त्रिभाषा सूत्र और हिन्दी
भारतीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ भाषा भी विकसित और परिमार्जित होती चली आ रही है। मानव जीवन का एक मूल्यवान धरोहर हमारी भाषा ही है। भाषा की समझ के साथ ही मानव जीवन का विकास सम्भव हो पाया है। यदि भाषा नहीं होती तो मानव जीवन के विकास की परिकल्पना अधूरी होती। भाषा की समृद्धता ने मानव जीवन को निरन्तर समृद्ध किया है। चाहे वह कोई भी भाषा हो। जिस भाषा का प्रचलन और प्रयोग जितना अधिक होता है, उसकी लोकप्रियता उतनी तेजी सी बढ़ती है। प्राचीन समय की बात करें तो भारतीय भाषाओं की संख्या लगभग 3000 के करीब थी, जिनमें से अधिकतर भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं या होने की कगार में है। इस संघर्ष में वही भाषा जीवित रह सकती है जो सरल और सहज हो तथा जो साहित्य और आमजन दोनों की भाषा बन सके। उन्हीं भारतीय भाषाओं में से एक भाषा हिन्दी है जो विभिन्न संघर्षों के बाद भी शिखर की ओर विराजमान होती दिखाई पड़ रही है।
विश्व के चौथे नम्बर पर बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है। 14 सितम्बर 1949 को भारत में हिन्दी को राजभाषा की मान्यता मिली। तब से लेकर अब तक 14 सितम्बर को पूरे भारतवर्ष में हिन्दी दिवस हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह दिन हिन्दी प्रेमियों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं है। इस उत्साह के पीछे सिन्धु से लेकर हिन्दी भाषा बनने का लम्बा संघर्ष रहा है। मध्य भारत के अधिकांश लोग हिन्दी भाषा के उद्भव और उत्पत्ति को मोटे तौर पर जानते हैं कि कैसे पाली, प्राकृत, अपभ्रंश से होकर हिन्दी का विकास हुआ है।
भारतीय आर्य-भाषा को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है, जिसके अंतर्गत प्राचीन भारतीय आर्य-भाषा 2000 ई.पू. से 500 ई. पू. तक को मानते हैं। इस समय सीमा के अंतर्गत वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत को रखते हैं। मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा 500 ई .पू्. से 1000 ई. पू. तक माना जाता है। इस काल के अंतर्गत पाली (प्रथम प्राकृत), प्राकृत (द्वितीय प्राकृत) और अपभ्रंश (तृतीय प्राकृत) में बांटा गया है। आधुनिक भारतीय आर्य-भाषा 1000 ई. से लेकर अब तक के समय को माना जाता है। प्राचीन आर्य भाषा से लेकर अब तक का हिन्दी का सफर संघर्षशील रहा है।
लगभग 70 वर्षों से हिन्दी जिस बनती-बिगड़ती प्रक्रिया से प्रवाहमान हो रही है, उस पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। व्यावहारिक तौर पर हिन्दी जो योगदान दे रही है, वह तो जगजाहिर है। किन्तु सैद्धातिक पक्ष पर और अधिक जोर देने की आवश्यकता है। हिन्दी भाषा के प्रति हिन्दी प्रेमियों के अलावा अहिन्दी प्रदेश के लोगों का भी लगाव होना आवश्यक है। अक्सर दक्षिण भारतीय लोग हिन्दी को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। ऐसा नहीं है कि वहां के लोग हिन्दी प्रेमी नहीं हैं। लेकिन सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान समान रूप से होना चाहिए, तब ही अनेकता में एकता को साकार कर पायेंगे। विविधताओं से भरे इस देश में अनेक भाषा, धर्म और जाति के लोग रहते हैं, फिर भी यहाँ की संस्कृति और परम्परा में विभिन्नता होने के बावजूद एकता देखने को मिलती है। ऐसा माना जाता है कि हिन्दी भाषा के एक-एक शब्द में भारतीय संस्कृति का दर्शन है। जैसे- एक शब्द सावन है। सावन शब्द मौसम के साथ-साथ भारतीय परम्परा और संस्कृति की भी व्याख्या करता है। यह तो हिन्दी का एक पक्ष हो गया, जो भारतीय संस्कृति और परम्परा का भंडार है। किन्तु अन्य पक्षों पर भी गहनता से सोचने की आवश्यकता है।
