एतिहासिक

19 वीं सदी में समाजिक सुधार आन्दोलन और ताराबाई शिंदे

 

एक आधुनिक और स्वतंत्र मानव समाज की रचना की अनिवार्य शर्त स्त्री की स्वतंत्रता है – सामंती पुरूष प्रभुत्व वाले धर्मशास्त्रों और सामाजिक संहिताओं से उसकी मुक्ति। 19वीं सदी में विश्व के अनेक कोनों में दार्शनिकों – चिंतकों ने स्त्री प्रश्न पर गंभीरता से विचार किया गया। दुनिया के सामने ‘स्त्री-प्रश्न’ पर खुलकर बात करने वाले लोगो की संख्या सीमित थी। ऐसे में महिलाओं की स्थिति में सुधार करने के लिए समाज सुधार आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें दो अलग-अलग विचार प्रणाली वाले लोग थे। ये दोनों अपने आपको प्रतिक्रियावादी ही समझते थे। इसमें पहला गुट उदार विचारों से प्रभावित था। वे सामाजिक सुधार इसलिए चाहते थे क्योंकि समाज में जो बुराइयाँ थी, वे प्रजातांत्रिक विचारों के विरूद्ध थी। इस गुट के नेताओं को सुधारक कहा जाता था। ये सुधारक उच्च शिक्षित अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे, जिन पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव था। वे स्वतंत्रता समानता आदि में विश्वास करते थे। स्त्री-पुरूष समान अधिकार के समर्थक थे।

इसी समय भारतीय समाज में दूसरा गुट था जिनके मतानुसार भारत का हिन्दू समाज वैदिक कालीन परंपराओं से दूर होता जा रहा है। इनके मतानुसार वैदिक कालीन परंपरा तथा रीति-रिवाज प्रजातांत्रिक ही थे, लेकिन मध्यकाल में ह्नास व पतन हो चुके परंपराओं को पुनर्जीवित करना इस गुट का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था। वे उदारवादी विचारकों के समाज सुधार नहीं चाहते थे, लेकिन वैदिक कार्य का ही पुनर्जीवन करना चाहते थे। इन्हें पुनर्जीवनवादी (REVIVALISTS) कहा जाता था। इस तरह से समाज सुधार करना दोनों गुट के लोग चाहते थे, लेकिन दोनों के माध्यम अलग थे, सोचने का तरीका अलग था।

राजा राममोहन राय

महिलाओं के हित में जो समाज सुधार आन्दोलन चलें। उनमें सर्वप्रथम बंगाल के समाज सुधारक राजा राममोहन राय का नाम आता है। राज राममोहन राय का भारतीय सामाजिक इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन् 1818 में सती प्रथा के विरूद्ध उनकी पत्रिका ‘‘संबंध कौमुदी’’ में आवाज उठाई गयी थी। मोहन राय के जमाने में समाज में अनेक कुरीतियाँ फैली हुई थी, जैसे – शिशु हत्या, बहुविवाह, सती प्रथा, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा आदि। स्त्रियों को किसी प्रकार की शिक्षा नहीं दी जाती थी। उन्हीं के प्रयासों के कारण 1821 में सती प्रथा को रोकने के संबंध में लार्ड विलियम बैंटिक ने कानून बनाया। राजा राममोहन राय सती प्रथा के पीछे आर्थिक कारण को जिम्मेदार ठहराते हैं उनकी मान्यता थी – ‘‘स्त्रियों को पति की मृत्यु के उपरान्त केवल तीन ही मार्ग बचते हैं या तो वह विधवा के रूप में परिवार के किसी व्यक्ति पर निर्भर रहे या अपने जीवन यापन के लिए कोई गलत मार्ग अपनाएँ या फिर पति के साथ अपने आप को जिन्दा जला दे।’’1

