चर्चा मेंदेश

मोदी-राज में भारत-पाक रिश्ते

पठानकोट आतंकी हमले के बाद भारत-पाक के विदेश सचिवों के बीच होने वाली वार्ता एक बार फिर स्थगित हो गयी। इससे पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं को दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में वार्ता के लिये निमंत्रित किये जाने को लेकर इस्लामाबाद में होने वाली विदेश सचिवों की वार्ता रद्द हुई थी। गनीमत है, इस बार वार्ता रद्द नहीं की गयी, स्थगित हुई है। नयी ताऱीख का ऐलान होना बाकी है। दोनों देशों के बीच फिर से बातचीत की शुरुआत का फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकस्मिक पाकिस्तान-दौरे का नतीजा है। कुछ विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री की आकस्मिक लाहौर-यात्रा का यह कहते हुए मजाक उड़ाया कि इस तरह के दिखावटी और बनावटी कदमों से भारत-पाक रिश्ते बेहतर नहीं होंगे। यह बात सही है कि भारत-पाक जैसे जटिल रिश्तों वाले दो पड़ोसियों के मामले में दोनों तरफ से ज्यादा गंभीर और सुसंगत कूटनीति की दरकार है। लेकिन प्रधानमंत्री के दौरे को एक लाइन में खारिज करना सही नहीं होगा। उनकी कोशिश चाहे नुमायशी ही क्यों न हो, संभव है, कार्यक्रम की योजना कुछ पहले तय हुई हो, हो सकता है, इसके पीछे किसी बड़े उद्योगपति की भूमिका हो, संभव है, इसके जरिये मीडिया की सुर्खियां बदलने का मकसद भी हो, यह भी संभव है कि यह महज एक ‘राजनीतिक नौटंकी’ हो, पर भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की हर कोशिश का समर्थन किया जाना चाहिये। दो प्रधानमंत्रियों के अनौपचारिक ढंग से मिलने के भी फायदे होते हैं। दोनों देशों के बीच रिश्तों की बेहतरी की हर कोशिश को पंचर करने वाली कट्टरपंथी मानसिकता को भी ऐसी पहल से कुछ झटका लगता है, जो अंततः दोनों देशों के हक में होता है। इसलिये, प्रधानमंत्री मोदी की विवादास्पद लाहौर यात्रा को सकारात्मक घटनाक्रम के रूप मे देखा जाना चाहिये। लेकिन भारत-पाक रिश्ते महज इस एक यात्रा से नहीं सुधर जायेंगे। सरकार को साफ करना चाहिये कि आगे का उसका रोडमैप क्या है?

