महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के उपलक्ष में पूरे सालभर देश-विदेश में अनेकों पहल की गयी। कई पुस्तकें भी सामने आयीं। लेकिन सुज्ञान मोदी द्वारा सम्पादित ‘महात्मा के महात्मा’ एक विशिष्ट योगदान है। क्योंकि यह महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक आत्म-दर्शनऔर हिन्दू धर्म सम्बन्धी आत्ममंथन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण, लेकिन सबसे कम जाने गए, पक्ष अर्थात गाँधी और उनके ‘मार्गदर्शक’, ‘आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधानकर्ता’ और ‘धार्मिक द्वंद्व से मुक्ति दिलाने वाले’ श्रीमद् राजचन्द्र (9 नवम्बर 1867 – 9 अप्रैल 1901) के अद्भुत सम्बन्धोंपर प्रकाश डालती है। अत्यन्त मनोयोग से किये गए इस संकलन – सम्पादन में दोनों विभूतियों की विशिष्ट निकटता के बारे में अबतक लगभग अचर्चित जानकारी व्यवस्थित तरीके से सामने आयी है।
इसकी शुरुआत ‘महात्मा गाँधी की दृष्टि में श्रीमद् राजचन्द्र’ शीर्षक से गाँधीजी के हवाले से लगभग 80 पृष्ठों की सामग्री से हुई है। यह उल्लेख भी जरुरी है कि इस अनोखी किताब के अन्तिम हिस्से में समापन की सुगन्ध के रूप में प्रामाणिक आलेखों के जरिये दोनों के विचार-परिचय का मूल्यवान परिशिष्ट है – श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत के चयनित अंश (पृष्ठ 265-274), ‘आत्मसिद्धि शास्त्र’ (275-304) और सत्य और अहिंसा सम्बन्धी महात्मा गाँधी के विचार (305-317)।इसके बीच के चार भागों में अनुयायियों द्वारा अनुस्मरण और परवर्ती पीढ़ियों द्वारा मूल्यांकन का संतुलित समन्वय इसे पठनीय और संग्रहणीय बनाता है।
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गाँधीजी की दृष्टि में श्रीमद् राजचन्द्र भारत में आधुनिक काल के ‘सर्वोत्तम धार्मिक दार्शनिक’ और ‘दयाधर्म की मूर्ति’ थे (देखें: पृष्ठ 38, 40-47)। श्रीमद् राजचन्द्र जी में वैष्णव और जैन दोनों संस्कारों का सिंचन था। इसलिए उनके चिन्तन में आस्तिक और नास्तिक दर्शन की चेतना थी जिससे धर्म सम्बन्धित समन्वय दृष्टि के बीज का आरोपण हुआ था। उनका जीवन समन्वय दृष्टि, तत्व-मीमांसा और वैराग्य के संगम का प्रतीक था। सोलह वर्ष की आयु में रचित ‘मोक्षमाला’ आज भी मुमुक्षु की परम यात्रा के प्रारम्भ करने के लिए मूल्यवान मानी जाती है। वह संस्कृत और प्राकृत भाषाओँ में दक्ष तथा ज्योतिष, अंगविद्या और सामुद्रिक ज्ञान विद्या में निपुण शतावधानी सिद्ध थे।
‘श्री आत्मसिद्धि’ को उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है जिसमें षट्दर्शन की समन्वयात्मक प्रस्तुति है ( देखें: श्री बेन प्रभु का लेख, पृष्ठ 113 – 119)। गाँधीजी की उनसे पहली मुलाक़ात 22 बरस की आयु में इंग्लैंड से शिक्षा पूरी करके स्वदेश वापस आते ही 1891 में डॉ. प्राणजीवन मेहता के सौजन्य से हुई और अगले दस बरस में श्रीमद् राजचन्द्र के 1901 में देहांत तक लगातार सघन होती चली गयी।
