भारत और म्यामांर के बनते-बिगड़ते रिश्ते
आज का म्यामांर और कल का बर्मा दक्षेक्ष (दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय संगठन)/ सार्क का सदस्य नहीं है बल्कि दक्षेस से यह सिर्फ एक पर्यवेक्षक के तौर पर जुड़ा हुआ है किन्तु पूर्वोत्तर के राज्यों से सटा हुआ म्यामांर सामरिक दृष्टि से हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। विश्व की नई महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर चीन के प्रत्यक्ष खतरे के मद्देनज़र म्यामांर के साथ हमारे दोस्ताना रिश्ते स्वत: अपनी अहमीयत रखते हैं क्योंकि म्यामांर के एकदम सिर पर बैठा चीन म्यामांर पर नियन्त्रण का कोई अवसर नहीं चूकता है।
पूर्वोत्तर राज्यों के विद्रोही संगठनों पर नियन्त्रण रखने के लिए भी हमें म्यामांर के सहयोग की अपेक्षा रहती है क्योंकि ऐतिहासिक, राजनीतिक और नृजातीय कारणों से इन संगठनों को म्यामांर के सीमावर्ती क्षेत्रों में शरण मिलती रही है। म्यामांर के साथ लगती 1643 किमी लम्बी अन्तरराष्ट्रीय सीमा पूर्वोत्तर में अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम राज्यों से होकर गुजरती है।
औपनिवेशिक दौर में 1927 तक भारत का हिस्सा रहा म्यामांर (बर्मा) आज अधिकांश भारतीयों के लिए एक बन्द किताब की तरह है। कुछ पढ़े-लिखे भारतीयों ने म्यामांर की लौह महिला कही जाने वाली आंग सान सू की का नाम जरूर सुन रखा है अथवा पिछले कुछ सालों में गोदी मीडिया में रोंहिग्या मुसलमानों से जुड़ी शरणार्थी समस्या के साम्प्रदायीकरण के संदर्भ में म्यांमार का कभी-कभार जिक्र होता रहा है; अन्यथा आम भारतीय को म्यामांर के भूगोल, इतिहास और राजनीति की बहुत कम जानकारी है।
वैसे हमारे देश के दक्षिणपन्थी राष्ट्रवादी जिस अखण्ड भारत की बात करते हैं, उसमें वे म्यामांर को भी शामिल करते हैं और इसका कारण औपनिवेशिक काल से बहुत पीछे तक जाता है जब हमारे पूर्वज म्यामांर को सुवर्णभूमि कहते थे और वहाँ बौद्ध और हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ था। यह एक आम मान्यता है कि हमारा बौद्ध धर्म म्यामांर में श्रीलंका होते हुए पहुँचा था किन्तु हिन्दू धर्म और संस्कृति की छाप भी बर्मियों के जीवन में देखी जा सकती है। वहाँ की कुल आबादी में से 4 प्रतिशत आबादी भारतीय मूल की है।
औपनिवेशिक काल में बंगाल प्रेसिडेंसी के लोग व्यापार-वाणिज्य और रोजगार आदि के सिलसिले में म्यामांर आते-जाते रहते थे। उस काल में हमारे देश की कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक हस्तियों ने भी म्यामांर की यात्राएँ की थीं। रविंद्रनाथ टैगोर 1916 और 1924 में म्यामांर गये थे। बांग्ला भाषा के एक और महत्त्वपूर्ण साहित्यकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के जीवन का महत्पूर्ण अंश वहीं गुजरा था। महात्मा गाँधी तीन बार 1902, 1915 और 1929 में म्यामांर गये थे। वे बर्मी समाज में महिलाओं को प्राप्त स्वाधीनता से प्रभावित थे किन्तु धुम्रपान की उनकी आदत को लेकर उन्हें शिकायत थी।
