बेगूसराय चुनावः एक संस्मरण ( भाग-2 ) – अनीश अंकुर
कन्हैया कुमार, रवीश कुमार, लालू प्रसाद और चार्ली चैप्लिन
पटना के रास्ते में कन्हैया परिघटना की चर्चा होती रही। पटना लौटते वक्त राष्ट्रीय सहारा के एक पत्रकार किरनेश भी साथ हो गए। लोगों से कनेक्ट करने की उसकी विशिष्टता आदि पर इस दौरान बातें होती रही खासकर उसके व्यंगात्मक लहजे की। कन्हैया जब भी नरेन्द्र मोदी या बेगूसराय के भाजपा प्रत्याषी गिरिराज सिंह का जिक्र करते हैं, मजाकिया लहजे, कुछ-कुछ हँसी उड़ाने के अंदाज में करता है। लोग भी खूब लुत्फ उठाते हैं। लेकिन फिर जल्द ही गम्भीर होकर भी बातें करने लगते। विशेषकर जब नीतियों पर बात करते हैं तो संजीदगी झलकती है।
कन्हैया हमेशा अन्तर्विरोधों को उजागर करते। हँसी वहीं से पैदा होती है। मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई कहा करते व्यंग्य पैदा करने के लिए आपके अन्दर अन्तर्विरोधों की समझ होनी चाहिए। भाजपा के षासन काल में , कथनी व करनी में , उनके वादे उसकी जमीनी हकीकत में इतना बर्ड़ा अन्तर्विरोध है जिससे व्यंग्य व हँसी पैदा होती है। यह अकारण नहीं है कि देश भर में दर्जन भर से अधिक स्टैंड अप कॉमेडियन पैदा हो गए हैं। भारत के किसी भी प्रधानमन्त्री का इतना मजाक नहीं बना जितना वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का।
कन्हैया, कभी भी, नरेन्द्र मोदी पर आगबबूला नहीं होते बल्कि धीरे से किसी ऐसी जगह उंगली रख देते हैं जिससे लोग मुस्कुराए बिना नहीं रह सकते। कुछ-कुछ ऐसा ही अंदाज मोदी राज में लोकप्रिय हुए टी.वी एंकर रवीश कुमार का है हल्की हँसी, व्यंगात्मक मुद्रा प्रयन भरी निगाहें यहीं उनकी पहचान है। यही काम लालू प्रसाद भी किया करते थे। भाजपा की जितनी हँसी लालू प्रसाद ने उड़ायी उतनी शायद ही किसी अन्य नेता ने। यूट्यूब पर लालू प्रसाद के ऐसे दर्जनों वीडियो देखे जा सकते हैं। यही काम पिछली शताब्दी के तीसरे दशक चार्ली चैप्लिन ने हिटलर के खिलाफ ‘ द ग्रेट डिक्टेटर’ बनाकर किया। उस फिल्म ने हिटलर जैसे खूँखार तानाशाह का को हँसी का पात्र बना डाला। फासिज्म के विरुद्ध संघर्ष में चार्ली चैप्लिन की फिल्म एक प्रतीक की तरह मानी जाती है।
दुनिया भर का अनुभव बताता है कि तानाशाही व फासिस्ट सत्ता के विरुद्ध हँसी एक मारक अस्त्र के बतौर काम करता है। लगभग इसी वक्त स्पेन में फैरको की तानाशाही स्थापित हुई थी। जब -जब भारत में भाजपा शासन में आती है फैरको के खिलाफ संघर्ष उस दौर के चुटकुले लोकप्रिय होने लगते हैं। हिन्दी कवि राजेश जोशी अपने भाषणों में इन चुटकुलों का खूब प्रयोग करते हैं।
कन्हैया के नामांकन वाली सभा के दौरान आइसा के पुराने परिचित राहुल विकास से भेंट हुई। भेंट होते ही चर्चा चलने लगती कि आखिर हमारे आँखों के सामने घट रहा है इसे कैसे समझा जाए? कन्हैया के नाम पर ये जो उभार सा दिखता है क्या हो टिकेगा? किसी साथी की टिप्पणी आती है कि ‘‘ भई पिछले तीन सालों से ये बना हुआ है। ये कोई कम बात नहीं है। सोशल मीडिया के दौर में ये आसान नहीं है। लोगों को ‘अटेंशन स्पैन’ कम होता जा रहा है। वैसे में तीन सालों तक अपनी लोकप्रियता बना रखना कोई आसान बात नहीं है।’’ राहुल विकास कहते हैं ‘‘ सही बात है कन्हैया सोशल मीडिया के दौर का वामपन्थी चेहरा है।’’ लेकिन क्या सिर्फ ये इतना ही है? इसी किस्म की बाते होती रहीं।
