चुनाव, विकास और पर्यावरण
- राजकुमार कुम्भज
इस समय देश भीषण गर्मी के दौर से तो गुज़र ही रहा है, सत्रहवीं लोकसभा चुनाव और राजनीति के वातावरण ने भी माहौल तपा रखा है, किन्तु सबसे दुःखद यह है कि देश की जनता के दीर्घकालीन हितों से जुड़े कई ज़रूरी सवाल राजनीतिक-दलों के घोषणा-पत्रों से ग़ायब हैं। जब देश का पहला आम चुनाव हुआ था, तब भयंकर सूखे की स्थिति थी, लेकिन देश में आम चुनाव की घोषणा होते ही अकाल और सूखे के मुद्दे ग़ायब हो गए थे। आज भी पर्यावरण को लेकर हमारे राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडे से अकाल और सूखे के मुद्दे ग़ायब हैं, जबकि अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच आठ राज्यों में सूखे की घोषणा की जा चुकी है।
अभी हो रहें आम चुनाव के दौरान दलों के चुनावी एजेंडे से पर्यावरण और नदियाँ ग़ायब हैं। गंगा-यमुना सहित देशभर की तमाम छोटी-बड़ी नदियों की हालत बेहद चिन्ताजनक बनी हुई है। कल-कारखानों और छोटे-उद्योगों से निकलने वाली गन्दगी, नदियों की निर्मलता नष्ट कर रही है। छोटी नदियाँ कहीं अपने अस्तित्व के संकट से, तो कहीं अतिक्रमण से जूझ रहीं हैं। वनों के कटान और अतिक्रमण की वज़ह से छोटी नदियाँ विलुप्त हो रहीं हैं। हज़ारों छोटी नदियों का तो नामो-निशान तक अब नहीं बचा है। वर्ष 1950 तक हिमालय रेंज़ और मैदानी क्षेत्र का अस्सी फ़ीसदी इलाक़ा वनाच्छादित था, जो वर्ष 1980 में ही घटकर पचास फ़ीसदी पर आ गया था। अब तो स्थिति और भी दयनीय है।
पूर्व प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में नदियों को जोड़ने की योजना बनाई गयी थी, लेकिन तक़रीबन दो दशक गुज़र जाने के बाद भी उक्त प्रस्ताव आज भी सच से कोसों दूर है। हमारी राज्य-सरकारें नदियों की दशा सुधारने, अतिक्रमण-मुक्त करने और उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए केन्द्र-सरकार से आर्थिक-सहायता हासिल करती रही हैं, किन्तु वह तमाम सहायता-राशि परम्परानुसार ’पानी’ में बह जाती है। अवैध खनन की वज़ह से न सिर्फ़ नदियों का स्वाभाविक-प्रवाह अवरुद्ध होता है, बल्कि उनका जीवन भी बाधित होता है। बदहाल हो चुकी नदियों का मुद्दा चुनावी-मुद्दा नहीं बन पाना, हमारी राजनीतिक-अज्ञानता दर्षाता है।
वैज्ञानिक तथ्यों से साबित हो चुका है कि पर्यावरण-परिवर्तन दुनियाभर के सामाजिक-आर्थिक विकास को प्रभावित कर रहा है। बीती आधी सदी गवाह है कि इसके चलते सम्पन्न देश ओर सम्पन्न तथा विपन्न देश और विपन्न होते गए हैं। पर्यावरण-परिवर्तन को लेकर हाल ही में जारी की गई एक वैश्विक-सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया गया है कि इस समस्या की वज़ह से सबसे ज़्यादा भारत प्रभावित हुआ है। इसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था को कुल जमा इकत्तीस फ़ीसदी का नुकसान उठाना पड़ा है अर्थात् अगर पर्यावरण-परिवर्तन का नकारात्मक असर नहीं हुआ होता, तो हमारी अर्थव्यवस्था आज के मुक़ाबले एक तिहाई और सुदृढ़ होती। ज़ाहिर है कि पर्यावरण असंतुलन ने हमारे आर्थिक-संतुलन को बिगाड़ा है। यह सर्वेक्षण स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जारी किया है।
इस सबके बावजूद हमारी राजनीतिक पार्टियों के चुनावी वादों से पर्यावरण का मुद्दा ग़ायब ही है और यहाँ तक कि आम सभाओं में तो इस मुद्दे का भूलकर भी उल्लेख नहीं किया जाता है, हालाँकि पिछले 2014 के आम चुनाव में देश के दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने अपने-अपने तरीके से इस मुद्दे का ज़िक्र किया था। तब दोनों ने ही जलवायु-परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए, अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देने, पर्यावरण स्वीकृतियों की गति तेज़ करने और नदी-स्वच्छता अभियान चलाने की बात कही थी।
