तीसरी घंटी

 सत्ता के दबाव से रंगमंच का बिगड़ता चेहरा

 

नहुष नामक राजा ने अपनी नीति, बुद्धि और पराक्रम से जब स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया तो वहाँ संगीत, नृत्य तथा नाट्य को देख कर इन विद्याओं को पृथ्वी पर लाने के लिए चिंतित हुए। राजा ने देवताओं से अंजलि बांध कर नाट्य प्रयोग के लिए कहा-अप्सराओं के साथ मेरे घर में भी नाट्य हो। तब वृहस्पति को आगे करके देवों ने उत्तर दिया-’अप्सराओं का मनुष्यों से मेल संभव नहीं हैं। पर आप स्वर्ग के शासक हैं अतः हम हितकारक और उचित उपाय बताते हैं। यहाँ से नाटक के आचार्य पृथ्वी पर जाकर नाटक सिखाने का प्रिय करेंगे।’ तत्पश्चात् भरत पुत्रों ने पृथ्वी पर नहुष के घर जा कर नाटक को उतारा। किसी की शरण में किसी कला का वास होगा तो इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि उस पर छत्रछाया देने वाले का कोई प्रभाव या दबाव नहीं पड़ेगा। सदियों तक संस्कृत नाटक ऐसे ही राजाओं के महलों में फलता-फूलता रहा है। राजा द्वारा उपलब्ध करायी गई सुविधाओं के बीच संस्कृत नाटक लिखा व खेला गया। भले राजा द्वारा संस्कृत नाटकों पर दिये गये दबावों का उल्लेख कहीं देखने को नहीं मिलता है, पर संस्कृत नाटकों में नाटक का कथ्य, नायक की परिभाषा और उनकी भाषा को लेकर जिस तरह का दिशा निर्देश दिखता है, वह सत्ता के दबाव को ही परिलक्षित करता है। और व्यावहारिक भी नज़र नहीं है कि जिसकी दया पर आपका निर्वाह हो रहा है, उसके विपरीत या विरोध में चले जाये। किस सामंत का इतना बड़ा हृदय होगा कि अपने आँगन में बिठा कर अपनी ही ख़ामियाँ बैठ कर सुने, और किस नाट्यकर्मी के पास इतना साहस होगा कि जिसका खाये, उसी पर गुर्राये?

यह दबाव केवल राजतंत्र में ही नहीं, लोकतंत्र में भी भलीभाँति दिखता है। इस्लाम के आने के बाद राज सत्ता द्वारा प्रश्रय न मिलने के कारण संस्कृत नाटक ख़ुद-ब-ख़ुद बिखर गया। इसके लिए इस्लामिक तंत्र को दोषी ठहराना जायज़ नहीं है। इस्लाम के लिए नाटक ग़ैर मज़हबी था। नाटक की अपेक्षा उनकी रुचि गायन-नृत्य पर अत्यधिक थी। यह भी एक कड़वा सच है कि सत्ता के रहमो-करम पर पलने वाले संस्कृत नाटक में इतना आत्मिक बल भी नहीं था कि स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बना सके। संस्कृत नाटक ख़ुद अलगाव का शिकार हो गया। अफ़सोस इस बात पर होता है कि इस विधा से जुड़े लोगों को अपनी आत्मालोचना करने के बजाए, आक्रांताओं के माथे ठीकरा फोड़ना ज़्यादा आसान नज़र आया।

अंग्रेजों ने अपने काल में नाटक से कोई वास्ता नहीं रखा। उन्हें जब अपने मातहत अधिकारियों के मनोरंजन व मन बहलाव की ज़रूरत महसूस हुई तो वे विलायत से ऐसी कंपनियाँ बुलवा लेते थे जो शेक्सपियर या उनके समकालीन नाटककारों के नाटक आ कर मंचित कर देते थे। भले अंग्रेजों ने अपने समय रंगकर्म को राजकीय प्रश्रय न दिया हो, लेकिन जिन नाटकों से उन्हें अपने विरुद्ध कोई आवाज़ सुनाई देती थी, ख़िलाफ़त व बग़ावत का इशारा तक भी मिलता था तो उसे रोकने से बाज नहीं आते थे। ऐसे साहित्य को ज़ब्त करने से जरा भी नहीं चूकते थे। इसी दिशा में उन्होंने सन् 1876 में ड्रामेटिक परफॉरमेंस एक्ट भी लाया था। दीनबंधु मित्र लिखित बांग्ला नाटक ‘नील दर्पण’ जो किसानों के नील विद्रोह पर केंद्रित था, इसी एक्ट के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया था। पारसी नाटकों में ‘कीचक वध’, ‘वीर अभिमन्यु’ जैसे दर्जनों नाटक जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से बरतानिया साम्राज्य पर निशाना साध रहे थे, प्रतिबंधित हुए थे।