इसी बीच सबों को चाय पीने की इच्छा हुई। फिर ये आशंका की इतनी भीड़ से निकलकर चाय की दुकान तक पहुँचना एक दुष्कर कार्य ही है। फिर भी सहमति बनती है कि चाहे जो हो, चाय तो पी ही जाए। चाय की दुकान पर बड़ी जद्दोजहद के बाद किसी तरह पहुँचते हैं। वहाँ पहले से दो-तीन मुसलमान बैठे थे। उनकी सफेद दाढ़ी व टोपी से इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता था। वे दोनों थोड़े बुजुर्ग से थे। चाय का आर्डर देने के साथ ही इन लोगों से बातचीत होने लगी। वे दोनों कन्हैया के प्रशंसक लग रहे थे। अजय जी के इस प्रश्न के कि ‘‘ आप लोग क्या सोच रहे हैं? किधर के बारे में निर्णय हुआ?’’ उनके में से एक कन्हैया की तारीफ करते हुए कहते हैं ‘‘ हमलोग तो उसके साथ हैं ही, भूमिहार लोगों का ही कुछ पता नहीं चल पा रहा है। इतना बढ़िया लड़का है फिर भी देखियेगा उ लोग नहीं आएगा इसके पक्ष में, इस बच्चे को वोट नहीं करेगा।’’ बातचीत चलने लगती है , भूमिहार देख रहे हैं कि मुसलमान किधर जायेंगे? और मुसलमान देख रहे हैं कि हमारा वोट भूमिहार लोगों के रूख पर निर्भर करेगा।’’ लगभग हर लोग बातचीत में शामिल हो जाते हैं सभी इस पर राय प्रकट करते हैं। अन्त इस बात पर होने लगती है कि कम से कम भूमिहार लोगों का पच्चीस से तीस प्रतिशत तो वोट मिलना ही चाहिए बल्कि मिलेगा ही। एक दो लोग बिना कोई प्रतिक्रिया दिए हम सबों की बातें दत्तचित्त होकर सुन रहे हैं। वोटों के गणित के आकलन के मध्य कन्हैया बार-बार बातचीत के केन्द्र में आते रहते। इसी बीच दूसरे बुजुर्ग मुसलमान कन्हैया के बारे में बेगूसराय की बोली में कह उठते हैं ‘‘ ओकरा देखि छी त दिल कलपै छै’’ (उसको देखकर दिल कलपता है)। चाय के बाद पान, सिगरेट गुटखा खाते हुए हम पुनः मैदान में आते हैं।
सभा प्रारम्भ होने के पूर्व गीतों का गायन निरन्तर जारी था। मंच पर पटना इप्टा के कलाकार सीताराम सिंह के नेतृत्व में अपना गायन कर रहे थे। बीच-बीच में बीहट व रानी इप्टा के कलाकार भी डटे थे। हमलोगों आपस में सीताराम सिंह के गायन पर चर्चा छिड़ गयी। पता नहीं क्यों उनके गायन में अब पहले वाली बात नहीं रहीं। वे अब पहले जैसा प्रभाव अब नहीं सृजित कर पाते। इसी बीच जे.पी कहते हैं ‘‘ पुराने लोग उनके गायन की काफी तारीफ करते हैं पर जबसे हमने उनको गाते सुना कुछ खास नहीं लगता, कभी बढ़िया गाते नहीं देखा। पता नहीं इप्टा, पटना के गायन की शैली कैसे बदल गयी। जनगीतों के गायन में भी तेवर का अभाव रहता है।’’ थोड़ी देर इस पर बातचीत होने लगी। इधर कुछ दशकों में पटना इप्टा के गीत पहले जैसी हलचल नहीं पैदा कर पाते। क्या ये गीत पुराने पड़ गए हैं, जिनकी प्रभाव क्षमता समाप्त हो चुकी है? कई बार ऐसा भी होता है कि इन गीतों का एक समय होता है, बदले समय में वे वो असर नहीं डाल पाते! फिर एक दूसरे साथी राय प्रकट करते हैं ‘‘ नहीं बात दरअसल ये है कि इप्टा के काम करने के रंगढ़ंग व नजरिये में आए बदलावों ने उनके गायन के तरीके पर भी प्रभाव डाला है। इस धारा के नाटकों व गीतों पर ‘नारेबाजी ’ का इतना अधिक आरोप लगा कि उसका जवाब देने के लिए हमने अपने अन्दर ऐसी तब्दीलियाँ कर डाली कि वो अब प्रभावहीन जैसे हो गए। अब देखिये जितने में ‘मार्चिंग ट्यून’ के गीत थे उनको ‘मेलोडियस’ बनाने के चक्कर में उसकी आत्मा ही मार डाली गयी। ठीक है कि जनगीत धुनों के कारण लोकप्रिय होते हैं लेकिन धुनों के साथ जज्बा भी महत्वपूर्ण होता है। बिना जज्बे के गीत प्रभाव नहीं छोड़ पाते।’’ एक साथी प्रसिद्द जनगीत ‘‘ हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे, एक खेत नहीं, एक देश नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे……।’’ को पहले मार्चिंग ट्यून फिर उसके नये मेलोडी वाले धुन पर गाकर सुनाते हैं। सभी हंसने लगते हैं।
इसी बीच मंच पर बीहट, इप्टा के प्रसिद्द गायक लक्ष्मी यादव अपने समूह के साथ आते हैं। वे मथुरा प्रसाद नवीन की चर्चित रचना ‘‘ जुल्मी बढलौ़ तोहूं बढ़ि जा, दुश्मन के छाती पर चढ़ जा, मरना हो तो लड़ि के मर जा, भूख से तड़प के काहे मरिबा’’। लक्ष्मी यादव ने गीत की धुन को शब्दों के अर्थ के अनुकूल रखा था। लक्ष्मी यादव के गायन ने सबों का ध्यान अपनी ओर खींचा। लक्ष्मी जी की टीम में गीत की धुनों पर थिरकते पुष्पराज की झलक दिखाई पड़ी। आपस में कोई हंसते हुए उनके ‘सुर’ में होने को लेकर टिप्पणी करता है । फिर इप्टा की बीहट व पटना इकाइयों के गाने की तुलना होने लगती है।
मथुरा प्रसाद नवीन के इस गीत का कन्हैया अपने भाषणों में कई बार प्रयोग करते रहे हैं। मथुरा प्रसाद नवीन बड़हिया के रहने वाले मगही के कवि व गीतकार थे, उसी बड़हिया गाँव के जहाँ के भाजपा प्रत्याषी गिरिराज सिंह हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने मथुरा प्रसाद नवीन को ‘ मगही का कबीर’’ की उपाधि दी थी। रचनाओं में व्यंग्य व हास्य नवीन जी की विशिष्टता थी।
उस गीत ने मेरी पुरानी स्मृतियों को कुरेद दिया। लगभग ढ़ाई दशक पहले की बातें याद आने लगी। नवभारत टाइम्स में नवेन्दु जी ने मथुरा प्रसाद नवीन के बारे में एक लम्बी स्टोरी छापी थी जिसका शीर्षक था ‘‘ मथुरा प्रसाद नवीन की हालत हिमांशु श्रवीवास्तव से भी खराब ’’ नवभारत टाइम्स के कुछ अंक पहले हिमांशु श्रवीस्तव की खराब हालत के सम्बन्ध में स्टोरी की थी। उस स्टोरी के प्रकाशित होने के कुछ ही दिनों बाद मैं बड़हिया अपनी मौसी के यहाँ गया था। बचपन से वहाँ जाता रहा था। वहाँ के आम, रस्गुल्ले बेहद प्रिय थे। जब वहाँ गया तो मैंने अपने मौसा से नवीन जी का जिक्र कर मिलने की इच्छा जाहिर की। मेरे मौसा अपने युवावस्था में बड़हिया के ही समाजवादी नेता कपिल देव सिंह के साथ भी रहे थे लेकिन बाद में राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय हो गए थे हाँ सार्वजनिक विषयों में थोड़ी दिलचस्पी वे अवश्य लेते थे। उन दिनों उनकी मंडली के बीच तस्लीमा नसरीन के ‘लज्जा’ की चर्चा सुना करता। नवीन जी से भेंट करने की बात सुन उन्होंने हल्के आश्चर्य के साथ कहा कि मिलने की क्या जरूरत है उनको बुलावा भेज देते हैं। फिर ये भी बताया कि वो काफी अच्छे घर के थे, उनके यहाँ हाथी वगैरह भी रहा करता था लेकिन वक्त व कविता के प्रति उनके लगाव के कारण वे अब बेहद बुरी हालत में चले गए।
