सामयिक

किसान-आन्दोलन : प्रश्न-प्रतिप्रश्न

 

तीनों काले कृषि कानूनों के खिलाफ़ एवं अनाजदरों के न्यूनतम मूल्य-निर्धारण(एम एस पी) के संदर्भ में विगत एक वर्ष से किसान-आन्दोलन करते रहे हैं। अब जाकर इतने समय बाद सरकार को लगा कि इन्हें वापस लेंगे। सरकार का वादा ही महत्त्वपूर्ण होता है मानना न मानना नहीं। इतने लंबे समय तक क्या-क्या खिचड़ी पकाई जाती रही। कोई क्या जाने? सत्तातन्त्र ने उनकी वास्तविकता को समझने का कोई ठोस और गंभीर प्रयत्न ही नहीं किया। वे कान में तेल डालकर बैठे रहे और फब्तियाँ कसने की ट्रेनिंग में मशगूल रहे और मात्र वार्ता की खानापूर्ति वाले प्रयोग किए। कोई सही मानसिकता नहीं बनाई; केवल उन्हें उलझाए रखा। एक फ़ोन की दूरी का झांसा भी चलता रहा।

दूसरी तरफ किसानों और इस देश के वास्तविक अन्नदाताओं को कई नामों से नवाजा गया; जैसे वे अपराधी हों या तस्कर। आतंकवादी, खालिस्तानी, नक्सली या वाम पंथी। कई तरह की तोहमतें लगाई गईं और उन्हें कई तरह से छेंका गया। किसानों के प्रति सरकार की कोई जवाबदेही नहीं। कोई संवेदनात्मकता नहीं। मरने वालों पर अच्छी खासी हँसाई होती रही। सात सौ के आसपास किसान मौत के मुँह में समा गए। यह कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है। क्या किसी जनतन्त्र में मौतों की कोई कीमत नहीं होती; किसी के हक की कोई कीमत नहीं होती; किसी के वजूद की कोई कीमत नहीं होती। उन पर गाड़ी चढ़ाकर मार डाला गया। ये सब सामान्य घटनाएँ हैं क्या?

किसानों के विराट आन्दोलन को ध्वस्त करने के लिए गड्ढे खोदे गए; काँटों की बाड़ लगाई गई; कीलें ठोंकी गईं; खाइयाँ निर्मित की गईं। यह देश एक लोकतांत्रिक देश है। स्वाधीनता-आन्दोलन में इस देश के नागरिकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। नागरिक हैं तो सत्ता है। सत्ता के कारण नागरिक नहीं हैं। इस वस्तुसत्य को बार-बार ठेला जाता रहा। जैसे कानून नागरिकों के लिए होते हैं नागरिक कानून के लिए नहीं। इस देश में किसानों की बहुतायत के बावजूद कट्टरता, अलोकतांत्रिकता, अदूरदर्शिता और तानाशाही की विराट फिजा बनाई जाती रही।

इसे सत्ता की मार्केटिंग कहिए या लोकप्रियता का उद्घोष। समझ से परे है कि यह कौन-सी लोकप्रियता है; किसकी लोकप्रियता है। क्या इन किसानों को केवल गेहूँ-धान में देखा जाए। इन्हें चाय में, सेव, गन्ना या अन्य जिंसों के उत्पादन में व्यापक संदर्भ में देखने की जरूरत है, तभी हम किसानों को, किसान-आन्दोलन को और उनकी बातों को ठीक ढंग से समझ सकते हैं। मीडिया में लगातार बहसें होती रहीं। यह मीडिया अखबार भर से नहीं जुड़ा है। वह सोशल मीडिया भी है और गैरपारंपरिक मीडिया भी है। गैर पारंपरिक मीडिया के भी कई रूप हैं। टीवी चैनलों में जो कुछ हुआ; जो बहसें हुईं, उससे हमें शर्मसार होना पड़ा है। अन्नदाताओं को हर तरह से छला जाता रहा। मीडिया इतना बिकाऊ तो कभी नहीं था।

किसान-आन्दोलन हमारी नज़र में एक मजबूत आन्दोलन रहा है। उसका हश्र नागरिकता के आन्दोलन और नोटबंदी के आन्दोलन से नहीं देखा जाना चाहिए। नोटबंदी एक तरह से तुगलकी फरमान या फ़ैसला साबित हुआ।ये सभी आन्दोलन जनता की आवाज़ नहीं बनने दिए गए। उन्हें कायदे से तोड़ा -मरोड़ा और कुचला गया। विपक्ष ने मुद्दे उठाए तो भी किसान-आन्दोलन को घेरा गया। बदनाम किया जाता रहा।सत्ता की मार्केटिंग में ऐसा लगता है कि विपक्ष का काम सत्ता की तरफदारी और भजन-कीर्तन करना होना चाहिए। किसानों पर अमर्यादित तरीके से भद्दे कमेंट किए गए। उसकी राजनीति पर चर्चाएँ होती रहीं।

सच तो यह है कि आज के दौर में कोई भी राजनीति से परे नहीं है; तभी तो मुक्तिबोध ने प्रश्न उठाया था— पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? उसकी राजनीति है। राजनीति नहीं होती तो उसकी औकात ही क्या है? होना भी नहीं चाहिए। यह दलगत राजनीति नहीं है। यह अलग तरह की राजनीति है। वह किसके साथ खड़ा है और उसका स्टैंड क्या है? जैसे कोई भी लपोचड किस्म का आदमी सच्चा लेखक नहीं हो सकता। उसकी नाभि-नाल जनता की समस्याओं और संघर्षों से जुड़ी है। वह पाला बदल-बदलकर कोई अनूठा खेल नहीं खेल सकता। उसका रास्ता तय होना चाहिए। नहीं है तो उसके लेखन का कोई बहुत बड़ा मूल्य नहीं हो सकता।