गाँधीजी इस विशिष्ट ‘जीवंत संगति’ और उसके प्रभाव का अपनी आत्मकथा से लेकर जेल डायरी, पत्राचार और अंतिम दिनों की प्रार्थना सभा तक में उल्लेख करते रहे। गाँधीजी‘श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत’ का नियमित स्वाध्याय करते थे और उनकी आध्यात्मिक रचना ‘आत्मसिद्धि शास्त्र’ के कई पदों का गाँधीजी की प्रार्थना-सभा के भजनों में गायन होता था। यह किसे नहीं मालूम कि गाँधी जी के जीवन में तीन व्यक्तियों का सबसे जादा प्रभाव रहा है: कवि राजचन्द (1867 – 1901 ) से जीवंत सम्बन्ध, विश्वविख्यात रुसी मनस्वी लियो तालस्ताय (1828 – 1910 ) के जीवन दर्शन और ब्रिटिश चिन्तक जान रस्किन (1819 – 1900) की सभ्यता दृष्टि ने दिशा दी।
दूसरी तरफ, श्रीमद् राजचन्द्र ने जब सन 1900 में श्री वीतरागश्रुत के प्रकाशन तथा प्रचार के लिए ‘श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल’ की स्थापना की तो गाँधीजी से आग्रह करके उनको इस ट्रस्ट का संस्थापक अध्यक्ष बनाया। गाँधीजी भी 1901 और 1940 के बीच बारम्बार श्रीमद् राजचन्द्र की स्मृति से जुड़े आयोजनों में अपने भरसक हिस्सा लेते रहे। उनके द्वारा श्रीमद् राजचन्द्र का अंतिम उपलब्ध स्मरण जनवरी, 1947 का है।
इस ग्रन्थ में गाँधीजी की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के बारे में श्रीमद् राजचन्द्र द्वारा दिए गए तीन पत्रों का प्रकाशन इसकी महत्ता को बढ़ाता है (देखें: सर्वाधिक चर्चित पत्रोत्तर जिसमें गाँधीजी की विविध सत्ताईस आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का विस्तृत उत्तर है (श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत पत्रांक – 530 (20 अक्टूबर, 1894 का पत्रोत्तर।) (पृष्ठ 67-77); पत्रांक – 570 (तिथि नहीं) (पृष्ठ 78-79); तथा पत्रांक 717 (9 अक्तूबर 1896 का पत्र))। 25 बरस के गाँधी जी केबहुचर्चित पत्र में कुल सत्ताईस प्रश्न थे। आत्मा, ईश्वर और मोक्ष से जिज्ञासा शुरू होती है। फिर अगली शंकाएं वेद, गीता, आर्यधर्म और यज्ञ में पशुवध के बारे में थीं। फिरईसा मसीह, बाइबिल और ईसाई धर्म के बारे में प्रश्न करते हुए पूर्वजन्म, पुनर्जन्म, नीति-अनीति-सुनीति, भक्ति और मोक्ष, दुनिया की अंतिम स्थिति और प्रलय के बारे में पूछा गया।
महात्मा बुद्ध के बारे में एक दिलचस्प प्रश्न है। फिर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, रामावतार और कृष्णावतार के बारे में प्रश्नों से पत्र पूरा हुआ था। गाँधीजी और श्रीमद् राजचन्द्र के सम्बन्धों की सरलता और सहजता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है की 1894 के पत्र में गाँधीजी की पहली समस्या तो थी कि ‘आत्मा क्या है?’ और इसी स्तर के अन्य पच्चीस प्रश्नों के बाद अन्तिम प्रश्न मेंपच्चीस बरस के गाँधीजी ने अपने से कुल दो बरस जादा आयु के श्रीमद् राजचन्द्र से यह भी जानना चाहा था कि, ‘जब मुझे सर्प काटने आये तो मुझे उसे काटने देना या मार डालना?
