आज गांधी के बाद लोहिया ही सबसे ज्यादा प्रासंगिक है
महापुरूषों की स्मृति और मूल्यांकन से ही कोई समाज ऊर्जा ग्रहण कर निखर सकता है। गांधी जी के बाद डॉक्टर राममनोहर लोहिया ही सबसे प्रखर विचारक-चिंतक रहे हैं। अपनी धरती-मिट्टी, उसकी सुगंध से जुड़े हुए है। छिटपुट लेखन-भाषण, सभा-गोष्ठियों में दिये विचार, ‘जन’ ‘मेनकाइंड’ में लिखी चीजें, पार्टी अधिवेशनों में हुई बहसें, लोकसभा की बहसें ही, वे आधारभूत चीजें हैं, जिनसे लोहिया की वैचारिक मान्यताओं के बीच एक अटूट रिश्ता, श्रृंखला या तारतम्य की तलाश की जा सकती हैं, कोई सुव्यवस्थित-संपूर्ण विचारधारा उन्होंने नहीं दीफ टुकड़े सूत्र या नारो में कहीं उनकी बातों में एक समग्र दृष्टि झलकती हैं।
आज गैर कांग्रेसवाद का सपना कहां है? या इससे देश को क्या मिला? कुछ राजनीतिक विश्लेषक आरोप लगाते हैं कि आज भाजपा इस गैर कांग्रेसवाद की सीढ़ी पर चढ़ कर ही शीर्ष पर पहुंची है। वह पूर्णतया असत्य भी नहीं हैं। हालांकि जनतंत्र में डॉ लोहिया रोटी (सत्ता) पलटने की अनिवार्यता पर बार-बार जोर देते थे। वह निराश रहने और काम करने (निराशा के कर्तव्य) के पैरोकार थे।
संगठन नहीं चला पाने, की उनमें जबररदस्त कमी रही। लोहियावादियों के बारे में वह जुमला ही चल पड़ा कि वे दल तोड़क होते हैं। खंड-खंड में बंटने को अभिशप्त, खुद को लोहियावादी माननेवाले कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, सजपा, तेलुगु देशम से आइपीएफ तक फैले हैं, अर्थशास्त्रियों के संदर्भ में पुरानी प्रचलित कहावत है, पांच अर्थशास्त्री होंगे, तो छह विचार होंगे। यही हालत उनके अनुयायियों की रही। समाजवादियों का अतीत चाहे जितना भी समृद्ध रहा हो, पर आज उनकी विरासत पर सवाल तो उठते ही हैं।
चिंतक गणेश मंत्री के अनुसार मसीहा माननेवालों की तरह लोहिया समर्थक भी वक्ती राजनीति के हथियार के रूप में उनका इस्तेमाल कर रहे हैं। करते रहे हैं। 2011 में हैदराबाद में नयी सोशलिस्ट पार्टी बनाई गई। जब-जब राजनीति में लोहियावादी हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं, उन्हें लोहिया की याद आती है। राजनीति में मर्यादा-विहीनता, दल-बदल, सिद्धांतहीन गंठबंधनों और विधायिका में असंयत आचारण के लिए लोहिया के कटु आलोचक उन्हें दोषी बताते हैं। पर ऐसी खंडित और आंशिक आलोचनएं उनके संपूर्ण व्यक्तित्व और समग्र सृजन को स्पष्ट करतीं।
गणेश मंत्री के शब्दों में कहें तो विचारक और आन्दोलनकारी, राजनीतिज्ञ और सामाजिक, क्रांतिकारी, विद्रोही और परंपराशोधक की अंतविरोधी भूमिकाएं उन्होंने एक साथ निभायी। पूंजीवाद विरोधी, साम्यवाद विरोधी, साथ ही गांधी के व्याख्याकार भी, अधिनायकवाद विरोधी, पर संसदीय प्रणाली की सीमाओं के प्रखर आलोचक, दार्शनिक दृष्टि से उदारवादी, पर कार्यक्रम पर अमल की दृष्टि से उग्रवादी। अपरिमित करूणा और अपार क्रोध, साथ-साथ दबे-पीड़ित, पिछड़े हरिजन, नारी के अधिकार के सवाल परप सात्विक आक्रोश से भरे।
‘महारानी के खिलाफ मेहतरानी’ को खड़ा करने के सामाजिक समता के संकल्प से बद्ध वे खुद को नास्तिक मानते थे। परंतु मनुष्य में विश्वास और उसके कल्याण में घोर आस्था रखनेवाले वह असात्विक थे। समता और समृद्धि पर आधारित नहीं सभ्यता का सपना देखनेवाले। भारतीय इतिहास के यक्ष प्रश्न उन्हें मथते रहे। वह जानना चाहते थे कि जब बुद्ध-आम्रपाली की भेंट हुई होगी, तो क्या हुआ होगा? आम्रपाली ने क्यों बुद्ध पर सर्वस्व न्योछावार किया और बुद्ध ने आम्रपाली को कैसे स्वीकार किया? कन्याकुमारी की शिला पर ध्यानमग्न विवेकानंद किस दिशा की ओर मुंह किये बैठे होंगे?
