कब तक हिन्दी दिवस मनाएं सरकार?
स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ति पर जहाँ ‘राजपथ’ ‘कर्तव्यपथ’ हो जाता है और पराधीनता के प्रतीकों को मिटाने की बात देश के प्रधानमन्त्री करते हैं वहीं उन्हें ये भी विचार करना चाहिए कि हमारी राजकाज की भाषा के आसन पर पराधीनता की सबसे सशक्त दूत, अंग्रेजी आज भी राज कर रही है। स्थानीय भाषाओं की हत्यारिन अंग्रेजी ने अफ्रीका की भाषाओं के समक्ष अस्तित्व का प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। आज अफ्रीकन युवा अंग्रेजी सिखने और व्यवहार करने के लिए बाध्य हो रहे हैं, ऐसी भाषाई अपसंस्कृति विकसित हो गई है। हम भारत में किस ओर बढ़ रहे हैं?
हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के द्वारा 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समय व्यक्त किया गया था। गाँधी जी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था। भारतीय संविधान के भाग 17 में ‘लाठी लेकर चलते गाँधी जी’ का चित्र है। इसका भाव यह है कि “लाठी लेकर चलते गाँधी जी स्वभाषा की घर-घर अलख जगाने का संकेत दे रहे हैं।” इसी भाग के अनुच्छेद 343(1) में कहा गया है कि “संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय होगा।” राजभाषा के उत्थान का दायित्व संघ सरकार अर्थात भारत सरकार को दिया गया।
उक्त निर्णय 14 सितंबर को लिया गया था इसलिए हिन्दी के उत्थान एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से मनाये जाने वाले ‘हिन्दी दिवस’ के लिए इस दिन को चुना गया। इसी क्रम में हिन्दी के वैश्विक प्रचार-प्रसार के लिए 10 जनवरी 1975 को नागपुर में हिन्दी दिवस सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी भी शामिल हुई थीं। 10 जनवरी 2006 को भारत सरकार ने इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इसकी शुरुआत हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर प्रचारित करने के उद्देश्य से की गई थी। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 1975 में, 30 देशों से 122 प्रतिनिधियों ने सहभाग किया था।
इन विविध प्रयासों से हिन्दी ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी और मेंडरिन के बाद तिसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है। भारत में लगभग 77% लोग हिन्दी बोलते और समझते हैं। भारत को छोड़ कर अमेरिका, मॉरीशस, सिंगापुर, नेपाल, पाकिस्तान जैसे 20 देशों में हिन्दी बोली जाती है और 150 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार हिन्दी भारत के लगभग 53 करोड़ लोगों की प्रथम, 13 करोड़ 90 लाख लोगों की द्वितीय, तथा 2 करोड़ 50 लाख लोगों की तृतीय भाषा है। मात्र 8 करोड़ 30 लाख लोगों ने अंग्रेजी को अपनी द्वितीय भाषा बताया था। हिन्दी भारत के विभिन्न प्रांतों के बीच संवाद के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त सम्पर्क भाषा या मैत्रीभाषा है। दक्षिण भारत में मलयालम, कन्नड़, तमिल और तेलुगू भाषी लोग भी आपस में एक-दूसरे की भाषा नहीं समझने की स्थिति में, हिन्दी में संवाद करना प्रारम्भ कर चुके हैं। दो अलग भाषा-भाषी लोगों के द्वारा हिन्दी के न्यूनतम समझ होने के बाद भी आपसी संवाद के लिए हिन्दी का व्यवहार करना, हिन्दी को गाँधी जी के शब्दों में जनमानस की भाषा बनाता है।
भाषा के प्रयोग एवं प्रचार-प्रसार में बाजार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। उत्तर तथा दक्षिण भारत के लोग विभिन्न सरकारी तथा गैर सरकारी संस्थानों में कार्य करने के लिए अपने मूल स्थान से अन्य प्रदेशों में गए। इससे भी हिन्दी का विस्तार हुआ। श्रमिकों को संस्कृति और विशेषकर भाषा का दूत माना जाना चाहिए। कोलकाता में बांग्ला सिनेमा से अधिक हिन्दी सिनेमा की मांग है, वहीं दक्षिण भारत में भी हिन्दी सिनेमा खूब देखी जाती है तथा दक्षिण भारत की फिल्में हिन्दी में रूपांतरित हो कर भारत के विभिन्न प्रांतों (दक्षिण भारत सहित) में दर्शकों को खूब आकर्षित करती है। हिन्दी के विस्तार में हमारे पाठ्यक्रम की त्रिभाषा नीति तथा नवोदय विद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