गाँधी जी ने म्यामांर में रह रहे भारतीयों को उस वक्त सलाह दी थी कि जिस तरह दूध में चीनी घुल जाती है, ठीक वैसे ही उन्हें भी बर्मी समाज और संस्कृति में रच-बस जाना चाहिए। बर्मी महिलाओं के दैहिक सौष्ठव और कर्मठता की प्रशंसा जवाहर लाल नेहरू ने भी की थी। उनका म्यामांर जाना 1937 में हुआ था। हमारे स्वाधीनता आन्दोलन के राष्ट्रीय नेताओं में जिनका नाम म्यामांर के साथ सबसे ज्यादा जुड़ा हुआ है, वे हैं सुभाष चन्द्र बोस। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब म्यामांर जापानियों के नियन्त्रण में चला गया था, तो उस वक्त बोस ने आज़ाद भारत की अपनी अन्तरिम सरकार का मुख्यालय सिंगापुर से रंगून स्थानांतरित कर दिया था। इससे पूर्व 1925 से 1927 तक बोस ने मांडले की जेल में दो साल भी गुजारे थे।
4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से आज़ाद हुए म्यामांर का राजनीति इतिहास बारम्बार सेना द्वारा लोकतन्त्र को कुचलने का रहा है। 1962 तक वहाँ लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकारें निर्वाचित होती रही थी लेकिन 1962 में जनरल ने विन ने तख्तापलट करके प्रधानमंत्री यू नु को बेदखल कर दिया और 1947 के संविधान को भी स्थगित कर दिया। 1974 में ने विन द्वारा एक नया संविधान लागू करके म्यामांर में एक दलीय शासन व्यवस्था स्थापित कर दी गयी। 1988 में भ्रष्टाचार आदि के खिलाफ हुए व्यापक जन असंतोष के बाद यू नू को सत्ता से औपचारिक रूप से हटना पड़ा।
2007 में ईंधन के दामों में हुई अभूतपूर्व बढ़ोतरी ने जिस सैफ्रन क्रांति को जन्म दिया, उसके कारण 2008 में सेना को नया संविधान लागू करते हुए बहुदलीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्वीकार करना पड़ा किन्तु इस संविधान में इस तरह के प्रावधान रखे गये कि सेना पर्दे के पीछे से वास्तविक सत्ता सूत्र अपने हाथों में रख सके। 2020 के पिछले आम चुनाव में आंग सान सू की के नेतृत्व में उनकी पार्टी एनएलडी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था और सरकार भी उनके नेतृत्व में बनाई गयी थी किन्तु 2021 में एक बार पुन: म्यामांर की सेना, जिसे जुंता कहा जाता है, ने लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी सरकार का तख्तापलट कर दिया और वर्तमान में सू की को नज़रबन्द किया हुआ हुआ है। ध्यातव्य है कि सू की के पिता आंग सान को ही एकीकृत बर्मा के गठन का श्रेय दिया जाता है और उन्हें बर्मा का राष्ट्रपिता भी कहा जाता है।
जहाँ तक म्यामांर के साथ हमारे राजनयिक सम्बन्धों की बात है, तो चीन के संदर्भ में इनमें उतार-चढ़ाव साफ-साफ देखा जा सकता है। लोकतान्त्रिक आदर्शों में यकीन रखने के कारण म्यामांर के सैन्य शासन के साथ रिश्तों में सहजता और जीवन्तता का आना उस तरह से संभव भी नहीं हो सकता था। म्यामांर के पहले राष्ट्रपति यू नू, जिन्हें प्यार से बर्मी लोग थकिन यू भी कहते हैं, के दौर में भारत और म्यामांर के रिश्तों में बहुत घनिष्ठता थी। नेहरू और यू नू के बीच वैयक्तिक दोस्ती थी।
