लोकोपयोगी पहल बनाम खैरात
जनहितकारी पहलों को खैरात से अलगाने वाली चीज क्या है ॽ
(वित्तीय गुंजाइश और सामाजिक-आर्थिक संदर्भ जनहितकारी नीतियों के आधार होने चाहिए)
एक अभूतपूर्व सर्वसम्मति है कि आम आदमी पार्टी द्वारा अपने पिछले शासन काल में भारी संख्या में शुरु की गई जनहितकारी नीतियों ने 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी की जीत तय की थी। जयंत श्रीमान द्वारा संचालित वार्तालाप में रीतिका खेड़ा और लेखा चक्रवर्ती सरकार द्वारा किये जाने वाले अच्छे खर्च और बुरे खर्च पर विचार-विमर्श करती हैं। दि हिंदू में छपे इस वार्तालाप का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है :
बहुत सारे लोग कहते हैं कि विधानसभा चुनाव जीतने में जनहितकारी नीतियों ने आप की मदद की। इसके दो आयाम हैं। पहला आयाम तो शिक्षा और स्वास्थ्य पर व्यय करना है जिन्हें अपने नागरिकों को प्रदान करना सरकार का मूलभूत दायित्व होता है ; दूसरा आयाम है मुफ्त और अनुदानित दरों पर जल और विद्युत पेश करना। फिर भी जब लोग बहस करते हैं कि आप ने थोड़ा-थेड़ा करके खैरात बाँटी थी तो वे इन दोनों को आपस में गड्ड-मड्ड कर देते हैं। क्या ‘खैरात’ शब्द अभिजात्य निर्मिति है ॽ 2005 में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की भी इसी प्रकार की आलोचना हुई थी। इसके साथ यह विचार-विमर्श जुड़ा था कि कैसे ‘किसी को अनुदान के लिए भुगतान करना पड़ेगा’।
रीतिका खेड़ा : मेरा मानना है कि भारत में मुख्यधारा की मीडिया के साथ एक आम समस्या है। अक्सर हम मनरेगा सरीखे पुनर्वितरण के कार्यक्रमों पर बात करते हैं तो जो लेबल इन पर जड़ दिये जाते हैं, वे बहुत ही अपमानजनक होते हैं। मेरा सोचना है कि स्वास्थ्य और शिक्षा (प्रदान करना) मूलत: सरकार के काम हैं। सरकार के अस्तित्ववान होने का मूलभूत कारण यही होता है। जल, विद्युत या सार्वजनिक सेवाओं के संदर्भ में भी बात ऐसी ही है। अत: इन चीजों को ‘भिक्षा’ या ‘खैरात’ बोलना असल में सही शब्दावली नहीं है।
लेखा चक्रवर्ती : खैरात के बारे में बात करने से एक प्रकार के निजी व्यय और ‘ग्राहकबाजी’ की ध्वनि व्यंजित होती है, जिसे कि लोगों के एक विशेष समूह को बेचने की कोशिश की जा रही हो। लेकिन दिल्ली चुनाव में जो हुआ, वह ऐसा न था। यहाँ बल स्वास्थ्य और शिक्षा में आधारभूत सुविधाएँ प्रदान करने पर और सरकार अंतर्गत किसी भी खामी का ख्याल रखने पर था। मैं नहीं जानती कि ‘खैरात’ शब्द अर्थव्यवस्था में अस्तित्व रखता भी है या नहीं। आप सही हैं, संभवत: यह अभिजात्य निर्मिति है, किंतु जो दिल्ली में हुआ, उसे वर्णित करने के लिए यह सटीक नहीं है।
जनहितकारी पहलों पर राज्य के व्यय को कोई कैसे परिभाषित करे ॽ राजस्व की दृष्टि से आप के वर्तमान बचत वाले बजट के मद्देनज़र क्या अच्छा व्यय है और क्या बुरा व्यय है, या वित्तीय रूप से गैर जिम्मेदाराना खर्च है, इन्हें लेकर हम क्या सोचते हैं ॽ
