पर्यावरण

समसामयिक राजनीति और नदियों के सवाल

 

बिहार के मानचित्र को एक सरसरी निगाह भर से देखा जाए तो ये समझ में आ जाएगा कि पूरे उत्तर बिहार (गंगा के उत्तर का हिस्सा) को अनेकानेक नदियाँ पाटती हैं। इनमे से अधिकांश नदियाँ हिमालई नदियाँ हैं जो मॉनसून में बाढ़ लाती हैं। कहीं न कहीं इन सब नदियों का पानी गंगा में समाहित हो जाता है, जो आगे चलकर बंगाल से होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। ज़ाहिर है कि इन नदियों के साथ आए बालू और मिट्टी से भूमि का निर्माण हुआ है। इतना ही नहीं, ये नदियाँ उत्तर बिहार के समाज, संस्कृति, परिवहन और अर्थव्यवस्था की संचालिका भी रही हैं। ‘पॉलिटिकल ईकॉलजी’ के व्यवस्थित होते अनुशासन ने प्रकृति और संस्कृति के बीच की कृत्रिम खाई को रेखांकित किया है और उसे पाटने के उपक्रम में सुझाए हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोशी नदी पर बने तटबंधों के भीतर बसे गाँवों के जनजीवन को देखा जाए तो ये सहज ही समझा जा सकेगा कि नदी किस तरह से लोगों के जीवन में केन्द्रीय भूमिका अदा करती है।

नदियों की शक्तिशाली भूमिका के आलोक में अगर आज बिहार में नदियों के साथ हो रहे मानवीय व्यवहार को देखा जाए तो लगेगा कि आज का ‘तकनीकी मानव’ नदी और प्रकृति की शक्तियों को या तो समझ नहीं रहा या उसका उपहास कर रहा है। नित नये बैराज, तटबन्ध, बांध, नहर, नदी जोड़ परियोजना, पुल आदि की बात होती रहती है। उपलब्ध साहित्य से पता चलता है कि भारत में आधुनिक राज्य का आगमन उपनिवेशिकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ हुआ। पर्यावरण के इतिहासकारों का मत है कि यह (औपनिवेशिक राज्य का आगमन) एक ऐतिहासिक क्षण था जब प्रकृति और मानव के सम्बन्ध पुनरपरिभाषित हुए। प्रकृति के साथ सामंजस्य को एक पिछड़ी-पराजित मानसिकता मानकर इतिहास की अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया। आधुनिक विज्ञान के आगे सारी परम्परागत ज्ञान परम्पराओं की हत्या के प्रयास हुए। जो छेड़छाड़ नदियों के साथ आजादी के समय शुरू हुए थे, समसामयिक व्यवहार भी मोटे तौर पर उसी लीक पर है। कालानुक्रम में तटबंधों, बांधों आदि की शोधपरक आलोचना के बावजूद राज्य और सरकारों का रवैया न के बराबर बदला है। बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय दबाव और नीतियों में वैश्विक स्तर पर आई एकरूपता की बातें दस्तावेजों तक सीमित हैं। रोजमर्रा की राजनीति और नीति निर्माण में उनकी छाया भी नहीं दिखती।

जहाँ एक तरफ घिसापिटा राज्यतंत्र है, वहीं दूसरी तरफ जनआन्दोलन और बुद्धिजीवी जो कुल मिलाकर ‘बहरों की बहस’ (डाइलॉग ऑफ द डेफ) में लगे हैं। दोनों के बीच कोई सकारात्मक बातचीत नहीं होती दिखती। ऐसे में यह सवाल लाज़िम है कि क्या परम्परागत चुनावी राजनीति में नदियों के सवालों का हल खोजा जा सकता है।

सितमबर 2024 के अन्तिम दिनों में जब पटना में ‘बिहार नदी संवाद’ के बैनर तले बिहार कि दर्जनों नदियों पर काम कर रहे आन्दोलनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं का एक सम्मेलन चल रहा था, तभी यह खबर आ रही थी कि कोशी नदी में 7 लाख क्यूसेक के आसपास पानी का बहाव हो सकता है (जो ऐतिहासिक था)। इसके बाद की बात अखबारों में है। अनेक नदियों पर बने तटबन्ध टूटे, न जाने कितने गाँव डूब या बह गये। मनुष्य, पशु, फसल, घर, सड़क बड़े पैमाने पर बाढ़ की भेंट चढ़ गये। इसमें कोई शक-सुबहा नहीं कि ये बाढ़ बड़ी बाढ़ थी। लिहाजा सरकार और समाज की प्रतिक्रिया भी गंभीर थी। लेकिन जिम्मेदारी सिर्फ आपदा के बाद फैली समस्या को समेटने तक सीमित नहीं है। यह अपेक्षित था कि इस घटना के बाद एक नया सामाजिक विमर्श खड़ा होगा जिसमें इस घटना की परिपीठिका खोजी जाएगी। हमारे पास भारी भरकम शोध प्रबन्ध हैं जो यह स्थापित करते हैं कि नदियों के साठ तकनीकी हस्तक्षेपों ने दुर्व्यवहार किया है जो पूँजी और राज्य की जरूरतों से संचालित थीं। आन्दोलन से लेकर अकादमिक हल्कों में ये बात सर्वसम्मति से कही जाती है कि नदियों को अविरल बहने देने में ही भलाई है। लेकिन, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस बड़ी बाढ़ के बाद भी कोई सार्थक बहस नहीं हुई। लिहाजा यह सवाल उठना लाज़िम है कि क्या हमारी वर्तमान राजनीति में नदियों के पर्यावरण संगत व्यवहार की संभावना है!

