थर्ड कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के शताब्दी वर्ष
उपनिवेशों को मुक्त करो
लगभग 100 वर्ष पूर्व कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस आयोजित की गयी थी। इस इंटरनेशनल में होने वाली बातचीत, विचार-विमर्श और बहसों ने विश्वव्यापी समाजवादी आन्दोलन की बुनियाद को तैयार किया था। 17 जुलाई से 7 अगस्त, 1920 तक होने वाली इस दूसरी कांग्रेस का उपनिवेशों के साथ-साथ दुनियाभर के क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए ऐतिहासिक महत्व है। यह कांग्रेस प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के माहौल में तब आयोजित किया गया था जब रूस चारों ओर साम्राज्यवादी घेरेबन्दी का शिकार था। डेलीगेटों को उस पहुचंने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था कि तीन फ्रांसीसी डेलीगेटों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और पूरा सम्मेलन एक सप्ताह देर से प्रारंभ हुआ। फिर भी 37 देशों के 218 डेलीगेटों सम्मेलन में भाग लिया।
कम्युनिस्ट कांग्रेस की दूसरी इंटरनेशनल ने पहली के मुकाबले एक बड़ी छलांग लगाई थी। मार्च 1919 में सम्पन्न पहली कांग्रेस में सिर्फ 51 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया। बोल्शेविकों को छोड दें तो बाहरी मुल्कों के सिर्फ 9 डेलीगेट थे। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की पहली कांग्रेस दुनियाभर के क्रांतिकारियों के साथ एकजुटता की भावना वाली कांग्रेस थी। इसके अतिरिक्त सेकेंड इंटरनेशनल की बदनाम कांग्रेस से भी उसे खुद को भिन्न और अलग दिखाना था। सेकेंड इंटरनेशनल के अवसरवादी नेताओं द्वारा 1914 में विश्वासघात करने के कारण यह आवश्यक भी था।
अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की आवश्यकता ने क्रांतिकारियों को कई किस्म के मंच बनाने के लिए प्रेरित किया। यदि पहला प्रयास असफल होता तो उसकी जगह दूसरी कोशिशें होने लगतीं। प्रथम इंटरनेशनल का जन्म 1864 में हुआ था और यह 1876 तक सक्रिय रहा। इसके लगभग एक दशक से भी अधिक बाद 1889 में द्वितीय सोशालिस्ट इंटरनेशनल स्थापित हुआ। द्वितीय इंटरनेशल प्रथम विश्वयुद्ध तक चला। 1914 में शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सेकेंड इंटरनेशनल में शामिल अधिकांश पार्टियों ने युद्ध प्रयासों के लिए अपने देश के शासक वर्ग का समर्थन कर अपनी मौत पर हस्ताक्षर कर दिया था। जब सेकेंड इंटरनेशनल की पार्टियां देश के शासक वर्ग के पीछे लामबन्द हो गयी तब रोजा लक्जमबर्ग ने अपने अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत करते हुए कहा था-‘‘ सभी देशों के सर्वहारा, शांतिकाल में तो एकजुट रहते हैं परन्तु, युद्ध काल में एक दूसरे का गला काटने लगते हैं।’’
अंततः जब जारशाही रूस में अक्टुबर क्रांति 1917 में सम्पन्न हुई तब कम्युनिस्ट इंटरनेशनल या ‘कॉमिन्टर्न’ की स्थापना हुई। विश्व इतिहास में यह पहला मौका था जब, क्रांतिकारी राजनीति के पश्चात गठित इस इंटरनेशनल ने, दुनियाभर के लोगों को एक संगठन के भीतर लाने का प्रयास किया। दूसरे दोनों इंटरनेशनलों के मुकाबले यह सही मायनों में एक वैश्विक परियोजना थी।
