आजाद भारत के असली सितारे

वी.एम. तारकुंडे : मानवाधिकार आन्दोलन के जनक

 

आजाद भारत के असली सितारे- 51

 

बाम्बे हाईकोर्ट में सर्वाधिक प्रतिष्ठित न्यायाधीश के रूप में 12 साल तक सेवा देने के बाद मानवाधिकार के लिए स्वतन्त्र होकर काम करने के लिए न्यायाधीश के गरिमामय पद से त्यागपत्र देने वाले, आजीवन जनहित याचिकाओं तथा संवैधानिक मामलों को बिना फीस के या बहुत कम फीस लेकर सुप्रीम कोर्ट में उठाने वाले, नागरिक अधिकारों के लिए आजीवन लड़ने वाले, पीयूसीएल के संस्थापक और उसके प्रथम अध्यक्ष विट्ठल महादेव तारकुंडे (03.07.1909- 22.03.2004) को नागरिक स्वतन्त्रता आन्दोलन का जनक (फादर ऑफ द सिविल लिबर्टीज मूवमेंट) कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बाम्बे हाई कोर्ट में छागला के बाद के समय का सबसे योग्य न्यायाधीश (अनडाउटेडली द मोस्ट डिस्टिंग्विश्ड जज ऑफ द पोस्ट-छागला 1957 पीरिअड) के रूप में रेखांकित किया है।

वी.एम. तारकुंडे का जन्म सासवड (जिला पुणे) में हुआ था। इनके पिता महादेव राजाराम तारकुंडे एक प्रतिष्ठित वकील और समाज सुधारक थे। 1920 में तारकुंडे सासवड से पुणे आ गए और 1925 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा तत्कालीन बाम्बे प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। उन्होंने फर्ग्यूसन कॉलेज से बी.ए. किया और आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। लंदन से उन्होंने बैरिस्टर-एट-लॉ की डिग्री ली। उन्होंने एक्सटर्नल छात्र के रूप में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र और सामाजिक नृविज्ञान की भी शिक्षा ली।

1933 में भारत लौटने पर उन्होंने पुणे में अपनी वकालत शुरू की। वकालत के साथ-साथ वे सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। वकालत उनके मार्ग में अवरोधक था। रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए उन्होंने 1942 में वकालत छोड़ दी किन्तु, स्वाधीनता के बाद 1948 में उन्होंने बाम्बे हाई कोर्ट में फिर से वकालत शुरू की। सितम्बर 1957 में वे बाम्बे हाई कोर्ट के जज बने। इस पद पर वे 1969 तक रहे और इसके बाद नागरिक स्वतन्त्रता के लिए खुद स्वतन्त्र होकर काम करने के लिए न्यायाधीश के पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद नागरिक अधिकारों के लिए काम करने के उद्देश्य से वे दिल्ली आ गए और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने लगे। 1977 तक वे सुप्रीम कोर्ट से जुड़े रहे।

वी.एम. तारकुंडे आरम्भ में काँग्रेस से जुड़े थे किन्तु 1939 के काँग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ मतदान से निराश होकर उन्होंने काँग्रेस छोड़ दी। इसके बाद 1940 में उन्होंने अपने साथी और मार्गदर्शक एमएन रॉय के साथ मिलकर रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की। 1944 में वे रेटिकल डेमोक्रेटिक पार्टी के महासचिव चुने गए। 1948 में एमएन राय के साथ उन्होने रेटिकल डेमोक्रेटिक पार्टी को भंग कर दिया। 1969 में उन्होंने मानवतावादियों का एक संगठन बनाया जिसका नाम था इंडियन रेडिकल ह्यूमनिस्ट एसोसिएशन। इसकी ओर से ‘रेडिकल ह्यूमेनिस्ट’ नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित होती थी जिसके संपादन का दायित्व वे स्वयं उठाते थे।

