एक फिल्मकार का हलफ़नामा : 8
गतांक से आगे….
इसी बीच विवेक राव नमक एक लड़का मेरे द्वारा बनाई जाने वाली इस फिल्म के बारे जानकर पास आया। उसे ईटीवी द्वारा यह न्यूज़ मिली थी। चंपारण के रहने वाले उस व्यक्ति ने अपना नाम बताते बोला कि मैं फिल्मों से जुड़ा रहा हूँ और आपकी फिल्म में अस्सिस्टेंट के रूप में काम करना चाहता हूँ। उससे बहुत सारी बातें पूछ, आश्वस्त होने के बाद कहा कि इस काम के लिए बहुत पैसे की उम्मीद लेकर आएं हैं तो निराश होंगे, क्योंकि यह एक्सपेरिमेंट फिल्म है और मैं कुछ भी देने में सक्षम नहीं हूँ। सोचा टल जाएगा लेकिन टलने की जगह पलने को तैयार हो गया। उसे 23 दिसंबर को आने को कहा।
प्रकाश झा की टेलीफिल्म ‘विद्रोह’ की शूटिंग दौरान देखा था कि उनके द्वारा आर्टिस्टों और टेक्नीशियन आदि के लिए जो खाने की व्यवस्था रहती थी वह निहायत ही घटिया किस्म की और वह भीअमर्यादित। दिन-रात के खाने में एक सब्जी और तंदूरी रोटी की थाक एक बर्तन में रख थकिया दी जाती थी, जिसे खाना हो खाये, कोई पूछने वाला नहीं। अब ठंडी तंदूरी तोड़ना डब्लू. डब्लू. ई. की तरह धींगामुश्ती करना होना था। खड़े-खड़े एक हाथ में प्लेट लेकर दूसरे हाथ से टटाई रोटी जब किसी से टूटती नहीं तो दाँत से खींची जाती और वह नामुराद टूटने की जगह रबड़ सी खिंचती ही चली जाती थी। इसे याद कर दो दिन चलने वाली इस शूटिंग के लिए अनुज सुनील नंदा को करीब 50 व्यक्तियों के खाने की केटरिंग व्यवस्था करने को कहा। दरवाजे पर आए अतिथियों के लिए कम से कम सम्मानजनक खाना तो होना ही चाहिए था न।
शूटिंग से एक दिन पूर्व सभी इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया को सूचना भेजी। राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र और श्रीधर पाठक की भूमिका करने वाले आर्टिस्ट को सुबह आठ बजे लोकेशन स्थल पर पहुँचने को कहा और महा लेटलतीफ अजय, जो मेरे ही घर रह रहा था, को समय की सख़्त हिदायत दी। एक पोस्टर बनवा लोकेशन स्थल पर चिपकाया। तब इस फिल्म का नाम दिया था- “मेकिंग ऑफ अयोध्या प्रसाद खत्री”।
अचानक शाम को ध्यान आया कि किसी मेकअप मैन को तो बुलाया नहीं! तो शूटिंग होगी कैसे? दौड़ा एक परिचिता बबिता गुप्ता के पास। हालांकि वह लेडीज ब्यूटी पार्लर चलाती थी लेकिन वही इस परेशानी से फ़िलहाल मुक्ति दिला सकती थी। उनसे पूछा कि फिल्म के लिए मेल आर्टिस्ट का मेकअप कर पाएंगी? पहले तो ‘मेल’ शब्द का तर्जुमा कर बताना पड़ा। मर्द का मेकअप! सुन थोड़ा झिझकी फिर कुछ पल ठहर बोली- “मैंने तो कभी किया नहीं है यदि आप बता देंगे कि कैसे करना है तो शायद कर पाऊँ, लेकिन शहर से बाहर जाकर नहीं।” मैंने बताया कि वैसी ही जगह जाना है जहाँ आप जाती रहती हैं, भाभी के घर। तब उसने हामी भरी, लेकिन जब उसने पूछा कि साथ में क्या-क्या मेकअप का सामान लेकर आना होगा वह भी बता दीजिए क्योंकि फिल्म के लिए तो मैंने कभी मेकअप की नहीं। यह सुन मेरी हालत ख़स्ता! लेकिन थैंक्स गॉड, उस क्षण फिर प्रकाश झा याद आएं और उनकी फिल्म ‘विद्रोह’! उसमें कुँवर सिंह बने सतीश आनंद और नायिका अपराजिता कृष्ण का मेकअप होता करीब से देखता रहा था और जब मेरा मेकअप किया जा रहा था तो मेकअप मैन के सामने बिखरे समान के बारे में काफी पूछताछ की थी। वह झुंझला तो रहा था लेकिन तब के बेतिया एस.