दोनों राष्ट्रों के बीच की नजदीकी का ही प्रमाण था कि जब म्यामांर के सामने कम्युनिस्ट विद्रोहियों के कारण गम्भीर संकट पैदा हो गया था, उस वक्त भारत ने हथियार आदि की आपूर्ति करके इस नवस्वाधीन राष्ट्र की मदद की थी। वैधानिक प्रक्रिया के तहत हमारे देश की कुछ जमीन जब 1948 में म्यामांर ने हस्तगत की थी तब भी नेहरू सरकार ने दोनों राष्ट्रों के बीच के रिश्तों में तल्ख़ी नहीं आने दी थी। बाद में म्यामांर में जब लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी यू नू की सरकार को अपदस्थ कर दिया गया और एक दलीय सैन्य शासन स्थापित हो गया, तो दोनों देशों के बीच रिश्तों में भी ठंडापन आ गया क्योंकि भारत की लोकतान्त्रिक सरकारों ने म्यामांर के सैन्य शासन की नाखुशी की कीमत पर भी वहाँ लोकतन्त्र की पुनर्वहाली का पुरजोर समर्थन किया।
1991 में दिल्ली में पी.वी. नरसिंहराव की सरकार बनने पर दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने लगी क्योंकि उनके वक्त म्यामांर की सैन्य सत्ता के प्रति हमने अपने रुख में रणनीतिगत बदलाव लाते हुए अपनी कूटनीति को आदर्श से व्यावहारिक धरातल पर लाना आरम्भ कर दिया था। पूर्वोत्तर के विद्रोही गुटों पर लगाम कसने के लिए हमें म्यामांर के सहयोग की जरूरत थी। लुक ईस्ट पॉलिसी के तहत तत्कालीन केंद्र सरकार ने म्यामांर के सैन्य शासन के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध सुधारने की पहल की।
म्यामांर और भारत के बीच के कूटनीतिक सम्बन्धों का वर्तमान दौर 2002 से शुरु होता है जब दोनों देशों के बीच विभिन्न मोर्चों पर व्यापक पारस्परिक सहयोग पर बल दिया जाना आरम्भ होता है। 2018 में एक द्विपक्षीय समझौते के तहत दोनों देशों के बीच मुक्त आवाजाही की व्यवस्था (एफएमआर- फ्री मूवमेंट रिजाइम) तक आरम्भ की जाती है। इसके तहत बिना वीजा के ही दोनों देशों के नागरिक अन्तरराष्ट्रीय सीमा के दूसरी ओर 16 किमी के दायरे तक आ-जा सकते हैं। आपसी रिश्तों में आने वाली इस गर्माहट को दोनों के बीच होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। 2021-22 में हमारा द्विपक्षीय व्यापार 1.03 बिलियन डॉलर तक पहुँच चुका था। आज की स्थिति में भारत म्यामांर का पाँचवा बड़ा व्यापार सहयोगी है।
पारस्परिक आयात-निर्यात को बढ़ावा देने के लिए जलीय और स्थलीय, दोनों प्रकार के मार्गों को सुगम बनाने पर कार्य किया जा रहा है। इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि भारत ने आधारभूत ढाँचे से जुड़ी म्यामांर की कई बड़ी विकास परियोजनाओं में निवेश किया हुआ है। इनमें से एक है कलादान मल्टी मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट परियोजना। इसका लक्ष्य कोलकता के बन्दरगाह को म्यामांर के सित्वे बन्दरगाह के साथ जोड़ना है ताकि माल ढुलाई में समुद्री मार्ग का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके। परिवहन की दृष्टि से एक और महत्वाकांक्षी परियोजना है- इंडिया-म्यामांर-थाईलैंड ट्राइलेटरल हाईवे प्रोजेक्ट। भारत, म्यामांर और थाईलैंड के बीच एक अन्तर्राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण इसके तहत किया जाना है। यह राजमार्ग मणिपुर के मोरे से शुरु होकर म्यामांर से गुजरते हुए थाईलैंड के माई सॉट तक जाएगा।
