‘कोविड-19’ के आगे की राह
- भारत डोगरा
कोरोना वायरस से होने वाली ‘कोविड-19’ बीमारी की मौजूदा अफरा-तफरी में भविष्य के सवाल पूछना लाजिमी है। क्या हम जैसे हैं, वैसे या उससे भी बदतर ‘वापस’ लौट आएँगे? या फिर इस दौर से सीखकर कुछ नया, बेहतर और कारगर संसार रचेंगे? प्रस्तुत है, इसकी पडताल करता भारत डोगरा का यह लेख।
अचानक देश और दुनिया का एजेंडा बदल गया है और सबसे ज्यादा फोकस अब ‘कोविड-19’ से होने वाली क्षति को न्यूनतम करने पर हो गया है। स्पष्ट है कि इसके लिए हमें एक संतुलित रणनीति बनानी होगी। यह संतुलन दो स्तरों पर बनाना होगा। जहाँ तक स्वास्थ्य व चिकित्सा का सवाल है तो मुख्यतः सामाजिक दूरी, स्क्रीनिंग, परीक्षण एवं उपचार पर ध्यान देना होगा। साथ ही जरूरी उपकरणों तथा सुरक्षा के साज-सामान (न केवल स्वास्थ्यकर्मियों के लिए, बल्कि स्वच्छताकर्मियों के लिए भी) के उत्पादन को बढ़ाने पर भी जोर देना होगा। सरकार यह सब प्रयास कर तो रही है, पर इन प्रयासों को अधिक व्यापक स्तर पर करना होगा। ‘कोविड-19’ के इलाज के साथ अन्य गम्भीर बीमारियों व स्वास्थ्य समस्याओं के इलाज को भी बनाए रखना होगा।
दूसरे स्तर पर यह जरूरी है कि स्वास्थ्य व चिकित्सा की जरूरतों के साथ आजीविका और खाद्य-सुरक्षा का संतुलन बनाया जाए। तालाबंदी के कारण एक बड़ा मानवीय संकट उत्पन्न हो गया है जिससे यदि पूरी तरह बचा नहीं जा सकता था, तो अधिक सावधानी बरतकर काफी कम तो किया ही जा सकता था। अब यह बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है कि बेहद सावधानी से आगे बढ़ा जाए, ताकि इस गम्भीर संकट को और बढ़ने से रोका जा सके। खाद्य-सुरक्षा और आजीविका के क्षेत्र में जो किया जा रहा है उससे और अधिक करने की जरूरत है, और वह भी अधिक संवेदनशीलता के साथ।
कोरोना का विश्वव्यापी प्रभाव
पहले से घोषित पर अपर्याप्त राहत उपायों के अतिरिक्त केन्द्र सरकार को राज्य सरकारों के हाथ मजबूत करने चाहिए एवं राज्यों की आर्थिक क्षमता को बढ़ाना चाहिए जिससे लोगों को, विशेषकर सबसे कमजोर वर्ग को उनकी जरूरत के अनुसार राहत देने में राज्य सरकारें अधिक सक्षम हो सकें।
यह संकट फसल कटाई के समय आया है अतः सरकार को इसके लिए विशेष तैयारियां करनी होंगी ताकि रबी की विभिन्न फसलों की कटाई सुनिश्चित हो सके। एक सुझाव यह हो सकता है कि किसानों को उनकी फसल के कुछ हिस्से का अग्रिम भुगतान कर दिया जाए (जैसे एक चैथाई फसल का) जिससे किसान के हाथ में कुछ नकदी भी आ जाए और वह कटाई की मजदूरी का भुगतान भी तुरंत कर सके। इस तरह खरीदी गई फसल को उसी गांव में सुरक्षित रखना चाहिए ताकि घोषित राहत पैकेज (निःशुल्क राशन), सामान्य राशन व पोषण कार्यक्रमों के लिए जरूरी खाद्य-सामग्री की आपूर्ति स्थानीय स्तर पर ही हो सके।
गम्भीर संकट में वैश्विक अर्थव्यवस्था
इस संकट ने स्वास्थ्य व्यवस्था की गम्भीर विसंगतियों व कमियों की पोल खोल दी है। साथ ही बहुत बड़ी संख्या में लोगों, विशेषकर प्रवासी श्रमिकों और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की अनिश्चित आजीविका की कमियों को भी उजागर कर दिया है। यदि संकट के समय शासन व्यवस्था बेहतर कार्य करती तो भी इतने वर्षों की कमियों के कारण गम्भीर स्थिति उत्पन्न होनी ही थी। जाहिर है, हमें आर्थिक एवं नीतिगत स्तर पर व्यापक बदलाव, विशेषकर स्वास्थ्य के क्षेत्र को मजबूत करने, निर्धनता को कम करने, आजीविका को मजबूत करने व लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए कहीं अधिक प्रयास करने की जरूरत है। एक बड़ी बात यह है कि हमें अपनी उपयुक्त प्राथमिकताएँ तय करनी होंगी।
कोरोना महामारी क्या प्रकृति की चेतावनी है?