पी.आर के सिंह के साथ घनिष्ठता जान बताता भी जा रहा था। उसी का स्मरण कर उन्हें कहा कि सामानों का लिस्ट थोड़ी देर बाद भेजवाता हूँ। घर लौटकर याद कर-करके लिखने की कोशिश करने लगा, किन्तु याद क्या ख़ाक आये! फेसिअल भी कभी कराया होता तब न नाम याद रहता, वह भी इतने वर्षों बाद! नाम यादे न आ रहा था तो बेगम से पूछा- ‘फेसिअल आदि कराने में कौन-कौन सा सामान लगता है? जरा नाम लिखाओ। बेगम ने कहा- “फिल्म के मेकअप में फेसिअल का क्या काम! फेसिअल तो आर्टिस्ट घर से कर-कराकर आते हैं। सेट पर जो मेकअप होता है उसमें ज्यादातर कॉम्पैक्ट, पाउडर, लाइनर, काजल, जेल, लिपिस्टिक आदि का यूज़ होता है। इसके अलावा कुछ जेनरल सामान। मैंने कल्पना (झा) के साथ यहाँ की एक फिल्म में काम किया था और दूरदर्शन के कार्यक्रम में भी देखती थी। यही सब यूज होते थे। मैं अपलक कुछ देर उसे निहारता खुश हुआ और उसे थैंक्स कहना चाहा लेकिन अंदर के जागृत मर्दपन के कारण कह नहीं पाया। हाँ, मन-ही-मन उसका शुक्रिया अदाकर लिस्ट बना बबिता को थमाई। लिस्ट पढ़ने के बाद वह जोर से हँसते हुए पूछी- ‘ये लिपिस्टिक क्यों? मर्द को लिपिस्टिक।’ मैंने कहा- ‘हाँ, ऐसा फिल्मों में होता है। देखती नहीं फिल्मों में बुढा गए हीरो के भी ठोर कितने गुलाबी दिखते हैं।’ कह कर वापस मुड़ा तो उसकी हँसी पीछे से गूँजती सुनाई देती रही।
आख़िर मुहूर्त का दिन आ ही गया- 24 दिसंबर 2004। कैसे होगा…क्या होगा के अनेकों सवाल की उधेड़बुन के कारण दिल की धड़कन रफ्ता-रफ्ता तेज़ हो रही थी। अग्रज भ्राता विजय कुमार नंदा (उर्फ़ राणा भैया) के पीएंडटी कॉलोनी के पीछे वाले उनके मकान ‘आनंद-भवन’ का लोकेशन तय था और समय था दिन के दस बजे।
सुबह 9 बजे तक कैमरा और इक्विपमेंट लोकेशन स्थल पर पहुँच जाना था लेकिन जब देर होने लगी तो डॉ. शैलेन्द्र जी को कहा कि इसीलिए उसे कहा था कि वन डे बेफोर आने को। कहीं धोखा तो नहीं होगा? उन्होंने आस्वस्त किया लेकिन मैं आश्वस्त न हुआ। दस बजे से पत्रकार जुटने लगे। आर्टिस्ट वेशभूषा पहन चुके थे। बबिता सामान के साथ पहुँची तो उसे बेगम ने बताया कि क्या सब करना है और फिर आगे बोली कि मेकअप करने के बाद लाल लिपिस्टिक का हल्का लेयर सभी के होट पर लगाइएगा, लेकिन नेचुरल दिखना चाहिए। वो अपने काम में लग गयी।
मुहूर्त का समय बीत रहा था। कैमरा और सामान अबतक नहीं पहुँचा था। पत्रकार और सेट के सभी लोग चाय-काफी पी-पी के ऊब रहे थे और मैं गुस्से से जल रहा था। बेटा और बेटी के बार-बार पूछने कि कब होगी शूटिंग? पर और खीझ उठता। अब दिन के खाने का समय हो चुका तो मन-ही-मन खीझकर सभी को कहा कि छत पर चलें और मुहूर्त से पूर्व खाने का मुहूर्त सम्पन्न करें ताकि इंतजार के कुछ पल और काटे जा सके।
