मुद्दासामयिक

गरीबी, गन्दगी और इम्युनिटी

 

हमारा भारत देश महान है। विदेशियों (पश्चिमी देश वाले) का कहना है कि भारत सपेरों, नटों और ठगों (भिखारियों से लेकर टैक्सी व ऑटो ड्रायवर और होटलों के दलालों तक) का देश है। दावा है कि अब सरकार ने इस छवि को पलट दिया है। सचाई कितनी है आप ही तय करें। चूँकि यह अत्यन्त प्राचीन देश है, इसकी संस्कृति भी अति प्राचीन है (उपरोक्त सभी विशेषज्ञताएँ, धर्म, दर्शन, कर्मकांड, पाखण्ड, अन्धविश्वास इत्यादि को मिलाकर) इसलिये भी भारत महान है। और इसे विश्व-गुरू का तमगा भी इधर देश के कर्णधारों ने बख्श रखा है।

1952 के चुनावों के बाद से हमारी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में यह पढ़ाया जाता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारत की सत्तर प्रतिशत आबादी गाँवों में बसती है और खेती-किसानी पर अपना निर्वाह करती है। तो भारत की इस इमेज को तोड़ने के लिये या कहें बदलने के लिये पण्डित नेहरु ने इस देश में बड़े-बड़े उद्योग-धन्धों की स्थापना की, सार्वजनिक उपक्रमों का गठन किया। भारत को लोकतांत्रिक और समाजवादी देश बनाने के लिये पंचशील के सिद्धांत बताए, पंचवर्षीय योजनाएँ बनाईं, पाँच साला चुनाव करवाए।

गाँधी जी की बताई खादी की पोशाक पहनी और उसे धुलवाने पेरिस भेजते रहे। टाटा, बिड़ला, डालमिया को भारत के विकास में हिस्सेदारी दी गयी। सभी राजाओं, महाराजाओं (जिनमें क्रूर अपराधियों से लेकर व्यवसायी और थोड़े उदार किस्म के लोग शामिल थे) को सत्ता में शामिल किया गया और उन्हें प्रिवी-पर्स तथा विशेष अधिकारों से (जो शायद अँग्रेजों की स्वामिभक्ति के कारण ही प्राप्त हुए थे) कतई वंचित नहीं किया गया बल्कि उनमें इजाफा ही हुआ। इस परस्पर विरोधी कार्य नीति और व्यवहार के चलते भारत में गरीबी की महानता भी बरकरार रही आई।

भारत में इधर एक छोटे से समुदाय में अमीरी और सुख सुविधाओं की अकल्पनीय वृद्वि हुई तो उधर गरीबों की संख्या में भी द्रुतगति से इजाफा होता गया है। भारत में गरीबी का शाश्वत महात्म्य सदैव बखाना गया है। जैसे कि गरीबी एक ईश्वरीय परिघटना, भाग्य का खेल, पुनर्जन्म का फल है आदि आदि। गरीबों का काम सदैव साधन सम्पन्न अमीरों की सेवा करना। स्वयं जन्म जन्मांतर तक गरीब बने रहकर अमीरों के लिये जीवन दे देना ही गरीबों की महानता है। गरीब गरीब होता है उसका जीना-मरना क्या, खाना-पीना क्या, रहना-सहना क्या और सोना-जागना क्या। तो गरीबी की एक सशक्त सुदृढ़ और सुदीर्घ परम्परा हमारे देश में बहुत परिश्रम से बचाए रखी गयी है। यह हमारी महानता का अत्यावश्यक भाग है हम इसे कदापि नष्ट नहीं करना चाहेंगे।

चलिये अब इस महान परम्परा की एक महान उपशाखा की ओर अपना ध्यान केंद्रित करें। एक दिन भारतीय रेल की एक द्रुत गति की एक्सप्रेस ट्रेन के द्वितीय श्रेणी (पहले जमाने में जिसे तीसरे दर्जे के नाम से जाना जाता था) के ठसाठस भरे डिब्बे में यात्रा कर रहा था। भीड़ इतनी थी कि बावजूद सारे दरवाजे-खिड़कियाँ खुले होने के हवा नहीं आ पा रही थी। रह रह कर बीड़ी, पसीने और बिना धुले कपड़ों से उठती दुर्गंध के बगूले नथुनों में जबरन प्रवेश किये जा रहे थे। बहुत बेचैनी हो रही थी पर वहाँ एक निर्विकल्प मजबूरी थी सो कभी इस टाँग पर वजन डाल कर तो कभी उस टाँग पर वजन डाल कर चुपचाप खड़ा था। जेब में कुछ पैसे थे सो चेतना उस पर केंद्रित थी क्योंकि वहाँ किसी भी क्षण कोई प्रोफेशनल गिरहकट हाथ की सफाई दिखा सकता था। ऐसा दो चार बार मेरे साथ हो भी चुका था।

