पाओलो फ्रेयरे का दक्षिण अफ्रीका पर प्रभाव
- पाओलो फ्रेयरे की जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर पर
प्रैक्सिस: रिफ्क्लेशन व एक्शन
पाओलो फ्रेयरे इस बात में यकीन किया करते थे कि कार्रवाई के लिए किये जाने वाले सिद्धांत के किसी भी प्रयास की शुरूआत उत्पीड़तों के दैनिंदिन जीवन के कटु यथार्थ को समझने से शुरू होनी चाहिए। वे हमेशा प्रैक्सिस नामक पद का प्रयोग करते थे जिसका अर्थ होता है रिफ्क्लेशन व एक्शन दोनों साथ-साथ। इसका मतलब यह हुआ कि अपनी परिस्थितियों पर ठीक से दृष्टि डालना, उसे समझना और साथ ही उसे बदलने का प्रयास करना।
यह प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक एंटोनियो ग्राम्शी ने इस शब्द का इस्तेमाल अपने ‘प्रिजन नोटबुक’ में किया था। दरअसल पाओलो फ्रोयरे लेनिन की इस बात कि ‘‘बिना क्रांतिकारी सिंद्धांत के कोई क्रांतिकारी व्यवहार नहीं हो सकता।’’ को अपने ढ़ंग से लागू करने का प्रयास कर रहे थे। पाओले फ्रेयरे का शिक्षाशास्त्र सिर्फ शिक्षा की संवादात्मक व द्वंद्वात्मक पद्धति की ही बात नहीं करता वह अन्य क्षेत्रों – दर्शन, समाजशास्त्र व राजनीति- को भी प्रभावित करता है।
शिक्षा में जिस प्रकार उन्होंने शिक्षक व छात्र दोनों को एक साथ मिलकर ज्ञान सृजन की प्रक्रिया में शामिल करने की बात की उसी प्रकार राजनीति में वे जनता व क्रांतिकारी नेता की भूमिका को परिभाषित करते हैं। पाओलो फ्रेयरे उत्पीड़ित जनसमूह को नेता द्वारा जनता की ओर से लड़ने वाला प्रवक्ता बनाने की प्रवृत्ति के प्रति सावधान करते हैं। दरअसल जो नेता उत्पीड़क जनसमूह से लड़ने के दौरान उत्पीड़ित जनता का समर्थन प्राप्त करता है यदि वह समर्थन सक्रिय समर्थन नहीं है यानी उस लड़ाई में जनता व नेता दोनों एक साथ नहीं है तो संघर्ष की जीत के बाद नेता के खुद उत्पीड़क की मानिंद व्यवहार करने का खतरा बना रहेगा। जनता यहाँ महज नेता को निष्क्रिय सहयोग देने वाली एजेंसी नहीं है अपितु सब कुछ का साथ-साथ निर्माण करने वाली एक्टिव एजेंसी है। ऐसे नेता काम निकल जाने के बाद पुनः जनता से पूर्व की निष्क्रय अवस्था में जाने की सलाह देते हैं। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भी कई मौकों पर इस परिघटना को हम देख व समझ सकते हैं।
पाओलो फ्रेयरे इस खतरे के प्रति हमेशा बेहद सचेत रहने की बात करते हैं कि नेता सिर्फ निर्देश देने वाला और जनता उसे ग्रहण करने वाला, नेता नीति तय करने वाला और जनता उसे लागू करने वाला, नेता सिर्फ भाषण देने वाला और आम जनता उसे महज सुनने वाली पैसिव एजेंसी नहीं होना चाहिए। इससे मुक्ति संघर्ष में भले तात्कालिक सफलता मिल जाये पर संघर्ष को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। इस परिस्थिति में जो नेता उभर कर आयेंगे वे फिर से उत्पीड़कों की तरह की ही बन जायेंगे। फ्रेम वही बना रहेगा जैसा पुराना उत्पीड़क व उत्पीड़ित का बना रहा करता था।
पाओलो फ्रेयरे उस फ्रेम से बाहर आने के लिए हमेशा डॉयलाग की बात करते हैं, प्रैक्सिस की बात करते हैं जिसमें विचार व व्यवहार दोनों साथ-साथ चलता रहता है। ऐसा नहीं है कि विचार करने का, नीतियां बनाने का, रणनीति व कार्यनीति तय करने का कार्य एलीट लोगों का एक समूह करेगा और शेष उस लागू करने वाली एजेंसी में परिवर्तित हो जायेंगे। पाओलो फ्रेयरे के अनुसार यह फिर से वही पुराना मॉडल हुआ जो शोषक व शोषित का हुआ करता था।