भारत में 60% बाजार हिन्दी बोलने वालों का है। अब दवाओं के नाम भी हिन्दी में लिखे होते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ग्राहक सहायता सुविधाएं हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं। अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसे कंपनियां हिन्दी के हिसाब से अपने ऐप्स को अद्यतन कर रही हैं। गुगल, फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट ने हिन्दी का एक अलग विभाग ही बना दिया है। सभी सोशल मीडिया ऐप्स पर आप हिन्दी में अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। 94% की दर से हिन्दी की डिजिटल मीडिया में खपत बढ़ती जा रही है। लोग गुगल पर हिन्दी में सामग्रियां को खोज रहे हैं। चीन तथा जापान जैसे देश एक विशेष योजना के तहत अपने युवाओं को हिन्दी सीखने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हिन्दी भारत के बाजार की प्रवेश द्वार बन चुकी है।
फिर समस्या कहाँ है? समस्या का मूल भारत के साधारण लोग नहीं बल्कि राजनीतिक दल हैं। इन्होंने अपनी स्थानीय राजनैतिक स्वार्थ के कारण हिन्दी को भारतीय भाषाओं के ही विरुद्ध खड़ा कर दिया है। इससे तथाकथित ‘इनके ही लोगों’ की हानि हो रही है। उदाहरणार्थ नवोदय विद्यालयों को लिजिए। सम्पूर्ण भारत में नवोदय विद्यालय समिति 625 विद्यालय संचालित करती है परन्तु तमिलनाडु सरकार ने अपने राज्य में 1986 से आज तक नवोदय विद्यालय खोलने की अनुमति नहीं दी। कारण? इसकी त्रिभाषा नीति। इससे तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब प्रतिभावान विद्यार्थियों को भारत में बोर्ड परीक्षाओं में सर्वाधिक सफल विद्यार्थी देने वाले नवोदय विद्यालयों के उत्कृष्ट शिक्षा का लाभ नहीं मिल पा रहा।
लोकतन्त्र में संविधान का संरक्षक, तथा नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक माने जाने वाले सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के राजकाज की अधिकारिक भाषा स्वाधीनता के 75 वर्षों के बाद भी अंग्रेजी है। भारत की अधिकांश जनता अंग्रेजी नहीं जानती। फिर वो जिस भाषा को समझती नहीं उसमें न्याय कैसे पाएगी? इसका लाभ बिचौलिए उठाते हैं। संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में ‘अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ महत्वपूर्ण है परन्तु जो व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता वह सर्वोच्च न्यायालय में अपना मत कैसे व्यक्त करेगा या कागजातों को कैसे समझेगा? इंदिरा गाँधी को चुनाव में परास्त करने वाले राजनारायण जी को सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी में बहस नहीं करने दिया गया और वो अंग्रेजी से हार गए। शिवसागर तिवारी की सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में हिन्दी में राजकाज करने की मांग करने वाली जनहित याचिका को निरस्त करते हुए दो न्यायधीशों की संयुक्त पीठ ने वर्ष 2016 में उन पर एक लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया जिससे कोई दूसरा फिर से यह जनहित याचिका दायर न कर दे और कहा कि ‘यह कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग’ तथा न्यायालय के समय की बर्बादी थी।
भारत में बाजार की आवश्यकता, इंटरनेट, फिल्म, तथा समन्यवकारी सज्जनशक्तियों के प्रयास से हिन्दी सर्वस्पर्शी तथा सर्वव्यापी हो रही है। हिन्दी को राजकाज की भाषा के रूप में न्यायालयों में न प्रयोग किये जाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ भारत सरकार भी कटघरे में है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 348 (1) में प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में होगी जब तक कि संसद कानून द्वारा अन्य विकल्प प्रदान न करे। गुलामी की निशानी मिटाने वाली भारत सरकार को चाहिए कि स्वाधीनता के इस अमृतकाल में वो अनुच्छेद 348(1) में परिवर्तन कर सर्वोच्च न्यायलय और उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी को भी राजकाज की अधिकारिक भाषा बनाये। यह मूल कार्य अगर नहीं कर सकते तो आखिर कब तक ‘हिन्दी दिवस’, ‘हिन्दी सप्ताह’ या ‘हिन्दी पखवाड़ा’ मनाते रहें?