चुनावी सरगर्मी के बीच गफलत
राजनीति समाज का प्रतिनिधित्व ही नहीं करती, वह समाज का प्रतिबिम्ब भी होती है। किसी चुनावी सभा में किस तरह के मुद्दों की बात हो रही है, पार्टियों के घोषणापत्र में क्या है और जनता के साथ उनका संवाद कैसा है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज का असली स्वरूप क्या है। चुनावी परिणाम बता देते हैं कि लोग किस तरह के मुद्दों को तरजीह दे रहे हैं और किस नैरेटिव को स्वीकार कर रहे हैं। लोकतन्त्र में हर चुनाव देश, राज्य या किसी संगठन के लिए एक ऐसे जंक्शन की तरह होता है, जहाँ के बाद तय होता है कि समाज किस पटरी पर और कितनी तेज दौड़ेगा।
भारत का 28वां गठित राज्य झारखण्ड अपने पाँचवें विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। कभी एक साथ सरकार बना चुकी पार्टियाँ भाजपा और झामुमो आज एक दूसरे के सामने सरकार बनाने की चुनौती पेश कर रही हैं। भाजपा के साथ एनडीए खेमे में इस बार आजसू के साथ जदयू और चिराग पासवान की पार्टी लोजपा भी है। इधर झामुमो को काँग्रेस और राजद के अलावा इस बार सीपीआई माले का भी साथ मिल रहा है। चुनाव आयोग ने बिगुल बजा दिया है, 13 और 20 नवम्बर को राज्य की 81 सीटों पर चुनाव होने हैं। इनमें 44 सामान्य सीटें हैं, 28 सीटें आदिवासियों के लिए और 9 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। 2019 के चुनाव में सत्ताधारी पार्टी भाजपा को सिर्फ 25 सीटें हासिल हुई थीं, जिसमें से सिर्फ दो आदिवासी सीटें शामिल थीं। इधर झामुमो-काँग्रेस-राजद गठबन्धन को बहुमत मिला, जिसमें से 26 आदिवासी सीटें शामिल थीं।
पाँच साल बाद 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा राज्य की पाँचों आदिवासी सीटें हार गई। इससे यह अवधारणा और मजबूत हो गई कि झारखण्ड के आदिवासी भाजपा के साथ नहीं हैं। इसके बाद भाजपा ने अपना पूरा ध्यान आदिवासी वोटरों पर केन्द्रित किया, जो पहले से ही झामुमो की राजनीति का केन्द्र हैं। इस तरह पूरे राज्य की राजनीति आदिवासी केन्द्रित हो गयी और इसी आधार पर योजनाएँ बनने लगीं।
आदिवासी मतदाताओं को लुभाने के लिए भाजपा ने दो दाव चले। पहला उन्होंने कोल्हान में झामुमो के सबसे बड़े नेता को तोड़कर अपने में शामिल कर लिया और दूसरा कोल्हान में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठा कर यह बताने की कोशिश की, कि झामुमो की सरकार में आदिवासी अस्मिता खतरे में है। लेकिन इस पर कई तरह के ‘फैक्ट चेक’ और रिपोर्ट के बाद भाजपा ने यह मुद्दा खुद ही लगभग छोड़ सा दिया।
इधर झामुमो-काँग्रेस की सरकार ने सरकार में होने का फायदा उठाते हुए राज्य की 18 से 50 साल की महिलाओं के लिए ‘मुख्यमंत्री मईयां सम्मान योजना’ की शुरुआत कर दी। इस योजना के तहत राज्य सरकार पिछले तीन महीने से राज्य की महिलाओं को उनके स्वावलम्बन के लिए प्रति माह एक हजार रुपये दे रही है। सरकारी आँकड़े में ऐसी महिलाओं की संख्या 49 लाख है, जो धीरे-धीरे और बढ़ रही है। हालाँकि कि ऐसी योजना भाजपा शासित राज्यों में पहले लागू की जा चुकी है। मसलन मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने चुनाव के ठीक पहले ‘लाड़ली बहना योजना’ की शुरुआत की थी, जिसके फलस्वरूप महिलाओं का वोट उन्हें मिला और भाजपा वहाँ जीत पाने में कामयाब हुई।
अपनी ही राजनीतिक पिच पर झामुमो को बैटिंग करते देख भाजपा ने झारखण्ड में ‘गोगो-दीदी योजना’ की न सिर्फ घोषणा कर दी, बल्कि फॉर्म भी भरवाना शुरू कर दिया। इसके तहत भाजपा की सरकार बनने पर 18 से 50 साल की सभी महिलाओं को 2100 रुपये प्रति माह का आश्वासन दिया दया। यह राशि झारखण्ड सरकार द्वारा दी जा रही राशि से 1100 रुपये अधिक है। बाद में झामुमो ने राशि को बढ़ा कर 2500 रुपये प्रति माह कर दिया, जो दिसम्बर से शुरु होगा। अर्थात, अगर झामुमो की सरकार बनती है, तो दिसम्बर से यह राशि मिलनी शुरू होगी।
इससे यह हुआ कि झारखण्ड की राजनीति में आदिवासियों के बाद दूसरा ध्रुव यहाँ की महिलाएँ बनीं। अब सभी पार्टियाँ महिलाओं और आदिवासियों के लुभाने में लगी हैं। इस बीच रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य या विकास के अन्य मुद्दे देश की बाकी हिस्सों की तरह ही गौण हैं। लेकिन समाज के सबसे कमजोर तबके (महिलाओं) के लिए दोनों पार्टियां जिस तरह की घोषणाएँ कर रही हैं, अगर उसपर वे खरी भी उतरीं, तो सरकार किसी की भी बने, महिलाओं को प्रति माह आर्थिक सहायता सुनिश्चित हो जाएगी।
