मुद्दा

आधुनिकता, संस्कृति और बाजार

 

  “मानव जाति का आध्यात्मिक विकास जितना आगे बढ़ता है, उतना ही मुझे निश्चित लगता है कि वास्तविक धार्मिकता का वास्ता जीवन-मरण के भय और अंधविश्वास से होकर नहीं जाता, बल्कि तर्क सम्मत ज्ञान के संघर्ष से होकर जाता है।” (अल्बर्ट आइंस्टीन)

   विज्ञान ने अनेक सुविधाएँ उपलब्ध करा दीं। कुछ आस्थावानों ने, कुछ धर्म के मानने वालों ने कितनी दिक्कतें उठाते हुए महाकुंभ में डुबकी लगायी। कुंभ मेले की भगदड़ में जिनकी मौतें हुई, उस पर कोई अफ़सोस नहीं जताया गया। कुछ जमे-जमाए तथाकथित धर्म के ठेकेदारों ने इसे भी लोक लिया। नारेबाज़ी देखें- एक- ‘जो गंगा नहीं नहाएगा वो देशद्रोही है’ दूसरा- भीड़ की भगदड़ में मरे लोगों के बारे में प्रचारित किया गया।’ गंगा किनारे कोई मरेगा, वो मोक्ष पाएगा’ न मरने वालों के प्रति कोई संवेदना है और न कोइ अफ़सोस। एक विशेष प्रकार का आध्यात्मिक दिखावा ज़रूर सनसना रहा है। यह एक विडंबना है- कहकर इसे हँसी में टाला भी नहीं जा सकता। संस्कृति का दिन-रात क्षरण निर्लज्जता और बाजार बनने के दौर में है। तथाकथित नारों के संदर्भ में जो प्रतिक्रियाएँ आईं, वो क्षोभ प्रकट करती हैं। ऐसे प्रसंगों को गर्हित और निर्लज्ज मानती हैं लेकिन इस खोल के भीतर सत्ता व्यवस्था का जो चेहरा छिपा हुआ है, वो सत्ता व्यवस्था के अंतर्विरोधों और मार्केटिंग का ही खूंखार चेहरा है। जिसमें अपनी असलियत को ढंकने  की क्रूर कोशिश के रूप में इसे विकसित होते हुए देखा जा सकता है। कहना ज़रूरी है कि भाग्यवाद के कमंडल में मोक्ष प्राप्त करने की और पुण्य कमाने की अनंत दलीलों, संभावनाओं के साथ स्वर्ग का प्रवेश द्वार पाने का सपना भी देखा-दिखाया जा रहा है।

   आध्यात्मिकता और असली धार्मिकता जब सूखे और कोरे कर्मकांड में बदलने लगती है तब विज्ञान का ज़रूरी तौर पर संघर्ष, हस्तक्षेप और ज़्यादा बढ़ जाता है। ज़ाहिर है कि अंधविश्वासों, पाखंडों का उपयोग हमें जड़ता की ओर ले जाने की  हमेशा कोशिश करता है। अब तो भारत ही नहीं प्रायः समूची दुनिया मूल्यों, आचरणों, नैतिकताओं, आदर्शों, ईमानदारी और मानवीयताओं से रिक्त होती जा रही  है। हालाँकि जीवन और जीवन मूल्यों को और हमारे समाज और समय  को जड़ताओं, क्रूरताओं, कट्टरताओं और लम्पटताओं की गहरी खाई में फेंक दिया जाता है। हमारे समय में सांप्रदायिक शिल्पकारों और कूढ़-मगज मनोविज्ञानियों की तादाद बढ़ती ही चली जाती है। उनकी चतुराईपूर्ण कार्रवाईयों ने जीवन मूल्यों नैतिकताओं और प्रविधियों का समूचा रस सोख लिया है। यह हम सभी के लिए विशेष चिंता की बात है।

   बाजार का सर्वग्रासी रूप हमारे सामने है। हमारी सभ्यता, संस्कृति, सामाजिकता, साहित्य, कलाएँ, धार्मिकता, अस्मिता, आकांक्षा, जिजीविषा, जीवन मूल्य, संवेदनाएँ, राजनीति और अन्य माध्यम भी उसके संजाल और मोहपाश में आबद्ध हैं। बाजार अपने एक निश्चित एरिया भर में नहीं है बल्कि वो हमारे सामाजिक जीवन, घर-परिवार और बेडरूम तक पहुंच चुका है और तयशुदा बात है कि उसका तीव्र आकर्षण प्रायः सभी को बाँध लेता है। बहुत थोड़े से ही लोग बच पाते हैं, लेकिन उसके दबाव बने रहते हैं। 