थर्ड इंटरनेशनल यानी कॉमिन्टर्न 1943 तक जारी रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दबावों का शिकार होने के साथ-साथ सोवियत संघ की विदेश नीति के अंग के रूप में काम करने के आरोपों के बीच इस इंटरनेशनल की भी समाप्ति हो गयी। लेकिन 20-25 वर्ष के अपने छोटे से काल में इसने युगांतकारी भूमिका निभाई। आज दुनियाभर में कोई इंटरनेशनल नहीं है। यह वामपंथ की कमजोरी के कारण है। हालांकि, कुछ दिनों पहले ग्रीस के पूर्व वित मंत्री ने ‘प्रोग्रेसिव इंटरनेशनल’ के नाम से एक नया इंटरनेशनल स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।
सौ साल पूर्व कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने जो भूमिका अदा की थी और उसके समक्ष जो चुनौतियां थीं उसका आज हम अंदाजा तक नहीं लगा सकते। अपनी तमाम सीमाओं, कठिनाईयों के बावजूद उन लोगों ने उस चीज को साकार किया जिसके बारे में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में मार्क्स ने कहा है- ‘‘ दुनिया के मजदूरों एक हो ’’। यह बात कहने में जितनी आसान लगती है व्यावहारिक रूप देने के लिए काफी मिहनत, काफी उर्जा और पैसों की दरकार होती है।
प्रथम इंटरनेशनल
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में सभी किस्म के समाजवादियों व क्रांतिकारियों को इस बात का अहसास होने लगा कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद एक इंटरनेशनल की आवश्यकता है। मार्क्स एंगेल्स दोनों 1864 में बनी ‘इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन’ की स्थापना में संलग्न थे। यह इंटनेशनल मुख्यत: यूरोप व उत्तरी अमेरिका तक ही सिमटा हुआ था। मार्क्स -एंगेल्स दोनों इस बात से निराश थे कि 1857 की पूँजीवादी दुनिया मे आई मंदी ने मजूदरों के आन्दोलन को, जिसकी अपेक्षा थी, को जन्म नहीं दिया। यह उन्हें स्पष्ट होने लगता था संकटों के बावजूद पूँजीवाद अपने आप नहीं ढ़हेगा। खराब किस्म के लोन के कारण बैंकों में आये संकट से पूँजीवाद का कुछ नहीं बिगड़ा। लिहाजा मजदूरों का सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अपितु वैश्विक स्तर पर भी एक संगठन या नेटर्वक बनना चाहिए। पहले इंटरनेशनल के पीछे दरअसल यही तात्कालिक वजह थी।
लेकिन यह एसोसिएशन जल्द ही राजनीतिक मसले पर दो खेमों में बंट गया। मार्क्स के नेतृत्व में कम्युनिस्टों का खेमा तो मिखाइल बाकूनिन के नेतृत्व में अराजकतावादियों का खेमा एक-दूसरे के बरक्स खड़ा था। इन दोनों खेमों का एसोसिएशन के संगठन और एसोसिएशन द्वारा राज्य के प्रति अपनाए गए रूख के प्रति दृष्टिकोण में गंभीर मतभेद था। लाल ‘कम्युनिस्टों’ और काले ‘अराजकतावादियों’ के झगड़े ने इंटरनेशनल को समाप्त कर दिया।
