23 मई 2019 के बाद
सत्रहवीं लोकसभा का चुनाव परिणाम 23 मई 2019 को घोषित हो जाएगा और नयी सरकार बनाने की तैयारियाँ आरम्भ हो जायेंगी । संभावनाएँ कई हैं, यह सम्भावना बहुत क्षीण है कि भाजपा को बहुमत हासिल होगा । 2014 के चुनाव में मोदी लहर थी । यूपीए 2 को कोई कार्यकाल में भ्रष्टाचार चरम पर था। मनमोहन सिंह मौन थे और प्रधानमन्त्री पद के घोषित उम्मीदवार मौका मुखर थे। कहीं अधिक आक्रामक अपनी प्रभावशाली वक्तता, संचार माध्यमों और नवीनतम प्रचार तकनीक से लैस वे श्रोताओं और मतदाताओं को प्रभावित कर रहे थे । सबका साथ और सबका विकास का नारा दे रहे थे। युवा वर्ग उनके झाँसे में आ गया। भाजपा 282 सीट प्राप्त कर बहुमत में आ गयी । मोदी प्रधानमन्त्री बने और उनके तमाम लुभावने वादे वादे ही रहे। केवल वादे, शब्द-खेल| इसलिए इसकी सम्भावना कम है कि 23 मई 2019 के चुनाव परिणाम के बाद वह फिर सत्तासीन होंगे। अगर ऐसा हुआ और वे पुनः सत्तासीन हुए, प्रधानमन्त्री बने तो फिर क्या होगा। जो होगा, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते| पांच वर्ष में उनहोंने देश को, भारतीय लोकतन्त्र और लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक संस्थाओं को जिस मुकाम तक पहुंचा दिया है, उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। आडवाणी, जोशी, मोहन भागवत और संघ परिवार ने भी नहीं। मोदी ने हिन्दुत्व और कारपोरेट का जो मिश्रण किया, उस पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है ।
पिछले सोलह लोकसभा चुनावों की घोषणा में यह सत्रहवाँ लोकसभा चुनाव प्रकरण भिन्न है जिसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती| 1977 के लोकसभा चुनाव से इस चुनाव की तुलना सही नहीं है| प्रश्न किसी दल विशेष या गठबंधन की जीत का नहीं, भारत के भविष्य का है। यह चुनाव यह निर्धारित करेगा कि भारत किस दिशा में जाएगा? उसकी आत्मा, उसकी पहचान, उसकी वह विशेषता जो दुनिया के अन्य देशों में उसे सर्वथा अलग करती है, वह कायम रहेगी या नहीं? ‘सत्यमेव जयते’ अब कहने और पढ़ने भर को है| आचरण में कुछ और है| नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकाल में भारत की उन सभी पहचानों को समाप्त अगर न सही, तो निरन्तर कमजोर करने के निरन्तर प्रयत्न किये हैं, जो ‘हिन्दुत्व’ और ‘हिन्दू राष्ट्र’के आड़े आते हैं, आ सकते हैं। भारत जिस संघीय ढांचे पर आधारित है, उसे कमजोर किया गया है| सभी संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर कर दी गयी हैं| एक नया नैरेटिव रचा गया है, जो किसी भी अर्थ में पहले नहीं था। भय, हिंसा और झूठ की राजनीति और संस्कृति बढ़ी है| क्या 23 मई 2019 के बाद यह संस्कृति और राजनीति समाप्त होगी या कमजोर होगी?
