
शख्सियत
ग्राम्य कथा शिल्पी – शिवमूर्ति
- रविशंकर सिंह
कथाकार शिवमूर्ति को रेणु अनुवर्ती या परवर्ती कथाकार कहकर उनके कथा कौशल के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है। हर साहित्यकार अपने युग की समस्याओं की जटिलताओं से मुठभेड़ करता है । हर युग की समस्याएं और जटिलताएं अलग अलग होती हैं। हर व्यक्ति अपनी परंपरा का अभिन्न और अविच्छिन्न अंग है , लेकिन उसकी अपनी अलग कुछ विशेषताएं होती है । व्यक्ति की वही विशेषता उस परंपरा के विकास में सहायक सिद्ध होती है।
कथाकार शिवमूर्ति के साहित्य में जो लालित्य , सौंदर्य बोध, सेंस ऑफ ह्यूमर, ग्रामीण जीवन और उससे जुड़ी हुई समस्याएं , गांव का जो भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश है , उसे देखकर कहा जा सकता है कि कथाकार शिवमूर्ति प्रेमचंद और रेणु की परंपरा में विकसित अपने समय के एक महत्वपूर्ण कथाशिल्पी हैं।
शिवमूर्ति का कथा – कौशल , भाषा की कसावट , प्रतीकात्मकता और प्रतिबिंब इतनी मनोहारी कि उसमें कथा रस के साथ साथ काव्य रस का आस्वाद दूध और मिश्री की तरह घुला- मिला रहता है।

कथाकार शिवमूर्ति के पात्रों से मिलकर मुझे लगा कि शिवमूर्ति को इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है । वे हूबहू उसी तरह लिख दें तो उन चरित्रों की रोचक छवि नब्बे प्रतिशत स्वतः अंकित हो जाएगी। बावजूद इसके शिवमूर्ति की कलम में वह जादू है कि वे अपनी भाषा , कथ्य और चरित्रों के माध्यम से एक नई तासीर पैदा करने में कामयाबी हासिल कर लेते हैं । उनके बारे में ममता कालिया ने सोशल मीडिया में लिखा है , ” लोग अपने किरदारों को सात तालों में बंद करके रखते हैं, लेकिन आप तो उन्हें खुलेआम प्रदर्शित कर रहे हैं। “
ममता कालिया को जवाब देते हुए शिवमूर्ति लिखते हैं , ” मैं अपने चरित्र तो सब को दिखाता हूं, लेकिन उसका प्रतिबिंबन तो मैं ही कर सकता हूं । “
नंदलाल यादव कथाकार शिवमूर्ति की कहानी कसाई बाड़ा के जीवन्त पात्र हैं। कथाकार उनके बारे में कहते हैं, ” खुलेआम शनिचरी का पक्ष लेकर कोई आगे आया है तो वह है अधपगला अधरंगी। सम्पूर्ण वामांग, आंशिक पैरालिसिस का शिकार। बाईं आंख मिचमिची और ज्योतिहीन। होंठ बाईं तरफ खिंचे हुए। बायां हाथ चेतनाशून्य। आतंकित करने की हद तक स्पष्टभाषी। तीस-पैंतीस की उम्र में ही बूढ़ा दिखने लगा है। पेशा है- गांव भर के जानवर चराना। मजदूरी प्रति जानवर, प्रति फसल, प्रति माह एक सेर अनाज। सिर्फ परधानजी और लीडरजी के जानवर नहीं चराता, क्योंकि उसके अनुसार ये दोनों गांव के राहु और केतु हैं। इन दिनों रात में वह गांव की गलियों में घूमते हुए गाता है- ‘कलजुग खरान बा, परधनवा बेईमान बा, अधरंगी हैरान बा।’ और सोते हुए लोगों की चादर पकड़कर खींच लेता है, ‘औरतों की तरह मुंह ढंककर सोने वाले गीदड़ों, परधान तुम्हारी बहन-बेटियों के गोश्त का रोजगार करता है और तुम लोग हिजड़ों की तरह मुंह ढंककर सो रहे हो। सो जाओ, हमेशा के लिए।’ और चादर फेककर वह आगे बढ़ जाता है, ‘कलजुग खरान बा।’ “
पेड़ – पौधों की हरियाली वहां की मिट्टी की उर्वरता पर निर्भर करती है। कथाकार शिवमूर्ति की रचना में हास्य विनोद उनकी व्यक्तिगत विशेषता नहीं, बल्कि उस अंचल विशेष की विशेषता है , जिस परिवेश में वे पले बढ़े हैं। गांव में गरीबी है अभाव है । बावजूद इसके लोगों की बोली – बानी में ऐसी सरसता है कि लोग जिंदगी के कड़वे अनुभव को भी हंसते हंसते झेल रहे हैं।