जेब में बमुश्किल सौ-सवा सौ रुपये रहे होंगे पर वे भी गिरहकटों की आँख की किरकिरी बन गये थे। किसी तरह पैर आगे-पीछे करते-करते शौचालय की दीवार के सहारे टिक पाया था। दोनों तरफ दरवाजे खुले थे पर हवा नाम को भी नहीं लग रही थी। भयानक सफोकेशन था तब भी लगातार लोग बीड़ी और सिगरेट पिए जा रहे थे। जहाँ मैं खड़ा था ठीक उसके बाजू में किसी तरह एक मोटे काले और भद्दे से आदमी ने बैठने की जगह बना ली थी, वह बैठ गया था। वह खैनी खा रहा था। थोड़ा ही समय बीता होगा कि उसने पिच्च से मेरे पैर के बाजू में थूक दिया। मैं जूते पहने हुए था वरना उसके छींटे मेरे पैर पर अवश्य पड़ते। मैंने उस आदमी से कहा कि तुम दरवाजे के पास बैठे हुए हो बाहर भी थूक सकते थे, डिब्बे के अंदर ठीक मेरे पैर के पास क्यों थूक दिया। वह सहज ही बोला “क्या करें बाबू गरीब आदमी हैं”। अब गरीब आदमी होने का डिब्बे के अंदर थूकने से क्या ताल्लुक। क्या गरीब आदमी घर के अंदर ही हगते-मूतते हैं। मैं गुस्से में था आगे कुछ नहीं बोल पाया पर यदि यही बात मैं उससे पूछता और वह फिर वही बात दोहरा देता “क्या करें बाबू गरीब आदमी हैं” तो अपने कपड़े फाड़ लेने या सर के बाल नोच लेने का मन अवश्य करता।

खैर! मूल बात यह है कि गरीबी और गन्दगी में एक घनिष्ठ सम्बन्ध बनता है। लोग झुग्गी झोंपड़ियों में रहते हैं, गन्दे नालों के किनारे रहते हैं, कचरा फेंकने वाली जगहों पर रहते हैं, पानी जमा होने वाले निचले स्थानों पर रहते हैं, गाय भैंसों के साथ रहते हैं, सुअरों और भेड़-बकरियों के साथ रहते हैं, जाहिर है राजी खुशी तो वे वहाँ नहीं रहते, मजबूरी में ही रहते हैं पर वातावरण के हिसाब से अपने को ढाल लेते हैं। मैला ढोने, साफ करने से लेकर गाड़ी सुधारने तक के काम वे करते हैं जिनमें मैल लगना स्वाभाविक है।

कुछ वर्ष पहले आंध्र प्रदेश के ग्रामीण इलाकों विशेष रूप से मेहबूबनगर जिले में दिमागी ज्वर (मेनिंजो एनसिफलाटिस) से दो सौ से अधिक बच्चों की मौत हो गयी थी। यह बीमारी गन्दगी और गरीबी के कारण ही पनपी थी। गन्दगी के कारण मच्छरों का बढ़ना और उनसे मलेरिया तथा मस्तिष्क ज्वर का फैलना ग्रामीण इलाकों में बहुत आम बात है। राजस्थान के रेगिस्तानी भाग में हर वर्ष हजारों लोग इन बीमारियों की बलि चढ़ जाते हैं। मिट्टी पत्थर और खेती के काम भी कोई साफ सुथरे काम तो हैं नहीं कि नहा-धोकर आराम से सम्पन्न किये जा सकें और कमीज भी मैली न हो, उजली ही बनी रहे। तो गरीब किसान- मजदूरों को गन्दगी से जूझते रहने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प कम से कम भारत में तो नहीं ही है। यह कहावत सटीक है मिट्टी में ही पैदा हुए हैं और मिट्टी में ही मिल जाएँगे।