विचार और परिप्रेक्ष्य के स्तर पर अब भी कम कन्फ्यूजन नहीं है। एक तरफ सरकारी स्तर पर दोनों देशों के रिश्तों को बेहतर बनाने की बात होती है तो दूसरी तरफ मुख्य सत्तारूढ़ दल के सहयोगी और सहोदर-संगठनों के स्तर पर अब भी पाकिस्तान को ‘शत्रु नंबर-1’ या ‘आतंकवाद का सदरमुकाम’ कहा जाता है। अभी हाल में आतंकवाद के मामले में पड़ताल के लिये गठित एक शीर्ष खुफिय़ा एजेंसी ने देश के विभिन्न शहरों में छापेमारी करके दर्जन भर से अधिक ऐसे मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार किया, जिन पर अंतरराष्ट्रीय़ आतंकी संगठन आईएस का सहयोगी होने का आरोप है। इनमें कुछेक आरोपी युवाओं के घरों या दुकानों पर अपने आपको हिन्दूवादी बताने वाले लोगों के समूह ने हमला कर दिया। जमकर नारेबाजी और तोड़ फोड़ हुई। सबसे अधिक लगने वाले नारे थे-‘ पाकिस्तान मुर्दाबाद।‘ सवाल उठता है, अगर पाकिस्तान को हम भारत में आतंकी हमलों या आतंकी कार्रवाइयों का एकमात्र स्रोत या कारण मानते रहेंगे तो क्या ऐसे मुल्क से दोस्ती या बेहतर रिश्तों की जमीन तैयार हो सकती है? हम पूरे पाकिस्तान को आईएसआई या पाकिस्तानी  सेना का पर्याय क्यों मान लेते हैं? हाफिज सईद का लश्कर-ए-तैय्यबा हो या सलाहुद्दीन का हिज्बुल मुजाहिद्दीन या मसूद अजहर का जैशे-मोहम्मद हो, ये आतंकी या उग्रवादी तंजीमें पाकिस्तान नहीं कही जा सकतीं। पाकिस्तान की बड़ी आबादी स्वयं भी आतंकी हमलों से सहमी-सहमी है। हमने अभी पेशावर में दहशतगर्दी का खूंखार चेहरा देखा, जिसे आम पाकिस्तानी खत्म होता देखना चाहता है। वह किसी भी कीमत पर आतंक से मुक्ति चाहता है। पाकिस्तान की आबादी का बड़ा हिस्सा आज भारत से दोस्ती की वकालत कर रहा है। ऐसे में हमारे देश के हिन्दुत्ववादी-दक्षिणपंथी संगठनों का रवैया क्या दोनों देशों के रिश्तों को सहज करने के प्रयासों में बाधक नहीं होगा, खासतौर पर ऐसे दौर में जब उसी विचारधारा का समर्थक एक नेता देश का सबसे शीर्ष कार्यकारी यानी प्रधानमंत्री हो ? यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी अपने सांगठनिक विचार-दर्शन के साथ खड़े रहते हैं या अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार या अवाम की राय के साथ? दुनिया के बड़े मुल्कों से लेकर दोनों देशों के अपने-अपने बाजार की बड़ी ताकतें भी रिश्तों को सुधारने का मोदी सरकार पर दबाव डाल रही हैं।

आरएसएस और अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों की विघ्न-भावना के अलावा इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी की एक और समस्या है। वह हमेशा अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। हर बार वह या उनके समर्थक कहते मिलते हैं-भारत में ऐसा ‘पहली बार’ हो रहा है। लेकिन भारत-पाक रिश्तों की कूटनीति के मामले में ऐसा नहीं है। मोदी जी को अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों, खासकर एनडीए-1 के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी और यूपीए के दस बरसों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री रह चुके डा.मनमोहन सिंह की पहलकदियों और उनकी सफलताओं-विफलताओं से सीखना होगा। वाजपेयी काल में लाहौर यात्रा के कुछ ही समय बाद करगिल में घुसपैठ को लेकर दोनों देशों के बीच युद्ध छिड़ गया। उस वक्त भी पाकिस्तान में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की ही सरकार थी। लेकिन आमतौर पर माना गया कि करगिल में पाक-घुसपैठ और फिर युद्ध छेड़ने का फैसला तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुर्शरफ का था। कुछ ही दिनों बाद पाकिस्तान में नवाज शरीफ को सत्ता से हटाकर मुशर्रफ ने सत्ता अपने हाथ में कर ली। उनके कार्यकाल की शुरुआत अच्छी नहीं थी। लेकिन सन 2004 के भारतीय चुनावों में भाजपा की हार के साथ केंद्र की वाजपेयी सरकार का पतन हुआ और डा. मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार बनी। सत्ता मे आने के बाद डा. सिंह ने दोनों देशों के रिश्तों को पटरी पर लाने की कोशिश तेज कर दी। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि न्यूक्लियर ताकत से लैस दो पड़ोसियों के बीच टकराव के रिश्ते दोनों के हित में नहीं हैं। अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिये भी इनके रिश्तों का पटरी पर आना जरूरी है। उसी दौर में डा. सिंह ने वह सुप्रसिद्ध वाक्य अपने किसी संबोधन में प्रयोग किया-‘हम चाहते हैं कि पड़ोसियों से ऐसे रिश्तें हों कि अमृतसर में नाश्ता, लाहौर में दिन का भोजन और काबुल में रात के खाने के बाद फिर कोई दिल्ली लौट आये।’ जब प्रधानमंत्री मोदी अपनी रूस-यात्रा से काबुल होते हुए स्वदेश लौट रहे थे तो शायद उनके दिमाग में डा. मनमोहन सिंह की यही पंक्तियां उमड़-घुमड़ रही होंगी। हालांकि वह भला किसी कांग्रेसी प्रधानमंत्री को इस तरह के उदात्त और सद्भाव भरे चिंतन का श्रेय क्यों देते! उस दिन उन्होंने काबुल में नाश्ता, लाहौर में दोपहर बाद का भोजन और दिल्ली में रात का भोजन लिया। लेकिन यह सौभाग्य तो सिर्फ प्रधानमंत्री का था। आम भारतीय-आम पाकिस्तानी को यह सौभाग्य कहां मयस्सर!

