सामयिक

ग्लोबल शोषण के खिलाफ ग्लोबल संघर्ष की प्रस्तावना है ‘ग्लोबल गाँव के देवता’

 

रणेन्द्र का यह उपन्यास अपने कथानक में स्थानीय से ग्लोबल होते हुए आदिवासियों पर हुए अत्याचार का ऐतिहासिक विवरण देता चलता है जिसकी कड़ी सखुआपाट से होते हुए ट्रेल्स ऑफ फियर, पोकाहांतस तक जुड़ता है। दरअसल इस उपन्यास के लिखने के पीछे लेखक का स्पष्ट उद्देश्य है जिसे निम्नलिखित तरीके से समझा जा सकता है:-

1.सबसे पहला काम इस उपन्यास का है कि उत्तर भारतीय जनमानस के मन से असुर समुदाय से जुड़े तमाम भ्रांतियों को खत्म किया जाए।

2.असुरों और आदिवासी समाज के जीवन, उनके संस्कृति, परंपरा, दर्शन को मुख्य धारा के समाज तक पहुँचाया जाए। इसके साथ ही उनके संघर्ष, शोषण, शहादत को जनता के सामने लाया जाए।

लेखक अपने पात्रों और उनसे जुड़े घटनाओं के विवरण से यह काम बखूबी करते हैं। लेकिन साथ ही एक सजग पाठक से यह उपन्यास अपने पठनीयता के लिए कुछ जरूरी माँग भी रखता है। उसे इस तरह देखा जा सकता है:-

1.पाठक को मुख्यधारा और आदिवासी समाज के सामाजिक गठन और विचार के बीच मौलिक अंतर की जानकारी होनी चाहिए।

2.विकास की अवधारणा, ग्लोबलाइजेशन, पर्यावरणीय आन्दोलन, इसके अन्तर्विरोधों की आधारभूत जानकारी के साथ-साथ कॉर्पोरेट, भारतीय राजनीति, धर्म, पूँजीवाद के आपसी गठजोड़ को समझना बेहद जरूरी है इस उपन्यास के बारे में स्पष्ट दृष्टि विकसित करने के लिए। क्योंकि इसी से जुड़े स्टेकहोल्डर्स ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ हैं।

3.आदिवासी समाज के ऐतिहासिक संघर्ष की तथ्यात्मक जानकारी, सबाल्टर्न पद्धति की समझ, ग्लोबल शोषण के खिलाफ ग्लोबल संघर्ष की रणनीति और अबतक के इतिहास लेखन की सीमाओं की समझ होना इस उपन्यास के मूल उद्देश्यों को समझने के लिए जरूरी है।

क्योंकि लेखक इस उपन्यास में केवल स्थानीय असुर समुदाय के संघर्ष को चिन्हित करने के लिए नहीं लिख रहे। उनका मुख्य उद्देश्य तो ‘ग्लोबल देवता के शोषण के खिलाफ ग्लोबल संघर्ष खड़ा करना है। ‘इसलिए वो बार-बार सखुआपाट से होते हुए अमेरिका, लंदन तक चले जाते हैं। पाठक को इसे और आगे बढ़ाकर अफ्रीका, अमेज़न के जंगलों से होते हुए जपटिस्टों के संघर्ष से जोड़कर देख सकते हैं।

कथानक के विवरण से उपर्युक्त बातों को समझने में मदद मिल सकती है। मास्टर साहब की नियुक्ति भौंरापाट स्कूल में हो गया है। वह वहाँ नहीं जाना चाहते। इसका कारण मध्यवर्गीय सोच, सुरक्षा और सुविधा का सवाल है। जंगल से जुड़े तमाम तरह के अफवाह हैं जो ग्रंथों से होते हुए मुख्यधारा के जनमानस में गहरे बैठा हुआ है। इस अफवाह को और मजबूत किया ग्लोबल गाँव के देवताओं ने। आख़िर क्या बात है कि शरत चंद्र रॉय ने 1912 में ‘द मुंडाज एंड दियर कंट्री’ लिखा उसके बाद भी हिन्दी के विद्वानों ने कभी कोई महत्वपूर्ण लेख, कहानी आदि नहीं लिखा जिससे हिन्दी क्षेत्र में आदिवासियों के प्रति नजरिया बदले।