ईश्वरचंद विद्यासागर

अर्थात् सती प्रथा के पीछे संपत्ति का उत्तराधिकार न देना ही स्त्रियों को जौहर करने पर मजबूर करती थी। ईश्वरचंद विद्यासागर बंगाल के एक ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होंने विधवा स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह के मार्ग खोल दिए। इसके पीछे विद्यासागर के साथ घटित घटना अधिक जिम्मेदार थी। विद्यासागर के गुरू की कन्या का विवाह एक ऐसे बुजुर्ग व्यक्ति से किया गया था जिसका शादी के एक साल बाद देहान्त हो गया। उनके गुरू की छोटी सी बेटी विधवा हो गई। यही कारण था कि विद्यासागर ने बाल विवाह का विरोध किया तथा विधवा पुनर्विवाह पर बल दिया। विद्यासागर दृढ़ संकल्पित होकर अपने विचारों पर अडिग रहे। सन् 1853 में ‘‘विडो रिमेरिज’’ नामक एक पुस्तक लिखी जो हाथों हाथ बिक गई। इससे रूढ़ीवादी मानसिकता को गहरा चोट पहुँचा। उन्हें जान से मारने की कोशिश भी की गई। इन सबके बावजूद ब्रिटिश सरकार ने 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर दिया। विद्यासागर स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे। इस क्षेत्र में उनका योगदान सराहनीय है। स्त्रियों की शिक्षा के लिए उनके द्वारा लिखित लेख ‘ज्ीम नजपसपजल मिउंसम मकनबंजपवदष् को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। वायसराय के कौंसिल सदस्य के बेथने प्रयत्नों से 1849 में उन्होंने महिलाओं के लिए एक विद्यालय खोला। प्रारंभ में महिलाओं से फीस नहीं ली जाती थी, साथ ही लड़कियों को विद्यालय में लाने के लिए कार भेजी जाती थी। इस तरह से लड़कियों को इज्जत के साथ शिक्षा देने का काम विद्यासागर ने किया।

महिलाओं के हालत सुधारने में अनेकों समाज सुधारकों द्वारा पहल की गई जिनमें महाराष्ट्र के महादेव गोविन्द रानाडे (न्यायधीश) का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने महिलाओं की हालत सुधारने का उल्लेखनीय कार्य किया – बाल विवाह पर रोक, विधवा पुनर्विवाह महिलाओं की शिक्षा तथा राष्ट्रीय सामाजिक परिषद की स्थापना आदि। उनका सबसे क्रांतिकारी कदम बाल विवाह को रोकने के लिए बेहरामजी मालाबारी के साथ मिलकर रानाडे ने ‘एज ऑफ कान्सेन्ट’ नामक कानून बनवाया था।

जी. के. देवधर महाराष्ट्र के समाज सुधारक थे, इन्होंने ‘सर्वेन्टस ऑफ इंडिया सोसायटी पर जोर देते थे। उनका मत था कि – ‘‘यदि महिलाएँ आर्थिक दृष्टि से आत्म – निर्भर हो जाती है तो वह सामाजिक असामनता से झगड़ सकती है।’’2 उनकी मान्यता थी स्त्री-पुरूषों से किसी भी प्रकार निम्न नहीं है। उन्हें निम्न समझना एवं उन्हें उसी तरह की परिस्थिति में रखना उनके साथ अन्याय करना है।

पंडिता रमाबाई

पंडिता रमाबाई ने भारत में महिला जागृति के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। रमाबाई महाराष्ट्र में उच्च कुलीन ब्रंह्यमण परिवार में जन्म लिया था। घर की गरीबी के कारण माता-पिता तथा भाई-बहनों को भूख से मरते हुए देखा था। शायद यही वजह है कि उसने नीची जाती के नौजवान से विवाह किया, लेकिन जल्द ही विधवा हो गई। आगे चलकर उन्होंने महिलाओं के उत्थान में अभूतपूर्व योगदान दिया। 11 मार्च 1889 में शारदा सदन नामक विधवाश्रम की स्थापना की। बाल-विवाह को अभिशाप के रूप में देखती थी। बाल-विवाह के संदर्भ में कहती थी – ‘‘हिन्दू समाज में एक कन्या का बचपन कब खत्म होता है और कब उसका वैवाहिक जीवन प्रारंभ होता है यह कहना मुश्किल है।’’3