प्रधानमंत्री मोदी और उऩके सलाहकारों को ड़ा. मनमोहन सिंह और परवेज मुर्शरफ के बीच बनी कई ऐतिहासिक सहमतियों का ठीक से अध्ययन करना होगा। डा. सिंह ने पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय शिखर संवाद की शुरूआत सन 2006 मे हवाना से की। वहां उन्होंने परवेज मुर्शरफ से लंबी बातचीत के बाद सहमति के कुछ बिन्दुओं को अमलीजामा पहनाने पर जोर दिया। फिर मुर्शरफ ने अपना 4-सूत्री फार्मूला पेश किया, जिसके जरिये कश्मीर मसले के शांतिपूर्ण समाधान की कोशिश हुई थी। डा. सिंह की उस फार्मूले पर व्यापक सहमति थी। लेकिन सन 2008 आते-आते दोनों देशों के बीच माहौल बदलने लगा था। पाकिस्तान में लाल मस्जिद हंगामे और बढ़ते आतंकी हमलों के चलते मुर्शरफ की स्थिति कुछ कमजोर हुई। अंततः कुछ समय बाद उन्हें सत्ता से बेदखल होना पड़ा। इधर, दिल्ली में सत्तारूढ़ कांग्रेस के अंदर डा. मनमोहन सिंह की पाकिस्तान-नीति को लेकर अंदर ही अंदर मुखालफत का सिलसिला जारी रहा। शरम-अल-शेख के साझा बयान के बाद उनकी जमकर आलोचना हुई। यहां तक कि उनकी अपनी पार्टी में भी उन पर प्रहार होने लगे। वह कोई बड़ी पहल करने की स्थिति में नहीं रह गये। ले-देकर उनकी पहले की कई शानदार पहलकदमियां बड़े फैसले के इंतजार में व्यर्थ होती नजर आईं। दरअसल, डा. सिंह के पहले कार्यकाल में सियाचिन, सर क्रीक और कश्मीर से लगी दोनों देशों के बीच की नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय रेखा मानने जैसे कुछ बड़े मसलों पर व्यापक सहमति उभरी। दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व में ऐसी व्यापक सहमति पहले शायद ही कभी उभरी हो। दोनों देशों के बीच आमतौर पर माहौल ठीक-ठाक रहा। सरहदी इलाकों में गोलाबारी लगभग खत्म सी हो गयी। बाद के दिनों में कुछेक इलाकों में फिर से कुछ खुराफात और छिटफुट गोलाबारी जरूर हुई पर उसे पहले की तरह ‘रूटीन’ नहीं कहा जा सकता।

प्रधानमंत्री मोदी डा. सिंह के कार्यकाल के दौरान कई जटिल मसलों पर दोनों देशों के बीच बनी सहमतियों को फैसले की मंजिल तक ले जाने का साहस दिखा सकेंगे?  क्या इसके लिये वह समग्र वार्ता (कंपोजिट डायलाग) को सही परिप्रेक्ष्य और दिशा के साथ फिर से पटरी पर लायेंगे? क्य़ा वह कश्मीर पर खुले मन और दिमाग से बात करने को राजी होंगे, जिसमें उनके ‘संघ-परिवारी सोच’ का दबाव न हो और क्या वह भारत-पाक रिश्तों को ‘हिन्दू-मुसलमान दायरे’ के बजाय उसकी पूरी जटिल ऐतिहासिकता में देखने की व्यापकता दिखा सकेंगे? फिलहाल तो इन सवालों के जवाब में ही छुपा है दोनों देशों के रिश्तों का भविष्य!

वरिष्ठ पत्रकार

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