जहाँ तक पिछले पाँच बरस में जलवायु मुद्दे पर केन्द्र-सरकार के कामक़ाज को देखे जाने का सवाल है तो भाजपा नीति सरकार की छवि कुछ-कुछ एक ज़िम्मेदार पार्टी के बतौर बनती दिखाई देती है। पर्यावरण मुद्दे पर वाक़ई कुछ उल्लेखनीय पहल हुई है। जैसे कि पौने दो लाख मेगावाट अक्षय ऊर्जा का उत्पादन, ग़रीब घरों तक मुफ़्त बिजली और रसोई गैस पहुँचाना और एलईडी बिजली बल्ब वितरण के माध्यम से ऊर्जा खपत घटाना आदि सराहनीय क़दम कहे जा सकते है, किन्तु जलवायु-परिवर्तन से हो रही क्षति की क्षतिपूर्ति को लेकर अभी तक कोई भी स्थिति स्पष्ट नहीं की गई है, जबकि जलवायु-परिवर्तन की मार से सबसे ज़्यादा किसान ही प्रभावित हुआ है जो कि भारतीय अर्थव्यवस्था से जुड़ा एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। भाजपा सरकार ने कृषि-आय दोगुना करने की बात कही थी, वह अभी कहीं दिखाई नहीं दे रही है, अगर कृषि और कृषक को जलवायु-परिवर्तन के ख़तरों से बचाया नहीं गया, तो यह सवाल बना ही रहेगा कि कृषि-आय दोगुना कैसे होगी?
जल-संकट के मुद्दे पर भी देश के दोनों ही दल ज़रा भी गम्भीर दिखाई नहीं देते हैं, जबकि यह संकट शहरों से आगे बढ़ता हुआ ग्रामीण क्षेत्रों तक में विकराल हो गया है। भाजपा के घोषणा-पत्र में ख़ुद अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा गया है कि उसने लम्बे समय से लटकी इकत्तीस सिंचाई परियोजनाएँ पूरी कर दी हैं। यहीं यह भी दावा किया गया है कि वह दिसम्बर 2019 तक 68 परियोजनाओं को पूरा कर देगी, किन्तु नहरों और कमांड एरिया विकास के अधूरा रहने से ये सब सम्भव होता प्रतीत नहीं हो रहा है। भाजपा का एक दावा यह भी है कि वह एक निश्चित समय में शत-प्रतिशत सिंचाई सुनिश्चित करेगी, लेकिन कैसे और कब तक, कुछ पता नहीं? जैसे कि मंदिर वहीं बनाएँगे, लेकिन तारीख़ नहीं बताएँगे। सब जानते हैं कि बडे़-बड़े बाँध और सिंचाई परियोजनएँ किसी भी सरकार की पहली पसन्द होती है; क्योंकि उनमें पैसा बहुत ज़्यादा होता है और वही कमाई का ज़रिया भी।
अभी कुछ ही दिन पहले, चुनाव-पूर्व, सीएसडीएस लोकनीति ने एक सर्वेक्षण किया था, जिसके निष्कर्ष में बताया गया है कि देश की सरकारों और राजनीतिक-दलों ने पर्यावरण और सूखे जैसे मुद्दों को पीछे छोड़ कर लगभग भुला ही दिया है? उक्त सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के 47 फ़ीसदी कृषक मानते हैं कि उनकी दुःख भरी कहानी के लिये केन्द्र-सरकार ज़िम्मेदार है। वे, नरेन्द्र मोदी को दूसरे कार्यकाल के लिये एक और मौक़ा देंगे या नहीं, साफ़ नहीं है; क्योंकि भाजपा का ज़्यादा ज़ोर सुखाड़ से अधिक (राष्ट्रीय) सुरक्षा पर है। पर्यावरण का मुद्दा गौण हो जाना अथवा ग़ायब हो जाना, ख़तरे की घंटी है। चुनाव, विकास और पर्यावरण साथ-साथ चलने चाहिए। यह एक वैश्विक-माँग और वैश्विक-ज़रूरत है। पिछले पचास बरस में दुनिया के 165 देशों के बढ़ते तापमान और विकास का हिसाब लगाया गया है। ठंडे देशों में तापमान बढ़ने से लाभ हुआ है, जबकि गर्म देशों को नुकसान उठाना पड़ा है।
