शिक्षा

सिनेमा में शिक्षा के सरोकार

 

सिनेमा का लक्ष्य मनोरंजन और पैसा कमाना है, संदेश या सामाजिक सरोकार छिपे रहते हैं जिनका प्रत्यक्ष प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता उसमें भी, शिक्षा के महत्त्व या समस्याओं पर तो बहुत कम बात होती है। 1962 में ‘अनपढ़’ फ़िल्म शिक्षा के महत्व को समझाती ज़रूर है लेकिन यह समर्पित प्रेम कहानी बनकर रह गई। फ़िल्मों में स्कूल या कॉलेज नायक-नायिका के मिलन-स्थली भर होते हैं क्योंकि प्रेम और रोमांस आज भी हर फिल्म का मूल तत्व है। ‘इम्तिहान’ फ़िल्म (1974) में शिक्षक के द्वारा छात्रों को शिक्षा के महत्व को बताना तो था लेकिन वहाँ भी मूल कथानक है कि किस तरह दो स्त्री-पुरुष शिक्षक नैतिक मर्यादा में बंधे होने के कारण प्रेम नहीं कर पाते। कई और फ़िल्में मिलती हैं जहाँ विद्यार्थी अपने शिक्षक से प्रेम करने लगता है। तारे ज़मीन पर(2007) जैसी फ़िल्म बच्चों को उनकी प्रकृति और प्रतिभा के अनुकूल विकसित होने को बात करती है तो ‘थ्री इडियट्स’ (2009) बच्चों पर माता-पिता की महत्वकांक्षाओं के दबाब को रेखांकित करती है, जिसके कारण बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं। छिछोरे (2019) में एक संवाद है ‘सक्सेस के बाद का प्लान सबके पास है लेकिन अगर गलती से फेल हो गए तो फेलियर से कैसे डील करना है इसकी कोई बात नहीं करना चाहता’। फेलियर और आत्महत्या का भयावह रूप बाद में कोटा फैक्ट्री” वेब सीरीज में दिखाई पड़ता है। राजस्थान कोटा के कोचिंग सेंटरों में हर साल 2,50,000 विद्यार्थी इंजीनियरिंग या डॉक्टरी की प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं लेकिन सीमित सीटों की इस प्रतिस्पर्धा में सबको सफलता नहीं मिल सकती। प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दौड़ की जिम्मेदार हमारी शिक्षा व्यवस्था का व्यावसायीकरण भी है कि छात्रों को अलग से ट्यूशन या कोचिंग करनी पड़ती है, इस पक्ष पर हमारी फ़िल्में प्रश्न नहीं उठाती।

पिछले कुछ दशकों में स्त्री-शिक्षा को लेकर कई फ़िल्में आई जैसे निल बटे सन्नाटा, सिग्नेचर। 2016 में चाक एंड डस्टर फ़िल्म वर्तमान शिक्षा प्रणाली की आड़ में निजी स्कूलों की मनमानी को सामने रखती है, जहाँ शिक्षण संस्थान पैसा कमाने का जरिया बन चुके हैं, प्रबन्धन के लिए विद्यार्थी और अभिभावक उपभोक्ता भर हैं तो शिक्षकों का भी शोषण होता है। फ़िल्म में जब स्कूल का प्रबन्धन किसी अन्य को दिया जाता है तो नई प्रिंसिपल सख्त नियम लागू कर फ़ीस बढ़ा देती है, वरिष्ठ अध्यापकों को हटा कर अयोग्य, अप्रशिक्षित शिक्षकों को लाना चाहती है, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उसके लिए मायने नहीं रखती, जो हर निजी स्कूल का लक्ष्य भी हैं। जहाँ फ़ीस के लिए पैसा जुटाना कठिन हैं वही रोज़ रोज़ सौ दो सौ के खर्चों से मध्यवर्गीय अभिभावक परेशान हैं, उनके बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता है। 2016 में ही अनंत महादेवन के निर्देशन में बनी ‘रफ़ बुक’ फ़िल्म शिक्षा के व्यावसायीकरण का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है। प्रबन्धन और छात्रों का शिक्षकों के प्रति बदलते रवैये को भी फ़िल्म दर्शाती है। कोरोना से पूर्व आई यह फ़िल्म गूगल के भ्रमित सूचनात्मक ज्ञान पर प्रश्न खड़ा करती है, जब एक छात्र कहता है कि ‘जब सभी कुछ ऑनलाइन है तो टीचर पर अलग से क्यों खर्च किया जाए’? तब शिक्षिका कई व्यवहारिक उदाहरणों के माध्यम से समझाती है कि कक्षा में शिक्षक क्यों अनिवार्य है, दोनों के बीच का पारस्परिक संवाद, विचार-विमर्श छात्रों को रट्टू तोता नहीं बनाता। हालाँकि अंत में यह फ़िल्म भी ‘आईआईटियन’ बनने के लक्ष्य को ही केंद्र में ले आती है, फिर भी कुछ संवाद तेज़ी से शिक्षा के बदलते व्यावसायिक रूप को सामने रखते हैं, जहाँ प्रबन्धक प्रमुख हो चुका है। वह कहता है कि ‘हमारा टार्गेट है कि आई आई टी में कम से कम 50 स्टूडेंट हमारे स्कूल से हो’ तो शिक्षिका कहती है ‘हम सेल्समेन नहीं हैं सर, हम टीचर हैं’।