आपातकाल के दौरान वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपर्क में आए और उनके साथ मिलकर उन्होंने लोकतन्त्र को सुरक्षित करने और उसे प्रभावशाली बनाने के लिए जनतन्त्र समाज (सिटिजन फॉर डेमोक्रेसी) नामक संगठन की स्थापना की। जयप्रकाश नारायण इसके प्रथम अध्यक्ष एवं तारकुंडे इसके महामन्त्री बने। इसके बाद 1976 में पीयूसीएलडीआर की स्थापना हुई जयप्रकाश नारायण जिसके प्रथम अध्यक्ष एवं तारकुंडे कार्यकारी अध्यक्ष बने। 1980 में पीयूसीएल एक संस्था बन गई जिसके ताककुंडे अध्यक्ष बने।

वी.एम. तारकुंडे इंडियन रिनेंसा इंस्टीट्यूट के भी अध्यक्ष थे जो एमएन रॉय द्वारा स्थापित एक शोध संस्थान है। इंडियन रिनेसाँ इंस्टीट्यूट द्वारा मनोनीत एक विशेषज्ञ समिति ने 1977 में देश के आर्थिक विकास के लिये पीपल्स प्लान (जन योजना) तैयार करके प्रकाशित किया था, तारकुंडे इस विशेषज्ञ समिति के संयोजक थे।

तारकुंडे के दर्शन को नवमानववाद कहा जाता है। एमएन रॉय उनके मार्गदर्शक और साथी दोनों थे। तारकुंडे की पुस्तक ‘नवमानववाद : स्वातंत्र्य और लोकतन्त्र का दर्शन’ में अनुवादक सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपनी भूमिका में कहा है, “रॉय (एमएन रॉय) एक युवा राष्ट्रीयतावादी क्रान्तिकारी के रूप में भारत से गये और विदेशों में कम्युनिस्ट दलों के संस्थापक और अग्रणी नेता बने; फिर कम्युनिस्ट चिन्तन धारा की त्रुटियों की आलोचना के कारण एक अंतरराष्ट्रीय विवाद के केन्द्र-बिन्दु बने रहे। राजनीतिक कार्य और उसके साथ-साथ इस सैद्धांतिक विवाद में से ही क्रमश: एक नयी वैज्ञानिक विचारधारा ने जन्म लिया जो जितनी तर्कसम्मत थी उतनी ही अनुभव -पुष्ट भी। यही विचारधारा कामरेड रॉय का नवमानववाद था जिसका संदर्भयुक्त परिचय श्री तारकुंडे ने अपनी पुस्तक में दिया है। संदर्भ के कारण उन विचारों को समझने में पाठक को बड़ी सहायता मिलती है, इससे पुस्तक की मूल्यवत्ता बढ़ जाती है।” (नवमानववाद : स्वातंत्र्य और और लोकतन्त्र का दर्शन, भूमिका से) इस पुस्तक के परिशिष्ट में एमएन रॉय द्वारा निरूपित मौलिक मानववाद के बाईस मान्य सिद्धांत भी दिए गए हैं।

       दरअसल पीयूसीएल (पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) एक ऐसा गैरसरकारी संगठन है जिसकी ओर अब देश के हजारों-लाखों सताए गए लोग हसरत भरी निगाहों से देखते हैं। इस संगठन के नाते प्रतिवर्ष देश के हजारों निर्दोष लोगों की जान बचती है, हजारों जेल जाने से बचते हैं और लाखों विस्थापन से। दशकों से देश में अवैध कब्जा, लूट, भ्रष्टाचार, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ जो सैकड़ों मानवाधिकार कार्यकर्ता अपनी जिन्दगी दाँव पर लगाकर लड़ रहे हैं, बहुतेरे जेलों मे सड़ रहे हैं उनमें से ज्यादातर पीयूसीएल के सदस्य हैं। जंगलों पर कब्जा करके वहाँ सदियों से रह रहे आदिवासियों को जब बेदखल करके खदेड़ा जाता है तो स्थानीय स्तर से लेकर कोर्ट की कानूनी लड़ाई तक लड़ने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता पीयूसीएल के बैनर के नीचे लड़ते हैं। पीयूसीएल से जुड़े इतने बड़े-बड़े नाम हैं कि उनसे सरकारें भी भयभीत रहती हैं।

