलत अपने कितने शौक पूरा करते हैं। जबकि होरी जैसे किसान एक गाय तक का शौक नहीं पूरा कर पाता है। जो गाय कर्ज लेकर खरीदता भी है, वह भी आफत बन जाती है। उसी का एक भाई गाय को जहर दे देता है। जिससे उसकी मौत हो जाती है। जिसके बाद उसके लिए फिर एक नई तंगी का दौर शुरू हो जाता है।
प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में समाज की हरेक समस्याओं (विशेषकर किसानों के) को उठा कर जनता के समक्ष इस ढ़ंग से रख देते हैं कि जैसे पाठक अपने सामने सारी समस्याओं को देख रहे हो। वे समाज के प्रति इतना जागरूक थे कि उनके पास लिखने को हजार कथा होती थी।
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