यदि सही मायनों में देखा जाए तो यह इंटरनेशनल कभी भी कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के अनुरूप का मजदूरों का एसोसिएशन नहीं बन पाया था। यह प्रमुखत: यूरोप तक ही सीमित आन्दोलन था जिसमें एशिया, अफ्रीका का कोई प्रतिनिधि शामिल न था और लैटिन अमेरिका से भी बहुत कम ही नुमाइंदगी थी।
अब जैसे ब्राजील में टाइपोग्राफरों की 1858 में ही हड़ताल हुई थी जब रियो डी जनेरियो में काम ठप्प कर दिया गया था। ठीक ऐसे ही एशिया और अफ्रीका में भी हड़तालें हुई थी। लेकिन ये हड़ताल कोई ऐसे संगठन में नहीं विकसित हो पाया था कि एसोसिएशन द्वारा संपर्क किया जाता। इंटरनेशनल का लैटिन अमेरिकी देश अर्जेंटीना के ब्यूनर्स आयर्स में 1872 में एक दफ्तर भी खुला था लेकिन लाल व काले खेमों के संघर्ष में वो भी लड़खड़ाता ही रह गया। इसके अलावा फ्रांसीसी, इटैलियन व स्पेनी मजदूरों के मध्य भाषाई समस्याए भी थीं। इंटरनेशनल न तो एक मजबूत संगठन में खुद को बदल पाया और न ही कोई क्रांतिकारी विचार उस वक्त विकसित हो सका जो मजदूरों को दिशा दिखा पाता। इसके अलावा वह तकनीक भी उपलब्ध न थी जो विभिन्न महादेशों के मजदूरों को एक-दूसरे से आसानी से जोड़ पाता। कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में मार्क्स, एंगेल्स ने लिखा है-‘‘मजदूरों के यूनियनों को आधुनिक उद्योगों द्वारा विकसित संचार के माध्यमों से सहायता मिलेगी।’’ लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि लंदन व भारत के मध्य पहला टेलीग्राफ संदेश 1870 में भेजा गया। इंटरनेशनल की स्थापना के छह वर्ष बाद। कम्युनिस्ट मैनीफेसटो लिखते वक्त, 1848, में जिसका अनुमान मार्क्स, एंगेल्स ने लगाया था उसे फलीभूत होने में अभी कई दशक लगने थे। 1876 में प्रथम इंटरनेशनल भंग कर दिया गया।
द्वितीय इंटरनेशनल
परिस्थितियों का ऐसा तकाजा बना कि समाजवादियों को पुनः एक दूसरे इंटरनेशनल बनाने की आवश्यकता महसूस होने लगी। इस प्रकार 1889 में विभिन्न राजनीति दल और ट्रेड यूनियन पेरिस में इकट्ठा हुए और सोशालिस्ट इंटरनेशनल जिसे सेकेंड इंटरनेशनल भी कहा जाता है उसकी स्थापना हुई। इस इंटरनेशनल की जड़ें यूरोप के अंदर ट्रेड यूनियनों के बढ़ते व फैलते संगठनों के कारण हो रहा था लेकिन मुख्यतः यह इंटरनेशनल यूरोप, उत्तरी अमेरिका आधारित था वैसे कुछ संपर्क लैटिन अमेरिका में भी थे।
उन्नीसवीं सदी में सामाजिक जनवादी पार्टियों का मुख्य आधार ट्रेड यूनियनों में ही थे। लेकिन यहां भी यूरोप और उत्तर अमेरिका के बाहर इनका नेटवर्क बहुत कम था। एशिया और अफ्रीका में ट्रेड यूनियन बीसवीं सदी के पहले दो दशक के पूर्व स्थापित नहीं हुए थे। उपनिवेशवाद विरोधी पार्टियों का आपसी सम्बन्ध नहीं बराबर थे जब तक कि 1927 के ब्रुसेल्स में इन पार्टियों का सम्मेलन नहीं आयोजित किया गया। यह सम्मेलन कॉमिन्टर्न द्वारा ‘लीग अगेंस्ट इंपीरियलिज्म’ के नाम से आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में भारत के जवाहरलाल नेहरू ने भी शिरकत की थी। उत्तर अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका के मध्य आपसी संपर्क बिखरे-बिखरे और अनिश्चित से थे। इस कारण पूरी दुनिया को समेट सकने वाला कोई वैश्विक संगठन नहीं बन पा रहा था।
