सोशल मीडिया के अंधड़ ने आम की टोकरी ‘गिरा’ दी
नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार “मातृभाषा/ क्षेत्रीय/ स्थानीय भाषा में कम से कम 5वीं तक पढ़ना अनिवार्य हो जाएगा, ‘जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक, लेकिन बेहतर यह होगा की ग्रेड 8 तक और उसके आगे तक भी हो शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा / मातृभाषा/ स्थानीय भाषा / क्षेत्रीय भाषा होगी” (4.11, बहुभाषावाद और भाषा की शक्ति) जो काफी कुछ राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की रूपरेखा के अनुसार है, क्योंकि अपनी स्थानीय भाषा में शिक्षण सहज और सरल होगा बालक के लिए सुरुचिपूर्ण हो जाता है। भाषा संस्कृति की वाहक होती है, इसलिए पाठशाला में कल्पनाशील गतिविधियों और सवालों के मदद से सीखने के दौरान अपने अनुभवों को प्रकट करने का भी बालक को अवसर दिया जाए अपनी भाषा हमें आत्मविश्वास प्रदान करती है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 की रूपरेखा बहुभाषिकता को संसाधन के रूप में प्रस्तुत करने की संस्तुति करती है, ताकि बालक आनंददायक ढंग से सीख सकें, उसे विश्लेषण क्षमता, अनुमान-क्षमता अपनी भावनाओं और सोच को अभिव्यक्त करने आदि का अवसर मिले। उक्त बातें आपको NCERT कक्षा-1 की हिन्दी की पाठ्यपुस्तक ‘रिमझिम-1’ की ‘बड़ों के लिए’ भूमिका में मिल जायेंगी। अध्यापकों को निर्देश देते हुए आगे लिखा है विद्यालय में बच्चों को अपने घर की बोली में बोलने के प्रचुर अवसर दें, कक्षा में भी पाठों में आए, स्थानीय, क्षेत्रीय भाषा के शब्दों की ओर बच्चों का ध्यान आकर्षित करें। जैसे-‘आम की टोकरी’ कविता पढ़ाने के दौरान चर्चा करते समय बताएं कि हमारे देश में राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि कई प्रदेशों में लड़कियों को बातचीत के दौरान छोरी, छोकरी कहकर पुकारतें है।
यह तो बात हुई बालकों के बोध और उसके विकास की, अब बात करते हैं सोशल मीडिया के ज्ञानियों की। जिन्होंने आम की टोकरी में वर्णित छह वर्ष की ‘छोकरी’ पर अपनी व्याख्याएं आरम्भ की, लेकिन ‘व्याख्या’ से पहले हम ‘प्रसंग’ लिखते हैं और अंत में ‘विशेष’, नहीं तो अंक काट लिए जाते है ऐसा हमारी शिक्षिकाओं ने हमें सिखाया। पर हमारे सोशल मीडिया की त्वरित प्रतिकिया में इतना धैर्य कहाँ? उस पर उसका धमाका इतना जोरदार होता है कि दैनिक पत्रों को भी अपना हस्तक्षेप दिखाना पड़ जाता है जैसे #NCERT सोशल मीडिया पर टॉप ट्रेंड में रहा।
लेकिन यह भी विचारणीय है कि सोशल मीडिया अगर ट्रेंड है, यानी फैशन है, जो चलन में, प्रचलन में, प्रवाह में है और एक धारा के बहाव में कोई भी विचार बस बहे चले जाता है, सोशल मीडिया के इसी ट्रेंडी अंधड़ ने आम की टोकरी ‘गिरा’ दी। छह वर्ष की ग्रामीण बालिका आम की टोकरी सिर पर रखे आम बेचने का अभिनय कर रही है और कवि उसमें परिवेशानुकूल, पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग करता है जैसे बालिका के लिए ‘छोकरी’ और हम जानते हैं आम को आज भी कई सभ्य माने जाने वाले लोग ‘चूस’ कर ही कहना पसन्द करते हैं। लेकिन हमारे तथाकथित पढ़े-लिखे ज्ञानियों के सभ्य समाज के अफसरों को भाषा का यह लोक रूप पसन्द न आया। और इसे ‘सड़क छाप’ कविता बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाने की अपील की।
