लॉक डाउन से आगे का रास्ता…!
विश्वव्यापी कोरोना संकट ने अबतक 2 लाख से अधिक लोगों की जीवन-लीला समाप्त कर दी है। विश्व के बड़े-छोटे सभी देश इस अदृश्य और अतिसूक्ष्म शत्रु के सामने विवश नज़र आ रहे हैं। अभीतक के अनुभव के आधार पर बचाव ही इसका सबसे कारगर उपचार है। इसी मूलमन्त्र का अनुसरण करते हुए भारत में 25 मार्च से 14 अप्रैल तक लॉकडाउन किया गया। इस लाइलाज महामारी से लड़ने में लॉक डाउन की प्रभावी भूमिका और सकारात्मक परिणामों को दृष्टिगत रखते हुए इसे 3 मई तक के लिए और बढ़ा दिया गया। 40 दिन लम्बे इस लॉक डाउन का निर्णय सरकार ने इसके नफ़ा-नुकसान का समुचित आकलन करके ही लिया था।
तमाम अर्थशास्त्रियों ने इस लॉकडाउन के आर्थिक दुष्परिणामों के प्रति सरकार को आगाह करते हुए कहा था कि इतना लम्बा लॉकडाउन न सिर्फ भारतीय अर्थ-व्यवस्था को धराशायी कर देगा, बल्कि देश की जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को भूख और बेकारी से पूरी तरह तबाह करके जन-हानि को कोरोना से कई गुना अधिक कर देगा। महामारी और रोजी-रोटी के दो पथरीले पाटों के बीच पिसने वालों में मजदूर, रेहड़ी-ठेला-रिक्शा वाले, सीमान्त किसान, छोटे दुकानदार आदि प्रमुख हैं। ये भारत की जनसंख्या का 40 प्रतिशत से अधिक हैं। सरकार ने अर्थ-व्यवस्था की सेहत की जगह देशवासियों की सेहत को प्राथमिकता देते हुए इतने लम्बे लॉक डाउन का दूरदर्शी और साहसिक निर्णय लिया।
साथ ही, उसने इतने लम्बे लॉकडाउन के नकारात्मक परिणामों और प्रभावों से निपटने की भी अत्यन्त मानवीय पहल करते हुए सबके लिए भोजन, दवाई आदि का समुचित प्रबन्ध किया। सरकार के इन प्रयासों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे तमाम स्वयंसेवी संगठनों और नागरिक समाज ने भी अभूतपूर्व सहयोग किया। इस आपदा ने ‘राष्ट्रभाव’ का पुनर्भव करके राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण और एकात्म संस्कृति की संभावना का संकेत दिया है।
यह भी पढ़ें- लॉक डाउन में उपजी कहानियाँ
लेकिन यह भी सत्य है कि लॉकडाउन एक अस्थायी व्यवस्था या अंतरिम इलाज ही है। इसे अनिश्चित काल तक लागू नहीं किया जा सकता है। इसलिए अब आवश्यकता इस बात की है कि इस दिशा में गंभीरतापूर्वक विचार किया जाये कि लॉकडाउन को कब और कैसे समाप्त किया जाए और वर्तमान महामारी से आगे कैसे निपटा जाये! साथ ही, इस आपदाकाल के अनुभवों का आत्मसातीकरण किया जाये। निःसंदेह, ये अनुभव राष्ट्रीय आत्मा के भावी दिशा-निर्देशक हैं। 40 दिन लम्बे इस लॉकडाउन के तीन सबसे बड़े प्राप्य ये हैं कि इस बीच सरकार ने इस महामारी से निपटने के लिए आवश्यक स्वास्थ्य-सेवा ढाँचे को विकसित और उससे सम्बन्धित प्रबन्धों को चुस्त-दुरुस्त कर लिया है। यानी कि इस महामारी से निपटने के लिए सरकार को तैयारी का पर्याप्त समय मिल गया है।