सेकेंड इंटरनेशनल में भी फिर से बहसें होने लगीं। रेड व ब्लैक का पुराना मतभेद भी फिर से उभर कर आ गया। बाद में अनार्को-सिंडिकेलिस्टों व अनार्किस्टों द्वारा एक वैकल्पिक इंटरनेशनल भी बनाने की कोशिश की गयी लेकिन उसे उतनी सफलता नहीं मिली। यह सोशालिस्ट या सेकेंड इंटरनेशनल वैचारिक रूप से इस स्थान पर चला आया कि ट्रेड यूनियनों को इसी पूँजीवादी व्यवस्था को ही और बेहतर तथा मानवीय बनाने का प्रयास करना चाहिए। इन लोगों का यह भी मानना था कि ऐसे किसी महत्वपूर्ण बदलाव लाने के लिए ट्रेड यूनियनों की जड़ें राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन में होना चाहिए।‘अंतर्राष्ट्रीय’ के बजाय ‘राष्ट्रीय’ पर जोर देने वाले इस अंतर्राष्ट्रीयतावादी विरोधी प्रवृत्तियां अंततः सेकेंड इंटरनेशनल को एक ऐसी जगह लेती चली गयी जहां से फिर वो कभी उठ न सकी। राष्ट्रीयता पर जोर देने के कारण 1914 में सेकेंड इंटरनेशनल की अधिकांश पार्टियों ने अपने शासक दलों की सेना के लिए धन जुटाने के मुद्दे पर समर्थन किया। वार क्रेडिट को समर्थन देने क कारण सेकेंड इंटरनेशनल ने अपनी जो चमक खाई उसे वो दुबारी न पा सकी।
लेनिन का हस्तक्षेप
लेनिन और उसके साथियों ने सेकेंड इंटरनेशन को ध्वस्त होते अपनी आँखों से देखा। दरअसल, उन्हें इसका थोड़ पूर्वानुमान भी हो चला था। वे इस बात को ताड़ चुके थे कि समाजवादी आन्दोलन की आत्मा ही पूरी तरह सड़ चुकी थी। इस आन्दोलन के नेता एडवर्ड बर्नस्टीन का जर्मन राज्य व जर्मन पूँजीपति वर्ग के प्रति जो रवैया था उससे वे इस बात को जान चुके थे जब भी अंधराष्ट्रवाद की लहर आएगी ये नेतृत्व उसके दबाव को झेल नहीं पाएगा। यह स्पष्ट था कि ये लोग साम्राज्यवाद की एक स्पष्ट समझ और राष्ट्रीयताओं के आत्मनिणय के अधिकार के प्रति पूरी तरह सचेत नहीं हो पाए हैं।
जब पहला विश्वयुद्ध आरंभ हो चुका था तो 1915 में स्विटजरलैंड के जिम्मरवाल्ड में लेनिन और उनके नजदीकी साथी इकट्ठा हुए। यहां उनलोगों ने समाजवादी आन्दोलन में आई कमजोरियों की जांच-पड़ताल करने के साथ-साथ एक रास्ता ढ़ूंढ़ने का प्रयास किया। इस मौके पर जिम्मेरवाल्ड घोषणापत्र जारी किया जिसमें उन लोगों ने इसे रेखांकित किया ‘लाखों शव युद्ध मैदानों को पाटे हुए हैं’ और ऐसा प्रतीत होता है ‘यूरोप एक कसाईघर में तब्दील हो चुका है। ’
लेकिन प्रश्न ये है कि यूरोप को क्यों युद्ध में जाना पड़ा? जैसा कि ये क्रांतिकारी लोग कहते थे ‘‘ यह विश्वयुद्ध साम्राज्यवाद की देन है। प्रत्येक देश का पूँजीपति वर्ग मुनाफे के लालच में मानवीय श्रम का शोषण करने तथा दुनिया भर के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के लिए यह युद्ध कर रहा है।’’ लेनिन के लिए ये विचार बहुत महत्वपूर्ण थे जिसे उन्होंने 1916 में प्रकाशित अपनी विश्वविख्यात कृति ‘साम्राज्यवाद पूँजीवाद की उच्चतम अवस्था’ में विकसित किया था। 1920 में जब लेनिन ने पुस्तक की फ्रांसीसी व जर्मन संस्करण की भूमिका लिखी तो उसमें कहा विश्वयुद्ध, दुनिया के विभिन्न हिस्सों को कब्जे में लेने वाला हिंसक और लुटेरा युद्ध है, जिसने यूरोप को तबाह कर रखा है। लेनिन ने इस बात को भी रेखांकित किया युद्ध, पूँजीवाद के सामान्य विकास का अवश्यंभावी परिणाम है।