इसके 99 साल बाद एक उपन्यास आता है तब जाकर हिन्दी पट्टी जान पाती है कि अच्छा(!) असुर सच में एक समुदाय है। आज भी आम जनता असुर और पूरे आदिवासी समाज के बारे में यही सोचते हैं कि वे बर्बर होते हैं और पेड़ के छाल पहनते हैं। बीएड के ट्रेनिंग के दौरान मैं सरकारी और हाई प्रोफाइल कान्वेंट स्कूलों में पढ़ाया। आदिवासियों को लेकर अबतक आदमखोर वाला ही सोच बच्चों में है। अभी बारहवीं के आर्ट्स के विद्यार्थियों को भी ऐसा ही लगता है। यह घटना 2021 की है। जबकि गया और राँची आसपास ही है। यह क्षेत्र जो कभी असुरों का रहा, उनके नाम पर इस शहर का नामकरण है ‘गया जी’। भारत में शायद ही कोई ऐसा शहर है जिसके अंत में ‘जी’ लगा हो। इतना सम्मान के बावजूद असुरों के बारे में भ्रामक जानकारियाँ ही हैं लोगों में। यही कारण है कि जब मास्टर असुरों की धरती पर जाते हैं, उनके रंग गेहुँआ देखते हैं तो चकरा जाते हैं। दरअसल पूरा मुख्यधारा ही इस विषय पर चकराया हुआ है।

   यह कितना हास्यास्पद लगता है कि मुख्यधारा धारा के समाज को आदिवासी बर्बर लगता है जबकि वे कभी भी मुख्यधारा के जीवन में हस्तक्षेप की इच्छा नहीं रखते। वहीं मुख्यधारा जबर्दस्ती उनके जीवन में न केवल हस्तक्षेप करता है बल्कि उनका निर्मम शोषण करता है, उनके किए गए एहसानों को भूलकर उनका नरसंहार करने का हर सम्भव प्रयास करता है। यहाँ बर्बर मुख्यधारा है। लेखक शुरुआत में ही लिखते हैं ‘ जहाँ से बाक्साइट निकाले जा चुके थे वे गड्ढे भी मुँह बाए खड़े थे। मानो धरती माँ के चेहरे पर बड़े-बड़े धब्बे हों। ‘ यह वाक्य मुख्यधारा के विकास और उनकी दृष्टि की आलोचना है।

यह लेखक की भाषा की ताकत है जो एक वाक्य में ‘सभ्य बनाम पिछड़े’ के बहस को उलट कर देखने की माँग करता है। यह वाक्य वह दरवाजा है जहाँ से पाठक इतिहास लेखन, राजनीतिक विचारों, आर्थिक नीतियों की आलोचना एक साथ परख कर सकता है। यह ‘चेचक’ जानलेवा है आदिवासियों के लिए। यह विकास से पैदा हुआ चेचक है जिसमें एक स्कूल बनाने के लिए सौ असुरों के घर उजड़ते हैं लेकिन तीस साल में एक भी असुर का बच्चा वहाँ प्रवेश नहीं पाता। अगर वे इसका विरोध करेंगे तो मारे जाएंगे। इन्हीं आशंकाओं के कारण वंदना टेटे को लिखना पड़ता है:-

 ‘मैं भी पुल बनते देखना चाहता हूँ
पर डरता हूँ कि इसके बाद कहीं
मेरी बेटी आया, रेजा न बन जाए
एम.ए पास बेटे को नक्सली करार देकर
मार दिया जाएगा। ‘ (कोनजोगा कविता संग्रह से)