प्रैक्सिस सम्बन्धी पाओलो फ्रेयरे के विचार भी फ्रांज फैनन से बहुत हद तक प्रभावित था। यदि इन दोनों के कामों को साथ-साथ पढ़ा जाये दक्षिण अफ्रीका में काम की जगहों तथा रहने की जगहों पर राजनीतिक काम कैसे काम किया जाये इस सम्बन्ध में दृष्टि प्रदान करता है। प्रैक्सिस सम्बन्ध उनकी इस अवधारणा ने पृथ्वी के सबसे प्रभावी व ताकतवर सामाजिक समूहों को उन्मुक्त कर दिया था जिसमें उत्पीड़ित लोग ही मुख्य रूप से नायकत्व के गुणों से सम्पन्न होते हैं।
अंततः लक्ष्य यह होना चाहिए कि यथार्थ को कैसे बदला जाये। उत्पीड़ित जनता उस यथार्थ को जीते हुए उसे अच्छी तरह समझती है। यह उत्पीड़ित जनता ही है जो अपनी समस्याओं का सबसे अच्छी तरह समझती है। वे अपने यथार्थ को आलोचनात्मक ढ़ंग से देख सकें यह सबसे आवश्यक है।
हम सभी लोगों को एक साथ आकर यथार्थ को बदलने का प्रयास करना चाहिए। सही क्रांति को जनता द्वारा सम्पन्न करना चाहिए। अंततः लक्ष्य है कि उत्पीड़ितों को उनकी अमानवीय परिस्थितियों से मुक्त करना चाहिए। हमें जनता के मध्य उनकी मर्जी व अनुमति से ही होना चाहिए। हमें जनता की मदद से उनकी समस्याओं की जड़ों को समझकर फिर उनके साथ ही मिलकर उनके निदान की कोशिश करनी चाहिए।
राइट एंड लेफ्ट सेक्टेरियनिज्म से सावधान रहने की जरूरत
पाओले फ्रेयरे ने दो किस्म की संकीर्णता (सेक्टेरियनिज्म) का जिक्र किया है। दक्षिणपंथी संकीर्णता (राइटिस्ट सेक्टेरियनिज्म) और वामपंथी संकीर्णता (लेफ्टिस्ट सेक्टेरियनिज्म)। दक्षिणपंथी संकीर्णता पाओलो फ्रेयरे के मुताबिक जन्मजात संकीर्णता हुआ करती है। यह संकीर्णता ऐतिहासिक प्रक्रिया को धीमा बनाती है इसके लिए वह समय को घरेलू व आज्ञाकारी (डोमेस्टिकेट टाइम) बनाती है या कहें वश में कर लेता है ताकि स्त्री व पुरूष दोनों को भी घरेलू बनाया जा सके। जो वामपंथी संकीर्णता की ओर झुकता है वह इतिहास को गैर-द्वंद्वात्मक ढ़ंग से व्याख्यायित करता हुआ नियतिवादी स्थिति का शिकार हो जाता है।
दक्षिणपंथी संकीर्णता एवं वामपंथी संकीर्णता से इस मायने में भिन्न होता है कि पहला जहाँ वर्तमान को वश में कर लेता है ताकि भविष्य इसी वर्तमान को आगे बढ़ाता रहे या उसे पुर्नउत्पादित करता रहे। जबकि दूसरा यह समझता है कि भविष्य तो पूर्वनिर्धारित है, अवश्यम्भावी है यानी उसे होना ही होना है। दक्षिणपंथी के लिए वर्तमान अतीत से जुड़ा हुआ है। लिहाजा पूर्वप्रदत्त है और बदला नहीं जा सकता। वहीं वामपंथी संकीर्णता भविष्य को पहले से तय मानकर चलती है। जैसे समाजवाद को तो आना ही आना है। ये दोनों विचार इस कारण प्रतिक्रियावादी हो जाते हैं कि दोनों इतिहास के सम्बन्ध में गलत धारणा से निर्धारित होते हैं। ये दोनों प्रवृत्तियां स्वाधीनता का निषेध करती है। पहला एक सभ्य वर्तमान की कल्पना करता है वहीं दूसरा पूर्वनिर्धारित भविष्य का। पहला यह सोचता है कि यह जो वर्तमान है वह सनातन है जबकि दूसरे के लिए भविष्य तो पहले से जाना हुआ है।
पाओलो फ्रेयरे और दक्षिण अफ्रीका
पाओलो फ्रेयरे का अफ्रीका के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव रहा। वे जाम्बिया, तंजानिया, गिनी-बिसाउ, अंगोला, केप वर्डे, साओ टोम व प्रिंसिपे आदि देशों में भी रहे। इन देशों के नेतृत्वकारी नेताओं से मुलाकात की। अफ्रीका के पाओलो फ्रेयरे के लगाव को इन शब्दों में महसूस किया जा सकता है ‘‘उत्तर-पूर्वी ब्राजील का निवासी होने के नाते, मैं अफ्रीका से कुछ हद तक बंधा हुआ हूँ। खासतौर पर अफ्रीका के उन देशों से जो इतने बदकिस्मत थे कि वहाँ पुर्तगाली उपनिवेश स्थापित हुआ।’’