कन्या के दुखों के लिए माँ-बाप को दोषी ठहराती है। लड़कियों के लिए शिक्षा की कितनी आवश्यकता है इसके बारे में अपने विचार, लेखों, व्याख्यानों तथा चर्चा के माध्यम से समाज के सामने शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करती है। उनकी ‘दी हार्ड कास्ट हिन्दु वुमन’ नामक पुस्तक बहुत प्रसिद्ध है जो उनके स्वयं के अनुभवों पर लिखी गई थी। जिसमें उन्होंने हिन्दु समाज में फैली कुरीतियों का वर्णन किया था।

पुनर्जीवनवादी विचारक वे थे जो उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे, अंग्रेजी विचारों से प्रभावित थे, लेकिन हिन्दु धर्म को मानने वाले थे। लेकिन साथ ही हिन्दु धर्म में आई बुराइयों को दूर करना चाहते थे। समाज में नई जागृति लाना चाहते थे। इनमें प्रमुख विचारक थे स्वामी दयानंद सरस्वती, एनी बेसेंट, विवेकानंद आदि।

स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती हिन्दु धर्म तथा हिन्दु दर्शन से बहुत प्रभावित थे। भारत में सामाजिक एवं धार्मिक जागरण लाने में अग्रणी भूमिका निभाई। 10 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की। वे अन्याय, अज्ञान तथा अंधविश्वास के विरूद्ध थे। जाति प्रथा के बारे में उसका मत था कि – ‘‘जाति जन्म से निश्चित नहीं होगी वरन् कर्म से होती है।’’4

स्त्री शिक्षा को लेकर उनके मत बहुत स्पष्ट थे उनका मानना था कि – ‘‘स्त्रियों को शिक्षा देने से वे घर में तथा घर के बाहर अपने कत्र्तव्यों का अच्छी तरह से निर्वाह कर सकती है।’’5 आधुनिक विचारों से प्रभावित सरस्वती लड़कियों के लिए वह अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी, विज्ञान तथा हस्तकला का प्रशिक्षण देने का सुझाव देते थे।

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। वे पाश्चात्य शिक्षा के साथ-साथ वैदिक धर्म से भी प्रभावित थे। विवेकानंद समाज सुधारना चाहते थे। उनके अनुसार उस समय समाज में केवल दो ही बुराइयाँ थी – जाति प्रथा तथा महिलाओं की दयनीय स्थिति। स्वामी जी पाश्चात्य महिलाओं की स्वतंत्रता तथा शिक्षा से काफी प्रभावित थे। उनका मत था कि यदि महिलाओं को उचित शिक्षा दी जाती है तो वे अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझा सकती है। अर्थात शिक्षा के सहारे आर्थिक रूप से सशक्त होकर अपनी स्थिति में सुधार ला सकती है। जबकि प्रभा खेतान अपनी पुस्तक – उपनिवेश में स्त्री में लिखती है – ‘‘स्त्री के लिए केवल आर्थिक स्वतंत्रता काफी नहीं। केवल आर्थिक विकास से भारत जैसे देश की स्त्रियों की समस्या नहीं सुलझेगी। आर्थिक परिवर्तन के संदर्भ में राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलन की जरूरत है।’’6

स्वामी जी बाल-विवाह के विरूद्ध थे। बाल विवाह के संदर्भ में उनका कहना था कि जब कम उम्र में कोई लड़की बच्चे को जन्म देती है तो बच्चे का उचित विकास नहीं पाता है, जिसकी वजह से बच्चे जल्दी मर जाते है। समाज के उत्थान के लिए उन्होंने वेदान्त समाज, शान्ति आश्रम, रामकृष्ण सेवाश्रम तथा रामकृष्ण होम की स्थापना की। स्वामी जी समाज में बढ़ती एवं गहराती सामाजिक खाई से चिंतित रहते थे। स्त्रियों की ‘स्थिति पर विचार करते हुए कहते हैं – ‘‘आज जो असामाजिक संस्थाऐं विकसित हुई हैं वे महिलाओं की स्थिति दिन-प्रतिदिन नीचा बना रही है। अतः इन असामाजिक रूढ़ियों का विनाश होना चाहिए।’’7

