उसने गाँधी को क्यों मारा
गाँधी एक ऐसा शब्द है जिसे हमने बचपन से सुना, आज भी गाँधी के ऊपर सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट चिपका दो तो पक्ष-विपक्ष वाले उन पर अपनी राय देने के लिए तैयार रहते हैं। महात्मा की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ नही जानने वाले लोग भी उसके द्वारा की गयी गाँधी हत्या के बारे में अपनी अलग-अलग राय देते हैं।
गाँधी के बारे में आप जानने की जितनी कोशिश करेंगे उतना गहराते चले जाएंगे, उनके बारे में महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने भी कहा था – आने वाली नस्लें शायद ही यकीन करे कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी इस धरती पर चलता-फिरता था।
कश्मीर के इतिहास और समकाल के विशेषज्ञ के रुप में सशक्त पहचान बना चुके और ‘कश्मीरनामा‘ के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय की यह किताब गाँधी को मारने के लिए बीच में आए साजिश और स्रोतों की पड़ताल करती है।
पुस्तक तीन खण्डों में लिखी गयी है। पहले खण्ड में हत्यारों से परिचय कराते हुए लेखक दूसरे खण्ड में उन परिस्थितियों से अवगत कराते हैं जिनमें गाँधी हत्या की पटकथा लिखी गयी, अंतिम खण्ड में अदालती कार्रवाई के बारे में लिखा गया है।किताब की शुरुआत उस गाँधी के बारे में बात करते हुए होती है जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के ऊपर हो रहे अत्याचारों को रोकने की कोशिश करने वहाँ जाना चाहता था।
पहले खण्ड में हत्यारों के जीवन के बारे में ऐसे खुलासे किए जाते हैं जिससे उनके अतीत की पृष्ठभूमि में हत्यारों का पनपना साफ़ दिखाई देता है। लेखक ने तब की मीडिया को लेकर जो खुलासे किए हैं उन्हें देख यह लगता है कि मीडिया आज भी उस स्थिति से बाहर नही निकली है, वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए इतिहास से उठाए गए तथ्यों की वज़ह से ही यह किताब आज पढ़ने योग्य बन जाती है। गाँधी हत्या पर तब के तंत्र पर यह सवाल उठते हैं कि उन्होंने जानकारी होते हुए भी हत्या रोकने के लिए आवश्यक कदम नही उठाए।
खण्ड की यह बात कि नफ़रत की विचारधारा सभी धर्मों के ऐसे अनेक उत्साही और आदर्शवादी युवाओं को आज भी हत्यारों में बदल रही है वर्तमान परिदृश्य में सही साबित होती है। तख़्त पर बने रहने के लिए वाट्सएप यूनिवर्सिटी से युवाओं को नफ़रत का ज्ञान बांटा जा रहा है, सोशल मीडिया पर आधे-अधूरे ज्ञान की भरमार है। यही समझाते पुस्तक साधारण मनुष्यों को दरिंदा बनाने वाली प्रेरणाओं तक पहुंचती है और पाठक इसे समझ भी सकते हैं।
दूसरे खण्ड में गाँधी हत्या के समय घटित हो रही अन्य घटनाओं को क्रमवार बताया गया है, यह वह घटनाएं थी जिनका परिणाम गाँधी हत्या के रूप में सामने आने वाला था। चुन्नीबाई वैद्य का यह कथन कि ‘गाँधी जी कट्टरपंथी हिन्दुओं की राह के कांटे बन चुके थे’। सारी कहानी बयां करता है। ‘केसरी’ में 15 नवम्बर 1949 को छपे एक लेख जिसमें गाँधी के हत्यारों का गुणगान किया गया है की वज़ह से एक विचारधारा की जीत का जश्न साफ दिखाई दिया है।
