जन गण मन

सावधानी हटी, दुर्घटना घटी!

 

 ‘सावधानी हटी,दुर्घटना घटी’ बहुत पुरानी कहावत है। विभिन्न स्थानों और सड़कों पर इस तरह के चेतावनी-सूचक बोर्ड पढ़ते हुए हम सब बड़े हुए हैं। इस कहावत को अपनाकर मानव समाज तमाम तरह की दुर्घटनाओं (ख़ासकर सड़क दुर्घटनाओं) से बचता रहा है। लेकिन कोरोना-काल में हम शुरुआत में खूब सावधानी बरतते हुए क्रमशः बेपरवाह होते चले गए। जब तक हमने सावधानी बरती भारत में कोरोना का प्रकोप सीमित ही रहा। केंद्र और तमाम राज्य सरकारों, नागरिक समाज और प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किये गए एहतियाती व्यवहार ने तमाम वैश्विक संस्थाओं और विशेषज्ञों द्वारा भारत में सर्वाधिक जनहानि होने की ‘भविष्यवाणी’ को गलत साबित कर दिया।

इन संस्थाओं और विशेषज्ञों ने भारत की भारी जनसंख्या, अशिक्षा, अजागरूकता और स्वास्थ्य ढांचे की चिंताजनक अपर्याप्तता के कारण भारत में कोरोना का प्रकोप सर्वाधिक रहने की आशंका व्यक्त की थी। ये भविष्यवाणियाँ गलत साबित हुईं, क्योंकि हम कोरोना के खिलाफ व्यक्ति के रूप में सजग एवं सावधान थे और राष्ट्र के रूप में संगठित थे। कोरोना संक्रमण से बचाव हमारी पहली प्राथमिकता था। इसीलिए सरकार ने लम्बे ‘लॉकडाउन’ का निर्णय लिया। लेकिन स्थिति में थोड़ा सुधार होते ही वह भी आर्थिक विकास दर को रफ़्तार देने में जुट गयी। 

विपक्ष और वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा की गयी खिलाफत और इसे अत्यंत अविवेकपूर्ण और अदूरदर्शी कदम करार देने के बावजूद भारतवासियों ने तमाम परेशानियाँ और दुःख झेलते हुए भी इसे पूर्ण सफल बनाया। यह निर्विवाद है कि ‘लॉकडाउन’ ने न सिर्फ इस अतिसूक्ष्म, अदृश्य और भयावह विषाणु के प्रसार की गति को अवरुद्ध किया; बल्कि इसके प्रति लोगों में जागरूकता भी पैदा की। इसके अलावा स्वास्थ्य सुविधाओं और ढांचे को दुरुस्त करने का समय भी दिया। पिछली बार जो विपक्ष ‘लॉकडाउन’ को कोस रहा था, वही आज सर्वाधिक संक्रमित मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में लॉकडाउन करने के लिए मजबूर है।

उल्लेखनीय है कि भयावह संक्रमण की चपेट वाले इन महानगरों में लॉकडाउन के सकारात्मक परिणाम आने शुरू हो गए हैं। यहाँ बेकाबू होती संक्रमण दर में गिरावट दर्ज की गयी है। हालाँकि, जीवन बनाम जीविका की बहस इसबार फिर शुरू होने की आशंका है। पिछली बार सरकार ने इस आलोचना की परवाह न करते हुए आर्थिक संसाधनों की जगह मानव संसाधनों को वरीयता दी। हम भलीभांति जानते हैं कि ‘जान है तो जहान है’। पिछली बार कोरोना से ज्यादा लोगों के लॉकडाउन जनित भूख से मरने की आशंका व्यक्त की गयी थी; किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस बार मौत का जो कहर दिल्ली जैसे शहरों में बरपा हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि में हम लॉकडाउन की उपयोगिता समझ सकते हैं।