वर्तमान दौर में त्रिभाषा सूत्र हमारे देश में चल रहा है। यह सभी भाषा, धर्म, जाति के लोगों के प्रति निश्चित ही सम्मान की भावना है। लेकिन इस विषय पर और अधिक सोचने की आवश्यकता है क्योंकि भारत का विकास विकासशील देशों की अपेक्षा धीमी गति के साथ हो रहा है, उसके पीछे क्या कारण है? मुझे लगता है कि भाषायी विविधता होने के कारण देश के विकास पर असर पड़ा है। सर्वविदित है कि ज्यादातर विकसित देशों की अपनी एक भाषा है।
भारतीय शिक्षा पद्धति में त्रिभाषा सूत्र से शिक्षा दी जाती है, जिसमें से मातृभाषा और हिन्दी भाषा में अधिकांश बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं। ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में शिक्षा नहीं दी जाती है, बिल्कुल दी जाती है। किन्तु अधिकांश बच्चे अपनी मातृभाषा और राजभाषा के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को सहजता से ग्रहण नहीं कर पाते हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण उपयुक्त वातावरण और मूलभूत सुविधा का नहीं मिल पाना है। अंग्रेजी भाषा में सरलता और सहजता के साथ शिक्षा देने पर शोध करने की आवश्यकता है। देश के 75 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी भाषा में सिर्फ साक्षर हो पाते हैं न कि शिक्षित। इस कारण अधिकांश बच्चे अंग्रेजी शिक्षा से वंचित हो जाते हैं या छोड़ देते हैं।
वर्तमान समय में हिन्दी भाषा की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने की होड़ मची हुई है और हो भी क्यों नहीं, जिस भाषा में रोजगार के अधिक अवसर होंगे, उस भाषा का प्रचलन और विकास होना तय है। उसी भाषा में शिक्षा लेनी भी चाहिए। नयी शिक्षा नीति में मातृभाषा और अंग्रेजी के बीच हिन्दी फंस कर रह गयी है। इस शिक्षा नीति में मातृभाषा में शिक्षा देने पर जोर दिया जा रहा है। यह किस हद तक कारगार होगा, यह तो समय ही बतायेगा। मूल विषय है, रोजगार की। नयी शिक्षा नीति के तहत् चाहे जिस भी भाषा में शिक्षा दी जाये, सवाल है कि उस भाषा में शिक्षा और संस्कृति के अलावा रोजगार के अवसर कितने हैं?
बीते तीन-चार दशकों में निश्चित ही हिन्दी मीडिया, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्मी दुनिया आदि माध्यमों में जिस गति से आगे बढ़ी है, वह सुखद है। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने के लिए इन क्षेत्रों का महत्वपूर्ण योगदान है। 22 भाषाओं में हिन्दी की लोकप्रियता सबसे अधिक बनी हुई है। हिन्दी की समृद्धि और लोकप्रियता ही है कि प्रति वर्ष ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी भी हिन्दी के शब्दों को अपनी सूची में शामिल करता है। संभवत: देश की आधी आबादी हिन्दी जानती है।
एक बड़ा हिन्दी समुदाय रोजगार से वंचित है। यहां सिर्फ स्नातक और स्नाकोत्तर तक की बात नहीं है। बल्कि हिन्दी भाषा में उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले लोग भी बड़े स्तर पर बेरोजगार हैं। सहायक प्राध्यापक का एक पद विज्ञापित होता है, तो हजारों पीएच-डी धारक आवेदन करते हैं। जिस देश में हिन्दी के हजारों पीएच-डी धारक बेरोजगार हो उस देश की शिक्षा व्यवस्था पर गम्भीरता से सोचने और विचार करने की आवश्यकता है। उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक विद्यार्थी हिन्दी में ही अनुतीर्ण हुए थे। उच्च शिक्षा के अलावा हिन्दी भाषा के अधिकांश लेखकों का हाल भी बुरा है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम जिस भाषा में शिक्षा दे रहे हैं, उसकी हालत ऐसी क्यों है? जब तक किसी भाषा में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा नहीं होंगे, तब तक लोग भी उस भाषा के प्रति गम्भीर नहीं होंगे। इस स्थिति में ऐसी भाषाओं पर लगातार अस्मिता का संकट मंडराता रहेगा और साल में एक दिन हम हिन्दी दिवस मनाते रहेंगे।
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