2021 की मास्साब एक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक के संघर्ष को दिखाती है। उसका संघर्ष गाँव के बच्चों के लिए है ताकि पढ़ने में उनकी रुचि जागे। फ़िल्म भारत के प्राइमरी स्कूल, विशेषकर गाँव में जिस बदहाल अवस्था में हैं, उनका यथार्थ चित्रण करती है। बच्चों को दिया जाने वाला मिड-डे-मील अध्यापक डकार जाते हैं, डुप्लीकेट अध्यापक रखे जाते हैं। एक बच्चे से पूछने पर कि स्कूल क्यों नहीं आता वह कहता है “मास्साब भी तो नहीं आते”। यह कहकर वह भाग जाता है। गाँवों की स्थिति आज भी बहुत अच्छी नहीं इसलिए अभिभावक अपने बच्चों को गाँव के निजी स्कूल में भेजते हैं, जहाँ मनमानी फ़ीस वसूली जाती है। मास्साब आशीष कुमार कलेक्ट्री छोड़ कर अध्यापक बने हैं ताकि शिक्षा के माध्यम से सभी भेदभाव भी मिट सके। बच्चों के नाम बताने पर वे कहते हैं कि ‘आज के बाद आप सभी को सिर्फ नाम बताना है, नाम के बाद की पूँछ यानी सरनेम हटा दीजिये’। दलित शिक्षक आशीष कुमार अम्बेडकर जी के आदर्श को सामने रखकर चलते हैं। उनके समर्पण को देखते हुए कई अभिभावक प्राइवेट स्कूल छोड़कर सरकारी स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला करवाते हैं।

‘लापता लेडीज़’ (2024) की नायिका किसी प्रेमी के चक्कर में घर से नहीं भागती बल्कि वह पढ़ने के लिए घर से भागती है। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि संविधान में ‘शिक्षा के मौलिक अधिकार’ या ‘साक्षरता अभियान’ जैसी नीतियों के बावजूद लड़कियों को शिक्षा के लिए विद्रोह क्यों करना पड़ता है? क्यों विशेषकर बारहवीं में टॉप करने के बाद लड़कियाँ उच्च शिक्षा तक नहीं पहुँच पाती? कहाँ गायब हो जाती हैं लड़कियाँ? उच्च शिक्षा और नौकरियों में कुछ गिने चुने वर्ण के नाम ही क्यों दिखाई पड़ते हैं? ये कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हैं, जिन पर अमूमन बात नहीं होती। साहित्य में भी शिक्षा में भ्रष्टाचार पर बहुत कम रचनाएं मिलतीं हैं फिर सिनेमा तो खुद ही एक उद्योग है। शिक्षा में असमानता के केंद्र में हमारी सामाजिक संरचना तो है ही, जहाँ जातिगत व लैंगिक भेदभाव सभी को सामान शिक्षा के अवसर नहीं देता, शिक्षा का दिन प्रतिदिन महँगे होते जाना भी इसका कारण है। पर शिक्षा क्योंकर महँगी हुई? इसकी पृष्ठभूमि में 90 के दशक का उदारीकरण है। उदारीकरण में शिक्षा का निजीकरण होना आरंभ हुआ, गली मोहल्लों में कुकरमुत्ते की तरह छोटे बड़े निजी स्कूल खुलने लगे, शिक्षा व्यवसाय बनती चली गई।