   आधुनिकता, संस्कृति, सामाजिकता, धार्मिकता और साहित्य में पूरी तरह से बाजार फैल चुका है। क्या-क्या नहीं बिक चुका है और जिनके पास थोड़ा सा ज़मीर, प्रतिबद्धता, साहस-संकल्प और प्रतिरोध बचा है, वे ही अनेक दिक्कतों में होने के बावजूद लगातार मुठभेड़ और मुक़ाबला कर पा रहे हैं। बाक़ी तो केवल तमाशबीन बने हैं। मुँह बाए खड़े हैं। प्रदर्शनों की होड़ लगी है। मेरी समझ में आधुनिकता और संस्कृति कोई पिकनिक स्पॉट नहीं हैं। यह कोई सैर करने का इलाका भी नहीं है। ज़्यादातर लोगों को मैंने आधुनिकता को प्रदर्शित करते हुए ही देखता रहा हूँ। प्रायः सभी अपने अहंकार को ही उजागर करते हुए ही मिलते हैं। आधुनिकता जीवन मूल्यों की वास्तविकता और प्रविधि में नहीं होती। ऐसा लगता है जैसे आधुनिकता का एक विशेष किस्म का हाँका पड़ा है। आधुनिकता के बरअक्स एक प्रश्न मुझे बार-बार मथता है कि एक ख़ास किस्म के अंधराष्ट्रवाद, धार्मिक कठमुल्लेपन और सांप्रदायिक उन्माद की गतिविधियों के साथ एक वर्चस्ववादी मानसिकता ने मुसलमानों को घृणा का पात्र भर नहीं बनाया बल्कि अछूत और त्याज्य भी बना दिया है। हमारी बहुआयामी अस्मिता बहुसंख्यकों के हितसाधन के चहले में डूब रही है। यह जो निरंतर पुख़्ता होता जा रहा सांस्कृतिक सुभीते में यात्रा कर रहा बाजारवाद है। यह फासीवाद, कर्मकांडवाद और तानाशाही मनोविज्ञान का विशिष्ट रूप है। यह हमारे समय में आधुनिकतावोध के साए में विस्तार पाता हुआ ख़ंजर ही है, जो प्रगतिशील जीवन मूल्यों को दफनाने में लगा है। इसलिए संवेदनहीनता की पैशाचिक छलनाओं में क्रूरता और नफ़रत के साथ काबिज़ होता जा रहा है।

          आधुनिकता, संस्कृति और बाज़ार का क्षेत्र सीमित नहीं है बल्कि बहुत व्यापक भी है। उसके परिप्रेक्ष्य और परिक्षेत्र को कम नहीं समझा जाना चाहिए। इसकी सीमा केवल भारत भर में नहीं है बल्कि समूची दुनिया के बड़े-बड़े इलाकों तक पहुँच चुकी है। आधुनिकता के नाम पर, संस्कृति के नाम पर और बाज़ार के नाम पर इतनी ठगी की गई है और अनवरत ठगी की जा रही है, वह सब कुछ हमारे-आपके सामने है। यथार्थ का अपहरण कर लिया जाता है। मनुष्य की स्वतंत्रता और जिजीविषा को ख़त्म करने के अवाध प्रयास होते हैं।

  आधुनिकता और संस्कृति सचमुच में बड़े मोहक शब्द हैं। दोनों में बड़ा आकर्षण होता है। संस्कृति की हवाएं हमें शक्तिवान बनाती हैं और जीने का राग पैदा करती हैं। यह एक विश्वस्तर का फेनामिना है। देखने में तीनों अलग-अलग हैं लेकिन कार्रवाई में एकदम एक दूसरे के पूरक और आपस में गुँथे-बिँधे हैं। वर्तमान समय में ये विद्रूपों से युक्त भी हो गए है बल्कि एक दूसरे के मददगार। चेहराविहीन कबंध की तरह होते हुए भी स्वार्थों के भयानक संजाल में हैं। इन्होंने अवसरवाद की छायाओं में, अपने आपको स्वार्थपरताओं के लिए शक्तिशाली बनाया है। आधुनिकता का एक बाना है। उसका विशेष अर्थ और संदर्भ है। उसका कई तरह से इस्तेमाल हो रहा है और प्रकटीकरण भी। हमारा वर्तमान समय अतीत की तुलना और परिप्रेक्ष्य में आधुनिक ही होता है। मुझे तो विचारक टायनबी का यह कथन डराता भी है लेकिन सावधान भी करता है कि ‘भविष्य में और भी पूर्ण ज्ञान और माध्यम से संपूर्ण संसार एक ही सभ्यता के सूत्र में बंध जाएगा।’

