‘जीवन में स्पंदन का मंत्र : चटाक-चट-धा!’
फनीश्वरनाथ रेणु की लोक-यथार्थ में पगी कहानियों में से एक कालजयी कहानी है – “पहलवान की ढोलक”| आज़ादी के पहले के बिहार प्रान्त की पृष्ठभूमि में रची गयी इस कहानी में हैजा और मलेरिया के महामारी से जूझते एक ऐसे गाँव का जिक्र है, जो चिकित्सकीय सुविधाओं से पूर्णतया वंचित है | महामारी पूरे गाँव को अपने चपेट में ले चुकी है और लोग हालात के सामने असहाय दशा में स्वयं को एक-एककर काल के गाल में समा जाने को अपनी नियति मान चुके हैं |
लोग-बाग एक-दूसरे को ढ़ाँढ़स देने के अलावा कुछ भी करने में असमर्थ हैं| लेकिन उन्हीं के बीच एक ऐसा भी शख्स है जो काल के आगे असहाय न होकर उसके पास जो भी कला, कौशल या सामर्थ्य है, उसके आधार पर मृत्यु को चुनौती दे रहा था| रोज मरते लोगों की वजह से सूने होते जा रहे गाँव के एक छोर पर “पहलवान संध्या से लेकर सुबह तक चाहें जिस ख्याल से ढ़ोलक बजाता था, किन्तु गाँव के अर्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरता था|”
वास्तव में कोई कहानी केवल उतनी ही नहीं होती, जितनी वह शब्दों में लिखी गयी होती है, बल्कि वह हर उस परिस्थिति को हल करने की व्यवहारिक कुंजी उपलब्ध कराती है, जो उससे साम्यता रखती हैं | अनेक मामलों में आज के भारत की समानता आजादी-पूर्व के उस पिछड़े गाँव से नहीं की जा सकती किन्तु आसन्न महामारी के सन्दर्भ में जो असहाय स्थिति उत्पन्न हो गई है, उससे इस कहानी के तार असंख्य वर्जनाओं के प्रयास के बावजूद भी जुड़ ही जाते हैं| कहानी की एक पंक्ति “सूर्यास्त होते ही लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में घुस जाते तो चूं भी नहीं करते,” ने आज अपना विस्तार इस स्थिति तक कर लिया है कि रात क्या दिन की भी वही दशा हो गयी है|
किन्तु जीवन अपने स्पंदन का श्रोत ढूंढ ही लेता है| कहानी में असह्य वेदना से छटपटाते लोग जब पहलवान के ढोलक की थाप सुनते तो जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिलता| उनके स्नायुओं में जीवन की बिजली दौड़ जाती| पहलवान की ढोलक जीवन और मृत्यु के द्वंद्व में “चट-गिड़-धा, चट-गिड़-धा” यानी मत डरना, मत डरना का संदेश देकर मौत को पछाड़ने का मंत्र “चटाक-चट-धा” (उठा के पटक दे) पूरी रात सुनाती रहती|
महामारी के विकराल दौर में जीवन का मंत्र वही दे सकता है, जिसका जीवन में पूर्ण आस्था हो, जिसे मानव से मोह हो और जो सृष्टि को अपने आख़िरी श्वास तक बचाए रखने का विश्वासी हो| यह साल फनीश्वरनाथ रेणु का जन्म शताब्दी वर्ष है| आज से ठीक सौ साल पहले सन् 1920 में रेणु का जन्म हुआ था| आज रेणु को तो याद करने का समय है ही, साथ ही काल से होड़ होड़ लेती जीवन के जय का उद्घोष करती उनकी इस कहानी को भी जी लेने का अवसर है|
इस होड़ में हम सबकी भूमिका उस पहलवान की ही तरह है| जिसके ढ़ोल की थाप में भले ही “न तो बुखार हटाने का कोई गुण है, और न ही महामारी के सर्वनाश गति को रोकने की शक्ति”, लेकिन इसके “चटाक-चट-धा, चटाक-चट-धा, चटाक-चट-धा” यानी उठा के पटक दे, उठा के पटक दे, उठा के पटक दे ताल में मृत्यु को पटखनी देने का जो मंत्र है, वह हम सभी को परस्पर विश्वास दिलाता है कि सब अपनी-अपनी कोशिशों से सबके स्नायुओं में स्पंदन जगाए रख सकते हैं
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