ये किस ‘सड़क छाप’ कवि की रचना है ?? कृपया इस पाठ को पाठ्यपुस्तक से बाहर करें. pic.twitter.com/yhCub3AVPR
— Awanish Sharan (@AwanishSharan) May 20, 2021
जिन महोदय ने कविता हटाने की अपील की उन्होंने इसका कोई कारण नही बताया संभवत: वे जान रहें होंगे कि उनके फोलोवर किस प्रकार की प्रतिक्रिया देने वाले हैं। प्रतिक्रिया में विद्वतजन अपने ज्ञान और अनुभवों के आधार पर कविता की व्याख्या की बौछारें करने लगी, इसलिए नहीं कि कविता कक्षा-1 हिन्दी पाठ्यक्रम ‘रिमझिम’-1 में लगी हुई है बल्कि भारतीय संस्कारों की दुहाई देते हुए किसी को ये डबल मीनिंग की लगीइसलिए इसे बॉलीवुड गाने के बोल की तरह अश्लील माना, और उन्हें चिता सताने लगी कि किस प्रकार का साहित्य हमारे बच्चे पढ़ रहें हैं, दूसरा लड़कियों के लिए ‘छोकरी’ शब्द का प्रयोग घटिया और निम्न स्तर का बताते हुए कवि के साथ-साथ उन अधिकारियों पर टीका टिपण्णी होने लगी जिन्होंने इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया।
समाचार पत्रों में भी इसे गंभीर मुद्दे की तरह उठया गया। बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, विवाद यहीं समाप्त नहीं हुआ राजनितिक गलियारों तक पहुँच गया क्योंकि नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी सुर्ख़ियों में छाई हुई है, बिना जांचे, सोचे-समझे विविध सरकारों पर दोषारोपण होने लगे, इसलिए किसी को उर्दू छाप लिरिक्स की ट्रेनिंग जैसे लगी कोई कहता है कि NCERT में बैठे हुए आधुनिक मुगलों को हटा देना चाहिए, इसलिए चिंता हुई कि पता लगाओ कवि किस पार्टी का है, उसने ले-देकर अपनी कविता पाठ्यक्रम में लगवाई होगी। मज़े की बात कि कई उभरते बाल कवि सामने आने लगे जिन्हें मलाल था कि वे इससे बेहतर कविता लिख सकते हैं, कइयों ने बाकायदा अपनी कवितायेँ प्रस्तुत भी की।
लेकिन NCERT के अपना स्पष्टीकरण के बाद सभी के अंक काटलिए गये क्योंकि प्रसंग तो किसी ने दिया ही नहीं था। NCERT के पूर्व ही कई शिक्षक जो इस कविता को पढ़ाते आयें हैं, कहने था कि कविता की हर लाइन सही है, अपने गन्दे विचारों को कविता में मत उतारिए, आप जैसा सोचते हैं वैसा ही आपको नजर आता है। आम के लिए ‘चूसना’ शब्द को बिना संदर्भ के अश्लील समझना व्यस्क बुद्धि की भ्रष्टता है जो बाल मन से कोसों दूर है, सभी शब्द सुंदर हैं अपनी शहरी बुद्धि के संकीर्ण द्वार खोलें और लोक संस्कृति से पुन: जुड़ने का प्रयास करें हाँ, आलोचना का कोई मनोवैज्ञानिक आधार है तो उसका स्वागत है।
एक अध्यापक दुखी सा-होकर लिखतीं हैं बेवजह विवादित बना दी गई इतनी प्यारी कविता, कुछ तो छोड़ दे ‘ज्ञानी लोग’ हम टीचर्स के लिए भी इसी संदर्भ में बाल साहित्य केंद्र के निदेशक सुशील शुक्ला (एक पत्र को बताते हुए) ने सोशल मीडिया के ज्ञानियों के लिए कहा कि ये आलोचना वहाँ से आ रही हैं जिन्हें साहित्य और उसकी बारीकियों की समझ नहीं है ये आलोचना वहाँ से आ रही हैं।