1977 में इन्दिरा गाँधी के खिलाफ सारा विपक्ष एक था| इस बार नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ विपक्ष एकजुट नहीं है| महागठबंधन के समस्त दावों के बाद भी सभी विपक्षी दल राजग को छोड़कर एक जुट नहीं हुए। भाजपा के विरुद्ध सभी दलों ने मिलकर सर्वसम्मति से मात्र एक प्रत्याशी खड़ा नहीं किया, भाजपा को सीधी टक्कर नहीं दी गयी। विरोध शाब्दिक स्तर पर अधिक रहा| उपभोक्तावाद के इस दौर में राजनीति का चाल-चरित्र बदल चुका है। वहाँ अब ‘भोग’ प्रमुख है। त्याग, आदर्श, विचार, सिद्धांत मूल्यादि के लिए अब राजनीति में अधिक स्थान नहीं हैं| वैश्विक पूँजी, बाजार पूँजी, कारपोरेट पूँजी, याराना पूँजी, वित्तीय पूँजी सबने राजनीति का स्वरूप परिवर्तित कर दिया है। चुनाव तकनीक के सहारे लड़ा जा रहा है। नेताओं का मतदाताओं से सीधा ओर जमीनी सम्पर्क घटा है। भाजपा ने इस चुनाव मे दिसम्बर महीने में ही निजी जेट और हेलिकॉप्टर प्रचार के लिए ‘बुक’करा लिये थे। भाजपा की बुकिंग लगभग नब्बे प्रतिशत रही है जबकि शेष दस प्रतिशत में कांग्रेस सहित अन्य सभी राजनीतिक दल है। मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव सबसे पहले कॉरपोरेट जगत ने दिया था। इस चुनाव में कॉरपोरेट फिर से उन्हें विजयी बनाने के लिए कुछ भी नहीं छोड़ेगा। नोटों की गड्डियों की कोई कमी नहीं रहेगी ।
1 अरब 35–37 करोड़ भारतवासियों के भाग्य का निर्णायक है यह चुनाव| मोदी ने एक रणनीति के तहत अपने को सर्वाधिक शक्तिशाली बनाया| भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उनके बाद भाजपा के सर्वाधिक शक्तिशाली अध्यक्ष हैं। भारतीय जनसंघ और भाजपा का कोई भी अध्यक्ष कभी इतना शक्तिशाली नहीं था। मोदी और शाह ने एक दूसरे को शक्ति दी। 23 मई 2019 के बाद केवल मोदी का ही नहीं, अमित शाह के भी भाग्य का फैसला होगा। यह चुनाव–परिणाम पर निर्भर करेगा। भाजपा की कम सीट 150 से 200 के बीच आने पर भाजपा के भीतर मोदी–विरोधी स्वर के अधिक मुखर होने की संभावना हैं| अन्य घटक दलों की सीट–संख्या के बाद राजग के बहुमत में आने पर नितीन गडकरी या अन्य किसी संघी-भाजपाई को प्रधानमन्त्री पद के लिए आगे किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ न तो मोदी को पूर्णत: स्वीकार कर सकता है और न अस्वीकार| इस पांच वर्ष में उसका ‘हिन्दुत्व’ वाला एजेण्डा जिस तीव्र गति से आगे बढ़ा है, वह उसकी कल्पना में नहीं था| मोदी की शक्ति एकसाथ आरएसएस और कॉरपोरेट है। कांग्रेस के जिस नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का बीजारोपण किया, वह अब एक बड़े वृक्ष के रूप में सामने है।
राहुल गाँधी ने जिस प्रकार बार–बार रॉफेल और अन्य मामलों में अम्बानी–अडानी की बात कही है, उससे यह एक संकेत जाता है कि अगर किसी प्रकार कांग्रेस अन्य दलों के सहयोग से सत्तासीन हो गई, तो वह आर्थिक नीतियाँ बदलेगी। नवदारवादी अर्थव्यवस्था किसानों, मजदूरों, सामान्यजनों, बेरोजगारों के पक्ष में नहीं है। क्या इस चुनाव के बाद आर्थिक नीतियाँ कायम रहेंगी या बदलेंगी? रतन टाटा की मोहन भागवत से भेंट मुलाकात के कई अर्थ हैं। यह चुनाव परिणमा यह निश्चित करेगा कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहेगा या ‘हिन्दू राष्ट्र’बनने की दिशा में आगे बढ़ेगा? भाजपा का ‘विजन’ राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ का ‘विजन’है । संघ कभी अपने ‘विजन’से नहीं हटा| ‘हिन्दू राष्ट्र’का उसका स्वप्न आरंभ से है। कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के पास कोई ‘विजन’नहीं है। संघ का एजेण्डा आरंभ से स्पष्ट है जिसे पहचानने में राजनीतिक दलों ने ही नहीं, भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी कम गलतियाँ नहीं की।
हिन्दी के कवि-लेखक, आलोचक-सम्पादक, संस्कृतिकर्मी सब ने स्वतन्त्र भारत के आरम्भ में संघ की सही पहचान कम की| आलोचक देवीशंकर अवस्थी ने अपने छात्र–जीवन में ही ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की घातक कूटनीति’ की पहचान कर ली थी। 1951–52 मं ‘दैनिक विश्वमित्र’ के सम्पादक को अपने पत्र में ‘संघ के गुप्त प्रचार’ के बारे में बताया था। भारतीय जनसंघ के जन्म के पहले अभाविप (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) की स्थाना 9 जुलाई 1949 को हुई थी। देवीशंकर अवस्थी ने संघ के ‘सदैव से राजनैतिक सत्ता हथियाने’ के उद्देश्य के बारे में लिखा था – संघ अप्रत्यक्ष रूप से अपने लिए राजनीतिक भूमि तैयार करना चाहता है|
और इसी उद्देश्य से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का संगठन किया गया है। संघ ही के कार्यकर्ता और नेता परिषद के कार्यकर्ता और नेता हैं। एक ओर तो संघ केवल सांस्कृतिक संस्था रहेगी तथा दूसरी ओर नाम बदलकर हिन्दू डिक्टेटर शाही का प्रयत्न किया जाएगा। 65–66 वर्ष पहले डीएवी कॉलेज कानपुर में मेधावी और जागरूक छात्र अभाविप को उसके जन्म से और संघ के वास्तविक इरादों से सुपरिचित थे पर संघ को सब ठीक तरह से समझने में असफल रहे। अब संघ खुलकर अपने एजेण्डे के साथ हमारे सामने हैं। यह चुनाव तय करेगा कि संघ के असली एजेण्डा को कामयाब न होने देने के लिए हम कितने तत्पर और कटिबद्ध हैं। अब कुछ भी छुपा–छिपा नहीं है। सब सामने है। नेपथ्य में कुछ भी नहीं हैं| 23 मई का चुनाव-परिणाम और उसके बाद सरकार का गठन सबकुछ तय करेगा। 1977 से यह चुनाव सर्वथा भिन्न है। 1977 में इन्दिरा गाँधी को हटाना मुख्य लक्ष्य था। इस बार मोदी को हटाना, भाजपा को पराजित करना और संघ के मंसूबे को विफल करना किसी भी राजनीतिक दल का लक्ष्य नहीं है।
पहले आज जैसी कहीं कोई भीड़–हिंसा–हत्या नहीं थी। ‘राष्ट्रवाद’ के बहाने किसी को प्रताड़ित नहीं किया जाता था। पहली बार यह संभव हुआ कि जो मोदी भाजपा और संघ परिवार का विरोधी है वह ‘राष्ट्र द्रोही’हैं। राष्ट्र को एक व्यक्ति, एक दल और एक संगठन में कैद कर दिया गया। ‘राट्रवाद’ ‘हिन्दुत्व’ का पर्याय बना| सरकार ने तो पूरी तरह मीडिया पर कब्जा कर लिया। मोदी युग में ही गोदी–मीडिया जन्मा और फला-फूला| मीडिया से विश्वास घटा। उसने अपनी भूमिका बदली| घुटने टेके| मोदी–शासन एक प्रकार का कॉरपोरेट शासन है। भारतीय राजनीति की वर्णमाला के दो प्रथमाक्षर ही सारे अक्षर बन गए – अम्बानी और अडानी के जहाज से पिछले चुनाव (2014) में नरेन्द्र मोदी ने चुनाव यात्राएँ की थी| स्वतन्त्र भारत में कोई भी सरकार कॉरपोरेट के इतने पास नहीं थी। नयी दिल्ली में प्रधानमन्त्री पद की शपथ लेने के लिए नरेन्द्र मोदी अडानी के जहाज से आए थे। मोदी सरकार अल्पसंख्यक विरोधी सरकार रही है| गोलवलकर ने ‘बेच ऑफ थॉट्स’ में भारत के तीन ‘आन्तरिक शत्रुओं’ का उल्लेख किया था, जो मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट हैं| अब इन तीनों पर हमलें सामान्य घटनायें हैं|