‘असली स्कूल बनाम मनभावन स्कूल’ यूँ ही लेखक नहीं लिख रहे हैं। यह वास्तविकता है। यह केवल आदिवासी क्षेत्रों की नहीं पूरे भारतीय शिक्षा व्यवस्था का अनुभव है। इसी अंतर को बनाए रखने के लिए ‘मॉडल स्कूल’ का प्रपंच रचा गया है। यह विचार ही भेदभाव युक्त है। सभी स्कूल मॉडल स्कूल क्यों नहीं हैं इसपर बहस होनी चाहिए। गरीब बच्चा मजदूर बनकर मॉडल स्कूल के अमीर बच्चों की जी हुजूरी करे यह व्यवस्था तो भारतीय शिक्षा व्यवस्था आजादी के बाद से ही बनाकर रखा हुआ है। ऐसी मानसिकता से आदिवासी समाज खूब परिचित है। लेखक इसी चालाकी को पकड़ते हैं भारतीय राजनीति और उसकी नीतियों की पोल खोलते हैं।

      लेखक इसी बहाने उपन्यास (समाज) में मौजूद विभिन्न सत्ता समूहों और उसके साझीदारों की पहचान करते हैं और इससे संघर्ष करने के लिए आदिवासी दर्शन और ऐतिहासिक-वाचिक स्मृतियों का सहारा लेते हैं। सत्ता समूह में स्थानीय गोनू सिंह जैसे लोग हैं और बाहरी ताकत के रूप में माइंस अधिकारी, बाबा और इन सबसे ऊपर वेदांता जैसे कंपनियों के मालिक हैं। सबका हिस्सा बाँट दिया गया है। ये सभी सत्ता समूह को असुर और आदिवासी समाज के भीतर घुसपैठ करने में मदद कर रहे हैं। भटके हुए आदिवासी युवक-युवतियाँ और कुछ लालची आदिवासी ठेकेदार। ये सब मिलकर पहले उस पूरे समुदाय को विकास और देश का दुश्मन सिद्ध करते हैं और फिर हमला बोलते हैं।

जिस तरह राज्य नक्सल से लड़ने के लिए समानांतर संगठन खड़ा करता है, उसी तरह कॉर्पोरेट स्वयंसेवी संस्था, वाइल्ड लाइफ संस्था खड़ी करती है। इनका काम महीन तरीके से जंगल को अपने अधीन करके, जंगली जीवों को आदिवासियों से खतरा है का नारा देकर, असुरों को विस्थापित करके उनकी जमीनें कॉरपोरेट को देना है। जिसकी अंतिम परिणति नक्सल घोषित करके एनकाउंटर होता है या लैंड माइंस विस्फोट में उड़ा देना होता है। इन सब में धर्म बड़ा रोल निभाता है। मजेदार बात है कि पूँजीवाद भारत में धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ नहीं पाया। फलस्वरूप विदेशी कंपनी को वेदांता नाम रखना पड़ रहा है। सरकार बदलते ही कोलगेट अपने टूथपेस्ट को वेदशक्ति टूथपेस्ट में बदल ले रहा है, तनिष्क को अपना विज्ञापन वापस लेना पड़ता है। धर्म के सहयोग से असुर समुदाय को विकास विरोधी बताकर जमीनें हथिया ली जाती हैं, पशुधन में हिस्सा फिक्स किया जाता है, आदिवासियों को जंगल के लिए खतरा बताया जाता है। जबकि वन कानून का इतिहास बताता है कि जंगल में उन्होंने घुसपैठ किया और जंगल बर्बाद उनके कारण हो रहा है।

 आदिवासी समाज इससे लड़ने के लिए इतिहास, भाषा और पुरखों का सहारा लेता है। जैसे असुर जानते हैं कि उरांव, खेरवार, सदान उनसे साँस्कृतिक रूप से थोड़ा अलग हैं। सिंगबोंगा का प्रसंग, असुरों का पीछे हटना ये प्रसंग बाकी आदिवासियों से उन्हें अलग बनाता है। इसके बावजूद वे अपनी ताकत की पहचान करते हैं। वाणासुर, बकासुर, घासी, कुंअर, मुंगी नदी घाटी, आग की खोज, लोहा गलाने की कला उन्हें उनकी जड़ों से जोड़ता है। यहाँ यह कहना उचित होगा कि इतिहास लेखन में बिना वाचिक प्रसंगों को समाहित किए आदिवासी इतिहास लेखन तो मुकम्मल नहीं होगा। यही कारण है कि लेखक को लिखना पड़ा ‘पराजित जाति की कहानियाँ इतिहास के पन्नों के बाहर समय के दरवाजे को थरथरा रही थी। ‘