इसी परिदृश्य को तेलगु फिल्म सर 2022 हमारे सामने रखती है जिसमें शिक्षा को व्यवसाय बनाने वाला बिजनेसमैन कहता है “शून्य पैसा यानी शून्य ज्ञान और अधिक पैसा अधिक ज्ञान”। यानी जितने महँगे स्कूल होंगे जितनी महँगी आप फीस देंगे, आपको उतना ही बेहतर ज्ञान प्राप्त होगा। जबकि हम जानते हैं कि महँगी फीस ज्ञान के लिए नहीं बल्कि वहाँ दी जाने वाली फाइव स्टार होटलों-सी सुविधाओं के लिए दी जाती है, ज्ञान की गुणवत्ता फ़ीस पर निर्भर नहीं करती, अध्यापक के अनुभव, ज्ञान और उसके समर्पण व व्यक्तित्व पर निर्भर करती है, शिक्षक बाला का किरदार यही समझाने के लिए गढ़ा गया है। उच्च शिक्षा में विशेषकर इंजीनियरिंग या साइंस में होड़-सी पैदा हो गयी। हर कोई अपने बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर बनाना चाहता है, इसके लिए अनिवार्य है इंग्लिश पढ़ना इसलिए हर कोई अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल म पढ़ाना चाहता है, इंग्लिश मीडियम फ़िल्म में इसे रोचक तरीके से बताया है। आज कोई भी सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहता, निजी स्कूलों की चकाचौंध से सरकारी स्कूलों के प्रति हीन भावना पनपी, ड्रॉप आउट बढ़ते चले गए कि अगर वे सरकारी स्कूल में पढ़ेंगे तो पिछड़ जाएंगे। यही हीन भावना और स्कूलों की बदहाली सरकारी स्कूल बंद होने का प्रमुख कारण बनी। ‘पैसे से ज्ञान आता है’ झूठ के इस पहाड़ को सर फ़िल्म तोड़ती है।

सर फ़िल्म की कहानी एक कोचिंग सेंटर के तीन लड़कों से शुरू होती है जो महँगी फ़ीस देकर भी गणित की संकल्पनाओं को समझ नहीं पा रहे। वे एक फ़िल्म देखने की योजना बनाकर एक वीडियो टेप चलाते हैं जिसमें कोई फ़िल्म नहीं बल्कि बाला मुरुगन गणित पढ़ा रहा है वे हैरान रह जाते कि इतने कठिन फ़ॉर्मूले कितनी आसानी से वे समझ गए। इसी शिक्षक को खोजने की प्रक्रिया में कहानी आगे बढ़ती है और फ्लैशबैक में चली जाती है। ‘तिरुपति कोचिंग सेंटर’ के मालिक श्रीनिवास तिरुपति ने सरकारी स्कूलों को चलाने के लिए सरकार के साथ एक समझौता किया और वह अपने शिक्षकों को सरकारी स्कूलों में नियुक्त करता है। बाला सोझावरम उनमें से एक है वह सरकारी स्कूल की स्थिति को देखकर हैरान हो जाता है और उसे बदलने के लिए पूरी मेहनत करता है, अंत में सरकारी स्कूल के सभी छात्र प्रथम श्रेणी के अंकों के साथ पास हो जाते हैं। श्रीनिवास तिरुपति से चेतावनी देता है कि वह मौजूदा व्यवस्था से खिलवाड़ ना करें क्योंकि यह सरकारी स्कूलों को बंद करवाने का उसका षड्यंत्र ही है, सरकारी स्कूल बंद होंगे तभी उनके स्कूल चलेंगें। अंत में श्रीनिवास तिरुपति बाला को एक ऑफर देता है कि हम दुनिया से यही कहेंगे कि तुम्हारे ये सभी छात्र मेरे कोचिंग सेंटर से पास हुए हैं ताकि लोग हमारे कोचिंग में अपने बच्चों का दाखिला करवाएं तभी मैं इन छात्रों की उच्च शिक्षा का पूरा खर्च दूँगा, वह उन छात्रों का विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करने वाला है लेकिन बाला को स्वीकार करना पड़ता है, वह जानता है उच्च शिक्षा के लिए इन बच्चों के पास पैसा नहीं है जबकि प्रतिभा भरपूर है।