वैदिक काल में स्त्रियाँ स्वतंत्र एवं शिक्षित थी उन्हें समाज में आदर प्राप्त था। स्वामी महिलाओं की निम्न स्थिति के लिए बौद्ध धर्म को दोषी मानते थे, जिसने महिलाओं को धर्म स्वीकार करने की अनुमति दी लेकिन लिंग भेद अपनाया।

ताराबाई शिंदे
ताराबाई शिंदे

ताराबाई शिंदे 19वीं सदी के भारतीय समाज में सशक्त महिला के रूप में उभरती हैं। जिन्होंने आज से सवा सौ सालसे भी पहले स्त्रियों के दासता के खिलाफ एक पुस्तक लिखी ‘स्त्री पुरूष तुलना’ यह पुस्तक अपनी तर्कशीलता और प्रखरता के कारण अपने समय की सीमा को लाँघती है। यह उन स्त्री-पुरूषों के लिए है जो समानता और स्वतंत्रता में विश्वास रखते हैं। 19वीं सदी के भारतीय समाज और उसमें स्त्रियों की स्थिति के अध्ययन के लिए संभवतः भारत में पहली बार किसी स्त्री ने स्त्री प्रश्न पर इतने आवेग और तर्कपूर्ण ढंग से लिखा यह पुस्तक नारी – मुक्ति संबंधी विचारों के शुरूआती दस्तावेज के रूप में देखा जा सकता है। यह पुस्तक 19वीं सदी के भारतीहय समाज को एक स्त्री के दृष्टि से देखने का आग्रह करती है।

ताराबाई बरार प्रांत के बुलढ़ाना शहर में रहने वाले एक प्रभावशाली मराठा परिवार में जन्मी थी। उनके पिता बापू जी हरिशिंदे शहर में डिप्टी कमिशनर के दफ्तर में हेड क्लर्क थे, या यूँ कहे आर्थिक रूप से सक्षम परिवार था। ताराबाई का परिवार ज्योतिबा फुले के ब्राह्ममणवाद विरोधी आन्दोलन से जुड़ा हुआ था। बापू हरिशिंदे सत्य शोधक समाज के सदस्य थे और ज्योतिबा फुले से काफी अच्छे संबंध भी थे। सुधार संस्था से जुड़े होने के कारण बेटी को खूब शिक्षित होने का अवसर प्रदान किया। ताराबाई मराठी के अलावा संस्कृत और अंग्रेजी भी जानती थी। ताराबाई निःसंतान विधवा थी। उनका दूसरा विवाह ब्राह्ममण के रूढ़िवादी रीति के अनुसार नहीं हो पाया। ब्राह्ममणों द्वारा स्त्रियों को अशिक्षित रखने और उन पर तरह – तरह के दोष मढ़ने के प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए 1882 में ‘स्त्री पुरूष तुलना’ नामक पुस्तक लिखी। इसके बदले में इन्हें तीखी आलोचना और हमले सहने पड़े। ताराबाई ने अपने लेखन में स्त्री धर्म, परिवारिक धर्म आदि के खिलाफ नैतिकता का सवाल उठाया। उन्होंने अपने नैतिक – बोध और उचित – अनुचित के विवेक के आधार पर शास्त्रों में वर्णित और लोक में प्रचलित पतिव्रत धर्म को नामंजूर करते हुए लिखती हैं – ‘‘जब किसी का उचित – अनुचित का विवेक जग जाए तो ऐसे में स्त्री धर्म का पालन कैसे हो सकता है? भले – बुरे के ज्ञान के बाद क्या ऐसे स्त्री का धर्म पर विश्वास बना रह सकता है?’’8

इतिहास में चीजें कभी भी अपनी तयशुदा सीमाओं में नहीं रहती है। समय के साथ उनमें बदलाव निश्चित ही आती है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पुरूष सुधारकों के नई विचार स्त्रियों को नए सिरे से और ज्यादा मर्यादा में बाँधने की कोशिशि करते थे।