      एक तरफ असुर अपने इतिहास को पुनर्जीवित कर रहे हैं तो दूसरी तरफ यह प्रस्ताव भी रख रहे हैं कि उरांव, सदान, खेरवार सब मिलकर यह लड़ाई लड़ें। इतिहास में वर्तमान परिस्थितियों को जोड़कर तथ्यात्मक तरीके से विश्लेषण का सहारा लेकर ललिता और रुमझुम संघर्ष को बौद्धिक स्तर तक ले जाते हैं। ललिता जिस तरह शिवबाबा के कंठीधारण कार्यक्रम का प्रतिकार करती हुई महादेव के असुर संस्करण की बात रखती है उससे साफ झलकता है कि वह ‘इतिहास में जगह बनाने के लिए, इतिहास से लड़ना पड़ता है’ वाली अवधारणा में विश्वास रखती है। यही हाशिए की वैचारिकी या सबाल्टर्न दृष्टिकोण है जिसकी जड़े ललिता पुरखों के स्मृतियों से खोजकर निकालती है।

रुमझुम का उदासी गीत संसाधनों और जमीनों की लूट की व्यथा है। इसे पाठक इस रूप में देख सकते हैं कि अफ्रीका में मात्र 40 हजार किलोमीटर सड़क है। जिसमें अकेले 18 हजार किलोमीटर दक्षिण अफ़्रीका के माइनिंग वाले इलाके में है। यह तथ्य जंगलों के असली हत्यारे की पहचान कराती है। दूसरी तरफ दुनियाभर के पर्यावरण बचाने के आन्दोलन की शुरूआत आदिवासियों ने किया। भारत में ही 1973 में चिपको आन्दोलन हो या नर्मदा, कोयलकारो, नियमगिरि और तमाम पर्यावरण आन्दोलन। आदिवासी प्रतिबद्ध दिखाई दिए। तब भी आदिवासी ही दोषी है! इसलिए जब रुमझुम पत्र लिखता है तो वह ‘असुर समाज के शोषण का शोकपत्र’ हो जाता है।

‘ यह स्थिति उस तथ्य से जुड़ता है कि ‘भूख से मरना भूख पर नियंत्रण करने का तरीका है’। पाठक इसे जोनाथन स्विफ्ट के व्यंग्यात्मक रचना ‘मॉडेस्ट प्रपोजल (1729)’ से जोड़कर देख सकते हैं। जिसमें लेखक सरकार से प्रस्ताव रखते हैं भुखमरी से बचने के लिए सरकार गरीबों के भ्रूण को ही खरीद ले, उसका माँस बेचे। इससे सरकार को आमदनी भी होगी, अमीरों को भोजन भी मिल जाएगा और गरीब का बोझ भी कम होगा। असुर समुदाय की स्थिति इससे अलग है क्या? आर्थिक अभाव में जूझते लोग हर तरह से मरने को मजबूर हैं। लड़ते हुए मर रहे हैं तो न्यूजपेपर में नक्सली कहा जा रहा। डेथ स्क्रिप्ट में पत्रकार-लेखक आशुतोष भारद्वाज ने इसी न्यूज़ बनने की प्रक्रिया को दिखाया है। अनिल यादव अपनी कहानी ‘नगर वधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं’ में बताते हैं कि हाशिए (कहानी में वेश्या) के लोगों के बारे में खबरें कैसे मैन्युफैक्चरिंग होती है। यहीं उपन्यासकार अपना कैनवास बड़ा करके राष्ट्र राज्य और ग्लोबलाइजेशन के डेडली कॉम्बिनेशन का क्रूरतम रूप पाठक के सामने रखते हैं। यह सीधे आदमी को आदमखोर बनाने से जुड़ते हुए स्टेट स्पॉन्सर्ड राष्ट्रवाद की आलोचना से जुड़ जाती है।

अब तो हालात यह है कि विश्वविद्यालयों से इस तरह की रचनाएँ ही हटाई जा रही हैं। शहर, मुख्यधारा अब और दूर हो जाएगा आदिवासी समाज से।