प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेता और कवि जिनका हिन्दी प्रेम ‘हिन्दीवालों’ से छिपा नहीं हैं वे भी अपने फेसबुक पर एक तीखी ‘प्रतिक्रिया’ देते नजर आए-‘एक तरफ़ हम हिन्दी के गिरते स्तर और हो रही उपेक्षा पर हाय तौबा मचाते हैं दूसरी ओर इतने निम्न स्तर की रचना को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देतें हैं? मनुष्य की पहचान उसकी भाषा से होती है उनकी चिंता वाजिब है, अगर भाषा मरी तो हम भी प्यारे बच नहीं सकते, भले हों करोड़ो गुण, हम कुछ रच नहीं सकते। संभवत: इन्हीं चिंताओं को समझते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने कक्षा पांच तक, घरेलू भाषा /मातृभाषा / स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान रखा है ताकि विदेशी भाषा की मानसिकता में जकड़ा हुआ भारत उन्मुक्त सृजन कर सके। मातृभाषा/स्थानीय भाषा /क्षेत्रीय भाषा एक प्रसिद्ध विद्यालय की प्राचार्य का मत है, कि कविता के स्थानीय शब्द महानगरीय परिप्रेक्ष्य से उपयुक्त नहीं थे इसलिए हमने वह पुस्तक हटा कर कोई अन्य किताब शामिल कर ली जबकि अंग्रेजी मानसिकताओं में जकड़े ये व्यावसायिक स्कूल सस्ती होने के कारण पांचवी तक NCERT की पुस्तकें शामिल ही नहीं करते पब्लिशर्स से इनके कमीशन बंधें होते हैं।
कविता पर एक अन्य आरोप है कि कविता बाल श्रम को बढ़ावा दे रही है। बिलकुल सही 6 वर्ष के बच्चे को विद्यालय जाना चाहिए लेकिन तो वह आम बेच रही है लेकिन यह यह दिखाना बालकों को हमारी सामाजिक विषमताओं से बालक को अवगत कराना भी है। जैसा कि कविता के अंत में शिक्षक को निर्देश दिए गये हैं- कि वे बच्चों से बाल मजदूरी पर बात करे जो उनकी संवेदनशील को उद्वेलित करेगा, जैसे वे पूछे कि क्या वे ऐसे किसी बच्चे को जानते हैं जिसे विद्यालय जाने का मौका नहीं मिल रहा, क्या वे ऐसे किसी बच्चे की मदद कर सकतें हैं, हमारा संविधान और हमारी मानवीयता दोनों सामज में हाशिये के लोगों के प्रति समानानुभूति को विकसित करने की बात सिखाते हैं, साहित्य और शिक्षा इसका माध्यम है।
क्या हमारे घरों में, या होटलों में हम इस तरह के बच्चों से रूबरू नहीं होते जो अपनी माँ या पिता से साथ विवशताओं के चलते काम में हाथ बटा रहे होते जबकि उन्हें स्कूल होना चाहिए। कविता में लड़की मात्र अभिनय कर रही है इसलिए आम के दाम नहीं बता रही वस्तुत: ये बालकों के रोजमर्रा की आनंददायक गतिविधियाँ ही हैं, जिन्हें निर्देश में बताया गया है कि वे भी आम नींबू आदि फल सब्जियां लेकर अभिनय करें ताकि खेल-खेल में उनके फल सब्जियों के प्रति ज्ञान बढ़े बाकी इसको कक्षा में कैसे पढ़ाया जाए इसके लिए इस कविता को कमल किशोर मालवीय जी ने एकलव्य में कैसे पढ़ाया इसे आप एकलव्य के लिंक पर यहाँ क्लिक कर देख सकतें हैं
