चर्चा में

जो पानी बह गया उसे फिर से छुआ नहीं जा सकता

 

7 अक्टूबर के टेलिग्राफ में प्रभात पटनायक का एक लेख है — A Promethian moment ( The farmer’s agitation challenges theoretical wisdom)। बंधन से मुक्ति का क्षण ; किसानों के आंदोलन ने सैद्धांतिक बुद्धिमत्ता को ललकारा है।

जाहिर है, यह किसान आंदोलन और उसके एक महत्वपूर्ण सबक पर लिखा गया लेख है। अखिल भारतीय किसान सभा के इतिहास से जो भीपरिचित है, जानता है कि 1935 से ही इसकी प्रमुख चिंता का एक स्थायी विषय रहा है — किसान एकता। किसान सभा भारत की समग्र किसान जनता का एक छतरीनुमा (umbrella) संगठन रहा है। और सच कहा जाए तो तब से लेकर आज तक यह एकता का प्रश्न ही उसके लिए एक स्थायी समस्या और विचार का प्रमुख विषय भी बना हुआ है।

दरअसल, यह विषय एक बड़ी समस्या का विषय तब लेता है जब किसी को किसानों का एक हिस्सा किसान नहीं, पूंजीपति नजर आने लगता है। अगर किसी भी चरण में कृषि समाज भी पूंजीवाद की तरह के पूंजी और श्रम के बीच अन्तर्विरोध का क्षेत्र बन कर रह जाए तो फिर समग्र किसान एकता कैसे संभव हो सकती है? कहना न होगा, किसान सभा के लोगों के लिए भी घुमा-फिरा कर यही बिंदु एक अबूझ पहेली की तरह उनकी समस्या बना रहा है अथवा बनाया जाता रहा है।

हमारी दृष्टि में किसान सभा के आंदोलन के अंदर की इस समस्या केमूल में कहीं न कहीं पूंजी की एक भ्रांत समझ की सबसे बड़ी भूमिका रहती है। पूंजी का अर्थ होता है मुनाफे के जरिए लगातार विस्तार के लिए नियोजित धन। धन के जिस रूप में निरंतर विकास की संभावना न हो, वह और कुछ भी कहला सकता है, पर पूंजी नहीं कहलाता। वह एक प्रकार का गड़ा हुआ धन, अस्थि हो सकता है जिसे खर्च करके खत्म किया जा सकता है, अथवा जिसे सहेज कर रेहन पर रख कर जीवन भी किया जा सकता है। किसान की जमीन ऐसा धन है जिसका कोई आत्म-विस्तार नहीं होता, हस्तांतरण हो सकता है, उसके मूल्य में वृद्धि भी अनिवार्य नहीं होती। फसल से किसान परिवार अपना जीवन चलाता है। इसे सही कहे तो पूंजी का वह आदिम संचित रूप कह सकते हैं जिसका पूंजी में रूपांतरण संभव है। कार्ल मार्क्स की शब्दावली में —“मूल्य की वह मात्रा जो पूंजी की तरह काम करने वाली है।” (पूंजी खंड-1, भाग-7, पूंजी का संचय)

अर्थात् एक ऐसा मूल्य जो अभी पूंजी नहीं है, पर वह आगे एक प्रक्रिया के तहत पूंजी में रूपांतरण की संभावना लिए हुए है। इसीलिए जमीन जब तक किसान के हाथ में होती है, उसका मूल्य होने पर भी वह पूंजी का रूप नहीं ले सकती है।

आज के अति-आधुनिक तकनीक के काल में भी, जमीन की उत्पादनशीलता में अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद दुनिया में कहीं भी किसान पूंजीपति नहीं कहलाता है। वह मूल्य के निरंतर और अनंत ब्रह्मांडीय विस्तार की संभावना लिए हुए धन का मालिक नहीं होता है। पूंजीवादी बाजार का नियम उसके सारे अतिरिक्त मूल्य का इस तरह अपहरण करता जाता है कि किसानी हमेशा किसान के जीवन में एक स्थायी संकट का सबब बनी रहती है। सारी दुनिया में किसानों और औद्योगिक पूंजी के मालिकों के बीच एक स्थायी, असमाधेय अन्तर्विरोध दिखाई देता है। राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा मात्र के दुनिया की तमाम सरकारों कोकिसी न किसी रूप में किसानों को क्षतिपूर्ति देनी पड़ती है। इसीलिए दुनिया के सभी किसानों की समस्या कमोबेश एक सी बनी हुई है।