‘पेडोगॉजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ के प्रकाशन ने, न सिर्फ लैटिन अमेरिकी बल्कि अफ्रीका महादेश में भी गहरा प्रभाव डाला। 1972 में इस पुस्तक को ‘साउथ अफ्रीकन स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन’ (एस.ए.एस.ओ) ने अपनाया। इस संगठन की स्थापना 1968 में स्टीव बिको, बार्ने पित्याना, रूबिन फिलिप, औबे मोकापे तथा अन्य छात्रों ने मिलकर की थी। 1968 का साल पूरी दुनिया में छात्रों के बड़े-बड़े संघर्षों के लिए जाना जाता है। साउथ अफ्रीकन स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन आगे चलकर दक्षिण अफ्रीका में ‘ब्लैक कंशसनेस मूवमेंट’ (बी.सी.एम) का जनक बना।
दक्षिण अफ्रीका में ‘पेडागॉजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ के लोकप्रिय होने से रंगभेदी निजाम इस कदर आतंकित हो चली थी कि उसने पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा डाला था। फिर भी चोरी छुपे अंडरग्राउंड तरीके से उसकी प्रतियां दक्षिण अफ्रीका में पढ़ी जाती थी। 1970 के दशक में पाओलो फ्रेयरे की पद्धतियों का इस्तेमाल दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासन को समझने के लिए किया जाने लगा। स्टीव बिको इस मामले में नेतृत्वकर्ता थे। ऐसा माना जाता है कि इस दौरान दक्षिण अफ्रीका में पेडागॉजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ ‘यूनिवर्सिटी क्रिचियन मूवमेंट’ के माध्यम से पहुंची। यह संस्था फ्रेयरे से प्रभावित होकर साक्षरता कार्यक्रम चलाया करती थी। इसी ईसाई संस्था द्वारा संचालित ट्रेनिंग कार्यक्रमों में स्टीव बिको, बार्ने पित्याना आदि 14 लोग फ्रेयरियन पद्धति में प्रशिक्षित हुए थे। ‘ब्लैक कंशसनेस मूवमेंट’ के एक प्रमुख शख्सियत बेन्नी खोपा के अनुसार ‘‘पाओलो फ्रेयरे ने स्टीव बिको पर गहरा दार्शनिक प्रभाव छोड़ा था।’’
इन कार्यशालाओं के दौरान कार्यकर्ताओं ने समुदाय आधारित शोध को कंशसटाइजेंशन की प्रक्रिया के दौरान अपनाया था। बाद के दिनों में बर्नी पित्याना ने उस दौर को याद करते हुए बताया ‘‘एन्नी होप मुख्यतः इन साक्षरता प्रशिक्षण कार्यक्रमों को चलाया करते थे। लेकिन ये प्रशिक्षण कार्यक्रम थोड़े भिन्न ढ़ंग के होते थे। पाओलो फ्रेयरे के साक्षरता प्रशिक्षण कार्यक्रम में मानव जीवन के अनुभवों को आवधारणों को समझने में उपयोग में लाया जाता था। दैनिंदिन जीवन के अनुभवों के द्वारा समझदारी कायम करने पर बल दिया जाता था। इसका मस्तिष्क पर, सीखने तथा समझदारी पर कैसा प्रभाव पड़ता है इसका प्रयास किया जाता था।’’
स्टीव बिको की तरह रिकी टर्नर थे। रिकी टर्नर क्रांतिकारी एकेडमिशियन थे जो अपने छात्रों के मध्य काफी लोकप्रिय थे। स्टीक बिको की तरह ही रिकी टर्नर भी पाओलो फ्रेयरे से बहुत प्रभावित थे। वे छात्रों को पढ़ाने के दौरान फ्रयेरे की पद्धतियों का इस्तेमाल किया करते थे। इन दोनों ने मजदूर आन्दोलन पर भी गहरा प्रभाव छोड़ा। ये दोनों दक्षिण अफ्रीका में काफी लोकप्रिय हो चुके थे। फ्रेयरे से प्रभावित इन दोनों प्रमुख शख्सियतों की दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी निजाम द्वारा हत्या कर दी गयी। स्टीव बिको पुलिस हिरासत में मार डाले गए जबकि रिकी टर्नर को हत्या कर दी गयी।
