उपभोक्तावादी प्रतिस्पर्धा, हर क्षेत्र में मुनाफा पाने का लोभ, विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश आदि सब हिंसा के अलग-अलग रूपों में सामने आते हैं। सबसे बड़ी हिंसा जो वर्तमान में हो रही है वह है लोगों की सोचने की शक्ति को निर्बल कर देना। उनके प्रश्न करने की हिम्मत को तोड़ देना और साथ ही उनके संघर्ष की अनदेखी करना। यह कहना गलत नहीं होगा कि आज हम जटिल पूंजीवाद के जाल में फँसे हैं। फि पर सवाल नहीं उठाता. शायद इसीलिए कि हम एक प्रकार की झूठी चेतना के शिकार बन चुके हैं। यह भी ध्यान देने वाली बात है की इस भ्रम को सच बताने के लिए और अपने नायकत्व को बनाये रखने के लिए पूंजीवादियों ने राजनीतिक ढाँचे को अपना साधन बनाया है, जिसे ग्राम्स्की भी कहते हैं।
एक प्रकार की हिंसा द्वारा दूसरे प्रकार की हिंसा को एक हद तक ही हराया जा सकता है। दूसरा, हिंसात्मक संघर्ष में कभी न कभी गोलियों की आवाज़ में वह लक्ष्य की आवाज़ दब जाती है जिसके लिए आंदोलन शुरू किया गया था। तीसरा, यह समझना जरूरी है कि जैसे लक्ष्य से मिलने वाली हिम्मत लुप्त होने लगती है और हिंसा से मिलने वाली शक्ति बढ़ने लगती है, वैसे ही हिंसा केवल एक जंग लड़ने का साधन नहीं रह जाती,वह धीरे-धीरे मानसिकता बनने लगती है। जब दोनों ही पक्ष हिंसात्मक होते हैं तो एक तरह से शक्तिप्रदर्शन की होड़ शुरू हो जाती है। इस होड़ के परिणामस्वरुप दोनों पक्षों में ना केवल एक-दूसरे के प्रति हीन भावना उत्त्पन होने लगती है बल्कि खुद के पक्षों के भीतर भी काफी अंतर दिखने लगते हैं। हिंसात्मक आंदोलन में भागीदारी भी सिमित ही होती है क्योंकि यह आंदोलन उन पक्षों के लिए जगह नहीं बना पाते जो उनके तरीको और विचारो से सहमत नहीं होते। यदि हम इन तर्कों को जोड़े तो यह कहना गलत नहीं होगा की हिंसात्मक आंदोलन में अभी भी काफी कमियाँ हैं जिनके होने से यदि हम फायदे-नुकसान को तोलें तो नुकसान का पलड़ा भारी हो जाता है।
ऐसे में जब हिंसात्मक आंदोलन एक दायरे तक ही अपनी पहुँच को बढ़ा पा रहे हैं, गांधीवादी आंदोलनों की आवश्यकता महसूस होना स्वाभाविक है। यदि गौर से देखा जाए तो यह भी पता चलता है की हिंसात्मक आंदोलनों को बढ़ावा देना पूंजीवाद के ठेकेदारों के लिए ही फायदेमंद हो जाता है क्योकि हिंसा के साधनों के प्रमुख निर्माता वह खुद ही हैं। हिंसात्मक आंदोलनों को पस्त करना उनकी मुट्ठी में है। जब तक वे इन आंदोलनों से अपने आप को कम से कम क्षति पहुँचाते हुए लाभ दिला सकते हैं, जैसे आम जनता के बीच अपनी वैधता प्राप्त कर सकते हैं हिंसात्मक आंदोलनों की हिंसा पर प्रश्न उठा कर; आंदोलनों को हिंसा की चंगुल में फँसा कर, लोगो तक उनके असल उददेश्य से अपरिचित रख कर। यह भी एक कारण बन जाता है गांधीवादी आंदोलन की मौजूदगी का एहसास नहीं होने का। किन्तु, धीरे-धीरे लोगों की आँखों से पर्दा हट रहा है और गांधीवादी आंदोलनों के बारे में बढ़-चढ़ कर सोचा जा रहा है।
