मुस्लिम मतदान की राजनीति और उसका उभरता स्वरूप
अठारहवीं लोक सभा के आए परिणाम के सन्दर्भ में मुस्लिमों के मतदान को लेकर दो तरह की बातें हो सकती हैं। एक तो यह कि अभी के टिप्पणीकारों का एक वर्ग उसी पुराने तर्क को दुहराता है कि मुस्लिम हमेशा भाजपा को हराने वाली रणनीति पर चलते हैं, इसे पूरी तरह गलत भी नहीं ठहराया जा सकता है। यह सच है कि भाजपा का चुनाव अभियान मोदी केन्द्रित और हिन्दुत्व केन्द्रित ही रहा। अपने मूल मतदाताओं तक पहुँचने के लिए भाजपा अपने मुस्लिम विरोधी बयानबाजी पर ही बहुत ज्यादा निर्भर रही। इस लोक सभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त करने में भाजपा की विफलता को इस रणनीति के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है। यह दावा किया जाता है कि धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के भाजपा के प्रयास ने पूरे देश में मुस्लिम मतदाताओं को गैर- भाजपा उम्मीदवारों को वोट देने के लिए उत्साहित किया।
दूसरी बात यह कि इस बार इण्डिया गठबन्धन को मुस्लिम मतदाताओं का जो पुरजोर समर्थन मिला, इस बात पर चर्चा से गठबन्धन ने बचने की कोशिश की है। कुछ को छोड़ कर सभी गैर-भाजपा पार्टियों की यह सफलता मुस्लिम मतदाताओं के इस समर्थन के बिना लगभग असम्भव थी पर इस बात को सार्वजनिक तौर पर वे स्वीकार करना नहीं चाहतीं। यह एक रणनीतिक चुप्पी है। क्योंकि ऐसी स्वीकारोक्ति उनके हिन्दू मतदाताओं को उनसे नाखुश कर दे सकती है। हमें ऐसी जानकारी है कि भाजपा के राजनीतिक विरोधियों और मुस्लिमों के बीच एक गुपचुप समझदारी बनी हुई है। वे एक दूसरे को समझते हैं और उसी के अनुसार परस्पर लाभ पहुँचाने वाली रणनीति तय करते हैं।
लेकिन सीएसडीएस का चुनाव-पश्चात सर्वे मुस्लिम मतदाताओं से सम्बन्धित उपरोक्त व्याख्या को और आगे ले जाता है। यह सर्वे वर्तमान मुस्लिम राजनीति और चुनाव में इसके स्वरूप की जटिलता से हमारा परिचय कराता है। इसे विश्लेषित करने और समझने के लिए तीन मौलिक प्रश्न उठाये जा सकते हैं। पहला, क्या इस बार मुस्लिम समुदाय ने हिन्दू समुदाय की अपेक्षा अधिक सक्रियता से मतदान किया? दूसरा, क्या उनलोगों ने एक संगठित समुदाय और एक वोट बैंक की तरह वोट दिया? और तीसरा और अन्तिम, क्या उन्होंने भाजपा को हराने के लिए मतदान किया?
हमें यह याद रखना चाहिए कि पिछले दस वर्षों में मुस्लिम समुदाय ने चुनावी राजनीति को कभी छोड़ा नहीं है। यह भी सच है कि 2014 के बाद से हिन्दुओं का वोट प्रतिशत काफी बढ़ा है (लगभग 70 प्रतिशत), जबकि मुस्लिमों का एक सा रहा है (लगभग 59 प्रतिशत), 2019 में मुस्लिमों का वोट प्रतिशत कुछ बढ़ा था (60 प्रतिशत)। पर आश्चर्य है कि 2024 में यह रवैया नहीं बदला। हमारे आंकड़े कहते हैं कि 68 प्रतिशत हिन्दुओं ने बताया कि इस बार उन्होंने मतदान किया जबकि मुस्लिमों का वोट प्रतिशत 62 प्रतिशत रहा। इसका सीधा-सीधा अर्थ है कि इस बार मुस्लिमों की अपेक्षा हिन्दुओं की भागीदारी काफी ज्यादा रही। यह तथ्य इस आम धारणा को झुठलाता है कि मुस्लिम मतदान हमेशा एक रणनीतिक कदम रहा है।
यह हमें अब दूसरे प्रश्न की तरफ ले जाता है। एक मजबूत धारणा बनी हुई है कि मुस्लिम समुदाय राजनीतिक रूप से एकजुट और धार्मिक रूप से एक संगठित समुदाय है । यह एक कल्पना है, जो गलत है, कम से कम मतदान को लेकर। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर काँग्रेस पार्टी मुसलमानों की पहली पसन्द रही। काँग्रेस पार्टी ने लगभग 37 प्रतिशत मुस्लिम वोट पाया। गठबन्धन ने भी अच्छा किया, उसे लगभग 26 प्रतिशत वोट मिले। इसका यह अर्थ नहीं है भाजपा सहित दूसरी पार्टियों को मुस्लिम वोट नहीं मिले। यह पाया गया है कि देश भर में लगभग 8 प्रतिशत मुस्लिम वोट भाजपा को मिले। आँकड़ों के आधार पर कहें तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा मुस्लिम मतदाताओं की तीसरी पसन्द रही।