       पीयूसीएल के गठन के पीछे जिन दो व्यक्तियों की मुख्य भूमिका रही है उनमें से एक हैं लोकनायक जयप्रकाश नारायण और दूसरे हैं जस्टिस वी.एम. तारकुंडे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने पीयूसीएलडीआर (पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज एंड डेमोक्रेटिक राइट्स) की स्थापना 1976 में की थी। आरम्भ में यह एक ढीला-ढाला संगठन था। किन्तु इसके पीछे एक ऐसे संगठन के निर्माण की आकांक्षा थी जिससे हमारे जनतन्त्र की जड़ें मजबूत हों और जो किसी भी राजनीतिक विचारधारा से मुक्त हो ताकि अलग- अलग राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी नागरिक स्वतन्त्रता तथा मानवाधिकारों के लिए एक मंच पर आ सकें और एक साथ मिलकर काम कर सकें।

17 अक्टूबर 1976 को दिल्ली में एक राष्ट्रीय सेमीनार आयोजित हुआ था जिसका उद्घाटन आचार्य जे.बी.कृपलानी ने किया था। इसी में पीयूसीएल की नींव पड़ी थी। इस सम्मेलन में वी.एम. तारकुंडे संगठन के अध्यक्ष और कृष्णकान्त महासचिव चुने गए थे। 1977 में इमरजेंसी हटा ली गयी। 1979 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण का देहान्त हो गया। 1980 में इंदिरा गाँधी फिर से सत्ता में आ गईं। 22-23 नवम्बर 1980 को दिल्ली में आयोजित एक अधिवेशन में पीयूसीएल का संविधान स्वीकार किया गया और इसने विधिवत एक संस्था का रूप ले लिया। पीयूसीएल के संविधान में दर्ज किया गया कि किसी राजनीतिक दल का सदस्य पीयूसीएल की कार्यकारिणी का सदस्य नहीं बन सकेगा। इस अधिवेशन में वीएम तारकुंडे अध्यक्ष और अरुण शौरी महासचिव चुने गए।

इसके बाद चुने गए पीयूसीएल के अध्यक्षों और महासचिवों में रजनी कोठारी, राजिन्दर सच्चर, के.जी. कन्नबीरन, वाई.पी. छिब्बर, अरुण जेटली, सतीश झा, दलीप स्वामी आदि प्रमुख हैं। पीयूसीएल की अंग्रेजी में एक मासिक बुलेटिन भी निकलती है। पीयूसीएल भारत या विदेश की सरकारों या किसी भी कारपोरेट घरानों से आर्थिक सहयोग नहीं लेता। सदस्यों के सदस्यता शुल्क से ही उसका खर्च चलता है। इन्हीं सब कारणों से पीयूसीएल की निष्पक्षता और उसकी साख अब भी बरकरार है। यह संगठन अब वैश्विक रूप ले चुका है।

हम भाग्यशाली हैं कि हम एक लोकतन्त्र में रह रहे हैं। किन्तु हिंसा, फर्जी मतदान, मतदान केंद्रों पर क़ब्ज़ा, काले धन का उपयोग आदि कुछ ऐसी विसंगतियाँ हैं, जिनके कारण लोकतन्त्र का लाभ सभी नागरिकों को नहीं मिल पाता है। सरकार भी इन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए समय- समय पर चुनाव प्रणाली में सुधार करती है। चुनाव-प्रणाली में सुधार के लिए समय-समय पर आयोगों और समितियों का गठन भी किया जाता है और उनसे सुझाव लिए जाते हैं।