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साल 2020 की समाप्ति होते-होते और कोरोना-ग्राफ (संक्रमण दर) के नीचे आते-आते हम बेपरवाह होते गये। यही ऐतिहासिक भूल थी। जबतक शत्रु पूर्णरूपेण समाप्त न हो जाये तब तक जीत अपूर्ण होती है। महाभारत का सबक भी यही है। लेकिन कोरोना काल में एकबार फिर ‘महाभारत’ देखकर भी भारतवासी इस सबक को भूल गए। आर्थिक सर्वेक्षण-2020-21 जैसे पूर्वानुमानों ने भी कोरोना के प्रति सरकारों और लोगों को लापरवाह बनाया। इस सर्वेक्षण में स्पष्ट तौर पर यह कहा गया है कि साल 2021 में टीकाकरण प्रारम्भ होने के बाद भारत में कोरोना की दूसरी लहर की सम्भावना क्षीण है। आज यह पूर्वानुमान गलत साबित हो गया है और भारत कोरोना की पहली लहर से अधिक भयानक दूसरी लहर की चपेट में है।

 भारत में कोरोना की वापसी याकि दूसरी लहर के कारणों पर विचार करना आवश्यक है। हरिद्वार में आयोजित कुम्भ का मेला, पाँच राज्यों (पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पुदुचेरी) में विधान- सभा चुनाव, उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव, एक साल से रुके हुए शादी-विवाह आदि सामाजिक कार्यक्रम, दिल्ली के सीमाओं पर पाँच महीने से जारी किसान आन्दोलन में लोगों की आवाजाही, इंडियन प्रीमियर लीग आदि ने दुतरफा नुकसान किया। एक ओर तो इन अत्यंत व्यापक और असंख्य भीड़-भाड़ वाले आयोजनों ने संक्रमण के संवाहक का काम किया, दूसरी और कोरोना-प्रोटोकॉल के उल्लंघन और लापरवाही का भी खतरनाक सन्देश दिया। इन आयोजनों में कोरोना-प्रोटोकॉल का सरेआम उल्लंघन हुआ। इससे सामान्य जनमानस में कोरोना के प्रति क्रमशः लापरवाही बढ़ती चली गयी।

 कोरोना के प्रति समाज की गंभीरता, सजगता और सावधानी क्रमशः कम होती गयी जोकि इस संक्रमण के खिलाफ लड़ाई का मूलमंत्र है।  लोग कोरोना-पूर्व की मनःस्थिति और जीवन-शैली  की ओर लौटने लगे। वे भूल गए कि कोरोना प्रोटोकॉल का पालन ‘न्यू नॉर्मल’ है। ‘दो गज की दूरी,मास्क है जरूरी’, ‘जबतक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं’ जैसे सन्देश कोरी लफ्फाजी बनकर रह गए। महात्मा गाँधी से और लाल बहादुर शास्त्री के जीवन-व्यवहार से हमने सीखा कि कथनी और करनी के अद्वैत से ही नारे सार्थक और सजीव होते हैं। धीरे-धीरे लोगों का मानस ‘न दवाई जरूरी, न कड़ाई जरूरी’ जैसा बनता चला गया और संक्रमण बेकाबू होता गया। एफ एम, टीवी-रेडियो और अखबारों में हम ये नारे देख-सुन रहे थे। लेकिन वे बेअसर थे। क्योंकि लोग पाँच राज्यों के चुनावों में लाखों लोगों को रोज-ब-रोज रैलियों में शामिल होते भी देख रहे थे।

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मंच से संबोधन करने वाले प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री, मुख्यमन्त्री और प्रत्याशी आदि ने तो मास्क लगा रखा था, किन्तु रैली, रोड शो में शामिल लाखों लोगों और मतदान-केन्द्रों पर खड़े हजारों लोगों ने न तो मास्क लगा रखे थे, न ही वे शारीरिक दूरी का पालन कर रहे थे। कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा मामले का संज्ञान लेकर  फटकार लगाने के बाद चुनाव आयोग की नींद टूटी और वह हरकत में आया। लेकिन तब तक काफी ज्यादा देर हो चुकी थी। मद्रास उच्च न्यायालय ने 2 मई को मतगणना वाले दिन कोरोना प्रोटोकॉल का अनुपालन सुनिश्चित कराने सम्बन्धी एक याचिका की सुनवाई करते हुए चुनाव आयोग के खिलाफ बहुत तल्ख़ टिप्पणी की है। उसने चुनाव आयोग की लापरवाही और गैर-जवाबदेही को रेखांकित करते हुए उसे निर्दोष नागरिकों की ‘हत्या का मुकद्दमा’ दर्ज करने योग्य माना है।