अब मध्यवर्ग यह कह रहा है कि उन्हें कोरोना जैसी महामारी भी कम प्रभावित कर रही है क्योंकि इनकी प्रतिरोधी क्षमता अच्छी है।

मुझे अपने बचपन की याद है कि जब हम गाँव जाते थे तो वहाँ हाथ गन्दे हो जाने पर उन्हें मिट्टी से रगड़कर धोया करते थे। शौच के लिये गाँव के बाहर मैदानों में या झाड़ियों की आड़ में जाते थे। लौटते समय गाँव के पास खुदी पड़ी बलुई मिट्टी से हाथ भी अच्छी तरह साफ करते थे और शौच के लिये ले जाया गया लोटा भी। महिलाएँ अपने बाल मिट्टी से ही धोती थी, मुलतानी मिट्टी ना हुई तो गाँव की ही रेतीली मिट्टी चल जाती थी। कपड़े नदी नाले तालाब या कुएँ के पानी में भिगो कर पछीट-पछीट कर साफ कर लिये जाते थे। बरतन राख से मल-मल कर चमकाए जाते थे। नीम या बबूल की दातुन से दाँत साफ किये जाते थे। कभी-कभी राख और नमक भी दाँत साफ करने के लिये प्रयुक्त किये जाते थे। यानि वे लोग मिट्टी में पैदा हुए थे, मिट्टी में जीते थे, मिट्टी में काम करते थे, धान्य उपजाते थे और अंत में मिट्टी में ही मिल जाते थे। लेकिन तब भी वे साफ सफाई और स्वास्थ्य का बेहतर ख़्याल रखते थे। अब न साफ मिट्टी है न साफ पानी और न साफ हवा।

खेतों की मिट्टी में रासायनिक खादें, जहरीले पेस्टिसाइड्स और इन्सेक्टिसाइड्स मिलाए और छिड़के जाते हैं। नदियों में हर तरह की गन्दगी, जहरीले रसायन, कारखानों का उच्छिष्ट और मलमूत्र डाला जाता है। वायु में तरह-तरह की प्रदूषित और जहरीली गैसों का लगातार समावेश हो रहा है। खाने की चीजों में तरह-तरह की मिलावट हो रही है। अप्राकृतिक उत्पादों की बाजार में भरमार है। जैसे-जैसे सभ्यता और संस्कृति का बाजारीकरण होता गया है वैसे-वैसे ही सार्वजनिक स्थल कूड़े के ढेरों में तब्दील होते गये हैं।

शहरों की नालियाँ गन्दगी से बजबजाती नजर आती हैं। मुन्सीपाल्टी कचरा ढो-ढो कर परेशान है इसलिये हफ्ते दस दिनों तक कचरे को जहाँ का तहाँ सड़ने देती है। सिविल लाइंस नामक इलाके को छोड़कर बाकी इलाकों में चाहे जितने भी रईस लोग क्यों न रहते हों आसपास की नालियों से बदबू उठती है। बाउंडरी के बाहर कुत्ते हगते रहते हैं। घरों का कचरा बाहर इकट्ठा होने लगता है। सड़कों पर पानी फैलता रहता है। यदि कहीं घर बन रहा हो और कोई बिल्डर बना रहा हो तो पुराने घर को तोड़ने से लेकर नए अपार्टमेन्ट के बनने तक उसकी धूल पड़ोसियों को पचानी पड़ती है। रोड पर पड़े मलबे से बच कर निकलना पड़ता है। चूँकि आधी से अधिक सड़क मकान का मटेरियल घेरे रहता है तो दुर्घटनाएँ भी होती रहती हैं।

छोटे कस्बे और गाँवों की स्थितियाँ भी अब कम भयानक नहीं हैं। नाक पर रुमाल रखकर ही अब किसी गाँव या कस्बे में प्रवेश किया जा सकता है। सड़कों के किनारे, गलियों में विष्ठा निष्कासन का कर्म वहाँ नित्यप्रति सम्पन्न होता है जिससे भीषण दुर्गंध उस माहौल में व्याप्त रहती है पर वहाँ के लोग बहुत सहजता से नंगे पाँवों या चप्पल पहन कर वहाँ से गुजरते रहते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। अपने घर का कचरा पड़ोसी की बाउंडरी के पास डाल देने में हमारे भारत वासियों को बहुत संतोष मिलता है। इससे वे अपने घर को बहुत साफ महसूस करते हैं और मन को भी। अपने घर के सामने बहते गन्दे पानी को यदि पड़ोसी के घर के पास तक बहाने का अवसर प्राप्त हो जाए तो उन्हें महान संतोष भी प्राप्त होता है और अपरिमित आनंद भी।