पर्यावरण असंतुलन से जैव-विविधता पर भी गहरा आघात लगा है। दुनियाभर की तक़रीबन दस लाख प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गई हैं। जलवायु-परिवर्तन जलीय-जीवों के लिए संकट का कारण बनता जा रहा है, जबकि जलीय-जीव, ख़ुद ही इस समस्या का समाधान बन सकते हैं। वैज्ञानिकों का एक समूह नार्वे में इसी विषय का अध्ययन कर रहा है। अगर हम मात्र व्हेल की ही बात करें, तो पाते हैं कि पचास टन वज़न और दो सौ बरस तक ज़िदा रहने वाला यह समुद्री-जीव एक बड़ी मात्रा में कार्बन को अपने भीतर संग्रहीत करके रख सकता है। व्हेल मछली के अलावा अन्य जलीय-जीवों में भी वातावरण से कार्बन को दूर करके रखने की क्षमता होती है। ये समुद्री-जीव अपने शरीर में, कार्बन संग्रह करके, कार्बन-मुक्त बेकार पदार्थ उगल देते हैं। पृथ्वी का सबसे ज़्यादा कार्बन, समुद्र में ही संग्रहीत होता है। विश्व के वैज्ञानिक जलीय-जीवों द्वारा संग्रहीत किए जाने वाले कार्बन की जिस तकनीक पर काम कर रहे हैं, वह अत्यधिक प्रभावशाली और अपेक्षाकृत कम खर्चीली भी है।
हमें यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि पर्यावरण-परिवर्तन का प्रभाव बहुत ही गहरा होता है, हो रहा है और उसका असर अर्थव्यवस्था पर, विकास पर तथा जन-जीवन पर तुरन्त दिखाई देता है। अमीर और ग़रीब देशों में आय का अन्तर अभी पच्चीस फ़ीसदी है। विकास का यह पैमाना ज़ाहिर है कि पर्यावरण से ही तय हुआ है। सम्पन्न देशों ने पिछले पचास बरस में कार्बन उत्सर्जन कम करके और पर्यावरण को सम्भालते हुए, विकास के शिखर हासिल किए हैं, जबकि विकासशील देश अपने घरेलू मुद्दों में उलझे रहकर सिर्फ़ उल्टी दिशा में ही खिसकते जा रहे हैं। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के कुशाग्र अध्येताओं का अध्ययन यह भी बताता है कि पर्यावरण-परिवर्तन का प्रभाव हम भारतीयों पर न सिर्फ़ अभी हो रहा है, बल्कि बहुत पहले से हो चुका है। अगर ऐसा और यह पर्यावरण-परिवर्तन नहीं होता, तो भारत इस समय तक़रीबन तीस फ़ीसदी अधिक अमीर होता। हमारे देश के आम चुनाव में अगर पर्यावरण की अनदेखी की जा रही है, तो इस सबसे देश का विकास भी बाधित होगा।
अभी हम नहीं जानते हैं कि इस आम चुनाव का अन्तिम फै़सला किस राजनीतिक पक्ष की ओर जाएगा और कौन देश का अगला प्रधानमन्त्री होगा? लेकिन हम अपनी नई सरकार से यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि प्राकृतिक-संसाधनों का बेहतर प्रबंधन और पर्यावरण सम्बन्धी मसले उसकी प्रथम प्राथमिकता होगी। मानाकि राजग सरकार को पर्यावरण सम्बन्धी सेकड़ों समस्याएँ संप्रग से विरासत में मिली थीं, किन्तु राजग ने भी कोई गम्भीर संजीदगी और प्राथमिक जिम्मेदारी से काम नहीं लिया। मात्र कुछेक काग़ज़ उलटने-पलटने और योजनाओं के नाम बदल देने से पर्यावरण की समस्याओं का समाधान नहीं निकल जाता है। ग्रामीण मज़दूरी में तेज़ गिरावट आई है। ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना राजनीतिक उदासीनता की भेंट चढ़ गयी है। कृषि-उपज क्षेत्र भारी मंदी की चपेट में है। सूखा और मौसम का अतिरेक, कृषि व कृषक को डूबो रहे हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था आर्थिक आत्महत्या का कारण बनती जा रही है। गम्भीर सोच-विचार ज़रूरी है।
चुनाव, विकास और पर्यावरण को भिन्नत्व में देखना, न सिर्फ़ भोलापन, ग़ैर-जिम्मेदारी और अज्ञानता है, बल्कि देश और भविष्य के साथ की जा रही बेईमानी व धोखाधड़ी भी है। कोई भी चुनाव जनता को मौक़ा देता है कि वह चुने जा रहे सम्भावित उम्मीदवारों से सवाल करे और उन तमाम सम्भावित देश-निर्माताओं को उनका उत्तरदायित्व याद दिलाए। पर्यावरण की समस्याओं का विकास के साथ दीर्घकालिक समाधान नहीं निकालना एक भ्रामक स्थिति है। तात्कालिक हल दग़ा दे सकता है। ज़रूरी है कि तात्कालिकता की बज़ाय दीर्घकालिकता पर विचार किया जाए और यह भी कि चुनाव, विकास और पर्यावरण परस्पर प्रतिस्पर्धी नहीं होने चाहिए। समन्वय से समस्याओं का समाधान निकल सकता है।
लेखक प्रसिद्द साहित्यकार हैं|
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