ख्वाजा ओ मेरे पीर कहानी में मामा का वह गांव , जिसे कथाकार ने हूबहू वैसा ही उतार दिया गया है।’ ख्वाजा ओ मेरे पीर ‘ में नाना वफादार है ठाकुर के। उनके लिए वे अपनी शहादत तक देते हैं, लेकिन उसी ठाकुर का बेटा जब दबंगई पर उतर आता है तो नाना जी का बेटा ठाकुर का प्रतिरोध करता है । उसे देख कर भाग खड़ा होता है ठाकुर । यहां कथाकार खुद कुछ बोलते नहीं हैं, लेकिन वे प्रेरित करते हैं कि प्रतिरोध करो। प्रतिरोध नहीं करोगे तो जीत हासिल नहीं होगी । कहानी में मामी की जो पीड़ा है, वह केवल मामी की पीड़ा नहीं है। संपूर्ण नारी जाति की पीडा है । केसर की पीड़ा संपूर्ण नारी जाति की पीड़ा है। उन्होंने संपूर्ण नारी जाति की नियति को दिखाया है । कहानी के अंत में बुजुर्ग मामा जी की सलहज ससुराल से विदा लेते वक्त उन पर रंग डाल देती हैं । कथा के अंत में मामा जी कहते हैं , ” छिनरी ने पूरा भीगा दिया। “
इसी एक पंक्ति में कहानी का मर्म छिपा है। पूरा रस उनके जीवन का इसी एक लाइन में फूट पड़ता है। मामाजी आजीवन परिवार से विरक्त रहे। उन्होंने देख लिया कि उनकी पत्नी की जिंदगी में अब वे कोई बदलाव नहीं ला सकते हैं। उन मीठी यादों में केवल अब बाकी जीवन गुजारा जा सकता है। वे फिर जीवन में लौटते हैं और फगुआ गाते हैं –
” धन धरती वन बाग हवेली ,
चंचल नयन नार अलबेली ।
भवसागर के जल धुली जइहै,
तोरे मनमा के रंग दिलवा रे,
पपीहरा प्यारे । “
जीवन में इतना दुख देखने और भोगने के बाद भी मामा हारते नहीं हैं। उनके अंदर जीवन राग बचा हुआ है
सिरि उपमा योग कहानी में जो बच्चा गांव से चिट्ठी लेकर कथा नायक के पास आया है , वह सवेरे उठ कर चला गया है। कथा नायक सुबह जाकर चबूतरे पर देखता है – ” सवेरे चबूतरे पर गांव नहीं था।” गांव का जो प्रतिनिधि चरित्र शहर आया था, वह किस तरह से तिरस्कृत होकर वापस चला गया है। उसकी कोई सुनवाई नहीं हुई है। कथाकार संपूर्ण संवेदना को एक पंक्ति में निचोड़ कर कहता है कि सुबह चबूतरे पर गांव नहीं था। यह एक पंक्ति गांव के नेह- छोह, प्यार – दुलार , परिवेश और संस्कृति को प्रतिबिंबित कर देती है।