रीतिका खड़े : अगर जनहित पर राज्य का व्यय वैधानिक नहीं है, तो फिर इसके लिए खर्च करने के लिए क्या वैधानिक चीज है ॽ राज्य के कर्तव्यों का एक हिस्सा, वे चीजें होती हैं जिन्हें वैयक्त्कि रूप से हम जुटा नहीं सकते हैं। हम अपने चयनित प्रतिनिधियों पर भरोसा करते हैं कि वे हमारे लिए उन चीजों को करें। सार्वजनिक चीजें या सेवाएँ – सीवेज़, पेयजल, पानी, विद्युत, सार्वजनिक परिवहन, ये एक प्रकार की चीजे हैं ; शिक्षा और स्वास्थ्य, जिन्हें हम योग्यतावर्धक चीजें कहते हैं, ये वैसी ही चीजे हैं। और ये उस प्रकार की चीजे हैं, जहाँ बाज़ार की व्यवस्था इन चीजों की आपूर्ति के लिए संतोषजनक व्यवस्था नहीं होती है। और यह सिर्फ भारत की बात नहीं है, विश्वभर में अच्छे से इस सिद्धांत को जाना जाता है।
लेखा चक्रवर्ती : यह जो वित्तीय गुंजाइश आप रखते हैं, उस पर निर्भर करता है। और इस वित्तीय गुंजाइश अंतर्गत आप कैसे सार्वजनिक फायदों का प्रारूप तय करते हैं, यह पूरी तरह (सत्तासीन) पार्टी या सरकार पर निर्भर करता है। अत: कल्याणकारी और गैर कल्याणकारी के बीच का विभाजन एक धुंधली किस्म का होता है। जो महत्वपूर्ण है, वह मूलत: है – सार्वजनिक वित्त या वित्तीय गुंजाइश का सवाल। जो महत्वपूर्ण है, वह है वित्त की स्थिरता जिसमें आप अपने सार्वजनिक फायदों को कैसे प्रारूपित करते हैं। मैं सोचती हूँ कि दिल्ली सरकार के पास राजस्व की स्थिरता है। चाहे यह वर्तमान सरकार हो या पूर्ववर्ती सरकार हो, उसके (दिल्ली के) पास राजस्व में स्थिरता की वह सुविधा है जो दूसरे राज्यों के पास नहीं है। अत: दिल्ली की स्थिति मजबूत है। द्वितीय, इन चीजों को मुफ्त में मुहैया कराना लोगों के हाथों में आय रख देना है, एक प्रकार से विशिष्ट प्रयोजन रखने वाली आय लोगों को उपलब्ध कराना है। चाहे यह उन्हें मुफ्त परिवहन की सवारी प्रदान करना हो, या मुफ्त विद्युत की बात हो, यह किन्हीं दूसरी चीजों के ऊपर व्यय करने के लिए उन्हें एक प्रयोज्य आय प्रदान करना है। यह आर्थिक मंदी के दौर में महत्वपूर्ण हो जाता है।
रीतिका खेड़ा : मैं सोचती हूँ कि जब अक्सर लोग वित्तीय गुंजाइश की बात करते हैं तो उनका बल सिर्फ व्यय वाले पक्ष पर होता है और राजस्व की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है। यहाँ तक कि दिल्ली में भी राजस्व बढ़ोतरी की बहुत संभावनाएँ हैं। दूसरी बात अच्छे कल्याणकारी व्यय से जुड़ी है, चाहे स्वास्थ्य हो या शिक्षा या सार्वजनिक परिवहन हो, केंद्रीय स्तर पर यह बहुत कम है। तो अपने पिछले शासन काल में आप ने जो किया, वह इसे उसके समीप लाने की कोशिश ही थी जितना कि इसे होना चाहिए था।
विभिन्न राज्य सरकारों के पास जन कल्याण के नाम पर योजनाएँ हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन है, जो सस्ता भोजन मुहैया कराती है। यह एक अच्छी योजना है किंतु ग्राइंडर / कम्प्यूटर / साईकिल नि:शुल्क देना जैसी योजनाएँ समस्याजनक समझी जाती हैं। हम सीमा कहाँ तक तय करें ॽ