जयप्रकाश नारायण ने 1974-1975 में स्वतन्त्र संस्था ‘सिटिजंस ऑफ़ डेमोक्रेसी’ की ओर से चुनावी सुधार के लिए ‘तारकुंडे समिति’ का गठन किया था। इस समिति की सबसे प्रमुख सिफ़ारिश यह थी कि एक ऐसा क़ानून होना चाहिए जिसके तहत सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों द्वारा अपने खातों, आय के स्रोतों और खर्च के ब्यौरों का पूरा हिसाब देना अनिवार्य हो। यदि खाते में गड़बड़ी पाई जाए तो इसे दंडनीय अपराध माना जाए।

इस समिति की अन्य सिफारिशों में मतदान करने का अधिकार 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष करना, उम्मीदवारों के चुनाव-खर्च के हिसाब की जाँच कराना और राजनीतिक दलों द्वारा उम्मीदवारों पर किया जाने वाला खर्च भी उम्मीदवारों के हिसाब में जोड़ा जाना, चुनाव खर्च की वर्तमान सीमा को दोगुना करना, प्रत्येक उम्मीदवार को सरकार की ओर से छपे हुए मतदान-कार्ड नि:शुल्क देने की व्यवस्था करना, प्रत्येक मतदाता के नाम का कार्ड बिना टिकट लगाए डाक से भेजने की छूट देना, राजनीतिक दलों को वर्ष में एक हजार रूपए तक दान देने वालों को उस राशि पर आयकर से छूट देना, कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दान देने पर प्रतिबंध लगाना, कंपनियों द्वारा विज्ञापनों के रूप में राजनीतिक दलों को दी जाने वाली सहायता पर भी पाबंदी लगाना, लोकसभा या विधानसभा के विघटन और नए चुनावों की घोषणा के बाद से सरकार का कामचलाऊ सरकार की तरह काम करना, चुनाव के दौरान मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा सरकारी खर्च पर की जाने वाली यात्रा पर प्रतिबंध होना, उनके द्वारा सरकारी सवारी और विमान उपयोग में न करना, उनकी सभाओं के लिए सरकारी मंच न बनाया जाना और उनके दौरों के लिए सरकारी कर्मचारी तैनात न किए जाना आदि हैं।

तारकुंडे उस समय विवादों में भी घिर गए थे जब उन्होंने 1990 में कश्मीर घाटी से भागकर आए कश्मीरी पंडितों को मानवाधिकार पीड़ितों के रूप में मानने से इनकार कर दिया था। इसके बाद तो उन्हें “आतंकवादियों का मुख्य संरक्षक” तक कहा जाने लगा था क्योंकि वे नियमित रूप से फर्जी मुठभेड़ों और न्यायिक हत्याओं के लिए भारतीय सेना की आलोचना करने लगे थे। 1995 तक आते- आते उनके रुख में फिर से बदलाव आने लगा था। उन्होंने पुलिस फायरिंग को मानवाधिकारों के उलंघन के रूप में मानने के अपने पहले के विचारों में संशोधन किया। उन्होंने उत्तराखंड राज्य की माँग करने वालों पर मुज्फ्फरनगर पुलिस द्वारा की गई फायरिंग और बलात्कार आदि के मामलों में यूपी पुलिस का बचाव किया था। वीएम तारकुंडे ने 11-13 मई 1998 को पोखरण में होने वाले दूसरे परमाणु परीक्षण के लिए सरकार की नीति की भी आलोचना की थी। ( EPW, Vol-33,Issue no.27, July 4,1998)