 २२ अप्रैल को प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चार रैलियां रद्द करके फिर पिछले साल जैसा सन्देश देने की कोशिश की। कांग्रेस और राहुल गाँधी पहले ही अपनी रैलियां रद्द कर चुके थे।  मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल तृणमूल कांग्रेस भी 15 अप्रैल के बाद से ही शेष चार चरणों के चुनाव एकसाथ कराने की माँग कर रहा था। लेकिन चुनाव आयोग मानव-जीवन की नहीं, लोकतंत्र की रक्षा को संकल्पबद्ध और सन्नद्ध था। उत्तर प्रदेश में जारी त्रि-स्तरीय पंचायत चुनावों ने भी न सिर्फ संक्रमण को फैलाया है, बल्कि समाज के बीच गलत सन्देश देकर कोरोना जागरूकता को कम किया है। इन चुनावों के ‘संक्रमण परिणाम’ आने अभी बाकी हैं।

इसीप्रकार हरिद्वार में आयोजित कुम्भ मेले में करोड़ों लोगों की भागीदारी और पवित्र स्नान ने कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के अनुकूल वातावरण निर्मित किया। हालाँकि, इस वृहत आयोजन को साढ़े तीन माह से कम करके 48 दिन (11 मार्च से 27 अप्रैल) का किया गया। लेकिन इस मेले में शामिल होने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं ने कोरोना प्रोटोकॉल का अनुपालन नाममात्र को ही किया। सरकार ने जरूर कोरोना प्रोटोकॉल के अनुपालन की व्यवस्थाएं और दावे किये; लेकिन मेले में उमड़ी अपार भीड़ को नियंत्रित करना और उससे कोरोना प्रोटोकॉल का अनुपालन कराना चुनौतीपूर्ण और असंभव-सा था। इसीप्रकार कोरोना के कारण पिछले एक साल से रुके हुए वैवाहिक आदि सामाजिक समारोह भी कोरोना-पूर्व की तरह फिर शुरू हो गये।

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भारत में वैवाहिक समारोह सामाजिक एकत्रीकरण के बड़े केंद्र होते हैं। खाए-अघाए परिवारों की तो बात ही क्या, गरीब परिवारों तक के शादी-ब्याहों में भारी जमावड़ा होता है। पिछले पाँच महीने से दिल्ली की सीमाओं पर किसान आन्दोलन चल रहा है। 10-12 दौर की वार्ता के बाद उसमें  गतिरोध पैदा हो गया है। सरकारी लोग और किसान नेता अपनी-अपनी जिद पर अड़े हुए हैं। ऐसा लगता है कि अब समाधान में किसी की दिलचस्पी नहीं है। आन्दोलन स्थलों पर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि से किसानों की लगातार आवाजाही रही है। अभी वहाँ बहुत ज्यादा भीड़-भाड़ भले ही न हो, लेकिन जनवरी-फरवरी में वहाँ भारी जमावड़ा था। किसानों के साथ-साथ संक्रमण की भी आवाजाही होती रही…।

परिणामस्वरूप, आज निजी और सरकारी अस्पतालों में मरीजों की बढ़ती संख्या के लिए बेड नहीं हैं, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर नहीं हैं, वैक्सीन,पी पी ई किट और आवश्यक दवाइयों का भी अभाव है। मरीजों की संख्या के अनुपात में अस्पतालों की संख्या अत्यंत अपर्याप्त है। इन सुविधाओं और संसाधनों के अभाव में असहाय लोग दम तोड़ रहे हैं। जिस चीनी विषाणु की पहली लहर ने अमेरिका, ब्रिटेन, इटली,फ़्रांस और स्पेन जैसे ताकतवर, समृद्ध और विकसित देशों को झकझोर दिया था, उसे भारतवासियों ने अपनी सजगता, सावधानी और संकल्प से पराजित कर दिया था। किन्तु महामारी के जड़मूल समाप्त होने से पहले की ‘असावधानी’ ने आज जीत को हार में बदलने जैसे हालात पैदा कर दिए हैं। दिन-प्रतिदिन भयावह होती स्थिति का स्वतः संज्ञान लेकर उच्चतम न्यायालय ने कोरोना की दूसरी लहर को ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ जैसा मानते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को तत्काल ठोस और प्रभावी कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। 