रीतिका खेड़ा : इनमें से प्रत्येक का मूल्यांकन मामला दर मामला करना होता है। वह पहली चीज जिससे हम शुरुआत करे, वह निश्चय ही इन चीजों के लिए वित्त जुटाने की राज्य की क्षमता है। और जब मैं वित्त की बात करती हूँ तो मुझे दोहराना है कि बल दोनों तरफ होना चाहिए – व्यय वाले पक्ष के साथ-साथ राजस्व जुटाने की राज्य की क्षमता पर भी बल होना चाहिए। मुझे झारखंड का एक छोटा सा उदारण पेश करना है जो ऐसे मसलों की जटिलता स्पष्ट करता है। अभी-अभी हमने जाना कि यह राज्य पचास लाख से ज्यादा मूल्य की परिसम्पत्तियों पर पंजीय शुल्क में छूट प्रदान करता है बशर्ते कि उनका पंजीयन महिलाओं के नाम पर किया जाए। अब हम जानते हैं कि महिलाओं के सम्पत्ति विषयक अधिकार महत्वपूर्ण हैं हालांकि यह अधिकार कमजोर है। लेकिन ये वे परिसम्पत्तियाँ हैं जिनकी कीमत पचास लाख है, किंतु जिस नौकरशाह ने इस बारे में हमें बताया, उसके अनुसार इसका भार सरकारी खजाने पर सालाना कुछ सैकड़ों करोड़ पड़ता है। तो आप जानते हैं कि यह सवाल प्राथमिकताओं में संतुलन का है और यह हमेंशा पेचीदगी से भरा रहता है।
अब जहाँ तक मुफ्त ग्राइंडरों की बात है तो यह बड़े पैमाने पर श्रम की बचत करने वाला औजार है, विशेषत: तमिलनाडु जैसे राज्य में जहाँ इडली या डोसा तैयार करने के लिए सदैव से चावल को पीसा जाता रहा है। अंतत: मामला दर मामला ही इन चीजों का मूल्यांकन करना होगा। और कुछ मामलों में यह सिर्फ मुनाफे पर निर्भर नहीं करता है अपितु लागत पक्ष पर भी यह निर्भर करता है।
लेखा चक्रवर्ती : अच्छा लोकहित और बुरा लोकहित संदर्भ विशेष के साथ जुड़ा होता है। अगर मैं स्कूल जाने वाली लड़की हूँ तो फिर मेरे लिए गतिशीलता बहुत मूल्यवान होगी। अत: अगर कोई राजनेता लड़कियों को साईकिल प्रदान कर रहा है तो वे बहुत उपयोगी हैं। और ग्राइंडरों वाले मामले में आप कह सकते हैं कि ये दूसरी चीजों को करने के लिए लोगों को ज्यादा समय उपलब्ध कराते हैं और इसके साथ-साथ ये अंतत: गरीबों की आय पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण रोजगार गारंटी जो बहुत मूल्यवान है, क्योंकि जब दूसरी सारी चीजें निष्फल हो जाती हैं तो ‘अंतिम शरण देने वाले नियोक्ता’ के रूप में सरकार ही काम आती है। किंतु इस संदर्भ में मैं नहीं जानती कि सरकार यथोचित बल क्यों नहीं दे रही है।
कल्याणकारी योजनाओं को लेकर एक आलोचना यह है कि वे कुछ ख़ास समुदायों और समूहों को ही लक्ष्य में रख सकती हैं। तब यह एक प्रकार का दोषदर्शी राजनीतिक कृत्य बन जाता है।
