झारखंड का राजनीतिक संकट
झारखंड एक ऐसे राजनीतिक लैबोरेटरी में तबदील हो गया है, जहाँ सत्ता का समीकरण बनाने के कुप्रयास में सारे सिद्धांत, एथिक्स और आचरण धराशायी कर दिए गये हैं। सत्तालोभ ने राजनीतिक पार्टियों को इस कगार पर ला दिया है, कि वे बस अपने अनुरूप परिणाम चाहते हैं, फिर उसका माध्यम कुछ भी हो। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर ईडी की कार्रवाई, गिरफ्तारी और चंपाई सोरेन के मुख्यमंत्री बनने तक की कहानी साधारण नहीं है। जमीन घोटाले का यह ऐसा वाकया है, जिसे उदाहरण के तौर पर याद किया जाता रहेगा।
दूसरी तरफ इस प्रकरण का जिस तहर से राजनीतिक इस्तेमाल किया गया है, उसे भी भुलाया न जा सकेगा। संभवतः पहली बार ऐसा हुआ होगा, जब किसी राज्य में पूरे एक दिन के लिए न कोई सरकार थी, न मुख्यमंत्री और न ही राष्ट्रपति शासन। और यह सबकुछ हुआ झारखंड राजभवन की दखल से। इस प्रकरण की जब भी बात होगी, राजभवन की भूमिका भी सवालों के घेरे में आएगी।
हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के प्रकरण की शुरुआत होती है साल 2020 से। रांची के जमीन दलालों के एक गिरोह ने रांची के बरियातू के बड़गाईं अंचल स्थित लगभग 8.5 एकड़ जमीन के कागजात के साथ छेड़छाड़ की। कलकत्ता के रजिस्ट्री ऑफिस में जाकर उन्होंने इस जमीन के कागजात से मूल रैयतों का नाम केमिकल से मिटाया और प्रदीप बागची नामक व्यक्ति के पूर्वजों का नाम लिखा दिया। अब तक यह जमीन सेना के कब्जे में थी, इसके बदले सेना मूल रैयत को प्रति साल कुछ पैसे देती थी। हेरा-फेरी के बाद इस प्लॉट को बेचने की कोशिश हुई, शायद बेचा भी गया, लेकिन इस बीच रांची नगर निगम के एक अधिकारी ने इस संबंध में बरियातू थाने में केस दर्ज करवाया। मामले में रांची के तत्कालीन कमिश्नर नितिन मदन कुलकर्नी ने जांच की और रिपोर्ट में बताया कि जमीन पर प्रदीप बागची का अवैध कब्जा है और इसमें कई प्रशासनिक अधिकारियों की मिली भगत है। अबतक ईडी को इस जमीन घोटाले की भनक लग चुकी थी।
साल 2022 में ईडी ने जांच शुरू की। फॉरेंसिक जांच में पता चला कि जमीन के मूल कागजात के साथ छेड़छाड़ हुई है। प्रदीप बागची सहित जमीन दलाल अफसर अली, अमित अग्रवाल, न्यूक्लियस मॉल के मालिक विष्णु अग्रवाल और रांची के तत्कालीन डीसी छवि रंजन को पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया गया। इसी बीच पूर्व रेवेन्यू सब इंस्पेक्टर भानू प्रताप प्रसाद का नाम सामने आता है, जिसपर आरोप है कि उसने जमीन की हेरा-फेरी में इन सबकी मदद की थी। पूछताछ में भानू-प्रताप प्रसाद ने ईडी को कहा कि यह सबकुछ ‘बॉस’ के कहने पर हुआ था। और यह बॉस कोई और नहीं बल्कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन हैं। भानू प्रताप प्रसाद के इसी बयान के आधार पर ही ईडी ने हेमंत सोरेन को पहले 10 समन भेजे और फिर 31 जनवरी को गिरफ्तार कर लिया। ये तमाम जानकारियाँ मीडिया रिपोर्ट्स के माध्यम से हासिल हुई हैं।
5 फरवरी को रांची विधानसभा के समक्ष फ्लोर टेस्ट के दौरान हेमंत सोरेन विपक्ष से पूछते नजर आए कि उनका नाम जमीन घोटाले के संदर्भ में, किस कागज पर लिखा है, यह बताएँ। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उस जमीन से उनका संबंध स्थापित होता है तो वे राजनीति से सन्यास ही नहीं लेंगे, बल्कि झारखंड छोड़कर चले जाएँगे। हालांकि यह जांच का विषय है कि हेमंत इसमें शामिल थे या नहीं। हो सकता है कि ईडी के पास कोई और भी सबूत हो, लेकिन ऐसा नजर आता है कि उनकी गिरफ्तारी महज बयान के आधार पर हुई है। बयान के आधार पर गिरफ्तार करने का यह वाकया पहला नहीं है। दिल्ली के पूर्व शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया और आप सांसद संजय सिंह को भी दिनेश आरोरा नाम के आरोपी के बयान के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया था। इसी तरह शाहरुख खान के बेटे की गिरफ्तारी भी बयान के आधार पर हुई थी, जिसे बाद में निर्दोष पाया गया। यहां तक पता चला कि जांच अधिकारी शाहरुख से घूस की मांग कर रहे थे। झारखंड के संदर्भ में तो पद पर रहे मुख्यमंत्री को ही गिरफ्तार किया गया है।
