एक पुरानी कहावत है- ‘दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है’. ऐसी कहावतें हमेशा मुश्किल फैसलों की घड़ी में सार्थक साबित होती हैं. दिल्ली से जब राज्यसभा सांसद चुनने का मौका आम आदमी पार्टी को मिला तो उन्होंने ऐसे दो नामों की घोषणा की जो किसी भी तरह से पार्टी के चेहरे नहीं कहे जा सकते. फिर क्यों केजरीवाल और उनके बाकी साथियों ने पार्टी में बड़े चेहरे और प्रखर नेताओं को दरकिनार किया? आम आदमी पार्टी ने इसके पीछे जो तर्क दिया वो असल मायने में हमारी आज की राजनैतिक हकीकत को बयां करता है. पार्टी का मानना है कि इन दोनों व्यक्तियों के आने से पार्टी का विस्तार हो सकेगा. ऐसे लोग जो आम आदमी पार्टी की राजनीति को विकल्प की राजनीति मानते थे इस बात से नाखुश हैं. दरअसल, राज्यसभा सांसदों का चुनाव हमें लोकतंत्र के अंतर्द्वंद से अवगत कराता है. यह अंतर्द्वंद लोकतंत्र की परिभाषा में ही निहित है.
लोकतंत्र सत्ता का ऐसा मॉडल है जिसमें आदर्शवाद और यथार्थ की जंग लगातार बनी रहती है. मिसाल के तौर पर देखें कि लोकतंत्र को ‘जनता के द्वारा शाषन’ की तरह परिभाषित किया जाता है. मगर हकीकत में आज तक कोई देश या राज्य ऐसा नहीं है जिसमें राजनैतिक वर्ग द्वारा शासन न किया जाता हो. लोकतंत्र आज एक ऐसा आदर्शवाद है जिसके नाम पर दुनिया के सारे राजनैतिक दाल और वर्ग शाषन कर रहे हैं. शायद, इसीलिए फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी किताब ‘द एंड ऑफ़ हिस्ट्री’ में लोकतंत्र को ही आखिरी और विजयी आदर्श बताया है. मगर लोकतंत्र के भीतर ही शासन के यथार्थ और लोकतंत्र के उद्देश्यों में द्वन्द्व रहता है. आदर्श और यथार्थ की यही जंग हमेशा सामाजिक आंदोलन भी झेलते हैं और अक्सर देखा गया है कि शासन रुपी यथार्थ सामाजिक आंदोलनों को लील जाता है.
आदर्श उद्देश्यों और शासन के यथार्थ की यह जंग अन्ना हज़ारे के आंदोलन को भी लील गयी और जिसका पहला शिकार भी खुद अन्ना हज़ारे ही हुए. केजरीवाल के यथार्थवादी पौरुष ने आदर्शवादी बुजुर्ग को ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन करके दरकिनार कर दिया. मगर बात सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुई. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे लोगों ने पार्टी के अंदर आदर्शवाद का स्थान ग्रहण किया और आम आदमी पार्टी आदर्शों पर चलकर लोकसभा का चुनाव बुरी तरह हार गई. यथार्थ आदर्श के आगे झुकने की गलती अब समझ चुका था.
दिल्ली विधानसभा के पहले चुनाव में भी आदर्श यथार्थ पर हावी रहा और केजरीवाल ने अपनी माइनॉरिटी गवर्नमेंट से इस्तीफा देकर पुनः चुनाव की मांग की. केजरीवाल के इस फैसले ने उन्हें यथार्थ के मजबूत पक्ष से रूबरू कराया और केजरीवाल ने जनता रुपी यथार्थ के माफ़ी मांगी. आगे से आदर्श के आगे न झुकने की कसम खाई.
यथार्थ अब आदर्श पर हावी हो चुका था. कभी साफ़ सुथरी राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी ने आदर्शों को ताक पर रखा और यथार्थ रुपी घोड़े पर सवार होकर ऐसे लोगों को टिकट बांटे जो अपने बल और आम आदमी पार्टी की लहर के सहयोग से चुनाव जीत सकते थे. चुनाव जीतने और बदलाव के लिए शाषन करने के यथार्थ ने आम आदमी पार्टी के भीतर साफ़ सुथरी राजनीति वाले आदर्शों को मौत के घाट उतार दिया.
आदर्शों की मौत की पुष्टि पर मोहर तब लगी जब पार्टी ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे आदर्शवादी लोगों को बहार का रास्ता दिखाया. इसके बाद लम्बे समय तक पार्टी में शांति रही. मगर कुमार विश्वास का कवि मन आदर्शों पर मोहित था. यादव और भूषण के जाने के बाद आदर्शों की आखिरी मशाल कुमार ने अपने हाथों में ली. ‘जे.एन.यू. वाले कांड’ में उन्होंने राष्ट्रवाद के आदर्श को ऊँचा उठाए रखा, जबकि केजरीवाल ने केंद्र सरकार पर प्रताड़ित करने का यथार्थ रुपी आरोप मढ़ा. कुमार के सर पर आदर्शों का खुमार कुछ ऐसा था कि कुछ दिनों बाद ही उन्होंने पार्टी के विधायक के बयानों पर खुलकर प्रतिक्रियाएं दीं. आदर्शों को मजबूत होते देख यथार्थ ने फिर से एक बार हुंकार ली और आदर्शों को सबक सिखाने का फैसला ले ही लिया.
सबक सिखाने का मौका यथार्थ को राज्यसभा चुनाव में मिला, जहाँ उसने पार्टी के ही जन्मे आदर्श को बाहर के आदर्शवादी लोगों से ढकने की कोशिश की. क्योंकि शायद कुमार विश्वास रुपी आदर्श केजरीवाल को व्यक्तिगत रूप से प्यारा था और वह इसको यथार्थ के हथियार से नहीं मारना चाहता था.
मगर बाहरी आदर्शवादी समझदार थे. उन्होंने केजरीवाल को ही उनकी जंग लड़ने और यथार्थ रुपी हथियार चलाने पर मजबूर कर दिया. केजरीवाल चूँकि यथार्थ और आदर्श दोनों से ही मात खाकर देख चुके हैं, इसीलिए उन्होंने पार्टी के विस्तार और आने वाले चुनाव में धन बल की जरुरत वाले यथार्थ को ध्यान में रखते हुए अपने प्यारे और आखिरी आदर्शवादी की भी बलि ले ली.
लोकतंत्र का ये द्वन्द्व, जिसमें आदर्श और यथार्थ की जंग हमेशा बनी रहती, है उसने आम आदमी के आदर्शवादी आंदोलन को यथार्थवादी पार्टी में तब्दील कर दिया है. यानी जो लोग ये मान रहे हैं कि केजरीवाल ने गलत किया, वे सब उसी आदर्शवाद की छांव में है जिसकी अब आम आदमी पार्टी को शायद जरुरत नहीं रह गई है.