सैन्य क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच घनिष्ठ भागीदारी देखी जा सकती है। भारत जहाँ म्यामांर को सैन्य प्रशिक्षण मुहैया कराता है, वहीं दोनों के बीच संयुक्त युद्धाभ्यास भी होता है। भारत-म्यामांर के बीच नियमित रूप से होने वाले द्विपक्षीय सैन्य अभ्यास का नाम है आईएमबीएएक्स (इंडिया-म्यामांर बाईलेटरल आर्मी एक्सरसाइज)। भारत ने विकासात्मक सहयोग के रूप में म्यामांर को 2 बिलियन डॉलर का ऋण भी मुहैया करवाया है। कोविड 19 से लेकर मोरा चक्रवात (2017), कोमेन चक्रवात (2015) और भूकंप (2015) जैसी प्राकृतिक आपदाओं में मानवीयता के आधार पर हमने तत्काल और प्रभावी ढंग से म्यामांर की सहायता करके यह साबित किया है कि हम म्यामांर के साथ एक अच्छे पड़ोसी का धर्म निभाने को लेकर प्रतिबद्ध हैं।
भारत और म्यामांर के साझे ऐतिहासिक-धार्मिक और सांस्कृतिक आयामों के बीच पनपते इन पारस्परिक रिश्तों से ऐसा लगने लगा था कि इन दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों और आपसी सहयोग की जो गाड़ी पटरी से उतर चुकी थी, वह अब फिर से सही रास्ते पर दौड़ने लगी है किन्तु जिस प्रकार 2021 में लोकतन्त्र को खत्म करके फिर से सैन्य हुकूमत ने वहाँ सब कुछ खुल्लमखुल्ला अपने हाथों में ले लिया, उससे वहाँ हिंसा प्रतिहिंसा का भयावह दौर चल पड़ा है। लोकतन्त्र समर्थक लोगों में भयावह असंतोष पैदा हो गया है। लोकतन्त्र के लिए आन्दोलत जनता का ध्यान भटकाने के लिए आराकान की मुसलिम आबादी, जो आराकान के ऐतिहासिक नाम रोहांग के आधार पर रोहिंग्या कहलाती है, के खिलाफ अभियान चलाकर उसे देश छोड़ने के लिए बाध्य किया जाना भारत और बंगला देश जैसे पड़ोसी देशों के लिए रोंहिग्या मुसलमानों के रूप में शरणार्थी संकट साबित हुआ है।
एक ओर जहाँ शरणार्थी बनकर हमारे यहाँ घुसपैठ करने वाले रोहिंग्या मुसलमान हमारे संसाधनों पर बोझ सदृश्य हैं, वहीं पूर्वोत्तर के आदिवासी राज्यों में इनके खिलाफ अस्मितावादी राजनीति भी उभरती देखी जा सकती है। रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ आक्रामक कार्यवाही करने वाली म्यामांर की सैन्य सरकार की निरंकुशता के खिलाफ वहाँ के नृजातीय समूह भी अब हिंसक प्रतिरोध पर उतर चुके हैं। हथियारबन्द विभिन्न नृजातीय संगठन (ईएओज-एथनिक आर्म्ड ऑर्गेनाइजेशन्स) और पीपुल्य डिफेन्स फोर्स संयुक्त रूप से म्यामांर की सेना ‘जुंता’ के साथ सफलतापूर्वक आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहे हैं। देश के कुल क्षेत्रफल का 45 फीसदी भाग अब जुंता की पकड़ से निकल चुका है। शान, काचिन और चिन समुदाय के असंतोष को सैन्य ताकत के बल पर दबा पाना अब जुंता के बस की बात नहीं लग रही है।
म्यामांर में जारी राजनीतिक अस्थिरता और गृहयुद्ध जैसी स्थितियों के कारण पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी राज्यों में शरणार्थियों के तांता लग जाने से आशंकित भारत सरकार म्यामांर के साथ अपने रिश्तों पर पुनर्विचार के लिए बाध्य है। म्यामांर में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जारी हिंसक संघर्ष के बीच कुकी और चिन आदिवासी लोगों का अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पार कर गैर कानूनी ढंग से पूर्वोत्तर के