उपनिवेशवाद के और वित्त (फाइनांस) के अभ्युदय के परिणामस्वरूप संसाधनों की लूट तथा बाजार को मनोनुकूल ढालने तथा कर्ज के माध्यम से देशों को अपने कब्जे में करने के लिए युद्ध किया जाता है। यूरोप और उत्तर अमेरिका के देश अपने पूँजीवादी हितों के लिए दुनिया के विभिन्न हिस्सों पर प्रतियोगी कब्जे के लिए युद्ध का सहारा ले रहे थे। इस युद्ध से बचने का एक ही रास्ता था कि साम्राज्यवाद को उपनिवेशों में पराजित किया जाए, पूँजीवादी देशों में सर्वहारा क्रांति हो तथा सर्वहारा विश्व व्यवस्था कायम किया जाए। इस प्रकार लेनिन के लिए उपनिवेशों का सवाल कोई दोयम दर्जे का सवाल नहीं बल्कि विश्व क्रांतिकारी रणनीति का अवश्यंभावी हिस्सा था।
जार के साम्राज्य में हुई क्रांति ने लेनिन की रणनीति को सही ठहराया। विशाल व बड़े फलक पर फैले जारशाही साम्राज्य के जुए तले कई राष्ट्रीयताएं कराह रही थी। साम्राज्य के उत्तरी-पश्चिमी हिस्से में स्थित एक छोटे एलीट अल्पतन्त्र ने यूरोप से लेकर ऐशिया तक की राष्ट्रीयताओं को अपने कब्जे में बनाए रखा था। किसान-मजदूर गठजोड़ तथा राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय का अधिकार अक्टुबर क्रांति का मुख्य राजनीतिक फ्रेमवर्क था।
ज्योंहि सोवियत सत्ता अस्तित्व में आई प्रतिक्रांतिकारी सेनाओं ने उसे चारों ओर से घेर लिया। राजशाही के पुराने समर्थकों और सामंतों की सहायता से प्रतिक्रांति संचालित करने की कोशिश की गयी। लेकिन रूस ने निकली उत्साहवर्द्धक उर्जा चहुंओर फैल गयी थी। जर्मनी और पूर्वी यूरोप में तो फैली ही यह पूर्व के एशिया तक भी इसका संदेश पहुंचा। 1918-19 की जर्मन क्रांति और 1919 की हंगेरियन क्रांति ने पूरे यूरोप में क्रांति के संदेश फैलने की उम्मीद पैदा की। लेकिन इन दोनों देशों में क्रांति असफल हो गयी। यूरोप में क्रांति की पराजय ने नवजात सोवियत गणतन्त्र को अलगाव में डाल दिया।
चारों ओर से घिरे सोवियत गणतन्त्र को अब क्रांतिकारी अंर्तराष्ट्रीय एकजुटता कायम करने की आवश्यकता हुई। सोवियत गणतन्त्र ने सहारे के लिए उपनिवेशों की ओर देखना शुरू किया। उपनिवेशवाद विरोधी राजनीति के प्रति लेनिन की प्रशंसा प्रथमविश्व यु़द्ध के समय से ही थी। 1913 में ही लेनिन ने लिखा था, ‘‘ एशिया में हर तरफ सशक्त लोकतांत्रिक आन्दोलन बढ़ रहा है, फैल रहा है और ताकत ग्रहण कर रहा है। इन देशों का बुर्जआ वर्ग प्रतिक्रियावादी शक्तियों के विरूद्ध अपने देश के आमलोगों के पक्ष में जा रहा है। लाखों-लाख लोग जीवन, प्रकाश और स्वतन्त्रता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।’’