गांधीवादी आंदोलनों का केंद्र है ‘मानव’ और ‘मानवता’। अहिंसा और सत्य के पक्ष पर चलते हुए यह आंदोलन इन दोनों बहुमूल्य लक्ष्यों को पूरा करने की ओर बढ़ रहे हैं । यदि हम इन दो बिन्दुओं से गांधीवादी आंदोलनों का निरीक्षण करते हैं तो यह पता चलता है कि यह आंदोलन केवल संघर्ष तक ही सीमित नहीं है। सत्याग्रह के साथ-साथ रचनात्मक कार्यक्रम भी इन आंदोलनों का महत्वपूर्ण भाग है। ‘मानव’ और ‘मानवता’ गांधीवादी आंदोलनों में एक सीमित, संकुचित अर्थ तक ही नहीं रह जाते हैं। ‘मानव’ और ‘मानवता’ दर्शाते हैं उन सभी मूल अधिकारों को जिनके होने से पुरुषार्थ के मूल्यों यानि अर्थ,धर्म, काम और मोक्ष को एक संतुलित रूप से साथ में लाया जा सकता है। ईमानदार, गरिमा-पूर्ण, सत्य व अहिंसा-पूर्ण जीवन जीने की क्षमता जगाना और हर एक क्षेत्र में इस जीवन को सच करने के लिए उपयुक्त साधनों का होना, गांधीवादी आंदोलनों के लिए प्राथमिकता रखता।
इस ‘मानव’ और ‘मानवता’ केंद्रित लेंस से यदि हम गांधीवादी आंदोलनों को देखें तो उनकी महत्ता वर्तमान तक ही सीमित नहीं रह जाती। यह इसलिए क्योंकि यह आंदोलन एक ऐसे समाज, आर्थिक और राजनैतिक भविष्य को संरचना करते हुए चलते हैं जिसमे द्वैतवाद के लिए कोई जगह नहीं होती। यह द्वैतवाद जो कि मानव-प्रकृति, मस्तिष्क-शरीर, शरीर-आत्मा, विज्ञान-धर्म, आदि प्रकार से हर एक को अनुक्रमित करता है, उसे मिटाने के लिए गांधीवादी आंदोलन सत्याग्रह के रास्ते को अपनाते हैं। सत्याग्रह केवल एक निजी कारण के लिए ही नहीं शुरू होता। सत्याग्रह एक व्यापक रूप से आज़ादी को प्राप्त करने के लिए, झूठी चेतना को मिटाने के बाद नयी सामूहिक चेतना जगाने के लिए और समाज को संवेदनशील बनाने के लिए प्रारम्भ होता है।
सत्याग्रह के साथ-साथ रचनात्मक कार्य भी किये जाते हैं। यह कार्य समझ के अलग-अलग वर्गों को एक साथ लाते हैं ; बच्चे, बूढ़े और जवान सभी की भागीदारी आश्वस्त की जाती है; प्राकृतिक, नैतिक और सांस्कृतिक परम्पराओं की तरफ ध्यान आकर्षित किया जाता है। इस प्रकार से गांधीवादी आंदोलन एक नए भविष्य के लिए आधारिक संरचना में हिस्सा लेते हैं। जीवनशाला, गोकुल सोशल विश्वविद्यालय, अंश फाउंडेशन, ग्रामीण विकास प्रतिष्ठान आदि इस रचनात्मक कार्य के कुछ उदाहरण हैं।
हाँलाकि, गांधीवादी आंदोलन ठोस बदलाव लाने की ओर बढ़ते हैं किंतु, अपने तत्काल कारण को भी यह बहुत महत्व देते हैं। समस्याओं को समझना और एक ठोस निवारण की तरफ कदम बढ़ाना इन आंदोलनों की प्रमुखता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि सतत विकास का मॉडल असल मायनों में गांधीवादी आंदोलनों द्वारा ही अग्रसर/स्थापित हो रहा है। राजेंद्र सिंह जिन्हें ‘भारत का जलपुरुष’ भी कहा जाता है, के प्रकृति की समझ और उससे घनिष्ठ नाते की बात करना यहां जरूरी हो जाता है। उनके दिए गए शब्द जैसे ‘लाल गर्मी’, ‘हरी गर्मी’ और ‘नीली गर्मी’ पानी की समस्या व उसके समाधान की प्रक्रिया को इतने साफ़ व सरल शब्दों में पेश करते हैं। इस प्रकार से अपनी बात को रखना उन्ही से हो पाता है जो कि समाज, प्रकृति और बदलाव लाने के प्रति जागरूक हों। संजय सज्जन जी, मेधा पाटकर और पी. वी. राजागोपाल ऐसे जागरूक गांधीवादी के कुछ उदाहरण हैं।