दूसरे भारत में यह संक्रमण तीसरे चरण अर्थात् सामुदायिक संक्रमण स्तर पर नहीं पहुँच सका है। यूरोप के देशों का अनुभव बताता है कि सामुदायिक संक्रमण स्तर पर पहुँचकर यह महामारी अनियंत्रित हो जा रही है और परिणामस्वरूप जन-हानि कई गुना बढ़ जाती है। इस अर्थ में यह विशेष उपलब्धि है कि भारत जैसे देश में, जहाँ जनसंख्या बेहिसाब है और उसके अनुपात में स्वास्थ्य-सेवाओं और जागरूकता का चिन्ताजनक अभाव है, इस भयावह संक्रमण को सामुदायिक स्तर पर फैलने से पहले ही रोक लिया गया है। हालाँकि, दिल्ली के निज़ामुद्दीन में हुए तबलीगी जमात के जमावड़े और संक्रमित जमातियों द्वारा देश भर में इस संक्रमण का पैगम्बर (ब्रांड एम्बेसैडर) बन जाने और शासन और स्वास्थ्य-कर्मियों के साथ पूर्ण असहयोग और अभद्रता करने के कारण स्थिति जैसे-तैसे नियंत्रित हो सकी है।
यह भी पढ़ें- लॉक डाउन और असली चेहरे
लॉक डाउन की तीसरी और बड़ी उपलब्धि लोगों के बीच इस महामारी को लेकर पैदा हुई जागरूकता है। तमाम तरह की सांस्कृतिक-भौगोलिक विविधता, धार्मिक संकीर्णता और शैक्षणिक-आर्थिक पिछड़ेपन के बावजूद प्रत्येक देशवासी इस महामारी की गंभीरता से परिचित हो गया है और मुठ्ठीभर अपवादों के अलावा सभी देशवासी एक राष्ट्र के रूप में संगठित होकर मनसा, वाचा, कर्मणा मनुष्यता के इस सबसे बड़े शत्रु से निपटने में एकमत और एकजुट हैं। कोरोना के खिलाफ जारी इस लड़ाई में राष्ट्र-रक्षकों, जिनमें कि स्वास्थ्यकर्मी, पुलिसकर्मी, मीडियाकर्मी, सफाईकर्मी और रोजमर्रा की वस्तुएँ उपलब्ध कराने वाले शामिल हैं, की भूमिका निर्णायक रही है। उन्होंने अपने घर की चारदीवारी की सुरक्षा से बाहर निकलकर और अपनी जान जोखिम में डालकर लॉकडाउन की उपरोक्त उपलब्धियों को संभव किया है।
केन्द्र सरकार की तरह पहल करते हुए प्रत्येक राज्य सरकार को भी कोरोना से लड़ने वाले सभी स्वास्थ्य-कर्मियों (डॉक्टर से लेकर आशा कार्यकर्ता और सफाई कर्मी तक) के लिए 50 लाख रुपये के जीवन बीमा का अतिरिक्त प्रावधान करना चाहिए। यह मानवीय निर्णय न सिर्फ कोरोना योद्धाओं के परिवार को सामाजिक सुरक्षा कवच प्रदान करेगा, बल्कि उनके मनोबल को बढ़ाकर इस अभूतपूर्व युद्ध में उनकी मनोयोगपूर्ण भागीदारी सुनिश्चित करके विजयश्री दिलाएगा। स्वास्थ्य-कर्मियों की सुरक्षा और सम्मान के मद्देनजर केन्द्र सरकार द्वारा बनाये गये ताजा कानून से वे बिना किसी बाधा या व्यवधान के अपना काम कर सकेंगे। इस कानून में स्वास्थ्य-कर्मियों पर हमला करने वालों या उनके काम में बाधा उत्पन्न करने वालों के लिए 7 साल की सजा का प्रावधान किया गया है।
यह भी पढ़ें- लॉकडाउन के कारण घरेलू हिंसा
अब भारत को दो तरह की योजना बनाकर काम करने की महती आवश्यकता है- एक ओर, तात्कालिक योजनायें बनाते हुए इस महामारी से निपटते हुए लॉकडाउन की क्रमिक समाप्ति की जाये: और दूसरी ओर, दूरगामी योजनायें बनाकर भारत की अर्थनीति और भारतवासियों की जीवन-शैली में आमूल-चूल परिवर्तन की दिशा में काम किया जाये।