संघ के सभी अनुषांगिक संगठन और मित्र-संगठन उसकी नीतियों को ‘हिंदुत्व’ के एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं, जिसे मात्र चुनाव लड़कर सत्ता प्राप्त कर और सरकार बनाकर नहीं रोका जा सकता| सभी राजनीतिक दलों की सदस्य संख्या से बड़ी है भाजपा की सदस्य संख्या| आरएसएस जैसी संगठन शक्ति किसी भी दल या संगठन में नहीं है| क्या इस चुनाव के बाद राजनीतिक दल आत्मचिन्तन और आत्मसंघर्ष करेंगे या पूर्व मार्ग से सर्वथा भिन्न उस नवीन मार्ग की निर्माण-दिशा में प्रयत्नशील होंगे, जिसकी सबको प्रतिक्षा है| क्या हिन्दुत्ववादी शक्तियों से संघर्ष के लिए चुनाव के बाद भी सभी विरोधी दल एकजुट रहेंगे या सत्ता पाने की स्थिति में आपस में उसी पुराने तौर तरीकों का इस्तेमाल करेंगे जिससे देश और आयाम को कोई लाभ नहीं मिला।
पहली बार देश को प्रमुख बैज्ञानिकों, इतिहासकारों, समाजवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, फिल्मकारों, अभिनेताओं, रंगकर्मियों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों – सबने मतदाताओं को भाजपा को वोट न देने, सोच–समझकर मतदान करने और अपने विवेक की रक्षा की अपील की बात की। सबके समक्ष यह एक असाधारण चुनाव है और इस चुनाव में हमारे सामूहिक विवेक की पहचान होनी है। चुनाव आयोग ने इस चुनाव में अपनी भूमिका का सही निर्वाह नहीं किया। सात चरणों का चुनाव किस राजनीतिक दल हित में है? मोदी के हेलीकॉप्टर की जांच करने वाले अपने पर्यवेक्षक को ही चुनाव आयोग ने निलम्बित कर दिया| प्रधानमन्त्री के हेलीकॉप्टर से उतारे गये काले बक्से की कोई जांच नहीं की गयी। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भय का एक वातावरण निर्मित किया| सभी संवैधानिक-लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर की गयी| सारी ताकत एक व्यक्ति-विशेष में केन्द्रित हो गयी|
मन्त्री और मन्त्री-समूह की हैसियत घटी| प्रधानमन्त्री कार्यालय में सारी शक्तियाँ केन्द्रित हो गयी| सत्ता का ऐसा केन्द्रीकरण पहले नहीं था| बुद्धि-विवेक, तर्क-तथ्य, संघर्ष-प्रतिरोध, चिन्तनशीलता, वैज्ञानिक वस्तुपरक दृष्टि-सोच सब निशाने पर आ लगे| संविधान कहने भर को रहा और संसदीय लोकतन्त्र? स्टीवेन लेवेत्सकी और डैनियल जिबलेट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसी डाई, व्हाट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट आवर फ्यूचर’ (2018) में विस्तार से यह बताया है कि लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी हुई सरकारें किस प्रकार लोकतन्त्र को समाप्त करती है| निर्वाचित नेता, राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री भी उसे समाप्त करते हैं| अपने समक्ष किसी