गांधीवादी आंदोलन मानसिकता पर भी प्रभाव डालते हैं। यह इसलिए क्योंकि इन् आंदोलनों की नीव अहिंसा, सत्य, पुरुष-महिला में बराबरी, हर वर्ग को शोषण-हीन बनाने की चेष्टा, हर व्यक्ति को अपने अधिकारों की तरफ जागरूक करना तथा उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की हिम्मत देना मूल्यों पर आधारित है। इससे होता यह है कि लोगों में स्वयं के लिए और दूसरों के लिए सम्मान, अभिमान, स्नेह, स्वभिमान की भावना जगती है। यही नहीं गांधीवादी आन्दोलनों में अनुशासन और नैतिकता के प्रति संवेदनशीलता भी दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिए ‘एकता परिषद’ के सभी आश्रमों में प्रार्थना होना और समय-समय पर नैतिक मूल्यों की अनिवार्यता पर चर्चा होना। इस छोटे से उदहारण से यह भी पता चलता है की एक नए समाज की स्थापना तब तक संभव नहीं है जब तक स्वयं में बदलाव नहीं लाया जाए. स्वयं को जड़ों तक अहिंसात्मक नहीं बनाया जाए, स्वयं को अहंकार और लोभ से दूर नहीं रखा जाए और स्वयं को प्रबल ना बनाया जाए सत्य की ऊर्जा के द्वारा।
जब हर एक गांधीवादी स्वयं से बदलाव की शुरुवात करता है, तब जब सत्याग्रह की तरफ गांधीवादी आंदोलनों बढ़ता है, उसका गहरा असर अन्याय करने वालों पर भी पड़ता है. मिसाल के तौर पर जीन शार्प इस असर को ‘पोलिटिकल जीऊ जिटसू’ का नाम देते हैं। गांधीवादी आंदोलनों के सामने अभी भी कई चुनौतियां हैं। पहली चुनौती तो यह कि अपनी नीव को गांधी के पथ पर चल कर मज़बूत कैसे बनाना है। आज यह देखा जा सकता है कि किस तरह केवल अहिंसा के नाम पर गांधी का मुखौटा पहने गांधीवादी आंदोलनों को एक गलत छवी देता है। गांधीवादी आंदोलनों को अपने सन्देश को संप्रेषित करने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों को ही संबधित नहीं रहना होगा बल्कि राजनीतिक क्षेत्र से भी संवाद रखना होगा क्योंकि राजनीती एक अहम क्षेत्र है जिससे अलग नहीं हुआ जा सकता है। भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण हर क्षेत्र को साथ में रखना गांधीवादी आंदोलनों के लिए महत्व रखता है।
इसी के साथ गांधीवादियों को उन लोगों से भी संवाद रखना होगा जो गांधी पर और गांधी से सम्बंधित विषयों पर अध्ययन कर रहे हैं। गांधीवादी आंदोलन हर क्षेत्र में, चाहे वह आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक हो, बदलाव लाने की क्षमता रखता है। किन्तु, अभी भी इन आंदोलनों में काफी काम करना बचा है जिससे ये आंदोलन अपने को सशक्त बना सकें और अपनी जगह बना सकें।