इसी प्रकार उत्तराखण्ड के एक शिक्षक मनोहर चमोली जहाँ यह कविता 2018 से पाठ्यक्रम में आई उन्होंने भी इसकी बेहतरीन समीक्षा की वह भी पढ़ी जानी चाहिए इसमें कविता पढ़ाने की व्यापक सम्भावनायें कक्षा में साकार की हैं। जहाँ शिक्षण अधिगम के सभी आयाम मौजूद हैं, तब शायद सोशल मीडिया पर ज्ञानी कह पायेंगे ‘हाँजी सर समझ आ गया’।
आम की टोकरी नामक कविता रामकृष्ण खद्दर ने लिखी है जिन ऊपर आरोप हैं कि ले देकर उन्होंने अपनी कविता पाठ्यक्रम में लगवाई होगी मैंने उनका नाम जब गूगल पर डाला तो आम की टोकरी ही नजर आई उनके परिचय कोई अता-पता न दिखा। मैंने NCERT की वेबसाइट पर पुस्तक में देखा कविता आरम्भ में कवि परिचय भी नहीं है हालांकि मैं प्रमाणित रूप में नहीं कह रही लेकिन सोशल मीडिया की ही एक पोस्ट से पता लगा कि 1975 में उनकी मृत्यु हो चुकी है। जाने उन्होंने कैसे लें देन किया होगा।
नयी सरकारें अपना पाठ्यक्रम भी लेकर आती हैं तो एकबार को मुझे लगा कि इस विवाद के तार कहीं वहीँ से तो नहीं जुड़े, लेकिन सभी ज्ञान मुफ्त में बाँट रहे थे इसलिए ऐसी भी कोई सम्भावना मुझे न नजर आई। छोकरी शब्द पर भी विचार किया जो कि एक स्थानीय भाषा का शब्द है लेकिन जिसका प्रयोग अद्वितीय साहित्यकारों की रचनाओं में हुआ है। शब्दकोश में छोकरी शब्द प्रयोग के कई उदाहरण प्रेमचंद की कहानी से दिए हैं।
ब्रज भाषा के कृष्णभक्त कवियों में भी छोरी शब्द मिल जायेगा। ‘छोकरी’ शब्द की ऐतिहासिक यात्रा के लिए आप इस लिंक पर देख सकतें हैं जहाँ इसका मूल संस्कृत धातु ‘शाव’ जिससे शावक शब्द बना है, में मिलेगा इसके अनुसार हिन्दी में छोकरा-छोकरी की अर्थवत्ता में परिवर्तन आ जाता है, सामजिक संदर्भो के बदलाव के कारण इसमें नौकर या दास का भाव है तो अशोक वाजपई जी इसे स्नेहात्मक तरीके से इस्तेमाल करने वाला शब्द मानते हैं उन्हें इस शब्द से कोई आपत्ति नहीं (एक पत्र को बताते हुए) परिवारों में इसे स्नेह के रूप में भी पुकारा जाता है कविता में छोकरी दोनों अर्थ देने वाला कहा जा सकता है।
मेरी समझ में जो आया कि ‘छोकरी’ एक यह भारतीय शब्द है है जिसका आधुनिक मुगलों से कुछ लेना-देना नहीं और अगर हो भी तो उसे अब भारतीय संदर्भो से जोड़कर समझना चाहिए। रेख्ता या सूफ़िनामा शब्दकोश (A GIRL) में भी इसका प्रथम अर्थ लड़की ही है। जहाँ तक हमारी संस्कृति के चिंतकों की चिंता है कि कविता बॉलीवुड के गीतों की तरह डबल मीनिंग है, तो सोशल मीडिया का लाभ उठते हुए उन्हें वेब सिरीज़ में नेचुरलेस्टिक के नाम पर फिल्मों में जो हिंसा और खुले आम गालियाँ परोसी जा रहीं है उस पर भी #ट्रेंड चलाना होगा।
यह कविता 2006 से NCERT के पाठ्यक्रम में आई शिक्षा का मौलिक अधिकार 2009 में अनुच्छेद 21 ‘क’ के तहत छह से चौदह वर्ष के बालकों के लिए मुफ्त शिक्षा का प्रावधान करता है। कविता को तब भी पाठ्यक्रम से हटाया जा सकता था लेकिन शिक्षा के मौलिक अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए यह कविता और उसका शिक्षण अच्चा उदाहरण हो सकता है। यह अलग बात है कि छोटे बालकों के पास इस समस्या का समाधान नहीं है लेकिन उन्हें इसके प्रति संवेदनशील तो बनाया ही जा सकता है, प्रयास तो किये ही जा सकते है।