प्राचीन संस्कृत ग्रंथों के हवाले से लेखिका ने अपनी बातों को जगह – जगह पुष्ट किया है। मिथक के उदाहरण दिए है, लोकाचार, सत्य व परंपरा की बातें की है, पर साथ ही इसमें जगह – जगह तार्किकता और बौद्धिकता का बेजोड़ सामंजस्य भी है। प्रारंभिक पुस्तक होने के बावजूद इसकी सबसे बड़ी विशेषता है – यह प्रचलित मान्यताओं पर प्रश्न खड़े करती है और कहीं – कहीं तो बहुत ज्यादा आक्रमक हो उठती हैं। 19वीं सदी में महिलाओं का मानसिक क्षितिज धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों, संहिताओं, परंपराओं, रिवाजों से संचालित किया जाता था। पूरे समाज पर धार्मिक रूढ़िवादी, ब्राह्ममणवादी विचार पोषकों का बोलबाला था अर्थात् उनके विचारों से इतर किया गया हर काम धर्म – विरोधी होता था और ऐसे काम करने वालों को भीषण अपमान व विरोध का सामना करना पड़ता था। ताराबाई इससे घबराई नहीं बल्कि मजबूती के साथ स्त्रियों का पक्ष रखा और कई सवालों के माध्यम से व पितृसत्ता से कटघरे में खड़ा किया। शिक्षित मध्यम वर्ग पर तंज कसते हुए लिखती हैं – ‘‘तुमने अपने हाथों में सब धन दौलत रख कर नारी को कोठी में दासी बना कर, धौंस जमा कर दुनिया से दूर रखा। उस पर अधिकार जमाया। नारी के सद्गुणों को दुर्लक्षित कर अपने ही गुणावगुणों के दिये तुमने जलाए। नारी को विद्या प्राप्ति के अधिकार से वंचित कर दिया। उसके आने – जाने पर रोक लगा दी। जहाँ भी वह जाती थी, वही उसे समान अज्ञानी स्त्रियाँ ही मिलती थी। फिर दुनियादारी की समझ कहाँ से सीखती वह?’’9

ताराबाई शिंदे
ताराबाई शिंदे

ताराबाई शिंदे अंग्रेजी राज की सराहरना करती है। उनका मत है कि अंग्रेजी शासन कायम होने से स्त्रियों की स्थिति में सुधार आया है। एक विश्वास भी मन में जागृत हुई है कि भविष्य में स्त्रियों की दशा एवं दिशा में परिवर्तन आयेंगी। लेखिका कहती है –

‘‘ईश्वर यह अंग्रेज सरकार की शासन – प्रणाली ही कायम रखें। कम से कम इन अंग्रेजों ने तो स्त्रियों को पढ़ा – लिखाकर सुशिक्षित करने पर जोर दिया और इस विद्यादान के कारण व्यवहारिक एवं मानसिक अपमानों के क्षणों में भारतीय नारी अपना मानसिक संतुलन धैर्य से बना कर खड़ी हो गई। उसका अज्ञान दूर हुआ और सत्य, धर्म, स्वधर्म सब की जानकारी उन्हें मिली। इसमें इस भारतवर्ष की स्थिति में अवश्य बदलाव आएंगे।’’10

विधवा पुनर्विवाह की हिमायती ताराबाई ने समाज को स्त्री – पुरूष को समान नजर से देखने का आग्रह किया। उनके मतानुसार अगर पति की मृत्यु हो जाती है तो पत्नी आजीवन विधवा रहने को विवश रहती है जबकि पुरूष के साथ ऐसा नहीं है, वे कहती हैं – ‘‘तुम तो पहली की मृत्यु के पश्चात् दसवें ही दिन दूसरी को ब्याह कर लाते हो। बताओ भी कौन – से ईश्वर ने तुम्हें ऐसी सलाह दी है? जैसी स्त्री वैसा ही पुरूष। तुम में ऐसे कौन से अलौकिक गुण विद्यामान है, तुम कौन से ऐसे शूर और जांबाज हो कि जिसकी वजह से परमपिता ने तुम्हें ऐसी स्वतंत्रता दी है?’’11