किसी भी पूंजीवादी राज्य में गांवों के इस यथार्थ के बावजूद एक प्रकार के अपरिष्कृत (crude) कम्युनिज्म की धारणा के तहत, जिसे मार्क्स ने शुद्ध रूप से ईर्ष्या पर आधारित शक्ति का एक रूप कहा था, गांवों में किसानों और भूमिहीन खेतमजदूरों के बीच कुछ उसी प्रकार के शत्रुतामूलक अन्तर्विरोध की धारणा काम करने लगती है जैसा असमाधेय अन्तर्विरोध पूंजी और श्रम के बीच का हुआ करता है।

यहां किसी भी अतिरिक्त भ्रम से बचाव के लिए ही हम मार्क्स के ‘अपरिष्कृत कम्युनिज्म’ के विश्लेषण को थोड़ा विस्तार से रखना चाहूंगा क्योंकि यह कृषि क्षेत्र में वामपंथ की कार्यनीति पर विचार के लिए भी उपयोगी हो सकता है।

मार्क्स अपनी प्रसिद्ध कृति “Economic and Philosophic Manuscripts of 1844” में जहां ‘सम्पत्ति और कम्युनिज्म’ के विषय पर विचार कर रहे थे, एक प्रसंग आया औरतों को निजी संपत्ति के बजाय सार्वजनिक संपत्ति मानने का। कम्युनिज्म के दुश्मनों ने इस बात को कम्युनिज्म के खिलाफ खूब प्रचारित किया था, जिसका एक उत्तर कम्युनिस्ट घोषणापत्र में भी दिया गया है। इसी विषय के सूत्र को थाम कर मार्क्स ने 1844 की आर्थिक और दर्शनशास्त्रीय पांडुलिपियों में अपरिष्कृत(crude) और मूर्खतापूर्ण (thoughtless) कम्युनिज्म का प्रसंग उठाया जिसमें भी कहीं इसी प्रकार प्रच्छन्न रूप में स्त्रियों को संपत्ति मानने का विचार काम कर रहा होता है। इसी सिलसिले में विषय का खुलासा करते हुए मार्क्स लिखते हैं कि “इस प्रकार का कम्युनिज्म — चूंकि हर क्षेत्र में आदमी केव्यक्तित्व से इंकार करता है —निजी संपत्ति की ही एक तार्किक अभिव्यक्ति मात्र है, जिसे वह नकारता है।

आम ईर्ष्या की खुद एक ताकत होती है जिसकी ओट में घुमा कर लालच अपने को पुनर्स्थापित करता है और खुद को संतुष्ट करता है। निजी संपत्ति के कम से कम हर ऐसा रूप को संपत्तिवान के निजी धन के खिलाफ ईर्ष्या को काम में लगा कर सबको एक समान स्तर पर घसीट लाने का विचारऐसा अपरिष्कृत कम्युनिज्म है, ताकि इस ईर्ष्या और लालसा को टकराहट के मूल में ला सके। यह सिर्फ इसी ईर्ष्या की परिणति है और एक पूर्व-कल्पित न्यूनतम की नीचे के स्तर पर उतार लेने का काम। इसका अपना एक निश्चित और संकीर्ण मानक होता है। निजी संपत्ति को ऐसे कम करने का संपत्ति के आत्मसातीकरण से कितना कम संबंध होता है, यह इसके संस्कृति और सभ्यता के पूरे जगत के इंकार के विचार के तथ्य से साबित हो जाता है। यह उस गरीब और अविकसित मनुष्य की अप्राकृतिक सादगी की दिशा में पतन है जिसकी मामूली जरूरतें होती हैं और जो न सिर्फ निजी संपत्ति के विचार से आगे जाने में विफल रहा है, बल्कि अभी वहां तक पहुंचा भी नहीं है।” (Marx-Engels Collected works, vol.3, page 294-295)