खाना अभी खत्म हुआ ही था कि सामानों से लदा जीप आकर रुका। माथा तो गरम था लेकिन प्रोड्यूसर सीमा नंदा ने टोका कि अभी कुछ नहीं कहना। पहले मुहूर्त सम्पन्न करवा लो फिर जो कहना होगा कहना। देरी की सफाई देते कैमरामैन को अनसुना कर जगह दिखाते कहा कि यहाँ शूटिंग का सामान उतरवा कर रखवाएं और उसके बाद खाना खा लें फिर शूटिंग शुरू होगी। स्वाधीन दास और विवेक राव होने वाले सीन का सेट तैयार करवा चुके थे और तीनों आर्टिस्ट को रिहर्सल करवा रहे थे। खाने के बाद तेजी से कैमरामैन अपने काम में व्यस्त हो गया।
मुहूर्त का पहला शॉट नवजागरण काल के साहित्यकार राधाचरण गोस्वामी पर फिल्माना था। जेनरेटर ऑन हो चुका था। लाइट और रिफ्लेक्टर व्यवस्थित कर दिया गया। ट्रॉली पर कैमरा रेडी हुआ तो मैं ही ‘स्पॉट बॉय’ बन क्लैप देते चीखा- ‘साइलेंस….. लाइट…. कैमरा…. एक्शन….. और राधाचरण गोस्वामी संवाद बोलने लगते हैं- “मैं दृढ़ता के साथ कह सकता हूँ कि खड़ी बोली में छंद का निर्वाह नहीं हो सकता।” ‘कट’ के साथ मुहूर्त सम्पन्न समझा तो कैमरामैन बोला- ‘सर कैमरा ऑन नहीं हो पाया था।’ मन तो किया कि एक झन्नाटेदार थप्पड़ खींचूँ। मन मसोस फिर ‘साइलेन्स….लाइट….कैमरा….एक्शन। इसबार ‘कट’ के साथ शॉट ओके हुआ। लोग तालियां बजाते बधाई दी। मीडिया सवाल पूछने लगते हैं। कुछ बातों का जबाब देने के पश्चात सीमा नंदा की ओर इशारा करता कहा- ‘उनसे बात करें आपलोग।’ मीडिया का कैमरा उनकी तरफ मुड़ता है। सीमा नंदा मीडिया और उनके सवालों को जिस बेबाकी से हैंडल करती रही वह देख मैं चकित था। देश के प्रायः सभी महत्वपूर्ण चैनलों पर सीमा की ही छाया चलती दिखी। राज्य से बाहर के कई लोगों ने फोन कर यह बात बताई कि फलां चैनल पर उन्हें देखा। बधाई दी। मैं नेपथ्य में खड़ा आगे की शूटिंग के बारे में सोचता रहा।
मीडिया से मुक्ति के बाद शेष शूटिंग शुरू हुई। श्रीधर पाठक की भूमिका करने वाले अजय बार-बार प्रतापनारायण मिश्र की भूमिका निभा रहे डॉ. शैलेन्द्र राकेश को टोक देते कि ऐसे नहीं, ऐसे! यह डायलॉग ऐसे बोला जाएगा और जब उनके अपने संवाद अदायगी की बात आती तो हर बार गड़बड़ कर जाते। कभी डायलॉग भूल जा रहे थे तो कभी एक्सप्रेशन। बार-बार ‘कट’ करने से एक तो परेशान हो रहा था और दूसरी ओर रील की बर्बादी हो रही थी। मन ही मन सोच रहा था कि ऐसे काम में रिश्तेदारों को दूर ही रखना चाहिए था। अग्रजवत मेहरबान होने का खामियाजा भुगतना पड़ रहा था। समय भाग रहा था। एक तो इक्विपमेंट्स आने में विलंब हुआ ऊपर से रिटेक पर रिटेक। दो दिनों के लिए ही यह शूटिंग तय किया था, शेष की बाद में योजना थी। आज शूटिंग खत्म कर कल रघुनाथपुर में कुछ सीन फिल्माना था। चीख़ते-चिल्लाते किसी तरह इस सीन को पूरा करते-करते रात के दो बज गए। पैकअप पश्चात अजय से खाते समय बहुत बहस हुई। डायरेक्टर मैं हूँ कि तुम? पर काफी चिल्लाया लेकिन वह अपनी गलती मानने की जगह कुतर्क करता रहा। (जब इस सीन का रॉ पटना जाकर देखा तो माथा पीट कर रह गया। पूरा सीन किसी भी तरह फिल्म में रखने लायक नहीं था। आज का सारा खर्च करीब चालीस हजार स्वाहा हो चुके थे, जिसका कोई परिणाम नहीं निकला।)