भरतनाट्यम कहानी में आखरी लाइन है , ” वह खरबूजे के खेत में भरतनाट्यम करने लगता है। ” यह एक पंक्ति समस्त सामाजिक विद्रूपताओं को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। शिव मूर्ति की हर कहानी में अंतिम पंक्ति पंच की तरह प्रयुक्त हुई है। जो कहानी को एक नया आयाम देती है। ओ हेनरी की कहानियों की तरह उनकी कहानियों का अंत भी अप्रत्याशित होता है, जो अचानक पाठकों की चेतना को झकझोर कर चमत्कृत कर देता है।
कसाईबाड़ा कहानी का पात्र लीडर जी पाकेट से डायरी निकालकर नोट करता हैं , ” मिनिस्टर होते ही सबसे पहले शनिचरी की मौत के लिए जांच आयोग बैठावाऊंगा । “
ग्राम प्रधान शनिचरी की बेटी की हत्या करवा देता है। वह नेता उसकी जमीन को अपने नाम लिखवा लेता है। अभी वह चुनाव भी नहीं जीता है, लेकिन अभी से मंत्री बनने के सपने देख रहा है । यह वही पात्र है जिसने उसकी जमीन अपने नाम लिखवा ली है और वही उसके लिए जांच आयोग बैठाने की बात करता है।
तिरिया चरित्तर कहानी में विमली पर उसके ससुर की कुदृष्टि, दुराचार के बाद विमली पर ही दोषारोपण और पंचायत का फैसला कि टिकुली लगाने की जगह पर गरम कलछुल से दागा जाएगा और फिर छन्न…कलछुल खाल से छूते ही पतोहूं का चीत्कार कलेजा फाड़ देता है।
बिमली को दागा जा रहा है । कथाकार कहते हैं , ” बीसों सौ सिर सहमति में हिलते हैं । ” यही एक पंक्ति का पंच है। यह एकमात्र पंक्ति ग्रामीणों की अमानवीयता को उजागर करने के लिए काफी है।

बनाना रिपब्लिक कहानी में शिवमूर्ति लोकतंत्र की दुर्दशा को दर्शाते हैं, ” हाँ कलजुग के आखिरी चरन में एक दिन ऐसा आएगा जब एमपी, एमेले की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जाएगा। तब सब मिल कर ‘देसवा’ का बँटवारा करेंगे। उस बँटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा..
वाह बाबू झल्लर सिंह। ‘बिलायती’ की झोंक में कितनी ऊँची बात बोल गए। भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज अचरज में डूबी है – क्लेप्टोक्रेसी-ई-ई! क्लेप्टोक्रेसी-ई-ई-ई! “
क्लेप्टोक्रेसी का कोशगत अर्थ है बेईमानों, झूठों, ठगों, लुटेरों का शासन। 2012 में लिखी गई कहानी में शिवमूर्ति लोकतंत्र के जिस चरित्र तो दर्शाते हैं , वह वर्तमान भारत की सच्चाई है।
ठाकुर के लिए चुनाव में जीतने का अवसर नहीं है, क्योंकि वह सीट रिजर्व है। दलित का समर्थन करना उनकी लाचारी है। वे दलित की जीत में लड्डू खाते हैं, उनके हाथों से हिचकते हुए पानी पीते हैं और उनके संग संग नाचते भी हैं।
सांप्रदायिकता को केंद्र में रखकर रचे गये उपन्यास त्रिशूल, दलित यथार्थ को व्याख्यायित करते उपन्यास तर्पण और आत्महत्या करते किसानों की सचाइयां बताते उपन्यास आखिरी छलांग में शिवमूर्ति समसामयिक प्रश्नों को समाज के सामने लाते हैं। शिवमूर्ति के पात्रों की खासियत यह है कि वह जीवन की समस्याओं से जूझता है , लेकिन हारता नहीं है । वह आत्महत्या करने के बजाय जीवन के मैदान में वापसी के लिए आखिरी छलांग लगाता है।