आजादी के बाद जब नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तो देश भर में सक्रिय रंगकर्मियों के सम्मुख एक संकट खड़ा हुआ कि सत्ता के साथ कैसा संबंध हो? सत्ता के साथ जुड़ कर नेहरू के आधुनिक विचारधारा को सांस्कृतिक रूप में देश भर में पहुँचाया जाए या अलग रह कर सरकार द्वारा जनतांत्रिक मूल्यों के हनन को आलोचनात्मक रूप से रखा जाए। यही दो धाराएँ समानांतर रूप से चल रही थी। एक तरफ़ एनएसडी, दूसरे सत्ता पोषित सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा रंगमंच में आधुनिकतावाद को स्थापित किया जा रहा था तो दूसरी तरफ़ नुक्कड़ नाटक, जनवादी नाटक को गाँव, सुदूर देहात, शहर के मुहल्ले-नुक्कड़-चौराहों तक ले ज़ा कर किसानों-मज़दूरों-छात्रों के आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया जा रहा था। इसकी धार और त्वरा को उन दिनों कोई राजनीतिक पार्टी न कुंद कर सकी, न इनकी अभिव्यक्ति पर कोई लगाम कस सकी। रंगकर्मियों ने पुलिस उत्पीड़न सहा, जेल भी गये पर नाटक करना बंद नहीं किया।

लेकिन अभी का परिदृश्य बिलकुल बदला हुआ है। सांस्कृतिक क्षेत्र की बात करें तो इसकी हालत राजनीति से भी ख़स्ताहाल है। राजनीतिक क्षेत्र में सत्ता की निरंकुशता के विरोध में जगह-जगह सड़कों पर धरना-जुलूस-आंदोलन दिख रहा है। भले विरोध करने वालों को सरकार व्यक्तिगत स्तर पा चिन्हित कर मनोबल तोड़ने के लिए उन पर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगा कर जेल के अंदर डाल रही हो, उनके घरों पर ईडी का छापा मरवा रही हो, पर विरोध का स्वर कहीं न कहीं से फूट ही रहा है। बड़ी संख्या में पत्रकारों पर तरह-तरह के आरोप जड़ कर मनोबल गिराने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन यह कारगर साबित नहीं हो रहा है। अगर किसी पत्रकार को किसी चैनल से निकाला जा रहा है या ख़ुद निकालने के लिए विवश किया जा रहा है तो ऐसे पत्रकारों की एक बड़ी संख्या दिख रही है जो अपनी व्यक्तिगत पहलकदमी से सोशल मीडिया में एक धारा खोज ले रहे हैं जिनसे उनका जनता से सीधा संवाद हो रहा है।