हम जानते हैं कि वामपंथी राजनीति की कुछ स्थानीय जरूरतों के कारण ही इर्ष्या की इस शक्ति के प्रयोग के लालच में हमेशा गांव में किसानों के बीच के आपसी विरोधों और किसान-मजदूर के बीच मौलिक अन्तर्विरोधों की कल्पना कर ली जाती है जैसा पूंजीवाद में पूंजी और श्रम के बीच होता है और उसका भरपूर इस्तेमाल किया जाता है।

कहना न होगा, गांव की राजनीति में कम्युनिस्ट कार्यनीति का यह स्थानीय दबाव सामाजिक अन्तर्विरोधों की उसकी समग्र और मूलभूत समझ को प्रभावित करता है। उन्हें गांव के धनी किसानों को गांव में पूंजीवाद का मूर्त रूप दिखाई देने लगता है और जो औद्योगिक पूंजी बिचौलियों के असंख्य स्तरों के जरिये गांव की संपत्ति की लूट के काम में लगी रहती है, उसकी सूरत ग्रामीण संदर्भ में सुदूर अंतरिक्ष में कहीं गुम हो जाती है। चालू भाषा में जिस सच को ‘शहर वनाम गांव’ के मुहावरे से पहचाना जाता है, मार्क्सवादी सिद्धांतकार उसमें एक सामंती धोखा देखने से नहीं चूकते हैं।

इसी समझ की पृष्ठभूमि में, किसी विकासमान पूंजीवादी राज्य के अन्तर्गत पूंजी और जनता के बीच के विकासमान मुख्य अन्तर्विरोध को देखते हुए पूंजी के खिलाफ जनता के सभी हिस्सों की एकता को सर्वोपरि समझने में कोई कष्ट नहीं होना चाहिए। पूंजीवाद के दलाल इस अन्तर्विरोध को न सिर्फ धर्म, जाति और वर्ण के धुएं से छिपाया करते हैं, बल्कि लोगों के जीवन स्तर में छोटे-बड़े भेद से उत्पन्न ईर्ष्या, और सामाजिक अन्याय के नाना रूपों से भी धूमिल किया जाता है। गांवों में वर्गीय अन्तर्विरोधों की ही एक खास अभिव्यक्ति मान कर कम्युनिस्ट भी यदा कदा जातिवाद का झंडा उठा लेते हैं।

कम्युनिस्ट आंदोलन ने मन-प्राण से हमेशा सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि से लड़ाई की जरूरत को स्वीकारा है और इसके लिए तमाम स्तरों पर भारी कुर्बानियां दी है। यहां तक कि भूमि सुधार के अपने कार्यक्रमों में भी उसने व्यापकतम किसान एकता के पहलू की आंतरिकता से रक्षा की है। इसके चलते कई इलाकों में गरीब जनों के अपने परंपरागत समर्थन के आधार को भी जातिवादियों के हाथ में गंवाया है।

इस मामले में हम खास तौर पर पश्चिम बंगाल के तेभागा आंदोलन (1846-47) से लेकर भूमि सुधारऔर आपरेशन वर्गा (सन् ’72-’80 का काल) के अनुभवों का जिक्र करना चाहेंगे जिनमें छोटी जोत के किसानों, भूमिहीनों, बंटाईदारों और खेत मजदूरों की भी भागीदारी थी। बड़ी जोत के जमींदार तो तेभागा के परवर्ती जमींदारी उन्मूलन से दृश्य से प्रायः गायब थे। उसके लिए तो भारत सरकार के कानून और बिनोवा के भूदान तक को याद किया जा सकता है, जिनमें नीतिगत स्तर पर देश की सार्विक उन्नति के लिए ही चकबंदी से लेकर जमीन के पुनर्वितरण तक को जरूरी माना गया था। गौर करने की बात है कि पश्चिम बंगाल के इन आंदोलनों के कई नेतृत्वकारी व्यक्ति गांव के अपेक्षाकृत संपन्न तबकों से ही आते थे। वामपंथी किसान आंदोलन वास्तव में कभी हिंसक नहीं रहा। यह एक व्यापक जन-आलोड़न के मानिंद था और उसी की एक तार्किक परिणति पंचायती राज के विकास में भी हुई है। इन सबके विस्तृत ब्यौरों को हमने अपनी पुस्तक ‘पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति’ में दिया है ।