 आधुनिकता, संस्कृति और बाजार को हमें ज़माने के क्रूर, संवेदनाहीन और त्रासद स्थितियों के रूप में देखना चाहिए। यह है हमारे ज़माने और समय का दुर्दांत और खूंखार चेहरा। आधुनिकता बुरी नहीं होती और न ही संस्कृति। इन्हें हर तरह की सत्ताएँ कैसे इस्तेमाल करती हैं। यह इस पर निर्भर है। यह सब कुछ सत्ताओं के झूठे गुमान पर भी अवलंबित है। हाँ, बाजार की दुनिया अलग है। उसकी असलियत और कारगुजारियाँ अलग हैं। ज़ाहिर है कि हम आधुनिकता, संस्कृति और बाजार को  कट्टरता, कठोरता, लूट-खसोट और अपार घृणा के रूप में विकसित होते हुए लगातार देख रहे हैं। सत्ता व्यवस्था की भूख का कोई अंत नहीं होता, जिसकी सीमाओं का ढंग से निर्धारण भी नहीं किया जा सकता। और न कोई ऐसा फार्मूला दिखाई पड़ता है कि इसे परिवर्तित किया जा सके। इसके कहर को सीमित किया जा सके। तथ्य यह है कि इसे किसी सिद्धांतबाजी में नहीं बल्कि होशो-हवास में देखने की आवश्यकता है। आधुनिकता, संस्कृति और बाजार की विरुदावली का अखंड गायन जारी है। नाम चाहे जो दे दीजिए। नाम देने से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता। क्रूरता, नफ़रत और असंवेदनशील मुस्कुराहटों में उनकी यश-पताकाएं फहरा रही हैं। मुक्तिबोध की कविता की ये पंक्तियाँ पढ़िए- “साम्राज्यवादियों के/ पैसों की संस्कृति/ भारतीय आकृति में बंधकर/ दिल्ली को/ वाशिंगटन व लंदन का उपनगर/ बनाने पर तुली हैं !!/ जन-राष्ट्र लोकायन/ जन मुक्ति आंदोलन/ के सिद्धहस्त विरोधी/ ये साम्राज्यवादियों की पाँत में ही बैठे हैं/ शांति के शत्रुओं का प्राणायाम साधकर/ जनता के विरुद्ध घोर अपराध कर/ फांसी-फाँसी के फंदे की रस्सी से ऐंठे हैं/” 

   मैं आधुनिकता को जीवन के विकास के लिए बहुत ज़रूरी मानता हूँ। लेकिन वह आधुनिकता न तो केवल उत्साही हो और न किसी प्रकार मूल्यविहीन। आधुनिकता नदी के बहाव की भाँति होती है। आधुनिकता का काम मात्र जोश से नहीं चलता बल्कि उसका व्यवहार होश के द्वारा ही सहज संभव हो सकता है। आधुनिकता को आत्मसात करना शीघ्र ही नहीं होता। आधुनिकता का रास्ता अंधविश्वासों, रूढ़ियों और सड़ी-गली चीज़ों को त्याज्य करने से ही हो सकता है। आधुनिकता अतीत की छाती पर चढ़कर आती है। उसमें विवेक का बहुत बड़ा परिसर होना चाहिए। आधुनिकता का रिश्ता गतिशीलता से वैज्ञानिकता से और खुलेपन से ही सही ढंग से हासिल किया जा सकता है, चीख-चिल्लाहट, शोर से और अच्छी परम्पराओं को ख़त्म करके नहीं। आजकल कट्टर रूढ़िपंथी और उग्रनिषेधवादी ही नहीं अव्वल दर्जे के पोंगापंथी भी अराजकता के साथ आधुनिकता में शरीक हो गए हैं। हमारे पास मूल्य थे, ईमानदारी, मूल्य, नैतिकता, आदर्श, निडरता और आत्मालोचन था। हम एक नया मनुष्य रचना चाहते थे लेकिन अमानवीयता ने उसे  सभी ओर से छेंक दिया है। सृजनशीलता, सक्रियता और व्यावहारिकता के साथ किए गए नवाचार समाज और संस्कृति को और मानवीय विश्वासों को विकास की प्रक्रिया की ओर ले जा सकते थे लेकिन सत्ता व्यवस्था पोषित और कॉर्पोरेट घरानों के द्वारा संरक्षित किए जा रहे इरादों ने सभी को ठिकाने लगा दिया है। दुर्भाग्य से संस्कृति, सामाजिकता, वास्तविकता अपने वर्चस्व को कायम नहीं कर सकी और बड़ी तेज़ी से अपसंस्कृति का रूप ग्रहण नहीं कर सकी।