उस नज़रिए से मुख्य धारा का रंगमंच गतिशील नहीं दिख रहा है। राजधानी के अलावा महानगरों व छोटे शहरों में पहले रंगमंच पर प्रतिरोध की जिस तरह की धाराएँ दिखती थी, अब नहीं दिखती है। आज़ादी के बाद गाँव के स्तर पर रंगमंच में बदलाव के जो चिह्न नज़र आते थे, वे अब लुप्तप्राय हो गये हैं। अब तो महानगर से छोटे शहर तक एक जैसा रंगमंच दिखता है। जो मिजाज बडे शहर के रंगमंच में दिखता है, वही छोटे शहरों के रंगमंच में भी। ऐसा लगता है महानगरों के रंगमंच का पासपोर्ट साइज है छोटे शहर का रंगमंच। पहले छोटे शहरों और गाँवों के रंगमंच का एक स्वतंत्र वजूद हुआ करता था, अब ढूँढे नहीं मिलता है। पिछले कुछ वर्षों से संस्कृति विभाग, संगीत नाटक अकादमी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे सरकारी संस्थानों ने केंद्र और राज्य के स्तर पर सरकारी अनुदानों का ऐसा जाल फैला रखा है कि एक बार लालच वश जो फँसता है, फिर निकल नहीं पाता है। जितना निकलने की कोशिश करता है, उसके पंख उतने ही उलझते जाते हैं। सरकारी अनुदान एक बार जिसे मिल जाता है, उसे पाने के लिए जिस स्तर तक गिरना पड़ता है, वह रंगकर्मी के रीढ़ की हड्डी इतना झुका देता है कि उसके बाद आत्म सम्मान के साथ खड़ा होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है। फिर उसके पास इतनी ही ताक़त बची होती है कि वह सत्ता के गलियारे में इधर-उधर चहल करते रहे, यही काफ़ी है।

अब तक केंद्र या राज्य में जो भी सरकार आती रहीं, उसने संस्कृति को तवज्जो नहीं दिया। उनको ज्ञात ही नहीं था कि राजनीति की जमीन पुख्ता करने में संस्कृति की कोई भूमिका भी होती है? नेहरू ने जरूर अपने समय में सांस्कृतिक चेतना में वृद्धि हेतु विभिन्न शहरों में प्रेक्षागृह का निर्माण करवाया। आज जितने भी रंग संस्थान देखते हैं, कहीं न कहीं उनकी अवधारणा का ही प्रतिफल है। एक बात और गौर करने की है, इन संस्थानों की अपनी स्वायत्ता होती थी। किस तरह की पढ़ाई हो, किस नाटक के मंचन का निर्धारण हो, इसके लिए संस्थान स्वतंत्र होता था। नाटकों के चयन के लिए इन संस्थानों को संस्कृति विभाग के आला अफसरों का मुँह नहीं देखना पड़ता था। न उन पर किसी राज सत्ता का कोई दबाव ही रहता था।

आज ऐसा नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से सत्ता की अनुमति के बिना किसी भी नाट्य संस्थान का पत्ता तक नहीं हिलता है। आजकल एक नया ट्रेंड आ गया है, सरकार के बदलते सारे शिक्षण संस्थानों के वाईस चांसलर एक सिरे से बदल दिये जाते हैं। स्कूल-कॉलेज के पाठ्य क्रम भी इसी झोंके में उलट-पलट कर दिये जाते हैं। अब इसके दायरे में नाट्य संस्थान भी आ गये हैं। नाट्य संस्थान इनकी नजरों से बचे हुए नहीं हैं। पिछले दिनों सत्ता ने इन नाट्य संस्थानों में चुन-चुन कर अपनी विचारधारा के लोगों को नियुक्त किया है। वैसे तो इनकी पॉकेट में अपनी विचारधारा के ढेर सारे लोग होते हैं। लेकिन इनमें सबसे ज्यादा लॉयल कौन है, विचारधारा के प्रति सबसे कट्टर कौन है, इसकी तलाश में कइयों साल भी लग जाते हैं। जब पात्र को हर तरफ से ठोंक बजा लेते हैं, तभी जेब से निकाल कर रख देते हैं। एनएसडी के नव निर्मित डायरेक्टर का चयन इसका सबसे नवीन उदाहरण है। वामन केन्द्रे के रिटायर होने के बाद सालों तक सुरेश शर्मा कार्यकारी निदेशक का पद संभाले रहे, उनके बाद दिनेश खन्ना और रमेशचन्द्र गौड़ भी निदेशक की कुर्सी पर खड़ाऊ निदेशक के रूप में तब तक आसीन रहे जब तक कि सत्ता का विश्वसनीय, विचारधारा के स्तर पर ठोस, निरीक्षण किया हुआ चितरंजन त्रिपाठी जैसा ‘यस मैन’ नहीं मिल गया। चितरंजन त्रिपाठी वही निर्देशक हैं जिनके द्वारा निर्देशित और एनएसडी रंगमण्डल द्वारा भीष्म साहनी लिखित उपन्यास ‘तमस’ के नाट्य रूपांतरण को तय तिथि के एक दिन पूर्व अर्जुन मेघवाल और बलबीर पुंज के आदेश पर स्थगित कर दिया गया था। जिस नाटक के मंचन को देश हित में रोक दिया गया था, निदेशक की कुर्सी पर बैठते चितरंजन त्रिपाठी ने प्रेस कॉन्फ़्रेस में ऐलान कर दिया कि इस वर्ष के अंत तक ‘तमस’ का फिर से मंचन किया जायेगा। अर्थात् जिस नाटक से देश की शांति और अमन-चैन भंग होने की आशंका थी, देश की सहिष्णुता और सद्भाव के भंग होने का ख़तरा था, चितरंजन त्रिपाठी के नाम की घोषणा के बाद नाटक सारे लगाये गये आरोपों से मुक्त हो गया।