जेपी से अपने संबंधों के बारे में तारकुंडे ने लिखा है, “जेपी के साथ एक लंबे संमय तक काम किया। उनकी सादगी हमें पसंद आई और यही कारण था कि उनके साथ काम करने में कभी कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। समाज के सभी लोगों का विकास हो और इसके लिए क्रान्ति ही क्यों न करनी पड़े, यही जेपी का मूल मंत्र था…. मैं मानवतावादी था। पार्टी लाईन से ऊपर उठकर काम करना और लोगों को जाग्रत करना मेरे ग्रुप का काम था। यह जेपी आन्दोलन से पहले वामपंथी आन्दोलन था जिसमें गोरे, खंडेलकर आदि कई लोग शामिल थे, जो लोगों में जागृति निर्माण करने का काम करते थे। लेकिन इसकी कोई पार्टी नहीं थी। यह सिर्फ काम करने की मंशा भर थी।

एक समय ऐसा आया जब लगा कि हम लोग जो बात कहते हैं वही जेपी भी कह रहे हैं। कलकत्ता में हमारा आन्दोलन चल रहा था। यहाँ एक मीटिंग हुई कि इसे पूरे देश में किस तरह फैलाया जाय। उस बैठक में मैने कहा कि पूरे देश में इसे ह्यूमन राइट्स के आधार पर चलाना चाहिए। इसमें किसी प्रकार की पार्टी का सहयोग नहीं हो तो बेहतर होगा। कलकत्ता का यह भाषण अखबारों में छपा। जेपी ने इसे पढ़ने के बाद हमें बुलाया। हमारे साथ गोरे, एस.एम. जोशी आदि लोग काम करते थे। उस वक्त मेरी भी भूमिका कलकत्ता तक ही सीमित थी। उस समय जेपी की भी बंगलौर में सर्वसेवा संघ की मीटिंग हो रही थी। उस बैठक में उन्होंने मेरे आन्दोलन के प्रस्ताव को रखा।

जेपी ने उसी समय योजना बनाई कि अब आन्दोलन साथ-साथ होना चाहिए। मैंने कहा कि पहले ऑल इंडिया स्तर पर ह्यूमन राइट्स के आधार पर एक बिना राजनीतिक दलों को शामिल किए बैठक बुलानी चाहिए… जेपी ने कलकत्ता में अपने शुभचिन्तकों को बुलाकर मेरे साथ काम करने की बात कही… मुझे लगता है कि जेपी की संपूर्ण क्रान्ति एमएन रॉय के विचारों का ही दूसरा रूप था। एमएन रॉय के निधन के बाद जेपी ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि रॉय का मूलभूत मानववाद जो सामाजिक और आर्थिक प्रश्नो के विषय में संपूर्ण मानव की दृष्टि से देखता है इसमें वर्ग, वर्ण पंथ या राष्ट्र की दृष्टि से नहीं है। इसमें सर्वोदय का विचार ज्यादा है और मुझे लगता है कि दोनो एक दूसरे के निकट बहुत पहले क्यों नही आए?” ( जेपी जैसा मैंने देखा सं. अमलेश राजू में संकलित वीएम तारकुंडे का लेख से)

खेद इस बात का है कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित संगठन पीयूसीएल से जुड़े मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी आज ‘अर्बन नक्सल’ कहकर उनके ऊपर मुकदमें किए जा रहे हैं और उन्हें जेलों में डाला जा रहा है। सुधीर धवले, महेश राउत, शेभा सेन, अरुण फरेरा, फादर स्टेन स्वामी, वर्नोन गोंजाल्विस, सुरेन्द्र गाडगिल, हेनी बाबू, आनंद तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, बिनायक सेन, वरवर राव, रोना विल्सन, साई बाबा आदि दर्जनों पीयूसीएल के कार्यकर्ता हैं जिनके ऊपर तरह- तरह के मुकदमे करके उन्हें जेलों में बंद किया गया था और इनमें से कई आज भी जेलों में ही हैं। ये अपना सुखी पारिवारिक जीवन छोड़कर समाज के सताए गए लोगों के हक की लड़ाई लड़ते हैं। इसके लिए जहाँ उन्हें समाज के साथ-साथ सरकार की ओर से भी भरपूर सहयोग मिलना चाहिए वहाँ सरकारें उनपर अत्याचार कर रही हैं।