निष्कर्ष 

19वीं सदी नवजागरण का दौर था। दुनिया भर में सामाजिक, राजनैतिक बदलाव आये। विश्व के अनेक कोनों में दार्शनिकों – चिंतकों ने समाज में बुनियादी परिवर्तन लाने के अपने विचार व्यक्त किये। सामंती पुरूष प्रभुत्व वाले धर्मशास्त्रों और सामाजिक संहिताओं के खिलाफ आवाजें उठने लगी। भारत में बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे जगहों पर सामाजिक सुधार आन्दोलन जोर – शोर से चल रहा था। परिणामतः समाज में आमूल-चूल परिवर्तन आए। सदियों से चली आ रही सती प्रथा, विधवा, बाल विवाह, अशिक्षा की जकड़न से स्त्रियों को मुक्त किया गया। जिसमें पाश्चात्य शिक्षा व अंग्रेजों का सहयोग अभूतपूर्व है। ताराबाई शिंदे भी इस बात की पुष्टि करती है। शास्त्रों और पुराणों का हवाला देकर जो पुरूष पतिव्रत धर्म की वकालत करते थे। ताराबाई ने उन शास्त्रों और पुराणों को ही चुनौती दे दी। शास्त्रों और पुराणों की असंगतियों को दिखाते हुए तारबाई ने स्त्री धर्म की विवेकहीनता और अनैतिकता को उजागर करते हुए पूरे पितृसत्ता को कटघरे में खड़ा कर दिया है

संदर्भ ग्रंथ सूची

1. भारतीय समाज में नारी, डॉ. प्रभा आप्टे, क्लासिक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, संस्करण 1996, पृ. सं. – 34-35

2. भारतीय समाज में नारी, डॉ. प्रभा आप्टे, क्लासिक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, संस्करण 1996, पृ. सं. – 42

3. भारतीय समाज में नारी, डॉ. प्रभा आप्टे, क्लासिक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, संस्करण 1996, पृ. सं. – 45

4. भारतीय समाज में नारी, डॉ. प्रभा आप्टे, क्लासिक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, संस्करण 1996, पृ. सं. – 50

5. भारतीय समाज में नारी, डॉ. प्रभा आप्टे, क्लासिक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, संस्करण 1996 पृ. सं. – 50

6. उपनिवेश में स्त्री, प्रभा खेतान, राजकमल प्रकाशन संस्करण 2014, पृ. सं. – 34

7. भारतीय समाज में नारी, डॉ. प्रभा आप्टे, वलासिक पब्लिशिंग हाउस, जयपुर, संस्करण 1996, पृ. सं. – 51

8. स्त्री – पुरूष तुलना, ताराबाई शिंदे (अनूदित) जुई पालेकर, संवाद प्रकाशन मेरठ, संस्करण 2015, पृ. सं. – 45

9. स्त्री – पुरूष तुलना, ताराबाई शिंदे (अनूदित) जुई पालेकर, संवाद प्रकाशन मेरठ, संस्करण 2015, पृ. सं. – 25

10. स्त्री – पुरूष तुलना, ताराबाई शिंदे (अनूदित) जुई पालेकर, संवाद प्रकाशन मेरठ, संस्करण 2015, पृ. सं. – 26

11. स्त्री – पुरूष तुलना, ताराबाई शिंदे (अनूदित) जुई पालेकर, संवाद प्रकाशन मेरठ, संस्करण 2015, पृ. सं. – 28

 

शोधार्थी–  रुचि कुमारी

दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया हिन्दी विभाग

शोध निर्देशक–  प्रोफेसर सुरेश चन्द्र

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रुचि कुमारी

लेखिका दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया में शोधार्थी (हिन्दी विभाग) हैं। सम्पर्क - ruchivisvabharti@gmail.com
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