पिछले कुछ वर्षों में एनएसडी, भारतेंदु नाट्य अकादमी, मध्य प्रदेश स्कूल ऑफ ड्रामा में निदेशक से लेकर इन संस्थानों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की जो बहाली हुई है, उनका आधार योग्यता से अधिक पार्टी की विचारधारा के प्रति आस्था प्रदर्शन महत्वपूर्ण और उनके व्यक्तित्व का प्लस पॉइंट रहा है। सत्ता के प्रति निष्ठा रखने वालों को जब यथोचित पुरस्कार मिल जाता है तो केवल पुरस्कृत व्यक्ति का ही मनोबल नहीं बढ़ता है बल्कि दूसरों के लिए भी प्रेरणा दायक साबित होता है। उन्हें लगता है जितना अधिक वे खुद को धार्मिक, पार्टी के करीबी घोषित करेंगे, सत्ता की नजर में अपने लिये भविष्य में कोई पक्की जगह बनाने में सफल साबित होंगे। इसलिए अगर कुछ रंगकर्मियों को सोशल मीडिया में अगर ललाट पर त्रिपुण्ड लगाते या महाकाल की जयघोष लगाते देखे तो इस भ्रम में न पड़ जाएँ कि वह रंगकर्मी धार्मिक हो गया है या धर्म के प्रति आस्थावान हो गया है। जान जाइए कि उसकी निगाहें कहीं और है, निशाना कुछ और है।