भारत के तीर्थस्थल, सारनाथ, अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो, महाबलीपुरम, रामेश्वरम, उर्वशीयम जैसी जगहों उन्हें बार-बार खींचती थीं। चित्रकूट के किस रास्ते राम दक्षिण की ओर निकले होंगे। उनकी अभिलाषा रही कि ‘एक बार चित्तौ़ड से द्वारिका पैदल जाऊं जिस रास्ते मीरा गयी थी। चित्तौड़ में जौहर-इतिहास को महिमामंडित करने के सवाल के बेचैन इंसान। श्रद्धेय डॉ धर्मवीर भारती से एक अवसर पर पूछा कि ‘पता नहीं राम ने कभी सागर पर सूर्यास्त देखा या नहीं? वाल्मीकि रामायण देखकर मुझे लिखना नहीं ‘सागर पर सूर्यास्त का वर्णन नहीं है क्या? सुंदरता में कुछ करूणा का पुट होता है, तभी वह उदात्त होती हैं। सूर्योदय में चुहल हैं, वेग है, सूर्यास्त में करूणा है, सौभ्यता है, जैसे रस से पक गया हो’ राजगृह में जरासंघ का अतीत ढूंढनेवाला, पासपोर्ट के बिना ध्रुव से ध्रुव तक के बड़े देश में यात्रा करने की आकांक्षा से प्रेरित विश्व सभ्यता का सपना देखनेवाले डॉ साहब ने अदभुत कार्यक्रम दिये।
सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी, घेरा डालो, दाम बांधो, सप्तक्रांति, नर-नारी समता, रंगभेद, चमड़ी सौंदर्य, जाति प्रथा के खिलाफ, मानसिक गुलामी, सांस्कृतिक गुलामी, दामों की लूट, शासक वर्ग की विलासिता, खर्च पर सीमा, 10 हजार बनाम 3 आने, संगठन सरकार के बीच का रिश्ता, जैसे असंख्य सवाल-मुद्दे कार्यक्रम उन्होंने उठाये और लड़े-पहली बार केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। धारा के खिलाफ चलने की राजनीति की परंपरा डाली और अपने निकट के लोगों को सही मुद्दे उठा कर चुनाव हारने के लिए खड़ा किया। उन्हें शानदार हार पर बधाई दी।
उन्होंने ऐसी राजनीतिक पार्टी की कल्पना की… ‘मैं चाहता हूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाए कि पिटती रहे, पर डटी रहे। आखिर वह कौन सी ताकत थी, जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को, बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही समाजवादी आन्दोलन के पिछले 25 वर्ष के इतिहास को आप देखेंगे, तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है, वह है कि पिटना नहीं जानते। जब भी पिटते हैं। धीरज छोड़ देते है, मन टूट जाता है और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के तैयार हो जाते हैं? ‘इस कसौटी पर उनके उत्तराधिकारियों को आप कस सकते हैं। और इसके लिए उन्होंने ‘निराशा के कर्तव्य’ निरूपित किये कहा।
पिछले 1500 बरस में हिंदुस्तान की की जनता ने एक बार भी किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं किया। बगावत करते हैं। कानून तोड़ते है। इमारतों वगैरह को तोड़ते हैं, या उन पर कब्जा करते हैं, जालिम को गिरफ्तार करते हैं, फांसी पर लटका देते है।’ मरने से एक माह पूर्व बिहार (गिरिडीह) में अपने अंतिम भाषण में कहा मुझे इतना धीरज है कि अपने सपनों को अपनी आंखों से सच होते न देख पाऊं और फिर भी मलाल नहीं करूं’ पर आश्वस्त कि लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, पर मेरे मरने के बाद।