झारखण्ड में साम्प्रदायिक मुद्दे कभी भी प्रभावी नहीं रहे हैं। हिंदू, मुस्लिम, आदिवासी (जो खुद को गैर हिंदू मानते हैं), ईसाई जैसे बड़े समुदाय दो ध्रुवीय राजनीति पर अंकुश लगाते हैं और किसी एक जाति, धर्म या समुदाय की राजनीति कर यहाँ कोई भी पार्टी सत्ता हासिल नहीं कर सकती। इसे झारखण्ड की उपलब्धि कही जा सकती है।
इस चुनाव में भाजपा और आजसू के साथ आ जाने से स्थितियां पूर्ववत नहीं रहेगी। एनडीए मजबूत हुआ है, जबकि इंडिया गठबन्धन में काँग्रेस कमजोर कड़ी साबित हो सकती है। पिछले चुनाव में काँग्रेस 31 सीटों पर लड़कर 16 सीटें हासिल कर पाई थीं, जबकि झामुमो 43 पर लड़कर 30 सीटें हासिल करने में सफल रही थीं। इस बार काँग्रेस 33 सीटों की माँग पर अड़ी है, लेकिन इतनी सीटें देना झामुमो के हित में नहीं होगा। इसे ऐसे भी देखा जा सकता है – जिन सीटों पर भाजपा का सामना झामुमो से है, वहाँ उनकी (भाजपा) जीत मुश्किल है, लेकिन जिन सीटों पर काँग्रेस के साथ भाजपा का मुकाबला है, वहाँ अपेक्षाकृत जीत आसान होगी। विशेषकर आदिवासी सीटों पर झामुमो की अच्छी पकड़ है, लेकिन लगभग 10 आदिवासी सीटों पर काँग्रेस अपना प्रत्याशी उतारती रही है।
इस चुनाव की गम्भीरता को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी ने मीडिया प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिया है। राज्य के कई संस्थानों में, जिनमे छोटे पोर्टल भी शामिल हैं, उनपर चल रही खबरों में भाजपा के प्रति झुकाव साफ नजर आता है, वे एजेंडा तय करने में भाजपा का सहयोग कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दूसरे खेमे से ऐसा प्रयास नहीं किया जा रहा है, लेकिन धनबल से बलशाली पार्टी का नियन्त्रण अधिकतर मोर्चों पर हैं।
राजनीति की नई पाठशाला में अब यह सामान्य बात है, इसे व्यापार प्रबन्धन के रूप में देखा जाता है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में इसे विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, इसमें भी पीएचडी की डिग्री दी जाए। चूंकि राजनीतिक पार्टियों को इस बार का भरोसा होता है कि वे मीडिया प्रबन्धन से, प्रचार-प्रसार पर करोड़ों रुपये खर्च कर चुनाव जीत जाएंगे, इसलिए उनकी प्राथमिकता में कभी वो मुद्दे, समस्याएं, मांगें नहीं आती हैं, जो जनसामान्य से सम्बन्धित हो।
इसी चुनावी सरगर्मी के बीच झारखण्ड में ऐसी खबरें आईं, जो सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात है। संताल के लिट्टीपाड़ा और सुंदरपहाड़ी क्षेत्र के कई गावों में बाढ़ के कारण डायरिया का प्रकोप इस बार चरम पर रहा। सैकड़ों लोग इसके चपेट में आए और करीब 5 लोगों की मौत हो गई। स्थिति ऐसी थी कि उन्हें बाँस के ठठरी या खटिया पर लिटा कर अस्पताल पहुंचाया गया। अस्पताल में डाक्टरों की या तो बहाली नहीं हुई है, या वे आते नहीं है। डायरिया से मरने वाले सभी लोग पहाड़िया जनजाति के थे। यह एक अति संवेदनशील जनजातीय समूह (पीव्हीटीजी) हैं, जिनके विकास के लिए 15 नवम्बर 2023 को प्रधानमंत्री ने 15 हजार करोड़ रुपये की योजना शुरु की थी।
‘द फोर्थ पिलर’ न्यूज पोर्टल के पत्रकार सूरज ठाकुर बताते हैं कि रोजगार आदि विषय इस कारण से सरकार और मीडिया की नजर में आसानी से आ जाते हैं, क्योंकि इनको लेकर युवाओं का आक्रोश आसानी से नजर आ जाता है। वे बड़ी संख्या में सड़कों पर आकर प्रदर्शन कर पाते हैं। लेकिन अति पिछड़े आदिवासी समूहों की समस्याएं कभी सरकार तक नहीं पहुंच पाती, पहुंचती भी है, तो उन्हें नजरअंदाज करना आसान हो जाता है।
दरअसल दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है कि हमें यह याद नहीं रह पाता कि कल क्या हुआ था। हम सिर्फ आगे की होड़ में लगे हैं। विकास का एक ऐसा सपना हमें दिखाया जा रहा है जो सोशल मीडिया की ही तरह वर्चुअल है। उस कल्पना में ऐसे लोग शामिल नहीं हो पाते, जिन्हें खटिया पर लाद कर अस्पताल पहुंचाया जाता है या जो गर्भवती महिला डॉक्टर नहीं होने के कारण साहेबगंज के एक अस्पताल में दम तोड़ देती है। अगर लोकतन्त्र के महापर्व में समाज का हर वर्ग शामिल नहीं हो पाए, तो इसके उद्देश्यों पर फिर से विचार करने की जरूरत है।