भी नेता अथवा अन्य राजनीतिक दलों को महत्व न देना विपक्ष का अस्वीकार है| विपक्ष का अस्वीकार लोकत्रंत्र का अस्वीकार है| स्वतन्त्र भारत में पहली बार वर्तमान सरकार के दौर में उसकी नीतियों के विरोधियों को ‘राष्ट्र द्रोही’ कहा गया| अपने हित और पक्ष में मनोनुकूल परिभाषाएँ गढ़ी गयी| विवेक-चेतना दबायी गयी और शिक्षण-संस्थाओं तक में लुम्पेन तत्व प्रमुख हो उठे| सत्ता प्राप्ति के लिए सारी नैतिक सीमाएँ तोड़ दी गयी| प्रधानमन्त्री झूठ बोलते रहे और सच की आवाज बेद-मेद की गयी|
भारतीय समाज को हिन्दू समाज और धार्मिक समाज में बदलने के प्रयत्न किये जाते रहे| हेमंत करकरे को प्रज्ञा ठाकुर ने ‘राष्ट्र विरोधी’ कह डाला| राजनीति से शुचिता, नैतिकता, शालीनता सब समाप्त होने लगी| प्रधानमन्त्री ने बार-बार जिस भाषा और शब्दावली का प्रयोग किया, वह प्रधानमन्त्री पद के अनुकूल नहीं रहा| सबकी गरिमा-महिमा समाप्त की जाती रही| अन्य राजनीतिक दल और उनके नेता भी पीछे नहीं रहे| इस चुनाव-परिणाम के होने के बाद, सत्तासीन और विपक्ष की भूमिका में होने के बाद, क्या राजनीतिक दलों का चरित्र बदलेगा? इक्कीसवी सदी के दुसरे दशक के अंत में भारत ढलान पर है| दूर- दूर तक इसे रोकने वाली सामूहिक शक्तियाँ नहीं है| धर्म और जाति के पेक में सनी-लिथड़ी राजनीति क्या इस चुनाव के बाद दुग्ध-धवल की बात तो दूर, किंचित ही सही, स्वच्छ होगी?
क्षेत्रीय दलों के लिए भी यह चुनाव एक अवसर है| चुनाव-परिणाम के पश्चात क्या क्षेत्रीय दल आत्ममंथन करेंगे? सत्ता किसके लिए? किनके लिए? कब तक? टिकट न मिलने पर कईयों ने अपनी पुरानी पार्टी छोड़कर नयी पार्टी ज्वाइन की| नयी पार्टी ने तुरन्त टिकट भी डे दिया| न व्यक्ति को फ़िक्र है, न दल को| वह राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, कोई अंतर नहीं है| किसी भी दल में मौलिक रूप से कोई अंतर नहीं है| मुखौटे उतर चुके हैं और कलई खुल चुकी है| हिन्दू राष्ट्र का निर्माण, संविधान परिवर्तन, लोकतन्त्र का विघटन क्या सचमुच किसी दल विशेष की चिन्ता में हैं? बौद्धिक समुदाय की पहुँच सामान्य जन तक नहीं है| चुनाव परिणाम को लेकर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती| अगर भाजपा पुनः सत्ता में आती है और नरेन्द्र मोदी दुबारा प्रधानमन्त्री बनते हैं, तो देश और आर्थिक संकटग्रस्त होगा, भयावह दौर से गुजरेगा| यह क्षत-विक्षत भारत होगा|
अगर मोदी प्रधानमन्त्री न बने और कोई दूसरा भाजपाई इस पद को सुशोभित करे, तो उदारता, नरमी का भ्रम पैदा किया जायेगा| त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में खरीद-फ्रोख्त बढ़ेगी| अधिक सम्भावना जैसा और जितना भी ‘महागठबंधन’ है, उसके टूटने की होगी| फिर प्रधानमन्त्री बनने की भूख| पुरानी चल चली जाएगी और सरकार बन जाएगी| २३ मई 2019 के बाद का दृश्य सुन्दर कम रहेगा, विकृत और भयावह अधिक| भाजपा की हार के बाद विरोधी पटाखे फोड़ेंगे| संघ की शक्ति घटेगी नहीं| लोकतन्त्र और संविधान के साथ भारत का भविष्य उस सामान्य जनता के हाथ में है, जो जाति और धर्म में घिर-फँसकर भी अभी तक बहुत कुछ बचाये हुए है|
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