थोड़ा और विषयांतर होते हुए, हम यह भी कहेंगे कि वास्तव में भारत में ‘कृषि क्रांति’ की पूरी अवधारणा चीनी क्रांति की तर्ज पर विकसित हुई थी जहां तब तक भारत की तरह पूंजीवाद के बीज भी नहीं पड़े थे। वहां हर सामाजिक अन्तर्विरोध सामंतवादके दायरे में, गांवों के स्तर पर ही प्रकट हो रहे थे।

जो भी हो, यह एक बिल्कुल भिन्न विषय है। मूल बात यह है कि पश्चिम बंगाल के किसान आंदोलन ने शुरू से ही हमेशा किसान एकता को कृषि क्षेत्र के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना था। पश्चिमबंग कृषक सभा ही यहां के गांवों में सभी स्तर के किसानों का अकेला संगठन था। जब सीपीआई(एम) ने खेतमजदूर संघ की स्थापना की, पार्टी की बंगाल इकाई ने शुरू में अपने प्रदेश में उसके गठन से इंकार तक किया था। पर काफी साल बाद, पार्टी के अंदर भी ‘वर्ग संघर्ष’ चलाने वाले केंद्रीय क्रांतिकारी नेतृत्व के दबाव से उसे स्वीकारना पड़ा।

आज कोई अगर इस पूरे इतिहास की पुनर्खोज करे तो पाएगा कि कैसे अपरिष्कृत (crude) क्रांतिकारी धारणाओं के कारण किसान एकता का सूत्र वामपंथी आंदोलन से छूटता चला गया, अर्थात् वामपंथ भारत के बृहद ग्रामीण क्षेत्र से नदारद होने लगा।

कहना न होगा, यह वही खोया हुआ सूत्र है जिसे अभी के किसान आंदोलन के बीच से फिर एक बार पा कर प्रभात पटनायक आह्लादित है, इसे सिद्धांतकारों के एक नए इलहाम के क्षण, उनकी अपनी जकड़न से मुक्ति के क्षण के रूप में देख रहे हैं। जाट चौधरियों और उनके पैर के जूती मान ली गई दलितों की एकता का महत्व उन्हें फिर से समझ में आ रहा है।

पर हम इसे एक दुर्भाग्य ही कहेंगे कि जब भी किसी खोई हुई चीज को फिर से पाया जाता है, वह कभी भी अपने मूल रूप में वापस नहीं आती है। उस बीच बीत चुके समय की छाप उस पर अंकित हो जाती है। अभी के किसान आंदोलन की भी एक आधारभूत शक्ति के रूप में आज किसान सभा को देख कर हम खुश होते हैं, पर संदेह होता है कि वामपंथी आंदोलन को वास्तव में उसकी जड़ताओं से मुक्ति में यह अब कितना सहयोगी हो पाएगा। यही इतिहास का न्याय कहलाता है !

प्रभात पटनायक इस पूरी प्रक्रिया में किसान जनता के क्रांतिकारीकरण को देख रहे हैं, जो बिल्कुल सही है। पर वह क्रांतिकारी भूमिका भी अपनी शर्तों पर ही निभायेगी, जडसूत्रों में कैद वामपंथ की शर्तों पर नहीं, यह भी दिखाई देता है।जो बस छूट जाती है, उसे ही फिर से पकड़ा नहीं जाता। जो पानी बह जाता है उसे फिर से छुआ नहीं जाता।

प्रभात पटनायक के लेख का लिंक :https://www.telegraphindia.com/opinion/the-farmers-agitation-challenges-theoretical-wisdom/cid/1833646

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अरुण माहेश्वरी

लेखक मार्क्सवादी आलोचक हैं। सम्पर्क +919831097219, arunmaheshwari1951@gmail.com
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