आज भी लोहिया जी के संदर्भ में दो तरह से सोचने वाले लोग हैं। एक डॉक्टर साहब की किसी आलोचना को सुनना नहीं चाहते, दूसरे उन्हें क्रोधी, चिड़चिड़े और सिरफिरे तक कहते हैं। दोनों ही अपूर्ण और अति के छोर पर हैं, वे महज नेहरू खानदान के आलोचक, गैर कांग्रेसवाद के जनक या कुछ विवादास्पद नीतियों के प्रतिपादक नहीं थे। देशज परंपराओं-मान्यताओं के तहत उन्होंने मौखिक ढंग से चीजों को परखा-देखा, नवजागरण की पश्चिमी चकाचौंध पीड़ित भारतीय धारा के खिलाफ देशज समाजवाद व्यवस्था का एक अस्पष्ट खाका उन्होंने दिया।
शास्त्रीय ढंग से विचार तथा इतिहासचक्र, सप्तक्रांति, मार्क्स के बाद अर्थशास्त्र, एशियाई समाजवाद आदि प्रासंगिक नहीं लगते, या लोहिया पर इतिहासकर टायनबी, यहूदी चिंतक मार्टिन ब्यूबर, अरस्तू, अफलातून और सुकरात के विचारों का कितना असर था, जैसे सवाल शोध करने वाले, गहराई से अध्ययन करनेवालों के लिए हैं। डॉ लोहिया के बताये रास्ते पर चलनेवाला आज कोई दल,संगठन या फोरम नहीं है। दल के सम्बन्ध में उनकी कल्पना अद्भुत थी। ‘फै्रगमेंट्स ऑफ वर्ल्ड माइंड’ में उन्होंने कहा है कि ‘सोशलिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी तो उसका नकारात्मक दृष्टिकोण है। शिकायत करने की ताकत तो बची हुई हैं, पर सोचने और कर्म करने की ताकत गायब हो गयी है।
उन्होंने कहा भी कि ‘सफल कर्म के लिए रचनात्मकता और संघर्षशीलता दोनों का मिश्रण जरूरी है। ‘निराशा के कर्तव्य’ और 300-400 बरसों तक पिटनेवाली पार्टी की कल्पना उन्होंने की। साम्यवाद की विफलता और पूंजीवादी व्यवस्था की आतंरिक रूग्णता के बाद आज लोहिया की प्रासंगिकता ब़ढी है। भाषा के सम्बन्ध में उन्होंने जो विचार दिये, उसका राजनीतिक इस्तेमाल हुआ। उसके आर्थिक पहलुओं पर चर्चा नहीं हुई। भारत के संदर्भ में आर्थिक, राजनीतिक क्रांति या बदलाव के साथ-साथ सामाजिक क्रांति या बदलाव नहीं होगा, तब तक बात नहीं बनेगी।
सांप्रदायिकता, हिंदू-मुसलमान एकता, भारत-पाक महासंघ जैसे विचारों के बाद भी सांप्रदायिकता की आंच से सारा देश-समाज झुलस रहा है। उनके ऐसे मौलिक विचारों में ताकत तो है, पर उनके अनुयायी संगठन ने इसे नहीं बढ़ाया। मोटे तौर पर ये कुछ मौलिक अवधारणाएं हैं। यहीं वे नीतियां भी हैं, जिनके संदर्भ में लोहिया ने कहा था कि ‘उनके आदर्शों को मान कर चलने वाली पार्टी भले ही खत्म हो जाए, उनकी नीतियां खत्म नहीं होगी।’ क्योंकि दूसरा कोई पथ नहीं हैं। आज यह पथ न केवल सुनसान है, बल्कि जोखिम भरा भी। इस पर चलने से लोग डर रहे हैं, पर पथ कहीं हैं, तो पथिक आयेंगे ही।
उनकी दृष्टि में समाजवादी आन्दोलन आर्थिक-राजनीतिक परिवर्तनों से अधिक एक नयी संस्कृति पैदा करने का आन्दोलन रहा है। समता, आजादी, बंधुत्व पर आधारित। डॉक्टर लोहिया का राजनीतिक रूप निश्चित रूप से प्रभावी। जुझारू और अकेले चलने की ताकत से भरा पूरा था। अनोखा और साहसपूर्ण वह दौर तो ऐसा रहा कि शब्दिक अर्थों में अकेले ही दर्शकों तक चट्टान की तरह निर्विकार भाव से वह राजसत्ता से जूझते रहे।