लेनिन की केंद्रीय राजनीतिक समझदारी ये थी कि यूरोप और उत्तर अमेरिका के सर्वहारा और एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के किसान और मजदूरों के मध्य वैश्विक एकता होनी चाहिए। इन्हीं परिस्थितियों में उपनिवेशों के लिए राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार की वकालत लेनिन ने की। उपनिवेशों की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं का आत्मनिर्णय का अधिकार दुनियाभर के समाजवादी एजेंडा का अविभाज्य हिस्सा था। तीसरे इंटरनेशनल का यह बुनियादी सिद्धांत था जो आगे चलकर फलीभूत हुआ।
तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल
मार्च 1919 में रशियन सोशालिस्ट फेडेरेटिव सोशलिस्ट रिपब्लिक (परवर्ती नाम यू.एस.एस.आर) की राजधानी में पूरी दुनिया से डेलीगेट आए और इस प्रकार कम्युनिसट इंटरनेशनल या कॉमिन्टर्न की स्थापना हुई। मास्को में इकट्ठा हुए 35 संगठनों में से अधिकांश यू.एस.एस.आर में शामिल देश या फिर यूरोप और उत्तर अमेरिका के प्रतिनिधि शामिल थे। इस क्षेत्र के बाहर का सिर्फ एक प्रतिनिधि था और वह चीन और कोरिया का था। यूरोप तथा अमेरिका के उपनिवेशों से एक भी प्रतिनिधि कॉमिन्टर्न की सथापना में शामिल नहीं हुआ था।
इंटरनेशनल के पहले सम्मेलन के पश्चात कॉमिन्टर्न के दूत पूरी दुनिया में दौड़े तथा ऑस्ट्रेलिया से लेकर मैक्सिको तक के क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया गया। इन दूतों में सबसे लोकप्रिय नाम मिखाइल बोरोदिन का है जिसने मैक्सिको में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी। मिखाइल बोरोदिन का चीन पर भी गहरा प्रभाव था। चीन पर प्रभाव डालने वालों में उनके साथ ग्रिगोरी वोतिन्स्की का भी नाम लिया जाता है। अन्य दूतों में प्रमुख हैं इगोन किस्च, फ्योदारे अंद्रेविच सर्गीव, सांजो नोसाका और आमी कोमाकी जैसे लोग भी थे जो तुलनात्मक रूप से थोडे़ कम जाने जा सके। इन लोगों ने दुनिया भर के रैडिकल लोगों से संपर्क स्थापित कर उन्हें कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। जुलाई 1921 में हुए तीसरे कॉमिन्टर्न बैठक में इंटरनेशनल लियाजन डिपार्टमेंट ( संपर्क स्थापित करने व विचारों का प्रचार-प्रसार करने वाला) स्थापित किया गया जहां से ऑसिप पियातिन्सकी, बर्थे जिम्मरवान ने कम्युनिस्ट घेरे के बाहर के लोगों को इंटरनेशनल से जोड़ने का प्रयास किया। जो कार्य ये लोग कर रहे थे वह बेहद खतरनाक परन्तु आवश्यक भी था। इस किस्म के साहसी पहलकदमियों के बगैर संगठन की स्थापना संभव नहीं थी।
यह बोरोदिन जैसे लोगों के अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि अगस्त 1920 में हुए कॉमिन्टर्न की दूसरी कांग्रेस में दुनिया के अधिक देशों का प्रतिनिधित्व संभव हो सका। इसके साथ ही होने वाली बातचीत व बहस का चरित्र भी वैश्विक बन सका। सोवियत के देशों यथा-आर्मेनिया से लेकर उज्बेकिस्तान तक, मेक्सिको के लेकर इंडोनेशिया तक, चीन से लेकर ईरान तक और भारत से लेकर कोरिया तक सभी जगहों से डेलीगेट इस दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में शामिल हुए। ये अधिकांश