3 मई के बाद लॉकडाउन को हटाने के लिए भी दो स्तरों पर काम करने की आवश्यकता है। अब भारत को कनाडा, रूस, जर्मनी जैसे देशों की तरह ‘सीमित लॉकडाउन’ और दक्षिण कोरिया जैसे देशों की तरह ‘असीमित परीक्षण’ का मिश्रित मॉडल अपनाने की आवश्यकता होगी। अभीतक कोरोना संक्रमण के ‘हॉट स्पॉट्स’ की पहचान कर ली गयी है। अगले सप्ताह तक स्थिति और भी स्पष्ट हो जाएगी। चिह्नित किये गए सभी ‘हॉट स्पॉट्स’ को पूरी तरह सील कर दिया गया है। आगे भी पकड़ में आने वाले ‘हॉट स्पॉट्स’ के मामले में कोई ढील न देते हुए सील करने की कार्रवाई को पूरी सख्ती से जारी रखने की आवश्यकता है।
पूरे देश को कोरोना संक्रमण के फैलाव की संभावना के अनुसार रेड जोन, ऑरेंज जोन और ग्रीन जोन में बाँटा जा रहा है। इस प्रकार ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और संक्रमण फैलने के खतरे के आधार पर सामाजिक/सार्वजनिक जीवन की तमाम गतिविधियों और कार्यालयी/औद्योगिक कामों को भी रेड केटेगरी, ऑरेंज केटेगरी और ग्रीन केटेगरी में बाँटा जाना चाहिए। यह वर्गीकरण अन्य देशों के साथ-साथ भारत के संक्रमण सम्बन्धी अनुभवों और सम्बन्धित विशेषज्ञों से व्यापक विचार-विमर्श के आधार पर किया जाना चाहिए। रेड जोन वाले क्षेत्रों और गतिविधियों को अभी लॉकडाउन में ही रखा जाना चाहिए। ऑरेंज जोन वाले क्षेत्रों और गतिविधियों को भारी एहतियात बरतते हुए लॉकडाउन मुक्त किया जा सकता है।
यह भी पढ़ें- कोरोना: महामारी या सामाजिक संकट
इस जोन में असीमित परीक्षणों पर निरन्तर ध्यान देने की आवश्यकता होगी। ग्रीन जोन वाले क्षेत्रों और गतिविधियों को सामान्य सुरक्षात्मक सावधानियों के साथ लॉकडाउन से मुक्त किया जा सकता है। भीड़भाड़ वाली गतिविधियों और अपेक्षाकृत कम जरूरी धार्मिक-सामाजिक कार्यक्रमों और मेल-मिलाप को कम-से-कम 6 माह के लिए पूर्ण प्रतिबन्धित रखा जाना चाहिए। सार्वजनिक परिवहन को भी अत्यन्त नियंत्रित रखा जाना चाहिए और प्रवेश द्वार पर ही यात्रियों के संक्रमण-परीक्षण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। सार्वजनिक वाहनों और सम्बन्धित परिसरों का नियमित सैनिटाइजेशन भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
शिक्षा क्षेत्र भी लॉक डाउन से अप्रभावित नहीं रहा है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों में इस सेमेस्टर की परीक्षाएँ नहीं हो सकी हैं। उच्च-स्तरीय नीति-निर्माताओं द्वारा ऑनलाइन परीक्षा लेने के विषय में गंभीरतापूर्वक विचार किया जा रहा है। लेकिन देश में ई-इन्फ्रास्ट्रक्चर की वर्तमान स्थिति और उपलब्धता को देखते हुए यह व्यावहारिक विकल्प नहीं है। इसलिए अभी सिर्फ अन्तिम सेमेस्टर के विद्यार्थियों की परीक्षा लेने पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए। स्थिति में थोड़ा और सुधार आते ही उनकी परीक्षा ‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ का पालन करते हुए करायी जा सकती है। लॉकडाउन समाप्त होने पर ज़ोन विशेष के संक्रमण स्तर के अनुसार इस विषय में निर्णय लिया जा सकता है।