लेखक कोई स्पेशल किस्म का प्राणी नहीं है कि वह जनता के संघर्षों से न जुड़कर व्यवस्था की पैरवी करने में भिड़ा रहे। व्यंग्यकार की भूमिका तो और भी महत्त्वपूर्ण हुआ करती है। पूरा देश छला जाता रहा है और भ्रमजालों में फँसाया जाता रहा है। महात्मा गाँधी का एक कथन याद आ रहा है— “समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अजेय लग सकते हैं; लेकिन अंत में उनका पतन होता है।”

इतिहास बहुत क्रूर होता है। क्या हम जालियावाला बाग हत्याकांड भूले हैं? क्या हम अंग्रेजों द्वारा भारतीय नागरिकों पर किए गए जुल्म भूले हैं? सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं। मनुष्यता का वध करना क्या हम भूल सकते हैं? क्या किसान अपने उत्पादन के न्यूनतम समर्थन-मूल्यों के लिए यह तो संघर्ष करते रहे; किसी सत्ता से सरकार में भागीदारी तो नहीं माँग रहे थे। कुछ ऐसा भी नहीं चाह रहे थे; जो अजूबा था। यह किसानों का हक है। यह देश किसानों का देश है। वे वहाँ हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, फसलें उगाते हैं; गर्मी, वर्षा, ठंडी में समय गुजारते हैं और तरह-तरह के मौसम की मार भी सहते हैं तो क्या उन्हें यह हक नहीं है कि उनके द्वारा किया गया उत्पादन, अनाज का या अन्य जिंसों का न्यूनतम समर्थन-मूल्य मिले।

अभी तो बहुत सारी बाधाएँ हैं; देखें सत्ता उसे किस नजरिए से देखती है और कौन-सा व्यवहार करती है? किसान कोई विदेशी आदमी नहीं है। इसी खून मिट्टी से उनका रिश्ता है। इन्हीं पहाड़ी इलाकों से दलदली इलाकों से और अन्य इलाकों से निकलकर अपना खून-पसीना बोते हैं और फसलों का उत्पादन करते हैं। यह कभी किसी को भूलना नहीं चाहिए। अभी तक तो किसानों को हर तरह से ख़ारिज करने के ही प्रयत्न होते रहे हैं। किसानों ने कितनी आत्महत्याएँ की हैं, इसका कोई पुख्ता रिकॉर्ड नहीं है।

खेती-किसानी आँकड़ों का खेल नहीं है। तरह-तरह के मुद्दे अभी नहीं आए; बल्कि वे एक लंबे अरसे से जीवित और जीवंत रहे हैं। किसानों के इस आन्दोलन ने जो काफ़ी लंबे समय तक चला, सत्ता ने थकाया, धमकाया हर तरह से उसे ख़त्म करने की कोशिश की।लगभग सात सौ किसानों की शहादत के बाद अचानक सत्ता को ख्याल आया कि इसको वापस लिया जाए। क्या पूर्व में सत्तातन्त्र को ऐसा अनुभव नहीं हुआ था?

ऐसा मन-परिवर्तन अचानक कैसे प्रतीत हुआ, तर्क से परे है। लगभग यह किसान-आन्दोलन एक वर्ष से चल रहा है। तरह-तरह की तोहमतें भी झेलता रहा। इसके वापस लेने का तर्कशास्त्र क्या है? किसान इस देश की जीवन-रेखा हैं। पूरा देश इन्हीं के द्वारा उत्पादित जिंसों से पेट भरता है। वे आँधी, पानी, गर्मी, ठंडी, वर्षा और आतप से जूझे हैं। पिज्जा, बर्गर और अन्य वस्तुएँ खाद्यान्य जिंसों से उत्पादित होते हैं। ये आकाश से बरसते नहीं हैं। किसान मात्र आज़ादी के पूर्व के लंगोटीधारी किसान नहीं हैं।

इतने फ्लाई ओवर, स्मार्ट सिटी और बुलट ट्रेन के साथ वैभव के आश्चर्यलोक के केंद्र में भारत है। जो हमारा खाया-अघाया सामाजिक जीवन है, वह मात्र सपनों में भारत और किसानों को देखता है। वह क्यों किसानों के पास की संपन्नता से चिढ़ता है और मात्र अर्थशास्त्र की गणित लगाता है? कृषि-उपज मंडियों में हो रहे उनके साथ के व्यवहार को नहीं देखती? भारत आज भी खेती-किसानी का देश है। उसे आँकड़ों की तपिश में नहीं देखना चाहिए। अभी तो काले कृषि कानूनों की वापसी की अचानक घोषणा हुई।

फसल की खरीददारी और उसके प्रबंधन पर तो कुछ भी नहीं है। इसे किसी हार-जीत में नहीं देखना चाहिए; लेकिन निर्णय में इतना बिलंब क्यों? बहरहाल अभी मुद्दे अनेक हैं। उस पर व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत है; वास्तविक हल की, कल्पना-लोक के फैसलों की नहीं।

किसानों को क्या-क्या नहीं कहा गया? कितने सम्बोधनों से उन्हें नवाजा गया। पाँच राज्यों के चुनावों ने सत्ता की मार्केटिंग की हवा निकाल दी। किसान-आन्दोलन भारत का बहुत बड़ा अहिंसक-आन्दोलन साबित हुआ। गाँधी जी की मूल्यवत्ता को एक बार फिर उचित साबित किया और मदमाते सत्तातन्त्र को घुटनों-घुटनों कर दिया
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सेवाराम त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। सम्पर्क +919425185272, sevaramtripathi@gmail.com
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