ये मानवाधिकार कार्यकर्ता समाज के पीड़ित मनुष्यों की वेदना को महसूस करते हैं और एक जिम्मेदार नागरिक का दायित्व निभाते हुए अपने को खतरे में डालकर उनके लिए लड़ाई लड़ते हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री अशोक मित्र के शब्दों में ये “सरकारी तन्त्र में शीर्ष पर बैठने के बजाय मनुष्यों में तेजी से बढ़ती असमानता के खिलाफ अपने विवेक से बोलते हैं, जो मानव मस्तिष्क का अभिन्न अंग है।” समाज में व्यापक असमानता के कारण मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की समाज में अपरिहार्य भूमिका होती है। ऐसी दशा में जनता के साथ ही सरकारों का भी उनके हित और सुरक्षा के प्रति जवाबदेही बनती है।

किसी भी समाज और देश में मानवाधिकार कार्यकर्ता के प्रति विद्वेष की सीमा से पता चलता है कि समाज में कितना अन्याय व्याप्त है और जनता पर सरकार का कितना आतंक है। आज सरकार के खिलाफ मानवाधिकार कार्यकर्ता अकेले लड़ रहे हैं। उन्हें केवल नागरिक समाज का ही सहारा है। मानवाधिकार आयोग इसका जरूर ख्याल रखता है किन्तु उसकी अपनी सीमाएं हैं। सच यह है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मित्र और परिजन ही जरूरत के समय उनका ख्याल रख पाते हैं। वे ही अदालतों में जूझते हैं, उनके लिए लड़ते हैं और शोक मनाते हैं। यह गतिरोध टूटना चाहिए। मानवाधिकार कार्यकर्ता समाज के लिए अपने जीवन को खतरे में डालते हैं तो समाज का भी दायित्व बनता है कि उनका वह ख्याल रखे।

संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होने के नाते अपनी अंतरराष्ट्रीय बाध्यताओं के कारण भारत सरकार को भी मानवाधिकार रक्षकों के सार्वभौमिक घोषणापत्र पर अमल करना चाहिए और मानवाधिकार रक्षकों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले कानून एवं नीतियां स्वीकार करनी चाहिए। जस्टिस वीएम तारकुंडे ने इस क्षेत्र में जो किया है वह असाधारण है। उससे लाखों पीड़ितों के नागरिक अधिकारों की रक्षा तो हुई ही है, हमें भी उससे एक दृष्टि मिलती है जिसके बलपर हम आगे की लड़ाई लड़ सकते हैं और अपने जनतन्त्र को और अधिक जनतांत्रिक बना सकते हैं।

वी.एम. तारकुंडे को जनतन्त्र, मानवाधिकार और मानव मूल्यों की रक्षा हेतु लगातार संघर्ष करने के लिए इंटरनेशनल ह्यूमेनिस्ट एंड एथिकल यूनियन (आईएचईयू) की ओर से 1978 में ‘अंतरराष्ट्रीय ह्यूमेनिस्ट अवार्ड’ प्रदान किया गया।

वी.एम. तारकुंडे एक प्रतिष्ठित लेखक भी हैं। उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं, ‘रेडिकल ह्यूमनिज्म : द फिलॉसफी ऑफ फ्रीडम एंड डेमोक्रेसी’, ‘रिपोर्ट टू द नेशन : ऑप्रेसन इन पंजाब’, ‘कम्युनलिज्म एंड ह्यूमन राइट्स’, ‘थ्रो ह्यूमनिस्ट आईज’, ‘फॉर फ्रीडम’, ‘काश्मीर प्रॉब्लम : पॉसिबल सॉल्यूशन्स’, ‘ग्रेट ब्रिटेन एंड इंडिया’, तथा ‘द डैंजर एहेड : एन एनलिसिस ऑफ काँग्रेस कैपिटलिस्ट एलॉनमेंट’। ‘फंडामेन्टल राइट टू पॉवर्टी’ आदि

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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