यह भी पढ़ें- कोरोना के ज़ख्म और विद्यार्थियों की आपबीती
शेष विद्यार्थियों की परीक्षा या तो अगले सेमेस्टर के साथ करायी जा सकती है या फिर पिछले सभी सेमेस्टरों के परीक्षाफल का औसत निकालकर इस सेमेस्टर का परीक्षाफल तैयार किया जा सकता है। विद्यार्थी के पूर्ववर्ती परीक्षाफल पर आधारित होने के कारण इससे ‘गुणवत्ता’ भी प्रभावित नहीं होगी। असाधारण स्थितियों में असाधारण निर्णय लेने होते हैं। यदि केन्द्र सरकार से परामर्श करके विश्वविद्यालय अनुदान आयोग केन्द्रीय स्तर पर ऐसा कोई निर्णय करता है तो फिर विद्यार्थियों के कैरियर पर भविष्य में भी कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। भविष्य में विश्वविद्यालयों में कक्षाएँ भी एकसाथ प्रारम्भ न करके तीन-चार चरणों (फेज) और दो पालियों (शिफ्ट) में शुरू की जानी चाहिए।
इससे परिसर में एकसाथ बहुत ज्यादा भीड़भाड़ नहीं होगी और सोशल डिस्टेन्सिंग का सीमित अनुपालन करते हुए विद्यार्थियों का संक्रमण-परीक्षण आदि भी भलीप्रकार किया जा सकेगा। ग्रीन जोन और ऑरेंज जोन क्षेत्र में आने वाले विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में ग्रीष्मावकाश में से लॉक डाउन के दिनों को काटकर शिक्षण की भरपाई भी की जा सकती है।
यह भी पढ़ें- महामारी, महिलाएँ और मर्दवाद
लॉकडाउन के दौरान मानव संसाधन विकास मन्त्रालय के निर्देश पर विभिन्न विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में ‘ऑनलाइन शिक्षण’ किया गया है। हालाँकि, इस कार्य में शिक्षकों और शिक्षार्थियों को विविध और व्यापक समस्याओं का सामना करना पड़ा है। फिर भी, इस अनुभव ने भविष्य के लिए एक मार्ग सुझाया है- वह मार्ग है ऑनलाइन शिक्षण का। निश्चय ही, ऑनलाइन शिक्षण कक्षा-शिक्षण का स्थानापन्न नहीं हो सकता; किन्तु विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम और शिक्षकों के वर्कलोड के एक चौथाई (25%) भाग को ऑनलाइन पढ़ाने के प्रावधान किये जाने चाहिए।
इस प्रकार जिन सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों में संभव हो, वहाँ भी कम-से-कम एक चौथाई (25%) काम ‘वर्क फ्रॉम होम’ कराने का नीतिगत निर्णय सरकार द्वारा लिया जाना चाहिए। इससे न सिर्फ भविष्य में ऐसी किसी आपदा के समय बड़ी सहायता मिलेगी, बल्कि ध्वनि एवं वायु प्रदूषण और ट्रैफिक जाम से भी बड़ी राहत मिलेगी। आवागमन में नियमित लगने वाले शिक्षकों और विद्यार्थियों के बहुमूल्य समय की भी कुछ बचत हो सकेगी। पेट्रोल-डीजल जैसे आयात किये जाने वाले ईंधन की खपत कम होने से अरब देशों पर भारत की निर्भरता भी कुछ कम होगी।
.