सर की कहानी नब्बे के दशक की बदलती शैक्षिक संरचना और निजीकरण को सामने रखती है जबकि बाला राज्य की शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने का प्रयास कर रहा है। जूनियर शिक्षक बाला मेहनत और समर्पण के बल पर वरिष्ठ शिक्षक बनना चाहता है। वह नहीं जानता कि वास्तव में उसका प्रयोग किया जा रहा है ताकि सरकारी स्कूल और कॉलेज बंद हो जाए, सिर्फ निजी स्कूल रहे और श्रीनिवास तिरुपति का व्यवसाय बना रहे। बाला शिक्षा व्यवस्था में सभी जाति लिंग के लोगों के लिए समान और शिक्षा के अवसर प्रदान करता है, ग़रीब छात्रों को नि:शुल्क पढ़ाता है, अपने कार्य को बहुत गंभीरता से लेता है जो स्कूल प्रबन्धन को पसंद नहीं आता और यहीं से संघर्ष आरम्भ होता है। एक दृश्य में विशेष जाति के छात्र बाकी सबके साथ बैठने में संकोच करते हैं तो बाला दोनों अलग-अलग जाति के छात्रों को अलग-अलग विषय पढ़ाता है और कहता है अगले दिन दोनों विषय का टेस्ट होगा। यह कैसे सम्भव है कहने पर बाला समझाता है कि दोनों ग्रुप एक दूसरे को पढ़ाओ। यह एक आदर्श संकेत है कि हम सब एक दूसरे का सहयोग करेंगे तभी विकास सम्भव है। जबकि महँगी शिक्षा सिर्फ अमीरों को शिक्षित कर रही है और अमीरों का ही विकास भी हो रहा है क्योंकि ग़रीब उच्च शिक्षा तक नहीं पहुँच पाते इसलिए नौकरियों में उच्च पदों पर भी नहीं बैठ पाते। फ़िल्म बताती है कि निजीकरण से शिक्षा की गुणवत्ता में भी बहुत गिरावट आई है। हाल ही में जिस तरह से प्राइवेट यूनिवर्सिटीज़ को बढ़ावा मिल रहा है, पैसे देकर सीटें खरीदी जा रही हैं, अयोग्य अप्रशिक्षित अध्यापकों को कान्ट्रैक्ट पर रखा जा रहा है, वहाँ शिक्षा का स्तर गिरना लाज़िमी है। फ़िल्म में उच्च प्रबन्धन के लोग सरकारी स्कूल की छवि ख़राब करके अभिभावकों को प्रमाणित करतें हैं कि वास्तव में निजी स्कूल ही देश के लिए डॉक्टर और इंजीनियरों का निर्माण करते हैं, निजी स्कूलों के शक्तिशाली माफ़िया हर हाल में सरकारी स्कूलों को बंद करवाना चाहते हैं लेकिन बाला इस बात को गलत साबित कर देता है।