साहित्य जीवन सागर के तट पर पड़े उच्छिष्ट पदार्थों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। साहित्यकार का जीवन और उसके जीवनानुभ उनकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होता है। केसर कस्तूरी कहानी में कथा नायक की पत्नी उनसे कहती है, ” हम लोगों की शादी हुर्इ तब तक तो आप स्कूल जाना भी नहीं शुरू किए थे। मेरे गौने के बाद भी बहुत दिनों तक बेकार मारे-मारे घूमे थे। उस समय के आपके घर की माली हालत तो केशर की ससुराल से भी गर्इ-गुजरी थी। तब कोर्इ मुझसे दूसरी शादी के लिए कहता तो मुझे अच्छा लगता?”
जवाब में कथा नायक का हास्य और विनोद का भाव झलकता है,
”अच्छा तो जरूर लगता।” मैंने मुस्कराकर कहा था।
भरतनाट्यम कहानी में कथा नायक कहता है, ” सच तो यह है कि चौबीस साल की उम्र में तीन बच्चों का बाप हो गया हूँ, यह सोचकर ही रोना आता है। दिल में आता है, मँड़हे में पूजा कर रहे बाप का शंख-घड़ियाल उठाकर गड़ही में फेंक दूँ। आखिर क्या अधिकार था उन्हें पाँच साल की उम्र में मेरी शादी करने का? “
शिवमूर्ति की कहानियों में हम साफ-साफ देख सकते हैं कि कहानी से जीवन में और जीवन से कहानी में उनकी आवाजाही लगी रहती है। अपने एक साक्षात्कार में शिवमूर्ति शिवमूर्ति कहते हैं, ” कहानी आर्ट भी है और क्राफ्ट भी। ” कथाकार शिवमूर्ति की रचनाओं में यह मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है।

कथाकार शिवमूर्ति के अति संवेदनशील कलाकार मन ने नारी की पीड़ा , उसके दुख – दर्द , उसकी मजबूरी और उसकी सामाजिक स्थिति को बेहतर ढंग से समझा है और तिरिया चरित्तर, केशर कस्तूरी, कुच्ची का कानून जैसी कहानियों में व्यक्त किया है। केसर कस्तूरी कहानी की कथा 80% भारतीय विवाहित कन्या की दुखद स्थिति और बेबसी का बयान करती है। केशर कम उम्र में ही बेरोजगार युवक के संग ब्याह दी जाती है। ससुराल पक्ष के लोग उस पर झूठी तोहमत लगाते हैं। उनकी बातों को सुनकर जब कैसर का पिता भी उसे ठीक से रहने की हिदायत देता है तो केसर का दुख दूना हो जाता है। कथाकार एक गीत के माध्यम से केसर की वेदना को वाणी देते हैं, “
मोछिया तोहार बप्पा ‘ हेठ ‘ न होइहै
पगड़ी केहू ना उतारी , जी-ई-ई।
टुटही मँड़इया मा जिनगी बितउबै ,
नही जाबै आन की दुआरी जी-ई-ई। “
देशज बोली- बानी, मुहावरे, लोकोक्तियां और गीत – गवनई शिवमूर्ति की कहानी की शक्ति और प्राण हैं। शिवमूर्ति की रचनाओं में प्रेमचंद के गांवों का यथार्थ है, रेणु के गांवों की गरीबी , करुणा और उन परिस्थितियों में भी मुस्कुराने का अदम्य साहस है और अपने समय के ज्वलंत मुद्दे हैं, जिनसे बार बार मुठभेड़ करते हुए उनकी आत्मा लहूलुहान होती रहती है।

लेखक कथाकार और शिक्षक हैं|
सम्पर्क- +919434390419, ravishankarsingh1958@gmail.com
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