तमाम वैज्ञानिक और विशेषज्ञ बता रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर में विषाणु के जो ‘स्ट्रेन’ सक्रिय हैं, वे पिछली बार से ज्यादा खतरनाक हैं। सर्वप्रथम तो भारत की जलवायु और पारिस्थितिकी इनके अनुकूल है। ये लक्षणहीन (असिम्पटोमैटिक) हैं। इसलिए सही समय पर संक्रमण की पहचान, रोकथाम और उपचार नहीं हो पा रहा है। साथ ही, इसकी मारकता (मृत्युदर) भी पिछली बार से कहीं अधिक है। इसलिए देश को पिछले साल से अधिक सावधान, संगठित और संकल्पबद्ध होने की आवश्यकता है। ऐसा करके ही हम इस हारी हुई बाजी को एकबार फिर जीत सकते हैं।

थोड़ी देर से ही सही मगर प्रधानमन्त्री ने अपनी चुनावी रैलियां रद्द करके और कुम्भ स्नान को प्रतीकात्मक रखने की अपील करके इस दिशा में बड़ी पहल की। इसीप्रकार 2 मई को पाँच राज्यों के विधान-सभा चुनावों और उप्र के पंचायत चुनावों की मतगणना होनी है। उस दिन और उसके बाद कोरोना प्रोटोकॉल का सख्ती से अनुपालन कराये जाने का निर्देश न्यायालय ने चुनाव आयोग को दिया है। मतगणना केन्द्रों पर इकठ्ठा होने वाली भीड़ को सीमित किया गया है।  मतगणना कर्मियों, प्रत्याशियों और उनके प्रतिनिधियों के लिए कोरोना नेगेटिव रिपोर्ट की अनिवार्यता की गयी है। विजय-जुलूसों और विजय-समारोहों आदि पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया गया है। इनसे संक्रमण बहुत तेजी से फैलने की आशंका थी। यह एहतियाती कदम एक तरह से ‘भूल सुधार’ की तरह हैं।

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अभी संक्रमण दर और मृत्यु दर को कम करने के लिए प्राथमिकता के आधार पर कदम उठाने की आवश्यकता है। इसबार पूर्ण लॉकडाउन की जगह ‘माइक्रो कन्टेनमेंट जोन’ बनाकर कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने और संक्रमितों के उपचार की कोशिश की जा रही है। लेकिन अब समय आ गया है कि अग्रिम-घोषणा करके अविलंब कम-से कम तीन हफ्ते का राष्ट्रीय लॉकडाउन लगाया जाना चाहिए। संभवतः पिछले साल समाज और राजनीतिक क्षेत्र के वर्ग-विशेष की ओर से की गयी आलोचना के कारण सरकार इस प्रकार के निर्णायक और जनभागीदारी वाले कदम उठाने में हिचक रही है। लेकिन अर्थ-व्यवस्था और आलोचना की परवाह न करते हुए लॉकडाउन किया जाना चाहिए।

अग्रिम-घोषणा इसलिए जरूरी है ताकि पिछले साल की तरह ‘रिवर्स माइग्रेशन’ के कारुणिक दृश्यों की पुनरावृत्ति न हो और लोग बिना बाहर निकले 20-30 दिन एक स्थान पर रहने की तैयारी कर लें। यह इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे संक्रमण की श्रृंखला को तोड़ा जा सकता। इस अवधि में अन्य आवश्यक वस्तुओं और उपकरणों- ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और अन्य दवाइयों की पर्याप्त उपलब्धता भी सुनिश्चित की जा सकती है। साथ ही, लोगों को इस महामारी की विकरालता के बारे में सजग,सावधान और संगठित भी किया जा सकेगा। प्रत्येक जिले में एक ऑक्सीजन प्लांट लगाकर उसकी आपूर्ति को भी बढ़ाया जाना स्वागतयोग्य है। इस बीमारी में ऑक्सीजन ही जीवन की डोर है। सेना की मदद लेते हुए युद्ध स्तर पर अस्थायी अस्पतालों का भी निर्माण किया जाना चाहिए, ताकि असहाय लोगों का इलाज करके उनकी प्राण-रक्षा की जा सके।

