महात्मा बुद्ध और उनका जीवन संदेश
- राजीव कुमार झा
आज बुद्धपूर्णिमा का पावन त्योहार है। इसी दिन महात्मा बुद्ध को बोधगया में यहाँ निरंजना नदी के पावन तट पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे बारह वर्षों की कठोर तपस्या के उपरान्त संबोधि ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। पीपल के इस वृक्ष को बौद्धधर्म में बोधिवृक्ष के नाम से पुकारा गया है। मौर्य सम्राट अशोक के बारे में यह कथा है कि उसका पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा जब बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए जब श्रीलंका गये थे तो अपने साथ बोधिवृक्ष की एक टहनी को लेकर भी गये थे। यहाँ का बोधिवृक्ष सदियों से सारे संसार में ज्ञान साधना और जीवन की शुभ्रचेतना का प्रतीक माना जाता है। बुद्ध ने सारे संसार को सहिष्णुता और शांति का संदेश दिया।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के परम मित्र और भक्त सुदामा बेहद गरीब थे। उस समय सुदामा की पत्नी ने उन्हें अपने मित्र श्रीकृष्ण से सहायता मांगने की सलाह दी। इसके बाद सुदामा ने भगवान से एक बार पूछा- हे भगवान ऐसा कोई उपाय बताएँ, जिसे करने से गरीबी दूर हो जाए और मानव का कल्याण भी हो। तब भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा से कहा- हे ब्राह्मण, जो भी व्यक्ति पूर्णिमा के दिन भगवान श्रीहरि विष्णु जी की पूजा-आराधना और व्रत करता है, उसके जीवन से गरीबी जल्द दूर हो जाती है और उसके जीवन में मंगल का आगमन होता है। कालान्तर में सुदामा ने पूर्णिमा का ही व्रत किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र की सहायता कर उनकी गरीबी दूर की थी।
ऐतिहासिक स्रोत
ऐतिहासिक स्रोतों का अगर हम अवलोकन करें तो यह ज्ञात होता है कि कालान्तर में बोधगया में भी शासकों राजाओं की धार्मिक असहिष्णुता की अनेक घटनाएँ घटित होती रहीं और प्राचीन गौड़ के राजा शशांक ने बोधगया के बोधिवृक्ष की टहनियों को कटवाकर उसे नुकसान पहुँचाया था। बुद्ध कपिलवस्तु के राजकुमार थे और उनके पिता का नाम शुद्धोदन था। वे बचपन से ही संसार में मानव जीवन में व्याप्त दुखों को देखकर विचलित रहते थे और एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को अर्द्धरात्रि में सोता छोड़कर गृहत्याग करके उन्होंने संन्यास धारण कर लिया था। बौद्धधर्म में बुद्ध के गृहत्याग की यह घटना महाभिनिष्क्रमण के नाम से प्रसिद्ध है।
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बोधगया में ज्ञानप्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध प्राचीन बनारस के पास स्थित सारनाथ चले आये और यहाँ उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश दिया। बौद्ध धर्म के इतिहास में इसे धर्मचक्र प्रवर्तन के नाम से पुकारा जाता है। महात्मा बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म दर्शन में सांसारिक जीवन की बातों को जानने समझने के लिए किसी तथ्य की व्याख्या और उसके विश्लेषण के कार्य कारण सूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित चत्वारि आर्य सत्यानि के अलावा आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। महात्मा बुद्ध का देहान्त कुशीनगर में हुआ। यहाँ एक प्राचीन बौद्ध विहार से भूमिशयन मुद्रा में पीतल से निर्मित उनकी एक विशाल मूर्ति भी प्राप्त हुई है। वे धर्म प्रचार के लिए सारे देश का भ्रमण करते रहते थे और वर्षा ऋतु में राजगृह की पहाड़ियों में गृद्धकूट पर्वतचोटी पर स्थित एक शैल आश्रय में रहते थे।
सारे संसार में भारतीय धर्म संस्कृति के प्रसार में महात्मा बुद्ध के द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। प्रसिद्ध प्राच्यविद् मैक्समूलर ने ईसाई धर्म में दया-करुणा और क्षमा की भावना के मूल में बौद्ध धर्म के जीवनादर्शों को स्थित माना है। महात्मा बुद्ध के विचारों का प्रचार-प्रसार सारी दुनिया में हुआ और आज भी चीन, वियतनाम, कोरिया, जापान और तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायी काफी तादाद में रहते हैं।
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में वैदिक ब्राह्मण धर्म की रूढियों और कुरीतियों के विरुद्ध चिन्तन करने वाले दार्शनिकों विचारकों में महात्मा बुद्ध का नाम सर्वोपरि है और हमारे देश की सभ्यता – संस्कृति पर उनके विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। भारत में ग्यारहवीं – बारहवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का पतन हो गया लेकिन जीवन में शांति-मैत्री से जुड़े उनके विचारों की प्रासंगिकता हर काल में कायम रहेगी।
लेखक शिक्षक और स्वतन्त्र टिप्पणीकार हैं।
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