सामयिक

सामाजिक नजदीकी और शारीरिक दूरी की आवश्यकता

 

  • शंकर कुमार लाल

 

नव वैश्विक महामारी के रूप में चीन से शुरू हुआ कोरोना वायरस का कहर दुनियाभर के देशों में देखने को मिल रहा है। भारत में भी इसका संक्रमण लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में  पिछले कुछ दिनों से सोशल डिस्टेंसिंग शब्द काफी प्रचलित हो रहा है। इस शब्द का प्रयोग लगातार प्रधानमन्त्री जी द्वारा भी अपने भाषणों में किया जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय भी इसी शब्द का इस्तेमाल अपने दस्तावेज़ों और निर्देशों में कर रहा है, परन्तु यदि हम विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यप्रणाली पर ध्यान दें तो यह पाते हैं कि इसके द्वारा लगातार सोशल डिस्टेंसिंग के स्थान पर फिज़िकल डिस्टेंसिंग की अवधारणा पर ज़ोर दिया जा रहा है।

प्रारम्भ में इस शब्द के प्रयोग को लेकर असमंजस था, लेकिन अब विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा व्यापक रूप से इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। यही वजह है कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने लोगों को सोशल डिस्टेंस की सलाह दी है। लोगों को भीड़-भाड़ वाली जगह से दूर रहने को कहा गया है। सोशल डिस्टेंसिंग का मतलब होता है एक-दूसरे से दूर रहना ताकि संक्रमण के ख़तरे को कम किया जा सके।

जब कोरोना वायरस से संक्रमित कोई व्यक्ति खांसता या छींकता है तो उसके थूक के बेहद बारीक कण हवा में फैलते हैं। इन कणों में कोरोना वायरस के विषाणु होते हैं। संक्रमित व्यक्ति के नज़दीक जाने पर ये विषाणुयुक्त कण सांस के रास्ते आपके शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। अगर आप किसी ऐसी जगह को छूते हैं, जहाँ ये कण गिरे हैं और फिर उसके बाद उसी हाथ से अपनी आँख, नाक या मुँह को छूते हैं तो ये कण आपके शरीर में पहुँचते हैं।

यह भी पढ़ें- सोशल डिस्‍टेंसिंग बनाम क्‍लास डिस्‍टेंसिंग

सोशल डिस्टेंस का सामान्य अर्थ लोगों से प्रत्यक्ष दूरी बनाए रखना है। सभाओं में शामिल होने से बचना, सामजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और पारिवारिक कार्यक्रमों के आयोजन से दूर रहना सोशल डिस्टेंसिंग है। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी प्रकार के भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर नहीं जाना और किसी व्यक्ति से बात करते समय हमें किसी भी प्रकार से शारीरिक स्पर्श से बचना है। कोरोना से बचने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय शुरू से ही लोगों को भीड़-भाड़ वाली जगहों से बचने की अपील करता रहा है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि भीड़ में यह पता नहीं होता कि कौन इस खतरनाक वायरस से संक्रमित है? अगर किसी को इसका संक्रमण होगा तो दूसरे भी इसकी चपेट में आ सकते हैं। इस स्थिति में संक्रमण बढ़ने का खतरा ज्यादा होता है।

social distancing getty images
getty images

सोशल डिस्टेंस या सामाजिक दूरी इस बीमारी को रोकने से ज्यादा इसके बढ़ने की दर को कम करने का साधन है, जिससे लोग ज्यादा संक्रमित नहीं हो।  संक्रमण कम फैले और बीमारी थम जाये, इसलिए एक-दूसरे से कम सम्पर्क रखने को ही सोशल दूरी कहा जाता है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा है कि वर्तमान हालात में सामाजिक दूरी काफी अहम है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि इस समय ‘वर्क फ्रॉम होम’ की जरुरत है। यह भी सामाजिक दूरी के तहत उठाए गए अहम कदम हैं। वहीं कोचिंग सेंटर को बंद किया गया है। स्कूल-कॉलेज को भी बंद किया गया है। वहीं ट्रेन और बस भी बंद है।