  अंधी धार्मिकता ने अंधविश्वासों, पाखंडों, विकृतियों, विरूपताओं और धूर्तताओं को ही पोषित किया। प्रयागराज का महाकुंभ इसका साक्षात् उदाहरण है। आस्थाओं और धार्मिकता के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। सच को दबाया जा रहा है और परम झूठ के साथ एक पोंगा-पंथी, कट्टर और धूर्तताओं से युक्त सामाजिक जीवन का निर्माण विराट पैमाने पर उत्सव की तरह किया जा रहा है। लोकतांत्रिकता और स्वतंत्रता का वध इसकी वास्तविकता का खुला बयान है। हमारा समय, समाज ही नहीं पूरा जीवन एक ‘स्थाई डर की चपेट’ में आ गया सा लगता। स्वाभाविक रूप से  हँसने-हँसाने की हिम्मत खोता जा रहा है। इस दौर में हम क्रूरता, कट्टरता, कठोरता और मानवता से खलास होते जा रहे हैं। संस्कृति के ऊपर अपसंस्कृति, बाजार और मूल्यहीनता, चमचमाहट और स्वार्थपरताओं का डेरा हो चुका है। संस्कृति के मूल तत्वों, मंतव्यों और सद्गुणों का लगातार उल्लंघन ही अपसंस्कृति की दुनिया है। इसलिए संस्कृति का सांस्कृतिक विविधताओं, मूल्यों और नैतिकताओं का बहुत तेज़ी से क्षरण होता जा रहा है। यह दौर आधुनिकता,संस्कृति और बाजार का है लेकिन विज्ञान टेक्नोलॉजी और मुक्त बाजार इन्हीं  के आसपास हैं। लगता है कि अब संस्कृति के लिए कोई जगह ही नहीं बची। सब कुछ मुक्त है। हर चीज़ का कारोबार हो रहा है। साहित्य, संस्कृति, कलाएँ, धार्मिकता, हमारी अस्मिता और विरासत भी। हम जादुई झूठ के साम्राज्य में साँस ले रहे हैं। आधुनिकता के जबरदस्त आक्रमण में आदमी की क़ीमत  काफ़ी गिर गई है। आधुनिकता और यथार्थ के बीच की खींची गई लक्ष्मण रेखा निरर्थक हो गई है।

  यह कोई सामान्य स्थिति वाला समय नहीं है। यह एक दारुण, बेचैनी, वीभत्स, आडंबर और घृणा का समय है। यह एक विसंगति-विडंबनापूर्ण गपोड़ी समय भी है। हमारे जीवन में इतने दुःख व्याप्त हैं कि मौत, मॉब लिंचिंग और बलात्कार एक प्रहसन की तरह घटाए जा रहे हैं। बड़े स्तर पर असंख्य मौतें छिपा ली जाती हैं। कोरोना के दौर की मौतें गवाह हैं और बाद के  दौर में सामूहिक बलात्कार खुल्लम-खुल्ला हो रहे हैं। ऐसी स्थितियाँ जब तब होती ही रहती हैं। सब कुछ क्षत-विक्षत होता जा रहा है। न्याय व्यवस्था पंगु हो गई है। सच बोलने का साहस ख़त्म होने की कगार पर है। हम सार्वजनिक रूप से झूठ की खेती लार्ज स्केल पर कर रहे हैं। हस्तक्षेप की स्थितियाँ समाज में  कम से कमतर होती जा रही हैं। एक विशेष प्रकार के ‘राष्ट्रीय स्वांग’ ने मनुष्यता को, हमारी अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को नेस्तनाबूद करने का काम ठेके से कर लिया है। इस अवसर पर कृष्णा सोबती का एक निबंध याद कर रहा हूँ, जिसका शीर्षक है – ‘राष्ट्र की साहित्यिक संस्कृति नागरिक समाज की थाती है’ उनके शब्द हैं- “हम यह न भूलें कि हमारी संस्कृति का प्रमुख पक्ष विचार-स्वातंत्र्य ही रहा है। यह तब भी मौजूद रहा, जब हम दूसरों के अधीन थे। विचार की इस लंबी प्रक्रिया ने ही भारतीय दर्शन और चिंतन को विशेष बनाया है। यही भारतीय संस्कृति और जीवन शैली का मुखड़ा है …विभिन्न समाजों के प्रभावो को आत्मसात करने की स्वभावगत क्षमता और लचक ने भारतीय संस्कृति को सांस्कृतिक घनत्व प्रदान किया है।”