राज्यों में पनाह लेना केंद्र और पूर्वोत्तर के इन राज्यों के बीच भी तनाव का कारण बनता जा रहा है। मणिपुर में चल रहे कुकी-मैतेई संघर्ष का एक पहलू इस गैर कानूनी घुसपैठ से भी जुड़ा बताया जाता है। हमारे देश से लगते म्यामांर के सीमावर्ती इलाकों में विस्फोटक होती स्थितियों के मद्देनज़र भारत सरकार का गृहमंत्रालय अस्थायी तौर पर एफएमआर पर रोक लगा चुका है और म्यामांर से लगती हमारी पूरी की पूरी सीमा पर बाड़बंदी करके पारस्परिक आवागमन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की दिशा में गम्भीरतापूर्व विचार किया जा रहा है।
भारत और म्यामांर के बीच पारस्परिक आवागमन पर रोक और बाड़बंदी की खबरों से पूर्वोत्तर के आदिवासी राज्यों में काफी चिंता और आक्रोश देखा जा सकता है। नागालैंड राज्य विधानसभा इसके खिलाफ प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है। वास्तव में स्थानीय आदिवासियों से बिना सलाह-मशविरा किये औपनिवेशिक सत्ता ने कृत्रिम सीमा-रेखा खींचकर आदिवासियों को दो देशों में बाँटने की जो गलती की थी, एफएमआर द्वारा उस गलती को किंचित दुरुस्त किया जा सका था। अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के दोनों ओर साझा आदिवासी आबादी का होना एक ऐसी वास्तविकता है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। इनके पारिवारिक-सांस्कृतिक सम्बन्ध राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं स्वीकार करते। पारस्परिक व्यापार की दृष्टि से भी सीमा के आरपार स्थानीय आबादी की आवाजाही अपेक्षित है।
वास्तव में म्यामांर की अंदरुनी राजनीतिक अस्थिरता और पूर्वोत्तर की जनसांख्यिकी और भूगोल के मद्देनज़र भारत को बहुत सोच-समझकर म्यामांर के साथ अपने सम्बन्धों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। एक लोकतान्त्रिक देश होने के कारण म्यामांर में नृजातीय आदिवासी समुदायों पर जुंता द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से न हम मुँह मोड़ सकते हैं और न ही वहाँ की वर्तमान सैन्य सत्ता को नाराज करके वहाँ के विद्रोही समूहों के साथ संवाद ही कायम कर सकते हैं।
म्यामांर में जारी आपसी सत्ता संघर्ष में चीन जिस तरह दोनों पक्षों के साथ अपनी सहानुभूति दिखा रहा है, वह भारत के लिए एक अलग चिंता का विषय है। ये आशंकाएँ भी जताई जा रही हैं कि यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर के विद्रोही संगठन सीमावर्ती क्षेत्र में जारी इस उथलपुथल का बेजा फायदा उठा सकते हैं।
अस्तु, केंद्र सरकार को जमीनी धरातल की ठोस स्थितियों को परखते हुए भारत के राष्ट्रीय और पूर्वोत्तर के क्षेत्रीय हितों को साधना होगा। भारत की विदेश नीति के नियंताओं को म्यामांर पर जापान के कब्जे को लेकर के.एम. पणिक्कर द्वारा कही गयी उक्ति को सदैव ध्यान में रखने की जरूरत है कि म्यामांर की सुरक्षा में ही भारत की सुरक्षा अन्तर्निहित है। अगर म्यामांर की सीमाएँ असुरक्षित होती हैं, उसकी अखण्डता खतरे में पड़ती है और वहाँ सत्ता संतुलन डगमगाता है, तो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से यह सब गम्भीर संकट का हेतु बन सकता है।