 असुरों का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ है। उन्हें मुख्यधारा के भाषाई क्रूरता से भी लड़ना है। लेखक इसको समझते हैं। इसलिए आदिवासी पात्र स्थानीय भाषा बोल रहे हैं, सहजीविता की भाषा बोल रहे हैं। उदाहरण के लिए वो जनानी की जगह सियानी का प्रयोग कर रहे जिसका अर्थ है ‘समझदार’। इसी तरह जब वो नाचते हैं तब लेखक को लगता है ‘झूमर नाच मानो हरे-भरे खेत मे हवा बह रही हो और फसल हवा के संग झूमकर झुक रही हो, उठ रही हो, बाँस का जंगल लचक-लचक कर किलोल कर रहा हो। ‘ यह भाषा प्रकृति और आदिवासी समाज के सहजीविता की भाषा है। यह उस भाषा का प्रतिरोध है जो कहते हैं ‘ओल को गलाना और कोल को समझाना कठिन है। ये लात के देवता हैं, कोल-बकलोल आदि’।

मतलब जो अपने अधिकार के लिए लड़ रहा है वह बकलोल है, लात का देवता है। यह भाषा केवल मुख्यधारा के आम नागरिकों की नहीं है। यह बुद्धिजीवियों की भाषा भी है। 1939 में रामचंद्र शुक्ल की किताब आती है ‘चिंतामणि’। इसमें ‘श्रद्धा- भक्ति’ नामक लेख में लिखते हैं जो ज्यादा सिद्धांत वाक्य कहता हो उसे चट कहना चाहिए:-‘बस चुप रहो, तुम्हें बोलने की तमीज नहीं, तुम बच्चों का कोल भीलों के पास जाओ’। मतलब कोल-भील के पास कोई सिद्धांत, नैतिकता या आदर्श नहीं है। यह सभ्य बनाने की थ्योरी ही है। यही बात फ्रांसिस बुकानन ने पहाड़िया आदिवासियों के लिए कहा था। जो काम अंग्रेज कर रहे थे वही काम बाद में भारतीय बुद्धिजीवी आदिवासियों के लिए कर रहे थे।

इसलिए इस उपन्यास में मास्टर बाहरी व्यक्ति तो है लेकिन कहता है’ बाहरी आदमी का भाव लोप होना जरूरी है’। इसके बावजूद उसके अंदर बाहरी तत्व हैं जो भाषा के माध्यम से आए हैं। मुख्यधारा की यौनिकता ही है कि मास्टर को सपने में वक्षस्थल, नितंबों का ध्यान आ रहा है। एक रूमानी भावना तो आ ही गया है। मास्टर की यौनिकता उसे बार बार आदिवासी स्त्रियों के शरीर निहारने पर मजबूर करती है। इस अंतर्विरोध को ललिता पकड़ लेती है और कहती है ‘आपकी देह से एक औरत की गंध आती है मास्टर’। यह शक अकारण नहीं है। यह दिकूओं के कारण है। यह एक अविश्वास है। लेकिन मास्टर संभालता है खुद को। यही आत्मसंघर्ष उसे आदिवासियत से जोड़ती है जिसके कारण उसका ललिता से सहियापन हो जाता है। यह सहियापन आदिवासी संघर्ष में नई कड़ी जोड़ता है जिसमें यह भाव है कि जो आदिवासियत को समझेगा वह दिकू नहीं होगा। वह संघर्ष के लिए यूनिवर्सिटी से लौटते सुनील के साथ खड़ा होगा और ग्लोबल गाँव के देवता के लिए नई चुनौती खड़ा करेगा।

इस तरह यह उपन्यास अपने कथ्य, शिल्प और विचार तीनों स्तर पर हिन्दी के उपन्यास को नई दिशा देता है। यह बताता है कि कम शब्द खर्च करके किसी मुद्दे को लोकल से ग्लोबल कैसे बनाया जाता है।

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महेश कुमार

लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में स्नातकोत्तर (हिंदी विभाग) छात्र हैं। सम्पर्क +917050869088, manishpratima2599@gmail.com
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