लेखा चक्रवर्ती : कोई भी राज्य या कोई भी सत्ता जिसे आप राज्य कहते हैं, वह एक पंचमेल चीज होती है। आपको धार्मिक संघटन, शहरी-ग्रामीण मिश्रण को ध्यान में रखना होता है। आर्थिक विकास का स्तर भी इनमें से एक हो सकता है, ये सभी चीजें मायने रखती हैं। प्रशासनिक संरचना और राजनीतिक निर्णय फिर इन्हीं चीजों के इर्द-गिर्द गढ़े जाते हैं। जब तक सत्तासीन सरकार और विशिष्ट हित रखने वाले समूहों के बीच दोस्ताना ठेका संबंध नहीं होते हैं, तब तक उन (चीजों) पर ध्यान देने में कोई हर्ज़ नहीं है। जिन्हें दोलायमान मतदाता कहते हैं, उन्हें अपने पक्ष में करने पर सभी सरकारें बल देती हैं। वे देखती हैं कि उन मतदाताओं को खींचने के लिए किस तरह से चीजों को आकर्षक बनाया जाए लेकिन जब तक दोस्ताना ठेका संबंध या उसी प्रकार की चीज नहीं होती है, तब तक इसमें कोई गलत बात नहीं है।
रीतिका खड़े : जब हम दोस्ताना ठेका संबंधों पर बात करते हैं तो इस प्रकार की ग्राहकबाजी तो आधारभूत संरचना से जुड़े ठेके देने में भी काम करती है, संभवत: लोकहितकारी कार्यक्रमों के प्रारूप से कहीं ज्यादा इन ठेकों में यह काम करती है। आमतौर पर मैं जनता की मदद करने वाले सार्वभौमिक तरीकों के पक्ष में हूँ। और मेरा मानना है कि इसकी सैद्धांतिकी बहुत महत्वपूर्ण है। आप यह नहीं कह सकते कि दूसरों की तुलना में कुछ लोग भोजन या जल या रोजगार का अधिकार ज्यादा रखते हैं। और फिर निश्चय ही पहले से विद्यमान सामाजिक-आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सुधारात्मक उपचारों की जरूरत है।
जो उन्होंने पहले ही हासिल कर लिया है, उसमें जोड़ते हुए इस बार के लिए आप सरकार का लक्ष्य क्या होना चाहिए ॽ
छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर ज्यादा ध्यान देते हुए उत्तम पौष्टिक आहार (जैसे कि मध्याह्न भोजन और समेकित बाल विकास सेवाओं में अंडे को स्थान देना ) की शुरुआत देखना सुखद होगा। अम्मा कैंटीन सरीखे कदम जरूरी हैं, ऐसी चीजें दिल्ली में पहले से हैं, किंतु उनका महत्व पूरी तरह से पहचाना नहीं गया है। और स्वास्थ्य विषयक हस्तक्षेप भी इनमें शामिल हैं। किंतु सिर्फ मोहल्ला क्लीनिकों से काम नहीं चलेगा, इन्हें ऊपर तक ले जाने की जरूरत है। जहाँ तक सार्वजनिक सेवाओं की बात है तो बेहतर सीवेज़, पेयजल आपूर्ति और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण – सार्वजनिक परिवहन और प्रदूषण के जुड़वा मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देना होगा। पहले से ही इतनी सारी चीजें हैं कि बिना बजट बढ़ाए इन्हें किया जा सकता है। उदाहरण हेतु, पहले से विद्यमान बसों को आपस में क्लब करने की जगह उन्हें समय से चलाया जाए ; आवासीय कॉलोनियों से मेट्रो स्टेशनों तक फीडर सेवाएँ कार का इस्तेमाल करने वालों को मेट्रो सेवाओं की ओर आने में मदद करेंगी। शहर को और ज्यादा प्रदूषित करने से कारवालों को हतोत्साहित करने के लिए पार्किंग (और दूसरी चीजों) के उच्च शुल्क रखना। मेरे पास जो नहीं करना है, उसकी भी सूची है : महँगे और अक्सर अनुपयोगी साबित होने वाले सीसीटीवी को मना करना। इनके स्थान पर सड़कों-गलियों में बेहतर रोशनी की व्यवस्था करने पर बल देना। सार्वजनिक वितरण तंत्र में ऐसा प्रतीत होता है कि उनके पास सार्वजनिक वितरण तंत्र अंतर्गत आने वाले चीजों के ‘घर-घर वितरण’ शुरु करने की योजना है। यह योजना अच्छी नहीं है, कारण कि दूसरों के सामने सार्वजनिक स्थान पर वितरण भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ी रोकथाम होता है।