पिछले कुछ सालों में जिस तरह नेताओं के भ्रष्टाचार उजागर हो रहे हैं, उसके दो मतलब निकाले जा सकते हैं। पहला तो यह कि अचानक देश के सभी विपक्षी नेता भ्रष्ट हो गए हैं, या फिर दूसरा यह कि अचानक ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की तरफ से कार्रवाई की संख्या बढ़ गई है। रिपोर्ट्स तो यही कहते हैं कि पिछले 8 सालों में ईडी के छापे 27 गुणा बढ़े हैं और लगभग सभी छापे विपक्षी नेताओं या उनसे संबंधित लोगों पर पड़ रहे हैं। झारखंड में पिछले एक महीने में ही दर्जनों छापे पड़े हैं। यह प्रक्रिया झामुमो के नेतृत्व में नई सरकार के गठन के बाद ही शुरु हो गयी थी। ऐसे में यह क्यों नहीं कहा जाना चाहिए कि ईडी जैसी संस्थाओं का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है।
हेमंत सोरेन ने अपनी गिरफ्तारी के पहले राजभवन जाकर 31 जनवरी को इस्तीफा दिया था। उस दौरान उनके अलावा झामुमो की तरफ से मुख्यमंत्री पद के लिए प्रस्तावित नाम चंपाई सोरेन, कांग्रेस विधायक दल के नेता आलमगीर आलम, राजद के इकलौते विधायक सत्यानंद भोक्ता औऱ सीपीआई माले विधायक विनोद सिंह भी उपस्थित थे। झामुमो की तरफ से चंपाई सोरेन के नेतृत्व में बहुमत का दावा किया गया, विधायकों का हस्ताक्षरित पत्र भी सौंपा गया, लेकिन 24 घंटे से अधिक समय तक राजभवन ने शपथ के लिए चंपाई सोरेन को आमंत्रित नहीं किया। टूट की आशंका के बीच 40 से अधिक विधायकों को हैदराबाद भेजा गया। फिर उन्हें सर्किट हाउस में रखा गया, ताकि उन्हें खरीदा न जा सके। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि बहुमत सिद्ध करने की प्रक्रिया विधानसभा में होती है, राजभवन में नहीं। राजभवन ने क्यों एक दिन तक राज्य को सरकार विहीन रखा, यह बात समझ के परे है। जबकि पड़ोसी राज्य बिहार में नीतीश कुमार के इस्तीफा देने के महज ढाई घंटे बाद उन्हें एनडीए की सरकार में मुख्यमंत्री पद की शपथ के लिए बुला लिया गया था।
ये सभी तर्क और विश्लेषण हेमंत की ईमानदारी प्रमाणित करने के लिए नहीं है। न ही उनके कार्यों की सराहना करना के लिए है। उनके व्हाट्सऐप पर कथित तौर पर जेएसएससी अभ्यर्थियों के एडमिट कार्ड मिले हैं। कई अन्य बिंदुओं पर भी ईडी जांच कर रही है। हर मामले की जांच हो, दोषी को सजा मिले। लेकिन इन प्रकरणों से एक नैरिटिव को स्थापित करने का प्रयास जिस चुनावी उद्देश्य से किया जा रहा है, वह भारतीय राजनीति को अप्रत्याशित दिशा में ले जा रही है। भविष्य में सरकार जिसकी भी बने, वह सत्ता की ताकत से स्वायत्त संस्थाओं का इसी तरह दुरुपयोग करेगा या करना चाहेगा। इससे किस राजनीतिक दल का फायदा है, यह तो पता नहीं। लेकिन सबसे बड़ा नुकसान इस देश के नागरिकों का है, जो इस सियासी खेल में सिर्फ तमाशाबीन की भूमिका ही निभा पा रहे हैं।
सीपीआई माले के विधायक विनोद सिंह ने ऑन रिकॉर्ड बातचीत में कहा कि ईडी को किसी भी तरह की कार्रवाई का अधिकार है। लेकिन झारखंड में विशेषकर हेमंत सोरेन पर हो रही कार्रवाई निश्चित रूप से राजनीतिक रूप से प्रायोजित नजर आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ईडी केंद्र की भाजपा सरकार के लिए टूल की तरह काम कर रही है। वह भाजपा के करप्शन को छुपा कर, राजनीतिक द्वेष के तहत केंद्र सरकार के इशारों पर कार्रवाई कर रही है, जो कि गलत है। उन्होंने कहा कि राज्य में सबसे अधिक भ्रष्टाचार रघुवर दास के कार्यकाल में हुआ है। राज्य की जनता ने रघुवर दास के खिलाफ झामुमो और गठबंधन को सरकार बनाने के लिए चुना है और राज्य की जनता के उस बहुमत के साथ माले ने झामुमो के नेतृत्व में सरकार को समर्थन दिया है। इसलिए वे हेमंत के साथ खड़े हैं।
संभव है कि इस प्रकरण के बाद हेमंत और बड़ा नेता बनकर उभरें। या हो सकता है कि उनके राजनीतिक करियर को भारी नुकसान पहुंचे। लेकिन वर्तमान केंद्र की सरकार ने यह साफ कर दिया है कि डिसेंट (विरोध के स्वर) को लेकर उनका रवैया क्या है। यह भी साफ हो रहा है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में विपक्ष को लेकर समाज का रुख क्या है। चुनाव के नतीजे जो भी हों, लेकिन निश्चित तौर पर हम शक्तियों के केंद्रीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं, जिसका रास्ता लोकतंत्र के चौराहे से होकर नहीं जाता।