यह भी पढ़ें- कोरोना का विश्वव्यापी प्रभाव

यूजीसी विश्वविद्यालय को आई सी टी और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से अध्ययन और अध्यापन के लिए निर्देश जारी किये हैं। संक्रामक रोग विशेषज्ञ एमिली लैंडन ने माना क़ि सोशल डिस्टेंस यानी सामाजिक दूरी के जरिए इस गंभीर वायरस के संक्रमण को रोका जा सकता है। अगर किसी को सर्दी-जुकाम या फिर खांसी की समस्या है तो ऐसे लोगों करीब जाने से परहेज करना चाहिए। इसके साथ ही किसी भीड़ वाली जगह पर कम से कम लोगों से 6 फीट की दूरी जरूरी है।

भारत में सोशल डिस्टेंसिंग यानी स्वयं को औरों से दूर कर लेने की अवधारणा नहीं रही है। भारत तो समूची दुनिया को कुटुम्ब मानता रहा है, लेकिन यह मानते हुए भी फिलहाल सदियों के आजमाए सामाजिक व्यवहार को छोड़ना है। एक तरह से भारत की यह लड़ाई उसकी जीवन शैली से है। भारत में बीमार व्यक्ति को भी अकेला नहीं छोड़ा जाता। परिजन उसे घेरे रहते हैं, सेवा करते हैं, किन्तु विकसित देशों में बीमार व्यक्ति किसी से नहीं मिलता। यदि वह घर पर है तो घर के बाहर बोर्ड लगा रहता है: बीमार हैं, न मिलें। विकसित देशों में सोशल डिस्टेसिंग की आम अवधारणा रही है। अपने देश में लोग परिचित बीमार से न सिर्फ मिलते हैं, बल्कि मदद के लिए आगे रहते हैं। इस आदत को फिलवक्त बदलना होगा और मेलजोल से बचने का संयम दिखाना होगा।

यह भी पढ़ें- कोरोना काल का सकारात्मक पहलू-डिजिटल होता भारत

केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने सोशल डिस्टेंसिंग को बढ़ावा देने के लिए कहा है कि सभी शिक्षक ऑनलाइन शिक्षण और मूल्यांकन करें। विश्वविद्यालयों में सोशल डिस्टेंसिंग में ऑनलाइन शिक्षण बहुत उपयोगी हो सकता है। नि:संदेह ऐसी बातें भी कोरोना घोषणा पत्र का हिस्सा बनना चाहिए कि सोशल डिस्टेंसिंग के दौरान घर में रहकर काम करेंगे, शादी और पार्टी का आयोजन नहीं करेंगे, न ही इनका हिस्सा बनेंगे। यह शपथ भी लेनी चाहिए कि सोशल डिस्टेंसिंग के दौरान अपने ऑफिस और घर का जरूरी काम तो करेंगे ही, कोरोना वायरस से बचने के जरूरी नियमों का पालन भी करेंगे।

plague pandamic

सन 1899 में जब कलकत्ता में प्लेग फैला था तो स्वामी विवेकानंद ने प्लेग पीड़ितों की सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की एक समिति बनाई थी। स्वामी विवेकानंद ने प्लेग घोषणा पत्र में घर और उसके परिसर, कमरे, कपड़े, बिस्तर, नाली आदि को हमेशा स्वच्छ बनाए रखने और एक दूसरे की सेवा भाव की बात कही थी। “सामाजिक दूरी” शब्द इस संदर्भ में भ्रामक है। इस वैश्विक आपदा के समय में जब इस वायरस से निपटने के लिए “सामाजिक निकटता” की अत्यन्त आवश्यकता है तो हम ठीक उसका विलोम शब्द “सामाजिक दूरी” का प्रयोग कर रहे हैं। “सामाजिक दूरी” का सही अर्थ यह है कि हम एक दूसरे का सहयोग करना बन्द कर दें। यदि ऐसा हुआ तो यह महामारी दुनिया के लाखों लोगों को लील लेगी।