 कोरोना उपचार में सक्षम  आपातकालीन अस्पतालों का तत्काल निर्माण के लिए बड़े स्टेडियमों, स्कूल-कॉलेजों की इमारतों और रेल के डिब्बों आदि का उपयोग किया जा सकता है। स्वास्थ्य सुविधाओं और ढांचे में प्राथमिकता के आधार पर पर्याप्त निवेश किया जाना चाहिए।

 

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अभी तक कोवैक्सिन, कोवैशील्ड आदि भारतीय वैक्सीनों की कोरोनारोधी क्षमता को लेकर लोगों में संदेह और भ्रम था। इस भ्रम को फ़ैलाने में विभिन्न राजनीतिक दलों की भी भूमिका रही है। स्वास्थ्यकर्मी, पुलिसकर्मी आदि अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं और 45 साल से अधिक आयु के नागरिकों के लिए ही टीकाकरण की सुविधा थी। इन दो वजहों से टीकाकरण अभियान काफी सीमित था। अभी तक देश की जनसंख्या के कुल 2 प्रतिशत हिस्से को दोनों खुराक और 11 प्रतिशत लोगों को पहली खुराक ही मिल सकी है। 1 मई से इस आयु सीमा को घटाकर 18 साल तक किया गया। लेकिन टीकों, टीकाकर्मियों और टीका केन्द्रों की कमी के चलते टीकाकरण अभियान में अनेक प्रकार की अड़चनें आ रही हैं। पंजाब, मध्य प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र और दिल्ली आदि अनेक राज्य सरकारों ने अपने हाथ खड़े करके अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है।

इस अभियान की वांछित लक्ष्य-प्राप्ति के लिए टीकाकरण अभियान की बेहतर योजना बनाने की आवश्यकता है। साथ ही, यह समझने की भी आवश्यकता है कि टीकाकरण तात्कालिक समाधान न होकर दूरगामी समाधान है। टीकाकरण अभियान में व्यापक जन-भागीदारी आवश्यक है। इसके लिए सबके लिए मुफ्त टीके की व्यवस्था की जानी चाहिए । ‘वन नेशन, वन वेक्सिनेशन’ का नारा देकर ही इस अभियान को सफल बनाया जा सकता है।   कोरोनारोधी टीका विश्वसनीय रक्षा-कवच है। इसलिए टीकाकरण आवश्यक है। लेकिन टीकाकरण ही पर्याप्त नहीं है। ‘दवाई भी, और कड़ाई भी’ वर्तमान परिस्थितियों में सर्वाधिक अपेक्षित व्यवहार है।

पिछले साल की तरह सामाजिक एकत्रीकरण आदि पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। मास्क पहनने को अनिवार्य किया जाना चाहिए और न पहनने वालों पर जुर्माने का प्रावधान किया जाना चाहिए। कोरोना प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए।  पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों और सरकारों को ‘राजनीति’ और एक-दूसरे को नीचा दिखाने से बाज आकर राष्ट्र के रूप में इस लड़ाई में भागीदारी करनी चाहिए। आरोप-प्रत्यारोप से किसी का भला नहीं होगा। जिस (जनता) के प्राण संकट में हैं, वह सब देख-समझ रही है और समय आने पर सबका हिसाब-किताब करेगी। इसके अलावा नामी-गिरामी नागरिकों (सेलेब्रिटीज), व्यापक नागरिक समाज,स्वयंसेवी संगठनों आदि को आगे आकर इस संकट-बेला में राष्ट्रीय भाव का परिचय देना चाहिए और जरूरतमंदों की हरसंभव सहायता करनी चाहिए। प्रत्येक नागरिक सरकारी नियमों और निर्देशों का पालन करके ही कोरोना के खिलाफ जारी इस दूसरी लड़ाई में अपना अमूल्य योगदान दे सकता है। यह सहयोग ही राष्ट्रीय चरित्र की असली कसौटी होगा।

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रसाल सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
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