लेखक ने गाँधी के दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह वाले किस्से को गाँधी के अहिंसा पर चलने वाले रास्ते की शुरुआत बताते हुए उनके और मीर आलम के बीच घटी घटना का जिक्र भी किया है। गाँधी ने अपने हमलावर मीर आलम के लिए अटार्नी जनरल से माफी की मांग करी और बाद में उनसे प्रभावित हो वही मीर आलम गाँधी की रक्षा के लिए एक जगह कटार लिए खड़ा था। एक उद्घाटन समारोह में गाँधी ने सोने-चांदी से लदे महाराजाओं से कहा था ‘ओह यह वही धन है जो किसानों से आया है’। वहीं से विनोबा भावे उनसे मिले थे। किताब में हम यह पढ़ सकते हैं कि कैसे पहले गाँधी के विचार अंग्रेज़ों के प्रति न्यायपूर्ण राज्य वाले थे जो बाद में बदलकर अन्यायपूर्ण राज्य वाले बन गए थे। लेखक गाँधी के विचार जानने के लिए ‘द रिमूवल ऑफ अंटचेबिलिटी’ जैसी किताबें पढ़ने के लिए भी कहते हैं।
पुस्तक हमें यह बताती है कि गाँधी का संघर्ष जातिवाद विरोध कर एक समरस समाज बनाने के लिए था तो सावरकर अन्य धर्मों के खिलाफ़ खड़े होने के लिए हिन्दू एकता बढ़ाना चाहते थे। सावरकर के खत उनके अंग्रेजी शासन के साथ क़रीबी का वर्णन करते हैं। लेखक अपनी किताब से गाँधी के विभाजन के प्रति जिम्मेदार होने वाले तथ्य को भी तोड़ते हैं। पुस्तक गाँधी के आज़ादी के बाद के चिंतन पर भी प्रकाश डालती है। गाँधी के लिए कांग्रेस सत्ता प्राप्ति का जरिया नही थी, उनके लिए यह स्वराज़ के सपने को पूरा करने वाली संस्था थी और गाँधी का स्वराज़ केवल ‘आज़ाद’ भारत नही था।
नोआखली की घटना, दंगो की शांति के लिए गाँधी के प्रयासों के साथ-साथ उनके हत्यारों के निजी जीवन में चल रही उथल-पुथल पर चर्चा करती किताब आगे बढ़ती है। आरएसएस पर गाँधी विचार आज भी परस्पर सत्य साबित होते हैं। लेखक गाँधी के जीवन में कला और संगीत के अभाव की बात करने वालों के लिए भी तथ्य सामने रखते हैं। गाँधी के हत्यारों की वास्तविकता दिखाने के लिए कपूर आयोग की रिपोर्ट्स का हवाला दिया गया है। गाँधी हत्या के बाद पटेल और नेहरू के बारे में कहा गया है कि पटेल हत्यारों को फांसी दिलाना चाहते थे तो नेहरू ने इस पर कोई हस्तक्षेप नही किया था।सावरकर के अंगरक्षक और सचिव के बयानों का वर्णन है जो अदालत में नही रखे गए। हत्या के बाद सावरकर द्वारा सम्पर्क न रखने की वज़ह से गोडसे आहत था, यह बात आज की इस्तेमाल करो और अलग कर दो वाली राजनीति पर भी सही साबित होती है।
तीसरा खण्ड तुम अदालत में झूठ बोले गोडसे में लेखक गोडसे के खुद को सही और महान बनाने की कोशिश करने वाले बयानों को अपने तर्कों से झूठा साबित कर देते हैं। लेखक समझाते हैं कि आम भारतीयों के घर में जिन स्थितियों के बाद विभाजन होता है उन्हीं स्थितियों में ही भारत-पाक विभाजन हुआ था जिसका जिम्मेदार गाँधी को ठहराना गलत है , लेखक इस विचार को मजबूती के साथ रखते हैं कि गाँधी तो बंटवारे के बाद भी दोनों को एक करना चाहते थे।
1857 के बाद अंग्रेज़ों की ‘डिवाइड एन्ड रूल नीति’ जिसमें उनका साथ साम्प्रदायिक हिंदू और मुस्लिमों ने दिया था, विभाजन के लिए जिम्मेदार थी। किताब भगत सिंह पर भी गाँधी की स्थिति स्पष्ट करती है। अंत में लेखक बहुत सी किताबों व अन्य सबूतों को आधार बनाते हुए यह साबित करने में कामयाब होते हैं कि गोडसे भी उसी मानसिक विकृति का शिकार थे जिस धार्मिक कट्टरता की वज़ह से आज दिल्ली दंगों जैसी घटनाएं हो रही हैं और एक युवक पुलिस की तरफ़ पिस्टल ताने खड़े रहता है।
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
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