पूर्व में इब्राहिम अलकाजी, कारन्त, रामगोपाल बजाज और रतन थियम जैसे डायरेक्टर के सम्मुख शायद ही सत्ता द्वारा दबाव डाले गये होंगे, जैसा इन दिनों देखने को मिलते हैं। अब तो ये हाल है कि इन संस्थानों में कौन से नाटक होने हैं, इनका चयन समिति नहीं करती। करती भी है तो उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। चयनित नाटकों की सत्ता से बगैर संस्तुति लिए करना संभव नहीं है। कई बार तो इन सरकारी नाट्य संस्थानों में ऊपर से आदेश आते हैं कि इन विषयों पर नाटक तैयार करें। ये नाटक वैसे होते हैं जो सत्ता की संस्कृति और विचारधारा को सामने लाते हैं। संस्थानिक रंगकर्मी जो शास्त्रीयता का राग अलापते हुए नाटक में प्रचार का पुरजोर खंडन करते हैं, वे नाट्य संस्थान द्वारा पार्टी प्रचारिकता वाली प्रस्तुतियों पर कुछ नहीं बोलते हैं। अक्सर मौन मुद्रा में समाधिस्थ दिखते हैं। ये कोई संयोग नहीं है कि जिन नाट्य संस्थानों पर सत्ता से लेकर शिक्षण तक कब्जा हो गया है, वहाँ एक एजेंडे के तहत नाट्य प्रशिक्षण हो रहा है। वहाँ एक मकसद से ऐसे नाटकों के मंचन हो रहे हैं। उनका उद्देश्य होता हैं नाटक को समाजिकता से काट कर पौराणिकता पर केंद्रित करना। पौराणिकता के बहाने लोगों के अंदर एक संकीर्ण दृष्टिकोण उत्पन्न करना। दूसरे धर्म के प्रति नकारात्मकता पैदा करना ताकि जरूरत पड़ने पर उनसे राजनीति की रोटियाँ सेंकवायी जा सके। ऐसे नाटक अनायास नहीं होते हैं, सत्ता द्वारा निर्देशित होते हैं। ऐसे विषयों के लिए अतिरिक्त राशि, अनुदान भी मुहैया कराये जाते हैं। एनएसडी, बीएनए, एमपीएसडी जैसे नाट्य संस्थानों में पिछले दिनों दीनदयाल उपाध्याय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी और सावरकर जैसे हिन्दुवादी विचारधारा वाले राजनीतिज्ञ और एनआरसी के मुद्दे पर नियोजित ढंग से नाटक किए गये, वे सत्ता द्वारा थोपे गये निर्णयों के ही परिणाम थे। राजनीतिज्ञों का दबाव था कि ऐसे नाटक किए जाए। न केवल ऐसे नाटक संस्कृति के केन्द्र में हो, बल्कि ऐसे नाटकों को रोका जाए जो सत्ता की विचारधारा की विरोध में हो। जो नाटक समानता, सद्भाव की बात करता हो, उसे बाहर का रास्ता भी दिखाया जाए। गत भारंगम में पश्चिम बंगाल की एक संस्था की प्रस्तुति ‘तितुमीर’ को अंतिम क्षणों में रोक दिया गया क्योंकि उत्पल दत्त के इस नाटक का नायक माइनॉरिटी क्लास का है, स्वतंत्रता आंदोलन में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख है।

पार्टी का रंगकर्म पर सीधा दबाव देने का यह असर देखने को मिलता है कि प्रस्तुति सिकुड़ी, सहमी सी दिखती है। लगता है किसी ने रंगकर्मियों के हाथ-पैर बाँध रखे हैं। चेहरे सहमे हुए हैं। कुछ बोलना चाहते हैं, पर उनके होंठ जैसे सील दिये गये हो। आज देश भर में रंगकर्म का भी यही हाल है। जिस तरह की बंदिश इन दिनों रंगमंच पर है, रंगकर्मियों ने कभी महसूस नहीं किया है। अभिव्यक्ति के माध्यम पर तरह-तरह से अंकुश लगाये जा रहे हैं। सत्ता के खिलाफ रंगकर्मी नाटक करने से सहम रहे हैं। जिस तरह प्रतिरोध करने वाले राजनीतिज्ञों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों को झूठे मुकदमों, आरोपों में जेल के अंदर डाले जा रहे हैं, उनको देख कर रंगकर्मी सकते में हैं, सहमें हुए भी हैं।

दबाव में रंगमंच का चेहरा कैसा हो जाता है, इसे अगर देखना है तो एनएसडी-बीएनए का उदाहरण सबके सामने हैं। इन संस्थानों की प्रस्तुतियों से लेकर शिक्षण पद्धति में जो गिरावट आयी है, वो किसी से छिपी नहीं है। जिन्हें इन संस्थानों पर कभी नाज था, आज अपनी विकृत-बदसूरत चेहरा को ख़ुद अपने से छिपाते नजर आते हैं।

गौरवशाली इतिहास को कब तक दुहराते रहेंगे? सत्ता के दबाव ने रंगमंच की जो हालात बना रखी है, उस पर कब चर्चा करेंगे? जो गुनहगार हैं, उन्हें कठघरे में कब खड़ा करेंगे? ये एक गंभीर सवाल है, इसे किसी भी हाल में नजरअंदाज नहीं कर सकते। आज नहीं तो कल इन जलते प्रश्नों से टकराना ही होगा। आप जवाब नहीं देंगे तो एक दिन इतिहास आपसे पूछेगा। तब आप क्या जवाब देंगे?

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राजेश कुमार

लेखक भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लाने वाले अभिनेता, निर्देशक और नाटककार हैं। सम्पर्क +919453737307, rajeshkr1101@gmail.com
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