अपने इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए हम बिहार की वर्तमान राजनीति के खिलाड़ियों को ले सकते हैं। इसमें भारतीय जनता पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, कुछ निर्दलीय विधायक और नई पार्टियाँ शामिल हैं। पिछले 70 सालों में इन सब लोगों की भागीदारी बिहार में सरकार बनाने में रही है। इसलिए नदियों के सवाल पर उनके बयान उनकी सोच का आईना है। 2024 की बाढ़ के बाद भाजपा के सम्राट चौधरी दिल्ली में केन्द्रीय मन्त्री से मिलकर कोशी में नया बैराज बनवाने की मांग कर रहे हैं। राजद के जगदानंद सिंह कह रहे हैं कि नेपाल में हाई डैम बनने पर ही उत्तर बिहार को बाढ़ से स्थायी मुक्ति मिल सकती है। पूर्व जलसंसाधन मन्त्री और जेडीयू के नेता संजय झा ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि 2024 की बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है। इतनी भारी बारिश जलवायु परिवर्तन का संकेत देती है इसलिए वह भी प्राकृतिक कारक है। दियारा में बसे लोग गलत जगह पर रहते हैं इसलिए दोष उनका है। स्थायी समाधान हाई डैम है। उधर अलग ताल ठोक रहे प्रशांत किशोर भी प्रकृति के प्रति नव उदारवादी दृष्टिकोण के पैरोकार लगते हैं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था “उत्तर बिहार की नदियाँ तो ‘संसाधन’ हैं जिसका ‘उपयोग’ पिछली सरकारों ने नहीं किया। हम आएंगे तो उनपर रिवर फ्रन्ट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट बनेंगे जिससे अर्थव्यवस्था मजबूत होगी।” सभी राजनीतिक दलों की बाढ़, नदी और डैम के बारे में एक राय खौफनाक है। ऐसे में कोई बेहतर दिनों की रोशनी नजर नहीं आती। कम से कम वर्तमान दलीय राजनीति में तो बाढ़ की समस्या के जनपक्षी और पर्यावरण-संगत समाधान का सूत्र नहीं मिलता।

अब यहाँ थोड़ी चर्चा नीति निर्माण और नीति परिवर्तन से जोड़कर करना श्रेयस्कर होगा। आदर्श स्थिति में जनता वोट के माध्यम से अपना मत पार्टियों के सामने रखती है और इसी हिसाब से सरकार चुनती है। कायदे से जनता की मांग को पूरा करके सरकार को अगली बार मतदान में जाना होता है। सरकार के काम का अनुसार जनता उसका फैसला करती है। लेकिन व्यवहार में इस आदर्श स्थिति से बहुत अधिक विचलन होता है। जनता और सरकार के बीच बहुत बड़ा शक्ति असंतुलन होता है। सूचना का अभाव भी बड़ी समस्या है। लिहाजा, यह महसूस होता है कि वर्तमान चुनावी लोकतंत्र में उपलब्ध विकल्पों में नदियों के साथ नये सामंजस्य का रास्ता नजर नहीं आता। भले ही विपक्ष में रहने वाले दल मौजूदा सरकार में रहने वाली पार्टियों को घेरते हैं, लेकिन उनके घोषणा पत्रों में या तो पर्यावरण के मुद्दे शामिल ही नहीं होते या उनके वायदे भी उसी परिपाटी को मजबूत करते हैं जिसने नदियों की दुर्दशा की है। इसके अलावा, खासकर नदियों से जुड़े नीतियों के निर्माण में, तकनीकी विशेषज्ञों का नीति निर्माण पर कब्जा हद से ज्यादा है जिससे चुने हुए प्रतिनिधि भी उसमें खास हस्तक्षेप नहीं कर पाते। ऐसे में यह सोचना जरूरी है कि आन्दोलनों और अकादमिक लोगों की रणनीति क्या हो! दरअसल बिहार में सरकारी योजनाओं के माध्यम से ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों और अभियंताओं का एक गठजोड़ काम करता है जिसके हक में ‘पॉलिटिकल ईकॉनमी ऑफ अर्थ्वर्क’ (अरविन्द नारायण दास से उद्धृत) काम करता है। यह एक ऐसा माध्यम है जिससे सरकारी धन का बंदरबाँट होता है। एक और पक्ष है जो अपेक्षाकृत अधिक चिन्ताजनक है। हाशिये पर खड़े समुदाय भी अब इस बात को स्वीकार करते नजर आते हैं कि नदियों पर आधारित जीवन और अर्थव्यवस्था अब एक दिवास्वप्न है। इसलिए वे भी एक भूमि-केंद्रित विकास की अवधारणा में अपना हिस्सा चाहते हैं। समय-समय पर बाढ़ प्रभावित इलाकों से नये बांध, तटबन्ध, पुल आदि की मांग आती रहती है। इस पूरे चक्र को देखकर लगता है कि अकादमिक समुदाय और आन्दोलन अलग थलग पड़ रहे हैं।

आज मानव समाज जलवायु परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है। इसका सबसे अधिक असर हिमालय में होगा और इसका प्रभाव निचले इलाकों में। एक तरफ इतनी बड़ी वैश्विक चिन्ता है और दूसरी तरफ समाज और सरकार की अर्धनिद्रा और उदासीनता। यह समय है कि समाज और राजनेता मिलकर हमारे सामने मुंह बाये संकट की गंभीरता को समझें और पर्यावरण संगत राजनीति का व्याकरण तैयार करें। यह आगे का सवाल है कि इस राजनीति का व्याकरण कैसा होगा और हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था किस रूप में खुद को पुनरपरिभाषित करेगी

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राहुल यादुका

लेखक आईआईटी बॉम्बे से सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए और अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में कोशी बाढ़ नियंत्रण नीति पर पीएचडी थीसिस जमा कर चुके हैं। संपर्क +918826324382, rahulyaduka353@gmail.com
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