दक्षिण अफ्रीका के अतिरिक्त पाओलो फ्रेयरे ने गिनाबिसाउ व तंजानिया में भी प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाया। गिनी-बिसाउ के महान नेता अमिल्कर कबराल के पाओलो फ्रेयरे मुरीद थे। फ्रांज फैनन के साथ-साथ पाओलो फ्रेयरे पर अमिल्कर कबराल का भी गहरा प्रभाव था। अफ्रीकी महादेश के छोटे से देश गिनी-बिसाउ के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के नेता अमिल्कर कबराल माना करते थे कि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष दरअसल एक सांस्कृतिक कार्रवाई हुआ करती है। उनका मशहूर ओलख ‘नेशनल लिबरेान एंड कल्चर’ आज भी चाव से पढ़ा जाता है। अमिल्कर कबराल का यह मानना था कि यदि कोई देश जिसने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से मुक्ति पाई हो और मुक्ति के पश्चात उपनिवेशवादियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को ही बरकरार रखा हो तो यह समझना चाहिए कि उस देश में उपनिवेशवाद का ही एजेंडा अभी भी लागू किया जा रहा है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अंग्रेजी के बने रहे प्रभुत्व को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। अमिल्कर कबराल की बाद में हत्या कर दी गयी। ठीक फ्रांज फैनन भी मात्र 36 वर्ष की उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त हुए।
पाओलो फ्रेयरे और लिबरेशन थियोलॉजी
पाओलो फ्रेयरे वैसे तो विचारों से मार्क्सवादी थे लेकिन वे पादरी भी थे। ‘लिबरेशन थियोलॉजी’ (मुक्तिकामी धर्मशास्त्र) लैटिन अमेरिकी परिघटना है। लिबरेशन थियोलॉजी से जुड़े कई लोगों ने लैटिन अमेरिका में क्रांतिकारी परिवर्तनों में भाग लिया था। पओलो फ्रेयरे को लिबरेशन थियोलॉजी का जन्मदाता भी माना जाता है। लिबरेशन थियोलॉजी में गरीबों व उत्पीड़ितों को केंद्र में रखा जाता है। ये लोग माना करते थे कि धर्म सिर्फ लोगों को मूर्ख बनाने के लिए ही नहीं अपितु उन्हें मुक्ति के पथ पर भी ले जाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। लिबरेशन थियोलॉजी से जुड़े चर्चित पादरी फादर कामरा का यह वक्तव्य काफी चर्चित है जिसमें वे कहा करते थे ‘‘जब मैं गरीबों को रोटी देता हूँ तो लोग मुझे संत कहते हैं जब मैं उनसे पूछता हूँ कि उन्हें रोटी क्यों नहीं है तो वे मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं।’’ खुद पाओलो फ्रेयरे कहा करते कि मै ‘‘ईसा मसीह के माध्यम से मार्क्स के नजदीक आया’’। भारत में धर्मशास्त्र के माध्यम से मार्क्स के नजदीक आने वालों में सबसे प्रमुख नाम स्वामी सहजानंद सरस्वती का है जिन्होंने भारत में सबसे पहले संगठित किसान आन्दोलन की शुरूआत की थी।
पाओलो फ्रेयरे के विचार व पद्धति भले ब्राजील में प्रयोग में लाये गए लेकिन उसने दुनिया भर में चल रहे संघर्षों को प्रभावित किया। दक्षिण अफ्रीका में पाओलो फ्रेयरे का बहुत प्रभाव पड़ा। भारत में भी पाओलो फ्रेयरे काफी लोकप्रिय रहे हैं। यहाँ के साक्षरता आन्दोलन में भी फ्रेयरे का उपयोग किया गया है। साक्षरता आन्दोलन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता गालिब खान के अनुसार “‘केरल शास्त्र साहित्य परिषद्’ (के.एस.एस.पी) द्वारा चलाये गए साक्षरता अभियानों में पाओलो फ्रेयरे की पद्धति का उपयोग किया गया। यहाँ तक कि दरभंगा (माटी पानी) व धनबाद में उनके कामों का आधार बनाकर कोशिश की गयी। इसका सामाजिक जागरण पर भी प्रभाव पड़ा।”