उसे दूसरी तरह से दूर करने की शक्ति मुझ में न हो, ऐसा मानते हैं।’ इसके बारे में श्रीमद् का उत्तर क्या था? इस प्रश्न के उत्तर में भी दार्शनिक और आध्यात्मिक गहराई थी और ‘देह की अनित्यता’ और ‘आत्महित की इच्छा’ जैसी दो शाश्वत कसौटियों पर ‘अपनी देह छोड़ देना ही योग्य है।’ का रास्ता बताया गया।
इस प्रकार के पत्रों के गम्भीर और विस्तृत उत्तरों से श्रीमद् राजचन्द्र ने गाँधीजी के चित्त में पनपी दुविधाओं को दूर किया ऐसा गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है। हिन्दू धर्म की दो मुख्य त्रुटियाँ उनके आँख के आगे थीं:
अस्पृश्यता, अनेक सम्प्रदाय और जातिव्यवस्था के कारण वह हिन्दू धर्म की ‘सम्पूर्णता’ और ‘सर्वोपरिता’ के बारे में अनिश्चित हो चुके थे। तथा
अकेले वेदों के ईश्वर-प्रणीत होने का क्या अर्थ है? अगर वेद ईश्वर प्रणीत हैं, तो बाइबिल और कुरआन क्यों नहीं? ईसाई और मुस्लिम उनको प्रभावित करने के लिए प्रयत्नशील थे। डरबन मेंएक अरसे तक वह हर रविवार को गिरजाघर जाया करते थे।यह अलग बात है कि वहां के प्रवचन ‘शुष्क जान पड़े’ और ‘प्रेक्षकों में भक्तिभाव के दर्शन नहीं हुए’। गाँधीजी ने लिखा है कि, ‘यह ग्यारह बजे का समाज मुझे भक्तों का नहीं, बल्कि कुछ दिल बहलाने और कुछ रिवाज पालने के लिए आये हुए संसारी जीवों का समाज जान पड़ा। कभी-कभी इस सभा में मुझे बरबस नींद के आ जाते। इसमें मैं शरमाता। पर अपने आसपास भी किसी को उंघते देखता, तो मेरी शरम कुछ हो जाती।’
जीवन-दिशा बदलने वाले इस दौर के बारे में गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा दो अध्यायों में चर्चा करना जरूरी समझा था। पहले उल्लेख में (भाग 2, अध्याय 15) लिखा है कि, “ मैंने अपनी कठिनाइयाँ रायचन्द भाई के सामने रखीं। हिन्दुस्तान के दूसरे धर्मशास्त्रियों के साथ भी पत्र-व्यवहार शुरू किया। उनकी ओर से उत्तर भी मिले। रायचन्द भी के पत्र से मुझे बड़ी शांति मिली। उन्होंने मुझे धीरज रखने और हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन करने की सलाह दी।
उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था: “निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई है कि हिन्दू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं है।” …कवि (श्रीमद् राजचन्द्र) के साथ (पत्र-व्यवहार) तो अंत तक बना रहा। उन्होनें कई पुस्तकें मेरे लिए भेजीं। मैं उन्हें भी पढ़ गया। उनमें ‘पंचीकरण’, ‘मणिरत्नमाला’, योगवाशिष्ठ का ‘मुमुक्षु प्रकरण’, हरिभद्र्सूरि का ‘षड्दर्शन समुच्चय’ इत्यादि पुस्तकें थीं… ” (पृष्ठ 59)
उन्होंने पुन: आत्मकथा में आध्यात्मिक आत्मनिरीक्षण के इस दौर की दूसरी बार (भाग 2, अध्याय 22) विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा कि, “मैं तो यात्रा करने,काठियावाड़ के षड्यंत्रों से बचने और आजीविका खोजने के लिए दक्षिण अफ्रीका गया था। पर पड़ गया ईश्वर की खोज में, आत्म दर्शन के प्रयत्न में। ईसाई भाइयों ने मेरी जिज्ञासा को बहुत तीव्र कर दिया था….धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन के लिए जो फुर्सत मुझे प्रिटोरिया में मिल गयी थी, वह अब असम्भव थी। पर जो थोडा समय बचता, उसका उपयोग मैं वैसे अध्ययन में करता था। मेरा पत्र-व्यवहार जारी था। रायचन्द भाई मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे…”।
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लेकिन यह चकित करनेवाला तथ्य है कि गाँधीजी के बारे में लिखी गयी लगभग 250 पुस्तकों में ‘सभी को मिलाकर’ भी श्रीमद् राजचन्द्र के बारे में चालीस पंक्तियाँ भी नहीं मिलती हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट (दिल्ली) द्वारा प्रकाशित और श्री यू.एस. मोहनराव द्वारा संकलित-सम्पादित ‘शब्दचित्र और श्रद्धांजलियाँ – गाँधीजी’ (2012) में देश-विदेश के 68 व्यक्तियों के बारे में गाँधीजी द्वारा लिखे आलेखों के बीच भी श्रीमद् राजचन्द्र के बारे में कोई उल्लेख या आलेख नहीं है।