हमारे इस महान देश के महान नागरिक अक्सर ही सड़कों पर केले के छिलके फेंक देते हैं, रेलवे प्लेटफार्म पर भी फेंक देते हैं, पैर फिसले तो आपकी जिम्मेदारी, आपको नीचे देख कर चलना चाहिए। सार्वजनिक स्थानों जैसे रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड वगैरह गर्मियों में दुर्गंध से इस कदर भरे होते हैं कि सौ में से दस व्यक्ति तो वहाँ दो चार घंटे ठहरने के बाद बीमार हो ही सकते हैं। सार्वजनिक शौचालय या मूत्रालय साफ करने की हिम्मत आजकल कौन जुटा सकता है। अब इस देश में गाँधी नहीं पैदा होते। अब तो मंत्रीगण हाथ में लम्बी झाड़ू पकड़ कर साफ की हुई जगह को मीडिया के सामने साफ करते दिखते हैं। घरों की चहारदीवारी में साफ सुथरे रहने वाले लोग बाहर की गन्दगी से गुरेज कतई नहीं करते।


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यदि चार घरों के सामने गंदी नाली बहती है और उसका पानी रुका रहता है तो वे लोग मिलकर उसे साफ करने की बात कभी नहीं सोचते। जिसको जादा परेशानी हो वह साफ कराए अन्यथा नहीं कराए। मरने के बाद पालतू जानवर तक लोग आसपास ही फेंक देते हैं। उनके सड़ने पर सारा मोहल्ला बदबू झेलता रहता है। यह भी देखा गया है कि सार्वजनिक या निजी अस्पताल तक अपनी पूरी गन्दगी, रिहाइशी इलाकों में ही किसी खाली जगह पर डाल देते हैं। इससे इन्फेक्शन फैलने की संभावना रहती है। होटल, ढाबे और चाय वाले भी अपना कचरा पास की नाली या सड़क पर फेंक देते हैं। इस तरह हर व्यक्ति अपना कचरा अपने आस-पास ही फेंकता है। आज भी इस आपदा काल में इन्हें सफाई का महत्व समझ आया हो ऐसा नहीं दिखता।

गन्दगी में रहने वाले लोगों को गन्दगी देखने और उसकी दुर्गंध सहने की आदत हो जाती है, उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे गन्दे नालों के किनारे रहने वाले लोग, सीले और बदबूदार स्थानों पर रहने वाले लोग, रासायनिक कारखानों में काम करने वाले लोग, सब्जी मंडी में दुकान लगाने वाले दुकानदार और व्यापारी दुर्गंध सहन करने के आदी हो जाते हैं। यहाँ गरीबी अमीरी का फर्क मिट जाता है पर गरीबों की संख्या फिर भी वहाँ अधिक ही होती है। सभी रासायनिक उत्पादकों द्वारा प्रदूषित ठोस और तरल पदार्थ खुले आम बाहर फैंक देते हैं या नदियों में प्रवाहित कर देते हैं।

प्रदूषण नियामक कुछ नहीं कहते। बढ़ती आबादी, अव्यवहारिक शिक्षा, सामूहिक और सामुदायिक चेतना का अभाव एवं स्वास्थ्य के प्रति गहरी राजनीतिक उदासीनता इसके कुछ बड़े कारण हैं यद्दपि गाँधी जयंती को पूरे जोरशोर से स्वच्छता दिवस घोषित कर दिया गया है। नियतिवाद, पाखण्ड और निहित स्वार्थ इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं, इन सबकी जड़ में मूलत: गरीबी और गन्दगी ही है। आज भी सत्तर प्रतिशत गरीब जनसंख्या हमारे देश में है इसीलिये तमाम तरह के औद्योगिक विकास, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मौजूदगी, उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण और निकट भविष्य में पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के दावों बावजूद भी भारत एक गन्दगी प्रधान देश है।

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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