फ़िल्म का प्रस्तुतीकरण थोड़ा नाटकीय जरूर है लेकिन फिल्म का संदेश बहुत बेहतरीन है। ऐसी फिल्में वास्तव में बननी चाहिए जो गरीब और गाँव के पिछड़े इलाकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता पैदा करें। साथ ही शिक्षा के निजीकरण और सरकारी स्कूलों की जो खराब स्थिति है उसकी ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करें। यह ठीक है कि पढ़-लिखकर एक अच्छी नौकरी का सपना सभी के पास होता है लेकिन 90 के बाद शिक्षा को सीधे रोजगार से जोड़ दिया गया और विद्यार्थी किसी फैक्ट्री से रोबोट की तरह यंत्रवत निकलने लगे। हम अपने आसपास देखेंगे तो जीवन के विकास के लिए शिक्षा की संकल्पना लगभग समाप्त हो चुकी है और शिक्षा के निजीकरण में ज्ञान को कॉर्पोरेट की दुनिया से जोड़ दिया है। स्कूल किसी भी भव्य होटल की तरह हो गए हैं वहाँ शिक्षा के अलावा और बाकी सभी एक्टिविटी हाई-फाई अंदाज में होती है। ई.डब्ल्यू. एस. के बच्चों के साथ भेद-भाव होता है इन्हें अन्य एक्टिविटी में शामिल नहीं किया जाता क्योंकि ये उन एक्टिविटीज के लिए पैसा नहीं दे पाते। दूसरी बात यह है कि उनको आठवीं जमात तक ही मुफ्त शिक्षा मिलती है उसके बाद उनको पैसा देना ही पड़ेगा। शिक्षा में कॉर्पोरेट दिमाग वाले माफिया की तरह काम करते हैं। शिक्षा का यह बाजारीकरण-व्यवसायीकरण वास्तव में समाज का विध्वंसीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा, जिनके खिलाफ़ बाला विद्रोह करता है।

सर फ़िल्म वास्तव में सरकारी स्कूलों की सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में उसकी चुनौतियों को सामने रखती ही है उसके व्यावसयिकरण पर भी टिप्पणी करती है, जिनका समाधान हमारी मानसिक सोच में ही निहित है, विशेषकर शिक्षक और अभिभावक की सोच में। लेकिन जब तक निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढाँचें के अंतर को कम नहीं किया जायेगा तब तक हमारी सामाजिक और मानसिक सोच नहीं बदल सकती। जहाँ एक ओर निजी विद्यालयों में सुविधाएँ फाइव स्टार होटल्स के स्तर की हैं तो दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में शौचालय व पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। जिस प्रकार हम विद्यार्थी से अनुशासन की अपेक्षा रखते है, उसी प्रकार विद्यालय को भी विद्यालय की तरह ही होना चाहिए यानी विद्यालय कोई आरामगाह नहीं, वहाँ बालकों को जीवन के संघर्षों से, चुनौतियों से सामना करना सिखाया जाना चाहिए। आवश्यक है कि सरकार कुछ नियम तय करे जिससे स्कूलों के अतिरिक्त महँगे खर्चों पर पाबंदी लगायी जाए क्योंकि वर्तमान कानून और अधिकार सामाजिक विषमताओं और मानसिक सोच में बदलाव लाने के लिए काफी नहीं।

आज 21वीं सदी में शिक्षा सबसे बड़े भ्रष्ट व्यवसाय के रूप में बनकर उभरी है जबकि सरकारी स्कूल ड्रॉप आउट के कारण धीरे-धीरे बंद हो रहे हैं, शिक्षक भी निजी और कॉर्पोरेट कक्षाओं को समय दे रहे हैं, भले ही उन्हें वहाँ कम वेतन मिल रहा है क्योंकि सरकारी स्कूलों में नौकरियां बची नहीं तो छात्र भी नहीं रहे। हाल ही में प्रदर्शित तमिल फिल्म इंडियन 2 फिल्म में भी शिक्षा के व्यवसायीकरण, सीटों की खरीद फरोख्त और राजनीतिकरण को बहुत ही नाटकीय अंदाज़ में दिखाया है। इंडियन 2 युवाओं को बदलने के लिए प्रेरित करते हुए कहता है मेरा संदेश 40 वर्ष से कम युवाओं के लिए है स्पष्ट है कि अपने भविष्य के लिए युवाओं को ही आगे आना होगा ‘अधिक फ़ीस अधिक ज्ञान’ इस भ्रम से बाहर निकलना होगा तभी वास्तव में हम विश्व गुरु होने का सपना साकार कर सकते हैं।

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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