हालाँकि, इस बात को अतिरंजित नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि राज्य स्तरीय मुस्लिम वोट पैटर्न चीजों को और स्पष्ट करता है। इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य दो बातें हैं। एक तो यह कि जहाँ भाजपा का एक प्रमुख पार्टी से सीधा मुकाबला था, वहाँ भाजपा का मुस्लिम वोट शेयर बढ़ा। जैसे कि गुजरात में मुख्य विपक्षी पार्टी काँग्रेस को 70 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले, तो दूसरी ओर भाजपा ने भी अच्छा किया, उसे विभिन्न चुनाव क्षेत्रों को मिलाकर उसके उम्मीदवारों को 27 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले। दूसरी यह कि राज्य स्तरीय मुस्लिम मतदान का एक और पैटर्न रहा। जिन राज्यों में बहुकोणीय मुकाबला रहा, वहाँ मुस्लिम वोट ज्यादा बिखरे रहे। पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। पश्चिम बंगाल में ऑल इण्डिया तृणमूल काँग्रेस (एआईटीसी) मुस्लिम वोटों का लाभ पाने वाली प्रमुख पार्टी बन कर उभरी। पार्टी ने 73 प्रतिशत मुस्लिम वोट पाये, जबकि काँग्रेस ने 8 प्रतिशत। यही बात यूपी में भी है। सपा 77 प्रतिशत मुस्लिम वोट पाकर राज्य की प्रमुख पार्टी रही। इसकी सहयोगी काँग्रेस ने भी राज्य में अच्छा किया (15 प्रतिशत)। हाँ, भाजपा का प्रदर्शन बहुत ही खराब रहा। पार्टी को सिर्फ 2 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले। यह दिखाता है कि मुस्लिम मतदान का चरित्र राज्य-स्तरीय है। यह उल्लेखनीय तरीके से मुस्लिम वोट के विविध स्वरूप को दर्शाता है।
इन्हीं आँकड़ों का दूसरी तरह भी अर्थ लगाया जा सकता है। सीएसडीएस (लोकनीति) का पिछला अध्ययन बताता है कि मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग भाजपा से दूर है। और, निस्सन्देह इस चुनाव में भाजपा के स्पष्ट मुस्लिम विरोधी रुख ने अलगाव की इस मानसिकता को और बढ़ाया। यह उन प्रमुख कारणों में से एक है, जिसके चलते इस बार भाजपा का मुस्लिम वोट शेयर नीचे आया। हालाँकि, इसका यह अर्थ भी नहीं है कि भाजपा को हराना ही एक मात्र वह उद्देश्य है, जो मुस्लिम मतदाता को वोट देने के लिए प्रेरित करते हैं। सीएसडीएस (लोकनीति) का चुनाव के ठीक पहले का सर्वे यह उजागर करता है कि बेरोजगारी, महँगाई और विकास की कमी भी वे मुद्दे रहे, जिन्हें मुस्लिमों ने इस चुनाव में तावज्जोह दी। हमारे चुनाव पश्चात सर्वे में भी इस बात की पुष्टि हुई। दूसरे सामाजिक समुदाय की तरह मुस्लिमों ने भी उन मुद्दों और चिन्ताओं को लेकर मत दिये, जो उनके सामाजिक और आर्थिक अस्तित्व को प्रभावित करते हैं। यह भी सही है कि राजनीति के मुखर साम्प्रदायिक स्वरूप और अलग-थलग पड़ जाने के भय ने मुस्लिम मतदाताओं की प्राथमिकता को प्रभावित किया। फिर भी, मुस्लिम मतदाताओं ने राज्य स्तरीय ज्वलन्त मुद्दों को प्राथमिकता दी और उसी के अनुसार मतदान किया।
2024 में मुस्लिम चुनावी व्यवहार की यह बारीक तस्वीर इस तथ्य को रेखांकित करती है कि मुस्लिम समुदायों को लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में जबरदस्त विश्वास है। इस तथ्य के बावजूद कि पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम पहचान को पूरी तरह से बदनाम कर दिया गया है, मुस्लिम मतदाता राजनीति से दूर नहीं गये हैं। साथ ही, उन्होंने इस आरोप को भी खारिज कर दिया है कि धार्मिक और/या साम्प्रदायिक सरोकार उनके लिए प्रेरक कारक हैं। वास्तव में, मुस्लिम समुदायों ने सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया है कि चुनावी क्षेत्र में धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक राजनीति अभी भी सम्भव है।