प्रतिनिधि विभिन्न वामपंथी राजनीतिक समूहों से, कुछ औपनिवेशिक देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों से और कुछ ऐसे नये बनते वाम समूहों से थे जिनका बाहरी संपर्क बहुत कम था। अब जैसे भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के प्रारंभिक सदस्यों में से एक रहे अबनी मुखर्जी (1891-1937) के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में भारत के नुमांइदा बनने की कहानी भी दिलचस्प है। वे एम्सटर्डम में डच मार्क्सवादी ए.जे. रूटजर्स से मिले। एम्सटर्डम में अबनी मुखर्जी भारत के क्रांतिकारी संघर्ष के कार्य से नहीं अपितु डच इंस्ट इंडिज (इंडोनेशिया) के क्रांतिकारी संघर्ष के काम से गए हुए थे। लेकिन वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में भारत के दूत के रूप में उपस्थिति हुए।
भारतीय वाम आन्दोलन के प्रमुख नेता एम.एन. रॉय का मिखाईल बोरोदिन से लंबा विचार-विमर्श हुआ। एम.एन. राय भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन से गहरे रूप से जुड़े रहे थे लेकिन उन्होंने कॉमिन्टर्न में प्रतिनिधित्व भारत का नहीं बल्कि मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से किया। एम.एन. रॉय और एल्विन ट्रेन्ट ब्रिटिश साम्रज्यवाद की पहुंच से बचने के लिए अमेरिका से भागकर मैक्सिको चले गए। एवतिस सुल्तानजादे (1889-1938) ने ईरान की कम्युनिस्ट की नुमाइंदगी की जबकि वे सोवियत संघ में ही रहकर ईरानी मजदूरों को संगठित करने का कार्य कर रहे थे। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में इंडोनेशिया से टाना मलाका, ग्रेट ब्रिटेन से सिलविया पंखुस्रत, सोवियत संघ से ब्लादीमिर इल्यीच लेनिन, अलेक्जेंड्रा कोलांताई, और लियोन ट्राटस्की, एंजेलिका बालाबानोवा थे। मात्र एक वर्ष के अंदर ही कॉमिन्टर्न ने विभिन्न महादेशों के क्रांतिकारी आन्दोलन के प्रमुख नेताओं को अपने साथ लाने में सफल रही थी।
इससे पूर्व कि ये डेलीगेट मास्को में जुटें लेनिन ने कॉमिन्टर्न से जुड़ने की 21 शर्ते रखीं जिसमे से आठवीं शर्त थी- ‘‘प्रत्येक ऐसा दल जो इंटरनेशनल से जुड़ने की ख्वाहिश रखता हो उसे सबसे पहले उपनिवेशों के अपने साम्राज्यवादियों की धोखाधड़ी का उजागर करना होगा। उपनिवेशों में चले रहे मुक्ति संघर्षों का समर्थन करना होगा, सिर्फ बातों से नहीं अपितु अपने व्यवहार से, अपने कार्यों से। उसके अपने देश के साम्राज्यवादियों से ये मांग करना होगा कि वो उपनिवेशों से हटे, उसे मुक्त करे। अपने देश के मजदूरों के अंदर उपनिवेशों की मेहनतकश जनता और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के प्रति एक सच्चा बिरादराना दृष्टिकोण कायम करना होगा। अपने देश के सैनिकों के पास ये प्रचार चलाना कि उपनिवेशों की जनता का दमन करने से इंकार कर दें।”