यह भी पढ़ें- भीड़ हिंसा और साम्प्रदायिक हिंसा की त्रासदी

अमरीका की नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान और सार्वजनिक नीति के प्रोफेसर डैनियल एल्ड्रिच का कहा है कि यह शब्द भ्रामक है और इसका व्यापक उपयोग का प्रभाव उल्टा पड़ सकता है। एल्ड्रिच ने इसके स्थान पर “शारीरिक दूरी” शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया है। एल्डरिच ने कहा है कि कोरोनोवायरस के प्रसार को धीमा करने के लिए किए गए प्रयासों में “शारीरिक दूरी” (Physical Distance) बनाए रखते हुए सामाजिक सम्बन्धों को मजबूत करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने पिछले सप्ताह “शारीरिक दूरी” शब्द का उपयोग शुरू कर दिया है। डब्लूएचओ द्वारा 20 मार्च को की गयी दैनिक प्रेस ब्रीफिंग में डब्ल्यूएचओ के महामारी-वैज्ञानिक मारिया वान केरखोव ने कहा है कि अब हम “शारीरिक दूरी” शब्द को “भौतिक दूरी” शब्द से बदल देना चाहते हैं, क्योंकि हम चाहते हैं कि लोग अभी भी आपस में जुड़े रहें, उन के सामाजिक सम्बन्ध पहले से अधिक मजबूत बनें परन्तु प्रत्यक्ष शारीरिक सम्पर्क का आभाव हो।

हमें एक ऐसा समाज चाहिए जिसमें लोग अलग-अलग रहें। लोगों के बीच मजबूत सामाजिक सम्बन्ध न केवल महामारी का मुकाबला करने के लिए आवश्यक हैं, बल्कि पुनर्निर्माण के लिए बहूत जरूरी हैं। शारीरिक दूरी बनाए रखने का समय है, लेकिन साथ ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर एकजुट होने का भी समय है।

यह भी पढ़ें- महामारी, महिलाएँ और मर्दवाद

समाजशास्त्री बोगार्डस ने  सामाजिक दूरी को मापने का भी पैमाना विकसित किया है। जिसमे सम्बन्धों को इंगित करने वाले भिन्न- भिन्न सम्बन्धों को चयन किया। इन सभी सम्बन्धों को सात ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया गया जो समाजिक दूरी प्रकट करती थी। यह काम सौ जजों से कराया गया। बाद में ये अनुसूचियों 1725 व्यक्तिओं को दी गयीं। इनमें दक्षिण की ओर प्रजातियों के नाम लिखे गये। उत्तर की ओर सम्बन्धों या दूरियों की श्रेणियाँ रखी गयी। जैसे व्यवसाय साथी, जीवन साथी, क्लब, साथी आदि बनाने की स्वीकृति। इन सभी व्यक्तिओं को श्रेणियों के सामने चिन्ह लगाने का निर्देश दिया गया।

हर श्रेणी के आधार पर प्रजातियों के प्रति मनोवृत्तियों का योग निकालकर प्रतिशत में परिवर्तित किया गया। इस प्रकार भिन्न-भिन्न के प्रति सामाजिक दूरी का औसत निकाला गया। परन्तु वर्तमान परिदृश्य में सामाजिक दूरी में ही भौतिक दूरी और शारीरिक दूरी अन्तर्निहित है। विशाल सांस्कृतिक विविधता वाले समाज के लिए सामाजिक दूरी का तकनीकी प्रयोग करना और व्यवहार में लाना काफ़ी चुनौतीपूर्ण होता है।avoid close contact