इस विचित्र कमी को दूर करना ही इस सुरुचिपूर्ण संकलन की पृष्ठभूमि का सबसे उल्लेखनीय तथ्य है। इस सन्दर्भ में पहले श्री सुज्ञान मोदी ने श्रीमद्जी के 149वें जन्मदिन, कार्तिक पूर्णिमा, 14 नवम्बर, 2016 को ‘श्रीमद् राजचन्द्र और गाँधीजी’ नाम से एक फेसबुक समूह का निर्माण किया। इसके देश-विदेश में कुल 13,455 सदस्य हैं। इसी क्रम में अगले योगदान के रूप में सुज्ञान जी ने श्रीमद् जी की 152वीं जयंती पर 12 नवम्बर को किताबघर (जोधपुर) के विज्ञान मोदी के प्रकाशकीय सहयोग से ‘महात्मा के महात्मा’ प्रस्तुत की है।
इसकी ‘भूमिका’ के अनुसार,”..पुस्तक को प्रकाशित करने का उद्देश्य यह है कि गाँधीजी के बारे में लिखने वाले लेखकों, शोधार्थियों और गाँधीजी के बारे में सामान्य जिज्ञासुओं को भी उनके अध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक श्रीमद् राजचन्द्र जी के बारे में जानकारी मिले। इसके अलावा एक उद्देश्य यह भी है कि अन्यान्य देश-विदेश में फैले श्रीमद् राजचन्द्र जी के समर्पित लाखों साधकों-मुमुक्षुओं को भी गाँधीजी और श्रीमद् राजचन्द्र के आपसी सम्बन्धों के बारे में जानने को मिले।”
गाँधीजी के जीवन की आध्यात्मिक नींव बनाने में सबसे महत्वपूर्ण योगदान करने वाले जैन सिद्ध श्रीमद् राजचन्द्र (9 नवम्बर 1867–9 अप्रैल 1901) को केंद्र में रखकर सम्पादित यह आकर्षक किताब कुल छ: भागों में संगठित की गयी है:
1. गाँधी जी की दृष्टि में श्रीमद् राजचन्द्र (कुल 78 पृष्ठ),
2. महान व्यक्तियों द्वारा श्रीमद् राजचन्द्र की प्रशस्ति (श्री लघुराजस्वामी, काका कालेलकर, विमला ठकार, व डॉ. भगवानदास मेहता के लेख; 7 पृष्ठ ),
3. श्रीमद् राजचन्द्र की सिद्धियों का परिचय ( पूज्य श्री बेनप्रभु, फूलचन्द शास्त्री व सुज्ञान मोदी के आलेख; 32 पृष्ठ),
4. महान व्यक्तियों द्वारा महात्मा गाँधी की प्रशस्ति (विनोबा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरु व डॉ. राधाकृष्णन के लेख; 17 पृष्ठ),
5. श्रीमद् राजचन्द्र एवं महात्मा गाँधी विषयक महत्वपूर्ण आलेख ( सोलह आलेख; कुल 99 पृष्ठ) तथा
6. परिशिष्ट (श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत के चयनित अंश, ‘आत्मसिद्धिशास्त्र’ के 142 पद, सत्य-अहिंसा सम्बन्धी गाँधी विचार और गाँधीजी का वसीयतनामा; कुल 43 पृष्ठ)।
हमारे देश के दो महात्माओं के परस्पर सम्बन्धों के साथ ही दोनों की अपनी अपनी विस्मयकारी जीवन साधना से सम्बन्धित बहुमूल्य तथ्यों, पत्रों, भाषणों, विवरणों, संस्मरणों और आलेखों कासुज्ञान मोदी द्वारा तैयार यह संकलन श्रीमद् राजचन्द्र के चिन्तन-लेखन के गहन शोध और गाँधी-वांग्मय के व्यापक अध्ययन से सम्भव हुआ है। इसको पठनीय बनाने का भी ध्यान रखा गया है। इस प्रकार यह गाँधी जी के हिन्दू धर्म व अन्य धर्मों सम्बन्धी आत्म-मंथन और आध्यात्मिक उहापोह के दौर के बारे में श्रीमद् राजचन्द्र की भूमिका की सम्पूर्णता की समझ देनेवाली पहली रचना के रूप में पाठकों के हाथ में है। यह श्रीमद् राजचन्द्र का गाँधीजी समेत अनेकों प्रशंसकों के माध्यम से महत्त्व तो सामने लाती ही है।
दोनों विभूतियों के बारे में ध्यानाकर्षण करानेवाले नए-पुराने लेखों के कारण यह सहज और सरल प्रवेशिका जैसी भी बन गयी है। इससे गाँधी-विमर्श में सर्वव्यापी और बहुचर्चित ‘ईश्वर तत्व’ और ‘धर्म पक्ष’ को समझने में सुविधा होगी। इन्ही खूबियों के कारण ‘महात्मा के महात्मा’ अपने उद्देश्यों के अनुकूल एक अति-उपयोगी किताब हो गयी है। बधाई!
(महात्मा के महात्मा सम्पादक – सुज्ञान मोदी (2019) (जोधपुर, किताब घर) 318 पृष्ठ, मूल्य 250/- रु.)