सिर धुनता कल के रघुनाथपुर में होने वाली शूटिंग की तैयारी के लिए टेक्नीशियन और कैमरामैन को निर्देशित कर सोने चला गया। सोने से पूर्व कल की तैयारी में ड्रेस और प्रॉपर्टीज पैक कर-करके एक ओर रखा कि कुछ भी छूटे नहीं। यह लिखते आज हँसी आ रही कि इस फिल्म का ‘प्रोडक्शन मैनेजर’ भी मैं ही और बेगम थी। कल रघुनाथपुर में अयोध्या प्रसाद खत्री के बचपन के कुछ दृश्य फिल्माने थे। जिसमें मास्टर कुशाग्र नंदा, अनुराग नंदा, अनुनय नंदा, अनुभव नंदा, दीपंकर सिंह और नसीमा को लोकेशन पर होना था। साथ ही बालक खत्री को पढ़ाने वाले शिक्षक। जिसके लिए कोई उपयुक्त आर्टिस्ट अबतक तय नहीं था। इस बारे में सोचते-सोचते कब आँख लगी, पता न चला।
आठ बजे बेगम ने जगाया तो आनन फानन में तैयार होकर सामान समेट गाड़ी निकालने नीचे उतरा तो अरुण सिंह की बात याद आयी। वे कई दिनों से कह रहे थे कि मैनेजर साहेब को कोई रोल फिल्म में दे दीजिए न, मेरा माथा रोज चाटते हैं। सहसा उन्हें फोन कर कहा- ‘आज रघुनाथपुर में शूटिंग है, अपने मैनेजर विद्यानंद पाण्डे को कहिए कि वहाँ बारह बजे तक पहुँच जाएं। एक रोल उन्हें करना है।’- कहकर जाने के लिए गाड़ी निकाली। रास्ते में मेकअप के लिए बबिता गुप्ता को उसके ब्यूटीपार्लर से लेते हुए रघुनाथपुर पहुँचा। पहुँच कर सबसे पहले मकान मालिक रमेशचन्द्र जी से पूछा कि यहाँ आसपास कहीं, टमटम या एक्का मिल सकता है? उन्होंने बताया कि सिलौत या सिहो स्टेशन पर मिलेगा। तब उन्हें कहा कि दिनभर के लिए मँगवा दीजिए। उन्होंने कहा कि दिनभर का हजार से कम नहीं लेगा। ‘उसी में कुछ कम करवा कर मंगा दीजिए।’ – कहा तो उन्होंने एक आदमी को उस काम के लिए भेज दिया। दालान में दाखिल हुआ तो सभी आर्टिस्ट मौजूद मिले। स्वाधीन दास और विवेक सभी को ड्रेसअप कराने लगे। बबिता को मेकअप के लिए कहकर कैमरामैन को कहा- ‘अभी बालक खत्री और उसके भाई को शिक्षक द्वारा पढ़ाने वाला सीन फिल्माना है। यह ट्रॉली शॉट होगा। पटरी बिछवाईये।’ तभी पाण्डेजी अपनी मोटरसाइकिल धरधाराये पहुँच गए। उन्हें देख इशारा कर कहा कि वहाँ जाएं और ड्रेसअप हो लें। स्वाधीन दास को कहा कि दादा, शिक्षक का रोल ये करेंगे, उन्हें समझा कर डायलॉग दे दीजिए। पाण्डेय जी अपनी गाड़ी एक ओर स्टैंड कर आगे बढ़ें।
शूटिंग के लिए पटरी बिछाते और कैमरा सेट करते-करते इलाके में ‘फिलीम के शूटिंग हो रहल हए’ का हल्ला मच गया। आसपास के गाँव से अहाते के चारो तरफ बच्चे, बूढ़े, जवान, औरतों की दौड़ती भीड़ उमड़ने लगी। देखते-देखते हजारों की संख्या में लोग जमा हो आपस में उत्सुकतावश जोर-शोर से बात करने लगे, बच्चे टुकुर-टक खड़े हो गए। आगे होकर देखने की घुच्चम-घुच्ची होने लगी ……...
जारी….