विश्व स्वास्थ्य  संगठन (WHO) इस दूरी को 1 मीटर के रूप में पहचानता है। सीडीसी (CDC) 2 मीटर कहता है, जिससे सामाजिक दूरी का न्यूनतम माप निर्धारित होता है। परिवार कल्याण और स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग (MoHFW), गैर-दवा संक्रमण की रोकथाम और उसी के ख़िलाफ़ नियंत्रण हस्तक्षेप के रूप में सामाजिक दूरी को संदर्भित करता है। ‘सामाजिक दूरी’ शब्द का प्रयोग अक्सर आत्म-संगति या अलगाव के रूप मे भी किया जाता है, लेकिन ये तकनीकी और व्यावहारिक रूप से भिन्न है। जो केवल उन लोगों के गतिविधि को प्रतिबंधित करता है जो लक्षणों की उपस्थिति या अनुपस्थिति की पुष्टि के लिए संक्रामक वातावरण से अवगत है।

यह भी पढ़ें- महामारी के दुष्प्रभावों से उबरने का मनोवैज्ञानिक उपचार

दूसरी तरफ़ अलगाव के मामले में, संदिग्ध व्यक्तियों को परिवार के बाक़ी सदस्यों से दूर रखा जाता है। यह एक साथ कितने प्रक्रिया में होता है, लेकिन संदर्भ बिंदु भिन्न होता है। अलगाव के साथ सामाजिक दूरी, एक धीमी प्रक्रिया है, और ज़ाहिर तौर पर लक्षण दिखने में कुछ सप्ताह लगते हैं। तत्काल नाटकीय प्रभाव की अपेक्षा करना निश्चित रूप से एक ग़लत आशंका है। कुछ ही समय में इसका दुस्प्रभाव तीव्र गति से बढ़ जाएगा अगर सामुदायिक रूप से सुरक्षित व्यवहार नहीं किया। जैसे- शारीरिक दूरी, साफ़-सफ़ाई, डॉक्टरों के निर्देशों का पालन, मास्क का उपयोग, स्वयं को साफ़ करना आदि। यह देखते हुए कि सामाजिक दूरी के तहत मानव अंतःक्रिया का पूर्ण समाप्ति उपयुक्त नहीं है, सामान्य अभ्यास शारीरिक रूप से स्वयं को दूर करना चाहिए। पूरी तरह से दूरी बनाना अवांछनीय है। शारीरिक दूरी को भावनात्मक पृथक्करण से अलग माना जाता है। जबकि ये पूर्णत: सही नहीं है।

स्वयं अलग-थलग की लम्बी अवधि में सभी से दूरी बनाए रखने में, संदिग्ध व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक भलाई पर दुष्परिणाम पड़ता है। इसलिए समायोजन तदनुसार किया जाना चाहिए। ज़ाहिर तौर पर इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लेकिन संक्रमित या संदिग्ध बुज़ुर्गों को घर में ही अलग-थलग कमरों मे रखना, दूर से उनको सुविधाओं के अभाव और मृत्युशय्या पर देखना, दिल टूटने से अधिक बुरा कुछ और भी नहीं हो सकता है।

यह भी पढ़ें- कोरोना महामारी क्या प्रकृति की चेतावनी है?

इस महामारी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए, पूरी तरह से व्यवस्थित और संगठित प्रयास की ज़रूरत है। साथ ही शारीरिक दूरी का अभ्यास करते हुए, कोरोना संक्रमण को नियंत्रित जा सकता है। इस महामारी का समाधान सरकार और जनता को एक साथ मिलकर करना होगा। हमें जीवन के साथ संघर्ष कर रहे लोगों के लिए सम्मानजनक व्यवहार के रूप में शारीरिक दूरी और सामाजिक एकजुटता का अभ्यास करना होगा। समाज तभी टिका रहता है जब सम्बन्धों का जाल बिछा हुआ हो। अतः आज सामाजिक सम्बन्धों में नजदीकी और शारीरिक सम्बन्धों में दूरी हमारी आवश्यकता है।

shankar kumar lal

लेखक ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में समाजशास्त्र विभाग में अतिथि सहायक प्राध्यापक हैं।

सम्पर्क- +916201430693, shankarkrlal@gmail.com

.

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x