विलक्षण ऊर्जा और ताकत के साथ, लोकसभा के अंदर और बाहर, हालांकि जिन साथियों के साथ’ 42 में पुलिस से ल़डते गोलियों का सामना किया था, वे भी अलग हो गये थे। जेपी, अच्युत पटवर्द्धन, अशोक मेहता, अरूणा आसफ अली जैसे महान लोग भी उनसे अलग हो गए। संवेदनशील, चिंतक, विचारक और भारतीय संस्कृति के व्याख्याता के रूप में उनके व्यक्तित्व का सम्यक मूल्यांकन नहीं हुआ। भारत के तीर्थ, भारत की नदियां, इतिहासचक्र, हिमालय, भारत की संस्कृति, भाषा, भारतीय जनकी एकता, भारत का इतिहास लेखन और विश्व एकता के सपने पर उन्होंने मौलिक-अनूठे ढंग से विचार किये।
बहुआयामी सोच था उनका, वशिष्ठ, बाल्मीकि, रामायण, कृष्ण, राम, शिव, रामायण मेला जैसे विषयों पर मौलिक अवधारणाएं-व्याख्याएं कृष्ण पर जिस ढंग से उन्होंने विचार किया है, वैसा किसी संत, साधक या महान बुद्धिजीवी ने भी नहीं सोचा डॉ लोहिया की राजनीति इन्हीं मौलिक विचारों-बिंदुओं की बुनियाद पर खड़ी थी। राजनीति के उस भवन में कई चिंदिया आज लग गयी है। झाड़-झंखाड़ भी हैं, पर वह बुनियाद स्रोत जिनसे उनकी राजनीतिक विचारधारा प्रस्फुटित हुई थी, आज और अधिक प्रासंगिक है।
द्रौपदी को आदर्श बतानेवाले डॉ लोहिया ‘ईश्वर’ और ‘औरत’ को जीवन में सबसे महत्वपूर्ण मानते थे। गांधी के रामराज्य के स्थान पर ‘सीताराम राज’ की कल्पना की। राधा के चरित्र के नये व्याख्याकार। मीरा के सात्विक सौंदर्य-भक्ति से प्रभावित। हिंदी के नये शब्दों-मुहावरों के प्रणेता। उस दौर की पूरी की पूरी सृजनशील पी़ढी को झकझोरनेवाले ‘कल्पना’ ‘जन’ ‘मैनकाइंड’ और ‘दिनमान’ के माध्यम से हिंदी जगत को वैचारिक रूप से उद्वेलित करनेवाले लोहिया, इतिहासचक्र के रचनाकार उनका व्यक्तित्व एक बंधे-बंधाये सोचे में निरूपित नहीं किया जा सकता, पर अपूर्ण उनकी राजनीति का एक झलक, जिसे ‘अल्पकालीन धर्म’ (और धर्म को दीर्घकालीन राजनीति) वह कहते थे, उसका उद्देश्य बुराई से लड़ना था। राजशक्ति की राक्षासी ताकत के खिलाफ साबूत खड़ा होना था। यूगोस्लाविया में मित्र मिलोवन जिलास की कैद, कांगों में लुमुंबा की हत्या, पाकिस्तान में खान अब्दुल गफ्फार खां की जेल और खुद एक पांच जेल में और एक बाहर रखनेवाले लोहिया तत्कालीन विश्व स्थिति से निराश पर एशिया-अफ्रीका में वह नयी राजनीति नये विकल्प की तलाश में बेचैन थे। गांधी के जीवन में लगता था कि राष्ट्रीय आन्दोलन नयी सभ्यता का अगुआ होगा।
और इसी नयी सभ्यता की आवश्यकता के संदर्भ में आज लोहिया की प्रासंगिकता गांधी के बाद सबसे अधिक है। तीसरे विकल्प की तलाश में बेचैन उनकी पूरी राजनीति और विचार-यात्रा, इस नये विकल्प, नये मनुष्य, नयी व्यवस्था और नये सपने के ईद-गिर्द हो रही।और इस भटकती दुनिया, (सिर्फ भारत में नहीं) साम्यवाद और पूंजीवाद के विफल होने के बाद की बेचैन दुनिया को आज सबसे अधिक एक नये विकल्प, नयी सभ्यता और पूंजीवाद के विफल होने के बाद की बेचैन दुनिया को आज सबसे अधिक एक नये विकल्प, नयी सभ्यता और संस्कृति की तलाश है। अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए और इसी कारण आज लोहिया बहुत प्रासंगिक है।