  हम देख रहे हैं कि इधर अधकचरे, अधकुचरे और ठगी के मनोविज्ञान ने एक संगठित संस्कृति के बाजार का आकार ग्रहण कर लिया है। जिसे तथाकथित सत्ताएँ पाल-पोष रही हैं। उदाहरण के लिए अनेक में से तात्कालिक रूप से उभरे दो नारों का जिक्र कर रहा हूँ। प्रयागराज महाकुंभ के संदर्भ में ये विज्ञापन के रूप में भी रेखांकित और प्रचारित हुए हैं। सरकारी विज्ञापनों और तथाकथित नकली धर्म अंधविश्वासियों ने पुण्य प्राप्त करने और स्वर्ग कमाने के निरंतर प्रलोभनों की एक लंबी श्रृंखला बना दी। वैसे भी हमारा देश आस्थाओं, मूल्यों, नैतिकताओं और विश्वासों में जीने वाला रहा है। अमीरजादो को छोड़िए। पुण्य कमाने वाले लोग कई वर्षों से माघ मेले में शामिल हो रहे हैं। इस 144 वर्षों बाद आने वाले महाकुंभ ने आस्थावानों को लगभग पगला दिया है। रीवा का ही एक उदाहरण दूँ। एक ऑटो रिक्शा चालक अपनी चाची और उनकी दो परिचितों को लेकर प्रयागराज गया था। भगदड़ में वो तीनों महिलाएँ कहाँ गईं। जीवित हैं या नहीं? एक दिन कई तरह की घोषणाओं को करवाने के बाद रोता-पीटता लौट आया क्योंकि वो अपने बाल-बच्चों को भूखा कैसे छोड़ देता? उनकी पढ़ाई को कैसे स्थगित कर देता? अब रोने कलपने के अलावा उसके पास कोई विकल्प  ही नहीं है ।

  मुझे लगता है कि आधुनिकता और संस्कृति किसी भी सूरत में सुविधा की वस्तुएँ नहीं हैं लेकिन इन्हें नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। आधुनिकता का रिश्ता गतिशीलता से होना चाहिए, जीवन मूल्यों के चतुर्दिक विकाश सी, किसी वेश-भूषा से नही। हँसी आती है जब वेश-भूषा से किसी की पहचान करने की छद्म कोशिश कि जाती है। हमारे देश में यह धारावाहिक ढंग से हैंडलिंग किया जाता रहा है। जाली एल.एल.बी.  फिल्म की अदालत का एक दृश्य याद कर रहा हूँ जब हत्या और हत्याकांड छिपाने के लिए किसी मुसलमान को हिंदू में बदल दिया जाता है। हमारे यहाँ मॉब लिंचिंग के मामलों में मुसलमान विशेष रूप से रेखांकित किए जा रहे हैं। यह एक तरह की अदला-बदली का हिस्सा ही रहा है। इस बदले हुए समय में बहुत कुछ हो रहा है। आइंस्टीन ने बताया था कि समय और स्थान एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अपने तई एक विशेष चीज़ रेखांकित करना ज़रूरी है कि प्रदूषण सिर्फ़ हवा का नहीं है बल्कि मनोविज्ञान का भी है और क्रूरताओं कट्टरताओं का भी

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सेवाराम त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। सम्पर्क +919425185272, sevaramtripathi@gmail.com
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