यह आठवी शर्त औपनिवेशिक देशों के कम्युनिस्टों को नहीं बल्कि जिन विकसित देशों ने उपनिवेश बनाया हुआ है उन देशों के कम्युनिस्टों को सम्बोधित किया गया था। इन विकसित देशों के उपनिवेश थे। लेकिन उन देशों के कम्युनिस्टों की प्रतिक्रिया से निराशा हाथ लगी। साम्राज्यवाद सम्बन्धी लेनिन की थीसिस की स्पष्टता और उपनिवेश विरोधी कार्यों का विश्व क्रांति के लिए क्या महत्व है इसे यूरोप के क्रांतिकारी ठीक से समझ नहीं पाए।
कॉमिन्टर्न की पहली कांग्रेस के अन्तिम दिन डेलीगेट्स ने एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया जिसमें अमेरिका व यूरोप की कम्युनिस्ट पार्टियों की आलोचना की गयी कि उपनिवेशों में क्रांतिकारी प्रचार के कार्य को इन लोगों ने यथोचित महत्व नहीं दिया। कॉमिन्टर्न में सेकेंड इंटरनेशनल की पार्टियों में टूट कर तृतीय इंटरनेशनल से संबद्धता को लेकर होड़ मची हुई थी। कई देशों यथा जर्मनी में कॉमिन्टर्न से संबद्धता प्राप्त करने के लिए अपेक्षाकृत बड़े दल यू.पी.एस.डी (इंडीपेंडेंट सोशालिस्ट पार्टी ऑफ जर्मनी) ने छोटी पार्टी के.पी.डी में विलय कर लिया ताकि संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी बनाया जा सके। ऐसी ही प्रक्रिया फ्रांस सहित देशों में चली। लेकिन लेनिन को ये आशंका थी कि सेकेंड इंटरनेशनल की पार्टियां अपने साथ अपने अवसरवादी प्रवृत्तियों को भी लाएंगे। सेकेंड इंटरनेशनल की पार्टियों में उपनिवेश के संघर्षों के प्रति कभी नहीं गंभीरता नहीं दिखाई थी और लेनिन को आशंका थी कि उनका यह अवसरवादी व्यवहार तृतीय इंटरनेशनल में भी न चला आए।
1920 में हुए कॉमिन्टर्न की दूरी कांग्रेस में, इसके प्रमुख नेताओं में से एक, कॉर्ल राडेक ने सही ही कहा- ‘‘यदि ब्रिटेन के मजदूर अपने देश बुर्जआ पूर्वाग्रहों का विरोध न कर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का समर्थन करते हैं या उनके प्रति सहिष्णु रूख अपनाते हैं इसका अर्थ यही है कि वे अपने देश के क्रांतिकारी आन्दोलन को ही कमजोर कर रहे हैं।’’इन विकसित देशेां के मजूदरों को उपनिवेशवाद विरोधी कार्यभार क्रांति की दिशा में ही एक आगे बढ़ा हुआ कदम होता है।
उपनिवेशों की जनता के संघर्षों का समर्थन देना परोपकार या दान की भावना से किया गया कार्य नहीं अपितु पूरे विश्व के लिए क्रांतिकारी महत्व की चीज होती है। तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने सकेंड इंटरनेशनल के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के प्रति अपनाए गए रूख व व्यवहार से खुद का अलग किया। और यह आवश्यक बना डाला कि विकसित देशों का मजदूर वर्ग अपने देश द्वारा उपनिवेशों की जनता पर ढ़ाए जा रहे जुल्मों का विरोध करने के साथ-साथ उपनिवेशों में क्रांतिकारी आन्दोलन खड़ा करने की प्रयास करे। तृतीय इंटरनेशनल ने उपनिवेशों के सवाल को प्रधान सवाल बना डाला और विकसित देशों के मजदूरों के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया कि वे उपनिवेशों की जनता के लिए किए जा रहे संघर्षों के प्रति कैसा रूख अपनाते हैं।
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(अगले अंक में पढ़े लेनिन और एम.एन.राय की भारत व उपनिवेशों के सम्बन्ध में प्रख्यात बहस)