ऐसे समाधान जो जीवन, आजीविका एवं खाद्य-सुरक्षा को बाधित करते हों उनकी जगह ऐसे समाधानों की जरूरत है जो आजीविका एवं मूलभूत आवश्यकताओं से सामंजस्य बनाए रखने में कारगर हों। हाल में इस दृष्टिकोण को संक्रामक रोगों के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों का भी समर्थन प्राप्त हुआ है। कई निर्धन एवं कमजोर लोगों का जीवन, आजीविका और खाद्य-सुरक्षा बहुत बुरी हद तक क्षतिग्रस्त हो गए हैं, उनको तत्काल राहत पहुंचाने को महत्व देना चाहिए।
एक चुनौती यह भी है कि व्यापक पर्यावरणीय एवं अमन के कार्यों के लिए विश्व को जागृत किया जाए। हाल के वर्षों में जीव-जंतुओं के वायरस मनुष्य में प्रवेश करने के कारण बीमारियों का खतरा बहुत बढ़ गया है। ऐसे अनेक संकेत बताते हैं कि इसका संबंध अंधाधुंध वन कटाई एवं जंगली जीवों सहित जीवन के अन्य रूपों से होती कई तरह की निर्दयता से है। इसको रोकने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के साथ लगभग दस ऐसी गम्भीर पर्यावरणीय समस्याएँ हैं जो बहुत तेजी से धरती की जीवन-दायिनी स्थितियों को खतरे में डाल रही हैं।
कोरोना के ज़ख्म और विद्यार्थियों की आपबीती
युद्ध और युद्ध की तैयारियाँ भी पर्यावरणीय विनाश का एक बहुत बड़ा स्रोत है। सामूहिक विनाश के हथियार भी हमारे ग्रह की जीवनदायिनी क्षमता को खतरे में डाल रहे हैं। एक संक्रामक रोग से एक वर्ष में दस लाख लोगों तक की मौत हो सकती है, लेकिन मात्र दो देशों के एक दिन या चंद घंटों के युद्ध में परमाणु हथियारों के उपयोग से इससे बीस गुणा या उससे भी ज्यादा लोगों की बड़े दर्दनाक हालात में मौत हो सकती है।
कोरोना, कट्टरता और पूर्वाग्रह का कॉकटेल
इसके अतिरिक्त एक बहुत बड़े क्षेत्र की जीवन-दायिनी क्षमताएँ संकट में पड़ सकती हैं। इस तरह के विनाश को रोकने के लिए पर्यावरण रक्षा, स्वास्थ्य एवं सभी स्तरों पर न्याय के लिए मजबूत आंदोलनों की जरूरत है। हमें हमारे ग्रह की जीवन-दायिनी क्षमता की रक्षा के लिए और जीवन के विविध रूपों को बहुत बड़े और व्यापक संकट से बचाने के लिए सचेत रहने की आवश्यकता है। यह पूरी तरह मानव-निर्मित संकट है, जिससे बचने के लिए बहुत व्यापक मानवीय प्रयासों की आवश्यकता है।(सप्रेस)
लेखक प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं।
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