रात में 12 से 2 के बीच किसी भी दिन आपको एम्स के बाहर की सड़क पर जाकर वहाँ खड़े होना चाहिए। यह वास्तव में हृदय विदारक है कि इलाज़ के लिए दिल्ली आने वाले गरीब मरीज़, उनके परिवार अक्सर कैसे (खुले में) बाहर फुटपाथ पर सोते हैं और फिर कुछ एनजीओ किस्म के लोग ट्रकों के साथ आते हैं और वे भोजन वितरित करते हैं और लोगों को उसके लिए पंक्तिबद्ध होना पड़ता है। तो इस प्रकार की आधारभूत जरूरत के साथ भी जो तिरस्कार जुड़ा है, उसकी ओर दिल्ली को कहीं ज्यादा काम करना चाहिए।
लेखा चक्रवर्ती : मेरे दिमाग में जो अभी भी ताजा है, वह है निर्भया कांड। चीजें नहीं सुधरी हैं। और सरकार सूर्यास्त उपरांत महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही है। संभवत: यह एक कारण हो सकता है कि क्यों कांग्रेस वास्तव में हारी थी। कारण कि आधारभूत संरचना और फलाईओवर निर्माण और इसी प्रकार के दूसरे मुद्दों के संदर्भ में वे अच्छी चीजें कर रहे थे, लेकिन जब राजधानी में नागरिकों की सुरक्षा को लेकर बात आती है तो उस पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं था। अत: मैं उनसे चाहूँगी कि पहली प्राथमिकता के रूप में इस पर वे ध्यान दें। फिर निश्चय ही स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सामाजिक संरचना है जिस ओर रीतिका ने ठीक ही संकेत किया है।
दिल्ली और अन्यत्र जनहितकारी नीतियों को लेकर जो बहस की जाती है, वह यह है कि जो पैसा सड़कों और आधारभूत संसाधनों पर खर्च किया जा सकता था, वह पैसा ये ले लेती हैं। हम इस चीज के साथ सामंजस्य कैसे बैठायें ॽ
आधारभूत संरचना एक चीज है, लेकिन जैसे-जैसे कोई अर्थव्यवस्था विकसित होती है, वैसे-वैसे लोगों के एक समूह को संकट में डाल दिया जाता है। अत: उनकी पराधीनता को दूर करने और अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी के लिए और स्कूलों तथा कॉलेजों तक उनकी पहुँच के लिए हमें सार्वजनिक नीतियों की जरूरत होती है जो प्रवेश विषयक इन तार्किक बाधाओं को दूर कर सके। तो सिर्फ सड़कों के बारे में सोचने की जगह ‘कोई भी पीछे न छूटे’ – यह सार्वजनिक नीतियों या किसी कल्याणकारी नीति के मूल में होना चाहिए। और आधारभूत सार्वजनिक संरचना तो सर्वोपरी होनी ही चाहिए। किंतु लोग जिन बहुत सारी बाधाओं का सामना करते हैं, आपको पहले उन्हें दूर करने की जरूरत है।
* रीतिका खेड़ा एक विकासवादी अर्थशास्त्री हैं और भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद में सह-आचार्य हैं।
* लेखा चक्रवर्ती एनआईपीएफपी में प्रोफेसर हैं और वार्ड कॉलेज, न्यूयॉर्क के लेवी इकोनॉमिक्स इंस्टीट्यूट में रिसर्च एसोसिएट हैं।
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अनुवादक :– डॉ. प्रमोद मीणा,