एक दो दिनों के बाद मथुरा प्रसाद ‘नवीन’ जी आए लम्बी, दुबली, छरहरी काया। पूछा कि कौन बच्चा है जो मुझसे मिलना चाहता है? मैं थोड़े संकोच के साथ उनसे मिला। देर तक उनसे बातें होती रही। बातचीत में उन्होंने तब बड़हिया के आतंक जैसे रहे टिक्कर सिंह के बारे में बताया कि ‘‘ वो तो मेरा शिष्यवत है उसे तो दिनकर का ‘रश्मिरथी’ कंठस्थ है।’’ ‘टिक्कर सिंह, दिनकर और ‘रश्मिरथी’?’ मैं लगभग विस्फारित नेत्रों से उन्हें देखता रहा।
तब बड़हिया की हवा में बारूद की गंध जैसे घुली हो। अपराध वहाँ के जनजीवन की चर्चा के केन्द्र में होते बातचीत में ‘पंडितवा’, ‘ललितवा’ जैसे अपराधियों के कारनामों लोग गौर से सुना करते। इन दोनों की बाद में हत्या हो गयी। एक को पुलिस ने एनकाउंटर में मारा दूसरा शायद आपसी गैंगवार मारा गया। ये सारी बातें अपनी बड़ी मौसेरी बहनों से सुनता। वे जब उन अपराधियों के सम्बन्ध में बातें करती तो उनके बारे में ऐसे बातें करती मानो वो कोई हीरो हो, वो उनके सौन्दर्य के बारे में आपस में बातें करती। टिक्कर सिंह भी उन्हीं अपराधियों में माना जाता था लेकिन थोड़ा अलग। उसके बारे में नवीन जी के मुख से सुनकर थोडा आश्चर्य भी होता रहा। उस दौर में बड़हिया में लड़कियों की आत्महत्या सम्बन्धी बातें सुनने को मिलतीं। आत्महत्या करने वाली लड़कियों व बहुओं के सम्बन्ध में वे बड़े सम्मान भाव से जिक्र करतीं कुछ-कुछ ग्लोरिफाई करने के अंदाज में। कैसी त्रासदी थी कि जिन बहनों से ये बातें सुनने को मिलती आगे चलकर खुद उनमें से दो ने आत्महत्या कर ली। आम, रसगुल्ले और आत्महत्या बड़हिया से जुड़ी ये तीन ऐसी चीजें हैं जो जेहन से कभी नहीं जाती…..
नवीन जी से ऐसा प्रभावित हुआ कि उनपर मैंने एक आलेख भी लिखा जो शायद मेरे एकदम प्रारम्भिक लेखों में था। मैंने उनको वहाँ स्थित अपने परिवार से उनको कुछ मदद करने का आग्रह किया था। अखबार वाली खबर, उनकी आर्थिक हालात सम्बन्धी बातें दिमाग में बराबर बनी हुई थी। उनके जाने के बाद मेरी मौसेरी बहनों ने नवीन जी की वेशभूषा आदि के बारे में सवालिया लहजे में पूछा? फिर ये भी कि कैसे-कैसे लोगों के चक्कर में पड़े रहते हो, पढ़ने लिखने पर ध्यान दो। वहीं मौजूद शंभू दा नामक व्यक्ति ने ठेठ बड़हिया की बोली में कह डाला ‘‘ अरे इ वोहे न छथिन जिनका से एक कप चाय पिलवा के चार-पांच ठो कविता सुन ले भीं।’’ (ये वहीं हैं जिनको चैक चैराहे पर एक कप चाय पिला कर कई कवितायें सुन लो ) उनके बारे में इतने हल्के ढ़ंग से बातें करते देख बड़ी कोफ्त होती थी। हुई। बाद में पता चला वे मेरे जाने के बाद मुझे खोजने भी आए।
लेकिन उसके बाद अब लम्बा वक्फा बीत चुका है। उनकी मृत्यु हुए भी कई साल बीत गए है। लेकिन बेगूसराय की सभा में नवीन जी की रचनाओं को सुनते हुए काफी अच्छा लग रहा था।
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